Thursday 30 June 2011

पुलिस के डंडे से चोटग्रस्त लोकतंत्र

विधि आयोग की रिपोर्ट में आगे कहा है कि सुप्रीम कोर्ट ने उक्त स्थिति में व्याप्त विषमता को( कस्तुरी लाल बनाम उतरप्रदेश में )  माना है और तदनुसार राज्य के दायित्व को ऐसे मामलों में परिभाषित करने के लिए कानून बनाने की  सिफारिश की है किन्तु तब से 36(अब 46) वर्ष से अधिक व्यतीत होने के उपरांत भी राज्य आगे नहीं बढ़ा है .इसी सन्दर्भ में आँध्रप्रदेश उच्च न्यायालय ने चल्ला रामकृष्ण रेड्डी के मामले में धारित किया है कि जहाँ नागरिक के मूल अधिकारों का  हनन होता है संप्रभुता का बचाव उपलब्ध नहीं होगा .इस निर्णय की सुप्रीम कोर्ट ने भी ( ए आई आर 2000 सु को 2083 में  ) पुष्टि कर दी है .फर्जी मुठभेड़ और हिरासत में मौत के प्रकरणों में हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट सांकेतिक व  अंतरिम क्षतिपूर्ति की रकम स्वीकार करते रहे  हैं और क्षतिग्रस्त पक्षकारों के लिए क्षतिपूर्ति  का मामला उचित मंच द्वारा निर्धारण के लिए स्वतंत्र छोड़ते रहे हैं. यह एक स्पष्ट तथ्य है कि वर्तमान भारतीय दशाओं में पुलिस ज्यादतियों के विरुद्ध राज्य के विरुद्ध दावा एक टेढ़ी खीर है .उपरोक्त समस्त कारणों से अनुचित या विधिविरुद्ध गिरफ़्तारी के लिए सिद्धांततः यद्यपि एक नागरिक को कानून में  उपचार उपलब्ध हैं किन्तु व्यावहारिकतया उपचार शून्य हैं .

रोजमर्रा की  स्थिति यह है कि जब कभी गिरफ़्तारी को अवैध , अनुचित या अवांछनीय पाया जाता है तो कई बार व्यक्ति को शर्तरहित छोड़ दिया जाता है .बस जो कुछ होता है वह इतना ही है . जिस पुलिस अधिकारी ने किसी व्यक्ति को अवैध या अनुचित रूप से गिरफ्तार कर उसकी  स्वतंत्रता में हस्तक्षेप  किया या व्यक्ति को पुलिस अभिरक्षा या अन्यंत्र रोके रखा गया का कुछ नहीं बिगड़ता है .इस स्थिति  ने वास्तव में कुछ पुलिस अधिकारियों को अपनी स्थिति  का दुरूपयोग करने और विभिन्न छुपे कारणों के लिए नागरिकों का उत्पीडन करने का दुस्साहस और बढ़ा दिया है .वे अपनी जानकारी के अनुसार कोई भी विधिविरुद्ध या अवैध कार्य करते हुए भी सुरक्षित हैं क्योंकि यह सेवा में उनके भविष्य और संभावनाओं को  प्रभावित नहीं करेगा जो कुछ होगा गिरफ्तार व्यक्ति न्यायालय द्वारा छोड़ दिया जायेगा .पुलिस अधिकारियों के लिए कुछ प्रतिबन्ध ,दायित्व और दण्ड का प्रावधान कर इस स्थिति  का उपचार करना है .

हाँ चूँकि एक व्यक्ति का अभियोजन नहीं किया गया या दोषसिद्ध नहीं हुआ महज इस कारण इसका आवश्यक रूप से यह अर्थ नहीं है  कि गिरफ़्तारी अवैध या दुर्भावनापूर्ण थी .किन्तु जहाँ न्यायालय यह पाता है कि गिरफ़्तारी पूर्णतया अनुचित थी या शक्ति के दुरूपयोग का एक उदाहरण था तो न्यायालय को पुलिस अधिकारी के विरुद्ध स्वप्रेरणा से या पक्षकार के आवेदन पर उचित आदेश पारित करने की शक्ति होनी चाहिए .वास्तव में जहाँ गिरफ़्तारी अवैध या पूर्णतया अन्यायोचित या शक्ति का दुरूपयोग पायी  जावे ऐसे आदेश पारित करने का दायित्व न्यायालय का होना चाहिए .

राष्ट्र की सभ्यता का मूल्यांकन मुख्यतया उन तरीकों से किया जाना चाहिए जोकि अपराधिक न्याय को लागू करने में प्रयुक्त होते हैं.ब्रिटिश शासन काल में भ्रष्टाचार सामान्यतया पुलिस सहित सभी निचली एजेंसियों में हुआ करता था जोकि सामान्यतया प्रशासन को आम लोगों से अलग करता था . वास्तविक अर्थों में निचले स्तर की नौकरशाही को लोगों से इस प्रकार अलग रखना किन्तु शासकों के प्रति पूर्णतः स्वामिभक्ति ब्रिटिश लोगों को रास आती थी .द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान भ्रष्टाचार के लिए गुंजाईश पर्याप्त बढ़ गयी  क्योंकि युद्ध के कारण आपूर्ति एवं ठेकों में सरकारी खर्च में भारी बढ़ोतरी हो गयी थी .पुलिस के रोजमर्रा के कार्य में कई स्तरों पर भ्रष्टाचार एवं उससे जुडी अस्वस्थ परिपाटियों के लिए गुंजाईश उत्पन्न होती है , एक मामले के दर्ज होने से लेकर , गिरफ्तार करने या न करने , उद्दापन ,सिविल मामले में हस्तक्षेप , झूठी गवाही रचने,व्यापारियों ( और अन्य अवैध कार्य करने वालों )से हफ्ता वसूलने और इसी प्रकार अन्य .

गिरफ्तार करने की शक्ति पुलिस द्वारा उद्दापन और भ्रष्टाचार का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत है .जिस क्षण पुलिस द्वारा संज्ञेय शिकायत पर मामला दर्ज किया जाता है उन्हें जो कोई भी अपराध से सम्बंधित हो को गिरफ्तार करने की शक्ति मिल जाती है .पूरे देश भर में पुलिस प्रतिदिन बड़ी संख्या में धारा 41 (1) (क ) के अंतर्गत गिरफ्तारियां करती है. उक्त विवरण से स्पष्ट है कि गिरफ्तारियों का अधिसंख्य भाग बहुत छोटे अभियोजनों से सम्बंधित है इसलिए इसे अपराधों की रोकथाम के लिए बिलकुल आवश्यक नहीं समझी जा सकती. यह सर्वविदित है कि कई बार शिकायतकर्ताओं द्वारा विशिष्ट शत्रुओं को गिरफ्तार करवाकर अपमानित करने या व्याकुल करने के लिए पुलिस के साथ मिलकर भ्रष्ट कारणों से झूठे आपराधिक मुकदमे बनाये जाते हैं.

संसदीय समिति ने सुझाव दिया है कि न्यायिक अभिरक्षा में मृत्यु , गायब होना और बलात्कार की घटनाओं को प्रस्तावित संशोधनों के दायरे में लाया जाना चाहिए .यह भी प्रस्तावित किया गया है कि पुलिस/न्यायिक  हिरासत में मृत्यु पर शोक संतप्त परिवार के पात्र सदस्यों को नौकरी या रु 1500पेंशन दिए जाने का सुझाव दिया है .लोकतंत्र में जहाँ लोग स्वामी हैं और लोक सेवक विशिष्ट कार्य करने के लिए उनके एजेंट हैं , अतः भय का विचार पूर्णतः नामंजूर एवं अस्वीकार्य है .भय गलत कार्य करने का होना चाहिए . ब्रिटिश  समाज एक उदाहरण है जहाँ पुलिस कानून व व्यवस्था अधिक बेहतर तरीके से मित्रवत बनाये रखती है .मात्र न्यायालय द्वारा दण्डित किये जाने का भय ही वास्तव में विद्यामान रहना चाहिए .

मेरा मत है कि एक सर्वेक्षण के अनुसार मात्र 1.5% मामलों में ही दोषसिद्धि हो पाती है अतः भारत में न्यायालय द्वारा दण्डित होने का भय लगभग नगण्य है .वास्तव में अन्वीक्षा पूर्व की पीड़ा ही एक भय है .एक अनुमान के अनुसार पुलिस द्वारा दर्ज 70 % मामलों में अंतिम (बंद ) रिपोर्ट दे दी जाती है  तथा विलम्बकारी प्रक्रिया के चलते शेष रहे 30 % मामलों में से एक चोथाई अर्थात 7.5 % में व्यथित या बचाव पक्ष की मृत्यु हो जाती है , 7.5 % में व्यथित या बचाव पक्ष के गवाहों की मृत्यु हो जाती है व 7.5 % में थककर व्यथित व  बचाव पक्ष में राजीनामा  हो जाता  है.शेष रहे 7.5 % में से 20 % अर्थात 1.5 % में दोषसिद्धि हो पाती है . इस प्रकार की न्याय व्यवस्था ( मुकदमेबाजी उद्योग ) अपराधी को दण्डित करने की कोई विश्वसनीय व्यवस्था न होकर तंग परेशान करने या ब्लेकमेल करने का  ही साधन हो सकती है . वैसे भी जन दृष्टीकोण से भारतीय न्यायालयों का संचालन भी बड़ा पोचा है व यह पुलिस के साथ मिलीभगत अथवा उनके भय के साये में ही हो रहा है . इन परिस्थितियों में  न्यायालय द्वारा दण्डित किये जाने के भय से अपराधों को रोकना या कानून व्यवस्था को बनाये रखना पुलिस के लिए चुनौती भरा  काम है और इसलिए वे गिरफ़्तारी ,यातना व थर्ड डिग्री के माध्यम से कानून के स्थान पर वर्दी  का भय उत्पन्न करने का सहारा लेते हैं .

रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि रोकने के सिद्धांत का अर्थ है कि व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता और उसकी आज़ादी में हस्तक्षेप बिना वारंट के गिरफ़्तारी का प्रयोग मात्र वहीँ होना चाहिए जहाँ परिस्थितियां इसे आवश्यक बनाती हैं. यह  प्रक्रिया हमारे देश के मात्र संवैधानिक मूल्यों के अनुरूप ही नहीं होनी चाहिए अपितु वह  ऐसी भाषा में अभिव्यक्त होनी चाहिए जो सरल ,निश्चित और तर्कसंगत हो और ठीक इसी समय व्यापक भी होनी चाहिए .यह कानून लागू करने वाली एजेंसी के साथ साथ नागरिकों के लिए स्पष्ट एवं साफ गाइड होनी चाहिए .जब पुलिस अधिकारी को किसी संज्ञेय अपराध की योजना का पता लगता है और उसे मात्र गिरफ्तार किये जाने के अतिरिक्त रोका नहीं जा सकता हो तो वह  उसे द प्र सं की धारा १५१ के अंतर्गत गिरफ्तार कर सकता है .

जिस बात पर बल दिया जाना है वह यह है कि गिरफ़्तारी मात्र वहीँ की जानी चाहिए जहाँ यह आवश्यक हो . यही रोकने का  सिद्धांत है जिसका ऊपर सन्दर्भ लिया गया है .यह स्मरण रखा जाना चाहिए कि गिरफ़्तारी कोई दण्ड नहीं अपितु यह व्यक्ति को पुलिस या न्यायिक अभिरक्षा  में विशेष उद्देश्य या उद्देश्यों के लिए , जैसी भी स्थिति हो रोकना है .ये उद्देश्य अनुसन्धान के दौरान उसकी उपस्थिति सुनिश्चित करने या जब कभी उसकी उपस्थिति न्यायालय द्वारा अपेक्षा की जावे या जहाँ उपरोक्त में से एक या अधिक कारणों से अपेक्षा की जावे .वास्तव में हत्या , डकैती ,आगजनी ,राज्य के विरुद्ध अपराध और महिलाओं के विरुद्ध अपराध व वास्तव में सात वर्ष से अधिक दंडनीय अपराध के मामलों में गिरफ़्तारी जनता में विश्वास जागृत करने के लिए हो सकती है .

इसे दूसरे शब्दों में कहें तो , गिरफ़्तारी रोकथाम के साथ साथ दमनकारी भी हो सकती है  ऐसा न्यायविद कहते हैं. रोकथाम के उद्देश्य में संरक्षणात्क शामिल है .इस शक्ति का प्रयोग वहाँ किया जायेगा जहाँ अपराध किये जाने को रोकने , शांति भंग को समाप्त करने ,जिस व्यक्ति की गिरफ़्तारी के बिना स्वयं या अन्यों की रक्षा खतरे में हो ,गवाहों या अपराध के प्रमाणों के साथ छेड़छाड़ को रोकने और इसी प्रकार से अन्य मामलों में आवश्यक हो .दमनकारी उद्देश्यों में वे शामिल हैं जहाँ गिरफ़्तारी या रोकने का उद्देश्य न्यायालय या कहीं उपस्थिति को जहाँ आवश्यक हो विवश करना  या उसकी सहायता  से अपराध के सम्बन्ध में साक्ष्यों को एकत्रित करना है .

अब हमें समस्या पर दूसरे दृष्टीकोण से देखना है .जहाँ तक बहुसंख्य अपराधियों का प्रश्न है (हत्या , डकैती , लूटपाट , और राज्य के विरुद्ध अपराध आदि को छोड़ते  हुए ) वे गायब होने वाले नहीं हैं , तो क्या एक व्यक्ति को महज इसलिए गिरफ्तार कर लिया जाय कि वह किसी संज्ञेय अपराध से सम्बंधित है , जहाँ  अपराध बिना पुलिस  अधिकारी की  मौजूदगी के पहले ही किया जा चुका है .

Wednesday 29 June 2011

पुलिस राज के साये में भारतीय लोकतंत्र

  भारत के विधि आयोग  की  एक सौ बहत्तरवीं रिपोर्ट 14 दिसम्बर 2001 :एक समीक्षा
भारत के  विधि आयोग ने स्वप्रेरणा से गिरफ़्तारी के विषय में रिपोर्ट तैयार कर विधि एवं न्याय मंत्रालय को प्रस्तुत की थी किन्तु इस पर की गयी कार्यवाही की स्थिति निराशाजनक है .रिपोर्ट में कह गया है कि दिल्ली में मूल अपराध के लिए गिरफ्तार लोगों की कुल संख्या  57,163 है , निवारक निरोध कानून के तहत गिरफ्तार व्यक्तियों की कुल संख्या 39824 है व  50% लोगों को जमानती अपराध के लिए   गिरफ्तार किया गया. अगर हम उत्तर प्रदेश का उदहारण लें तो  निवारक प्रावधानों के तहत गिरफ्तारियां की संख्या मूल अपराधों के लिए की कुल गिरफ्तारी संख्या से बहुत ऊपर है. जबकि निवारक गिरफ्तारियों 4,79,404 हैं, ठोस अपराधों के लिए गिरफ्तारी की संख्या 1,73,634 है. . जमानती अपराधों में गिरफ्तार व्यक्तियों का प्रतिशत 45.13 है.  

 हरियाणा में जमानती प्रावधानों के तहत गिरफ्तारी 94%   है, केरल में यह 71% है, असम में  90%, कर्नाटक में  84.8 %   मध्य प्रदेश में   89% है और आंध्र प्रदेश में यह 36.59% है. दरअसल उक्त सार के अवलोकन से जमानती अपराधों के साथ साथ निवारक गिरफ्तारियों की अनावश्यक रूप से बड़ी संख्या का खुलासा होता है. . यह मुश्किल से ही विश्वास किया जा सकता  है कि इन सब अपराधों में, गिरफ्तारी के लिए मजिस्ट्रेट द्वारा जमानती वारंट जारी किए गए थे. वास्तव में पुलिस द्वारा  उन लोगों की  गिरफ्तारी का बड़ा भाग बिना वारंट के था .  सेमिनार के दौरान कुछ पुलिस अधिकारियों  द्वारा  सुझाव दिया गया था कि उनमें से कुछ की  निवारक कानून के अंतर्गत गिरफ्तारी भले ही थी तो भी  यह समान रूप से परेशानीकारक है. यह आम जानकारी की बात है कि कानून प्रवर्तन अधिकारियों द्वारा ज्यादतियों का अंतिम शिकार गरीब ही  हैं.  नियमित आय और संपत्ति के बिना एक आदमी हमेशा चोरी या कुछ अपराध करने के  संदेह के तहत माना जाता है . इस अर्थ में, "गरीबी (ही) अपराध है" -  जॉर्ज बर्नार्ड शॉ  की उक्ति  गूँजती है .
पुनः अपनी निर्धनता के कारण उनमें से बहुत से व्यक्ति न्यायालय द्वारा निर्धारित जमानत नहीं दे पाने के कारण या जमानत के लिए आवेदन नहीं कर सकने के कारण जेलों की पीड़ा सहन करते हैं.न्यायालयों के ध्यान में ऐसे बहुत से मामले आये हैं जहाँ परीक्षणाधीन व्यक्तियों को जेलों में उस समय से भी अधिक अवधि के लिए जेलों में रखा गया जो कि जिस आरोप के लिए यदि वे दोषी पाए जाते तो भी उसकी दण्ड अवधि से अधिक थीं .

वास्तव में समानता और स्वेच्छाचार एक दूसरे के कट्टर शत्रु हैं एक का सम्बन्ध गणतंत्र में विधि के शासन से है जबकि दूसरा बादशाही सनक और उन्माद से है .जहाँ एक कार्य स्वेछ्चारी है स्पष्ट है कि वह राजनैतिक तर्क और संवैधानिक  कानून दोनों के अनुसार असमान है और इसलिए अनुच्छेद 14 के उल्लंघन में है . अनुच्छेद 14 राज्य के स्वेच्छाचारी कृत्यों पर प्रहार करता है और व्यवहार में औचित्य व समानता सुनिश्चित करता है .तर्कसंगतता का सिद्धांत जिसका कानूनी के साथ साथ दार्शनिक  समानता या गैर स्वेछाचारीपन  आवश्यक  तत्व है जोकि अनुच्छेद 14 में से गुजरने वाली प्रतिछाया है और अनुच्छेद 21 द्वारा स्थापित प्रक्रिया में परिभाषित तर्कसंगता की जांच के प्रश्न का जवाब देने के लिए  अनुच्छेद 14 के अनुरूप होना चाहिए .यह सही , उचित एवं न्यायपूर्ण होनी चाहिए न कि स्वेच्छाचारी ,काल्पनिक या उत्पीडनकारी अन्यथा यह कोई प्रक्रिया नहीं होगी तथा अनुच्छेद 21 की आवश्यकताएं संतुष्ट नहीं होंगी ( मेनका गाँधी बनाम भारत संघ में सुप्रीम कोर्ट ).

रिपोर्ट में आगे कहा है कि एक व्यक्ति की मजिस्ट्रेट से बिना वारंट व आदेश के गिरफ़्तारी नागरिक की स्वतंत्रता पर गंभीर आक्रमण है और वास्तव में  गंभीर मामला है . जब एक व्यक्ति को बिना वारंट गिरफ्तार किया जाता है तो उसे वारंट से गिरफ्तार किये जाने के समान सामान्य सुरक्षा उपलब्ध नहीं होती है .वारंट के अधीन गिरफ़्तारी में मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों पर न्यायिक अधिकारी द्वारा विचार किया जाता है और व्यक्ति को गिरफ्तार किया जाने का निर्देश दिया जाना उपयुक्त समझा जाता है जबकि बिना वारंट के पुलिस द्वारा गिरफ़्तारी पुलिस अधिकारी की व्यक्तिगत संतुष्टी के अधीन रहती है. सुप्रीम कोर्ट ने अजायब सिंह के मामले में 1952 में कहा था कि वारंट जारी करते समय यह स्पष्ट उल्लेख किया जाता है कि कथित व्यक्ति ने अपराध किया है या करना संभावित है अथवा संदिग्ध है .बिना वारंट गिरफ़्तारी के मामलों में इसीलिए 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के समक्ष उपस्थित करने का प्रावधान रखा गया है ताकि गिरफ्तार किये जाने की कानूनी अधिकृति और अपनाई गयी प्रक्रिया के  संबंध में न्यायिक विचारण हो सके जबकि वारंट के अधीन गिरफ़्तारी में न्यायिक विचारण पहले से ही किया जा चुका होता है .
मेरे मतानुसार आयोग का यह निष्कर्ष सही नहीं है व न्यायाधीशों का स्पष्ट पक्षपोषण है  क्योंकि जिन मामलों में गिरफ़्तारी अनावश्यक होती उनमें भी पुलिस द्वारा अभियुक्त को प्रस्तुत करने पर न तो बिना शर्त छोड़ा जाता हैं और न ही पुलिस आचरण की कोई भर्त्सना की जाती है तथा ऐसे मामलों का भी अभाव नहीं है जहाँ अनावश्यक गिरफ़्तारी के मामलों में मात्र मजिस्ट्रेट ही नहीं अपितु सत्र न्यायधीशों के स्तर तक जमानत से इंकारकर पुलिस के साथ मिलीभगत का खुला खेल खेला जाता है .  स्थिति यह है कि जब कभी अभिरक्षा में भेजने के  निचले न्यायालय के आदेश को उच्च या उच्चतम न्यायालय द्वारा अवैध , अनुचित या अवांछनीय पाया जाता है तो उसे जमानत पर  छोड़ दिया जाता है .बस जो कुछ होता है वह इतना ही है . जिस न्यायिक  अधिकारी ने किसी व्यक्ति को अवैध या अनुचित रूप से अभिरक्षा में भेजकर कर उसकी  स्वतंत्रता में हस्तक्षेप  किया का कुछ भी नहीं बिगड़ता है .

रिपोर्ट में आगे कहा है कि वास्तव में दण्ड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत पुलिस अधिकारियों को दी गयी गिरफ्तार करने की विस्तृत शक्तियां न्यायालयों को 100 वर्ष से भी अधिक समय से परेशान कर रही हैं .न्यायालय यह कहते रहे हैं कि प्रत्येक गिरफ़्तारी के लिए उचित कारण होना चाहिए .तथ्य यह है कि सरकारें बहुत ही कम मामलों में पुलिस अधिकारियों द्वारा विधि विरुद्ध रोकने (निरुद्ध )के अपराधों में अभियोजन पूर्व स्वीकृति देती हैं . ( राज्य पुलिस सेवा अर्थात उप अधीक्षक से निचले स्तर के पुलिस अधिकारी के अभियोजन हेतु सामान्यतया ऐसी स्वीकृति आवश्यक नहीं है क्योंकि वे राज्यपाल या राष्ट्रपति की शक्तियों के प्रयोग में नियुक्त नहीं होते हैं .)यदि एक पुलिस अधिकारी का इस प्रकार अभियोजन किया जाता है तो चाहे वह सिपाही या उप निरीक्षक या निरीक्षक हो , कुछ अपवादों को छोड़कर ,वे मात्र उसे संरक्षण देने  का ही प्रयास नहीं करेंगे अपितु शिकायतकर्ता को नाना प्रकार से परेशान कर उसे शिकायत वापस लेने को विवश किया जाता है .इस भय को निराधार  एवं निर्मूल नहीं कहा जा सकता है जिसके कारण पुलिस अधिकारियों के अभियोजन का लगभग अभाव रहता है .इस बात को ध्यान रखे बिना कि बहुत सी गिरफ्तारियां अवैध होती हैं फिर भी पुलिस विभाग की शक्ति को चुन्नोती देने का सामान्यतया कोई भी व्यक्ति साहस नहीं करता है .
मेरे मतानुसार यदि एक पीड़ित व्यक्ति किसी राजपुरुष के विरुद्ध परिवाद प्रस्तुत कर भी दे तो उस पर न्यायालयों द्वारा समुचित कार्यवाही नहीं की जाती है .आखिर एक लोकसेवक अपनी बिरादरी के विरुद्ध कार्यवाही से परहेज जो करते हैं .

Tuesday 28 June 2011

शब्दजाल हटायें


राजस्थान उच्च न्यायालय ने डी.पी. मेटल्स बनाम राजस्थान राज्य (2000 (3) डब्ल्यू एल एन 445) में कहा है कि दस्तावेज प्रस्तुत नहीं करने या अपूर्ण प्रस्तुत करने पर अर्थदण्ड लगाने से पूर्व नोटिस देना महज एक औपचारिकता नहीं है, अपितु यह इस बात का प्रभावी अवसर देना है कि वह दर्षा सके कि कोई अर्थदण्ड देय नहीं है। यह तर्कसंगत है कि ऐसी चूक कोई कर-अपवंचना या कर चोरी के उद्देष्य से नहीं अपितु सद्भाविक है। यह उल्लंघन तकनीकी उल्लंघन से आगे कुछ नहीं है जिसके लिए अनिवार्य रूप से अर्थदण्ड लगाया जा सके। ऐसे प्रष्न का विनिष्चय स्वयं के तथ्यों एवं परिस्थितियों में किया जाना है।
सुप्रीम कोर्ट ने षिवसागर तिवाड़ी बनाम भारत संघ (एआईआर 1997 एस सी 2725) में कहा है कि जब बारी से बाहर कोई किसी प्रकार का क्वार्टर आवंटित किया जाता है तो कारण सहित बोलता हुआ आदेष पारित किया जाना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने नागेन्द्र नाथ बोड़ा बनाम कमीष्नर ऑफ हिल्स डिवीजन (1958 एआईआर 398) में स्पश्ट किया है कि यदि कानून द्वारा सृजित प्राधिकारी में अन्तर्दिश्ट अधिकारों, चाहे वे प्रषासनिक या अर्द्ध न्यायिक हो, अपील एवं पुनरीक्षण को सुनना हो, उसका कर्त्तव्य बनता है कि वह न्यायिकतः सुने। कहने का अभिप्राय यह है कि उद्देष्य पूर्ण तरीके से, निश्पक्ष, सम्बन्धित विवादग्रस्त पक्षकारों को तर्कसंगत अवसर देकर सुने। यह सत्य ही कहा जाता है कि स्थानीय सरकार को ऐसी अपील में मात्र न्यायिक संतुलन संरक्षित करते हुए और अन्तरात्मा से दायित्व की उचित अनुभूति यह दृश्टिगत रखते हुए कि यह लोगों की सम्पति तथा अधिकारों को प्रभावित करता है न्यायिकतः कार्य करना चाहिए। संसद ने इस प्रकार के कार्य निश्पादन हेतु बुद्धिमतापूर्वक ही कुछ नियम बनाये हैं और इन नियमों को अपने समक्ष मामले में लागू करना चाहिए क्योंकि ये कानून द्वारा अधिरोपित है।
सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात स्टील ट्यूब्स लि0 बनाम गुजरात स्टील टू मजदूर सभा (1980 एआईआर 1896) में कहा है कि तथ्य दिमाग का सूचक है तथा एक उचित आदेष जैसा दिखता है वैसे ही ग्रहण किया जाना चाहिए। लेकिन इससे भी अधिक यह है कि कई बार षब्द इस प्रकार गढे जाते हैं कि कृत्यों को ढांकने के लिए षब्दजाल (षाब्दिक इंजीनियरी) का प्रयोग होता है। जिस रूप में भाशा बनाई जाती है वह अंतिम व विनिष्चय नहीं होती। न्यायालय आदेष की प्रकृति को देखने के लिए पर्दा उठायेगा। स्वामी तथा सेवक को बर्खास्तगी के आदेष के साथ आंखमिचौनी खेलने नहीं दी जा सकती और षब्दों के आवरण में स्पश्ट और उचित मानदण्डों को दिषा निर्दिश्ट नहीं करते दिया जा सकता और अपील सारभूत आदेष पर चाहे वह प्रकट हो या अप्रकट पर आधारित होनी चाहिए। न्यायालय अन्य कार्यवाहियों या प्रलेखों से जिनका सम्बन्ध बर्खास्तगी आदेष से हो से आधार पर पता लगायेगा। यदि दण्ड देना उद्देष्य है अर्थात सुधारना है तो आदेष को बर्खास्तगी का आदेष माना जा सकता है और आषय का निर्णयन करने के लिए दुर्भावना (जो कि षक्ति का रंगीन प्रयोग के समान है) महत्वपूर्ण हो जाती है।
पंजाब हरियाणा उच्च न्यायालय ने रमेष कपूर बनाम पंजाब विष्वविद्यालय (एआईआर 1965 पंजाब 120) में कहा है कि एक परिस्थिति के सही आकलन के लिए यह दोहराना आवष्यक है कि ट्राईब्यूनल जो कि अर्द्धन्यायिक षक्तियों का प्रयोग करते है, न्यायालय नहीं है और वे न्यायालयों के लिए निर्धारित प्रक्रिया का अनुसरण करने के लिए बाध्य नहीं है, वे साक्ष्य के कड़े नियमों से बाध्य नहीं है। उन पर कानून मात्र यह दायित्व डालता है कि वे ऐसी सूचना पर कार्यवाही नहीं करे जो कि जिस पक्षकार के विरूद्ध प्रयोग की जाती है उसे उस पर स्पश्टीकरण देने के लिए उपयुक्त अवसर नहीं दे दिया जाता। जैसा कि न्यायालय की पूर्ण पीठ ने धारित किया है कि उम्मीदवार को दिया जाने वाला अवसर झूठ मूठ में ही न हो और वास्तविक हो तथा उपयुक्त स्पश्टीकरण दे उसे मात्र यही नहीं बताया जाना चाहिए कि उसके विरूद्ध क्या जा रहा है बल्कि वे व्यक्ति भी जो उसके विरूद्ध सूचना दे रहे है। वह यह दर्षाने में समर्थ हो सकता है कि किसी व्यक्ति विषेश का कथन कुछ कारणों से विष्वसनीय नहीं है यह दर्षाने के अतिरिक्त कि कथन षुद्ध नहीं है। प्रस्तुत प्रकरण में जब अपीलार्थी की पीठ पीछे कथन दर्ज किये गये जो कि उसके हित के विपरित है उसके ध्यान में नहीं लाये गये तो यह नहीं कहा जा सकता कि उसे पर्याप्त अवसर मिला।
दिल्ली उच्च न्यायालय ने जोडियक डॉट कॉम बनाम भारत संघ के निर्णय दिनांक 19.12.08 में कहा है कि सेबी कुछ कम्पनियांे की प्रतिभूतियों में हेराफेरी की जांच कर रहा था और याची को नोटिस दिया गया क्योंकि यह हेराफेरी का संभावित कारक था। यदि ऐसे पक्षकार को उच्च सुरक्षा योजना में भाग लेने दिया जावे तो यह पर्याप्त संभव है कि वे उद्देष्य बुरी तरह प्रभावित हांेगे।


Monday 27 June 2011

न्याय की अवधारणा


सुप्रीम कोर्ट ने अचिंत्य कुमार षाह बनाम नैनी प्रिंटर्स के निर्णय दिनांक 30.01.04 में कहा है कि जहां न्यायालयों को लेनदेन की प्रकृति पर विचारण करना होता है वहां मात्र नाम यथा लाईसेन्स, लाईसेन्सी, लाईसेन्सर, लाईसेन्स फीस इत्यादि को ही नहीं देखा जाता अपितु करार के स्तर तथा उद्देष्य को देखना होता है। ऐसे मामलों में पक्षकारों का आषय निर्धारक तत्व होता है। स्वत्व के दायर दावे में यह था कि करार दिनांक 05.07.1976 एक लाईसेन्स था जो कि तोड़ दिया गया और तोड़ने के बाद प्रत्यर्थीगण अतिक्रमी हो गये। फिर भी उच्च न्यायालय के दृश्टिकोण से कथित करार किराया अनुबन्ध था। प्रत्यर्थीगण किरायेदार थे तथा सम्पूर्ण मूल स्वत्व दावा गिर पड़ता है। जहां दावे में कोई सारभूत विधि प्रष्न है या नहीं यह तथ्यों तथा परिस्थितियों पर निर्भर करता है। सर्वोपरि विचारण यह है कि न्याय करने के दायित्व में संतुलन स्थापित करना तथा विवाद केा अनावष्यक लम्बे खेंचने को टालना है।
सुप्रीम कोर्ट ने अषोक झा बनाम गार्डन सिल्क मिल्स के निर्णय दिनांक 28.08.09 में स्पश्ट किया है कि हमारे निर्णयन में अपीलार्थी का कहना ठीक है कि कार्यवाही या संविधान के अनुच्छेद विषेश का नाम न तो अंतिम है और न ही निश्कर्श है। यदि एक न्यायाधीष ने अनुच्छेद 227 के अन्तर्गत षक्तियों का प्रयोग किया है तो ऐसे निर्णय के विरूद्ध अपील का अधिकार छिन नहीं जाता यदि अन्यथा अनुच्छेद 226 की षक्तियों प्रयोग की गई हो।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उड़ीसा इंडस्ट्रीज लि. बनाम हरदयाल के निर्णय दिनांक 20.02.07 मंे कहा है कि यह सुनिष्चित है कि विलम्ब को क्षमा न करने का अभिप्राय एक गुणषाली प्रकरण को देहलीज परसे ही बाहर फैंकना और न्याय हेतुक को विफल करना होगा। इसके ठीक विपरीत यदि विलम्ब को क्षमा किया जाता है तो जो बड़ी से बड़ी बात हो सकती है वह यह कि पक्षकारों को सुनने के बाद गुणावगुण पर निर्णय हो जावेगा।
सुप्रीम कोर्ट ने षांति प्रकाष अग्रवाल बनाम भारत संघ (1991 एआईआर एससी 814) में कहा है कि स्वीकृति या अस्वीकृति न्यायालय के समक्ष उचित कार्यवाही में प्रष्नगत की जा सकती है किन्तु उसकी अपील का कोई प्रावधान नहीं है। प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्तों के अनुसरण की स्वगर्भित आवष्यकता है और यह स्वाभाविक भी है कि निर्णय इस प्रकार दिया जाना चाहिए कि उसमें से कारणों को ढंूढा जा सके। यद्यपि यह प्रषासनिक आदेष की प्रवृति का बिन्दु है इसमें कारण होने चाहिए। यदि प्रषासनिक अधिकारियों को पक्षकारों के अधिकारों को तय करना है तो यह आवष्यक है कि प्रभावित पक्षकारों को उचित एवं न्यायोचित सुनवाई का अवसर प्रदान करे और पर्याप्त रूप से स्पश्ट कारण दें। इस प्रकार के कारण सुसंगत सारभूत तथ्यों के उद्देष्यपूर्ण विचारण पर आधारित होने चाहिए।
पद सोपान में फैली परत-दर-परत कार्यवाही के परिणामस्वरूप उच्चतम न्यायालय के समक्ष अंतिम परिणाम के समय दोनों पक्षकारों केा पूरी तरह आर्थिक रूप से जेरबार व परेषान हैरान कर देता है कि अंतिम न्यायालय के गुलाबी रंग में बदलते हुए देखिये कि जीतने वाला व्यथित पक्षकार का कैसे खून बहता है।

Sunday 26 June 2011

शिक्षा को हतोत्साहित करते विश्वविद्यालय

विश्वविद्यालयों द्वारा परीक्षा शुल्क में भेदभाव

विश्वविद्यालयों  द्वारा परीक्षार्थियों से वसूली जाने वाले परीक्षा शुल्क में भेदभाव व मनमानापन बरता जा रहा है . राज्य का अंग होने के कारण विश्वविद्यालयों से अपेक्षा है कि वे  एक ही परीक्षा के लिए स्वयंपाठी एवं नियमित  छात्रों से वसूले  जाने  वाले  परीक्षा शुल्क में भिन्नता समाप्त करें तथा स्वयंपाठी छात्रों पर थोपे जाने वाली  विकास शुल्क की वसूली बंद करें .  

उदाहरणार्थ महाराजा गंगासिंह  विश्वविद्यालय एम ए पूर्वार्ध के लिए नियमित छात्रों से मात्र 500 रूपये परीक्षा शुल्क ले रहा है  जबकि इसी लागत वाली समान परीक्षा के लिए स्वयंपाठी छात्रों से रुपये 900 शुल्क ले रहा है .यह शुल्क बैंक में जमा होता है  तथा  इसके अतिरिक्त यद्यपि प्राइवेट महाविद्यालयों में कोई अतिरिक्त शुल्क नहीं लिया जाता है  किन्तु राजकीय महाविद्यालयों में डाक खर्च आदि के नाम पर 10 रुपये प्रति फार्म बिना कोई रसीद दिए वसूल किये जाते हैं व विकास शुल्क रुपये 100 की रसीद कटवाए बिना फ़ार्म जमा नहीं लिए जाते हैं. इस प्रकार स्वयं पाठी से 1000 रुपये शुल्क लिया जाता है . जबकि नियमित  विद्यार्थियों से इस प्रकार की अवैध वसूलियाँ नहीं की जाती हैं क्योंकि वे संगठित हैं .अन्य विश्वविद्यालयों की स्थिति भी कोई संतोषजनक नहीं कही जा सकती है .

जहाँ पर स्नात्कोतर महाविद्यालय नहीं होने के कारण एक तरफ तो जो छात्र बाहर जाकर छात्र अध्ययन नहीं कर सकते वे नियमित शिक्षा से वंचित हैं और दूसरी ओर स्वयंपाठी के रूप में अधिक शुल्क देने को विवश होकर अनुचित शोषण के शिकार हो रहे हैं .नागरिकों के लिए शिक्षा की व्यवस्था करना व शिक्षा को प्रोत्साहित कर मानव संसाधनों का विकास करना  सरकार का संवैधानिक दायित्व है जबकि स्वयंपाठी छात्रों से मनमाना शुल्क लेकर विश्वविद्यालय संविधान विपरीत आचरण कर रहे  हैं तथा सरकार द्वारा ऐसे  केन्द्रों  पर स्नातकोतर महाविद्यालय नहीं खोलने के पाप का दण्ड छात्रों को दे रहे हैं . इस प्रकार स्वयंपाठी छात्रों से अधिक परीक्षा शुल्क वसूलना पूर्णतया मनमाना, एवं संविधान के अनुच्छेद 14 के घोर उल्लंघन में किया गया कृत्य है . अतएव सरकार को  यह भेदभाव समाप्त कर स्वयंपाठी छात्रों से सभी प्रकार की अवैध वसूलियाँ बंद कर देनी चाहिए .

Saturday 25 June 2011

नैसर्गिक न्याय की रक्षा हो


सुप्रीम कोर्ट ने इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउन्टेन्ट बनाम एल.के.रत्ना (1986 (4) एससीसी 537) में कहा है कि यदि कोई इस तर्क को स्वीकार करता है कि यदि अन्वीक्षण निकाय मंे प्राकृतिक न्याय की कोई कमी अपील निकाय में उपस्थिति से ठीक की जा सकती है तो इसका परिणाम सदस्य को निश्कासन निकाय  में अपील के अधिकार से वंचित करना होगा। यदि नियम और कानून निश्कासन निकाय में उचित अन्वीक्षण तथा अपील का अधिकार देते हैं तो उसे क्यों यह कहा जाय कि वह अन्याय पूर्ण अन्वीक्षण और उचित अपील से संतुश्ट हो । यदि अपील को नये सिरे से सुनवाई भी मान लिया जावे तो भी उस सदस्य को एक अवसर से वंचित कर दिया गया। एक साधारण नियम के तौर पर सभी दषाओं में धारित करता हूं कि अन्वीक्षण निकाय में प्राकृतिक न्याय की विफलता को अपीलीय निकाय में प्राकृतिक न्याय की पर्याप्तता से ठीक नहीं किया जा सकता।
बम्बई उच्च न्यायालय ने जे.एम.जे.एस. अलेक्जेन्डर गोन्साल्विस पीयरेरा बनाम गोवा प्रषासन (1983 (1)एलएलएन) में कहा है कि यद्यपि तथ्यों से प्रकट हुआ है कि याची ने सरकार को प्रतिवेदनों की श्रंृखला भेजी और इन्हें गुणावगुण के आधार पर व्यवहृत कर आदेष पारित किये गये। तथ्य यह दर्षाते है कि याची ने अनुस्मारकों की श्रृंखला भेजी और पूर्ण सतर्कता से अनुवर्तन किया। इन परिस्थितियों में न्यायालय ने धारित किया कि याची की ओर से कोई विलम्ब नहीं था। किन्तु याची को इन आदेषों के विशय में सूचित नहीं किया गया।
आन्ध्र प्रदेष उच्च न्यायालय ने श्री वसावी कन्यक सेवा ट्रस्ट बनाम जिला कलेक्टर के निर्णय दिनांक 06.03.2000 में स्पश्ट किया है कि जैसा कि पहले ही धारित है कि यह देखा जाना चाहिए कि क्या पक्षकार की उपस्थित आवष्यक है, उचित होगा और न्यायालय को समस्त पक्षकारों की उपस्थिति और उनके द्वारा प्रस्तुत विशय वस्तु निर्णयन करने हेतु समर्थ बनाता है । इस प्रकार की मनाही मात्र विशय वस्तु के सम्बन्ध में असंगत डिक्री प्रदान करवा सकती है और कुछ मामलों में वास्तविक स्वत्व धारकों के स्थान पर चालाकी पूर्ण दुरभि संधि युक्त डिक्रीयों की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।
सुप्रीम कोर्ट ने रेपटाकोस ब्रेट एण्ड कं. बनाम गणेष प्रोपर्टी (एआईआर 1998 एससी 3085) में कहा है कि कई बार लम्बी प्रक्रिया की अस्वस्थता से  पीड़ित भारतीय मुकदमेबाजी को इस तरह के बिन्दु महत्वपूर्ण प्रष्नों के रूप में लम्बा खेंचने के लिए उभार देते हैं। 
गौहाटी उच्च न्यायालय ने रामानन्द जयकिषन बनाम मो. अबू हुसैन (एआईआर 1972 गौहाटी 6) में कहा है कि विद्वान जिला न्यायाधीष ने इन निर्णयों तथा कानून जो कि उच्चतम न्यायालय द्वारा ऐसी ही परिस्थितियों में घोशित किये गये थे जैसी कि वर्तमान मामले की परिस्थितियां है का संदर्भ नहीं लिया है। अतः यहां उच्चतम न्यायालयों द्वारा निर्धारित कानून को लागू नहीं करने में क्षेत्राधिकार की पूर्ण गलती की है।

Friday 24 June 2011

क्या यह संभव है कि कोई व्यक्ति अपने अधिकारों के लिए स्वयं अपने ही विरुद्ध कोई दावा पेश करे?

ब्रिटिश भारत में उच्चस्तरीय  सरकारी लोक सेवकों (राजपत्रित- जोकि प्रायः अंग्रेज ही हुआ करते थे )को संरक्षण दिया गया था ताकि वे ब्रिटिश खजाने को भरने में  अंग्रेजों की निर्भय मदद कर सकें , उन्हें किसी प्रकार की कानूनी कार्यवाही का कोई  भय न हो| अपने इस स्वार्थ पूर्ति के लिए उन्होंने दण्ड प्रक्रिया  संहिता, 1898  में धारा 197  में प्रावधान किया था कि ऐसे लोक सेवक जिन्हें सरकारी स्वीकृति के बिना पद से नहीं हटाया जा सकता, के द्वारा शासकीय हैसियत में किये गए अपराधों  के लिए किसी भी न्यायालय द्वारा प्रसंज्ञान सरकार की  स्वीकृति के बिना नहीं लिया जायेगा| स्वस्पष्ट है कि साम्राज्यवादी  सरकार द्वारा  यह प्रावधान मात्र अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए किया गया था| यह भी स्मरणीय है कि तत्समय निचले स्तर के (भारतीय) सरकारी लोक सेवकों को यह संरक्षण प्राप्त नहीं था| उस समय बहुत कम संख्या में राजपत्रित सेवक हुआ करते थे तथा उनके नाम एवं छुटियाँ भी राजपत्र में प्रकाशित हुआ करती थी किन्तु आज स्थिति भिन्न है|
हमारी संविधान सभा के समक्ष भी यह विषय विचारणार्थ आया तथा उसने मात्र राष्ट्रपति और राज्यपाल को उनके कार्यकाल के दौरान ही अभियोजन से सुरक्षा देना उचित समझा जबकि लोक सेवकों को  लोक कृत्य के सम्बन्ध में दण्ड प्रक्रिया  संहिता,1973 की धारा 197 का उक्त संरक्षण हमेशा के लिए उपलब्ध है| आज भारतीय गणतंत्र में भी दण्ड प्रक्रिया  संहिता, 1973 की धारा 197 तथा अन्य कानूनों में यह  प्रावधान बदस्तूर जारी है जबकि पाश्चत्य देशों इंग्लॅण्ड , अमेरिका आदि के कानून में ऐसे प्रावधान नहीं हैं| 
अभियोजन स्वीकृति  का यह प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 14  की भावना के विपरीत, अनावश्यक तथा लोक सेवकों में अपराध पनपाने की प्रवृति रखता है| यही नहीं यह प्रावधान लोक सेवकों के मध्य भी भेदभाव रखता है| निचले श्रेणी के लोक सेवक जिनका जनता से सीधा वास्ता हो सकता है अर्थात जिनकी नियुक्ति राज्यपाल या राष्ट्रपति की ओर से या उनके द्वारा नहीं की  जाती उन्हें यह संरक्षण उपलब्ध नहीं है| दूसरी ओर बराबर की श्रेणी ( ग्रेड ) के अधिकारी जो राजकीय उपक्रमों(जोकि संविधान के अनुसार राज्य है ) में नियुक्त हैं उन्हें यह सुरक्षा उपलब्ध नहीं होगी जबकि उसी ग्रेड के राज्य सेवा में प्रत्यक्ष तौर पर सेवारत सेवक को सुरक्षा उपलब्ध है| इसी प्रकार की विसंगति का एक उदाहारण तहसीलदार सेवा का है| तहसीलदार राजस्व मंडल द्वारा नियुक्त होने के कारण उसे धारा 197 का संरक्षण प्राप्त नहीं है जबकि उसी ग्रेड के सहायक वाणिज्यिक कर अधिकारी व अन्य अधिकारियों को संरक्षण उपलब्ध है| इसके अतिरिक्त जब एक ही अपराध में विभिन्न श्रेणी के लोक सेवक संलिप्त हों तो निचली श्रेणी के लोक सेवकों का अभियोजन कर दण्डित करना और मात्र उपरी श्रेणी के सेवकों का अपराधी होते हुए भी बच निकालना अनुच्छेद  14  का स्पष्ट उल्लंघन है| विधि का ऐसा अभिप्राय कभी नहीं रहा है कि एक ही अपराध के अपराधियों के साथ भिन्न भिन्न व्यवहार हो| सुप्रीम कोर्ट ने अखिल भारतीय शोषित रेलवे कर्मचारी के मामले में कहा है कि असमानता दूर होनी चाहिए और विशेषाधिकार समाप्त होने चाहिए| इसी  प्रकार सुप्रीम कोर्ट ने विनीत नारायण के मामले में भी कहा कि कानून अभियोजन एवं जांच के लिए अपराधियों को उनके जीवन स्तर के हिसाब से भेदभाव नहीं करता है| पी पी शर्मा के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट द्वारा कहा गया है कि अभियोजन स्वीकृति के बिना आरोप पत्र दाखिल करना अवैध नहीं है| मानवाधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय घोषणा , जिस पर भारत ने भी हस्ताक्षर किये हैं, के अनुच्छेद एक में कहा गया है कि गरिमा और अधिकारों की दृष्टि से सभी मानव प्राणी  जन्मजात स्वतंत्र तथा  समान हैं|
एक तरफ देश भ्रष्टाचार और राज्य आपराधिकरण की अमरबेल की मजबूत पकड़ में है तो दूसरी ओर अभियोजन स्वीकृति की औपचारिकता के अभाव में बहुत से प्रकरण बकाया पड़े हैं| सी बी आई के पास अभियोजन स्वीकृति की प्रतीक्षा में अभियोजन बकाया की लम्बी सूची है | ठीक इसी प्रकार भ्रष्टाचार के अभियोजन स्वीकृति की प्रतीक्षा में राज्यों की पास बकाया मामलों की भी लम्बी सूची है| इससे भी अधिक गंभीर तथ्य यह है कि इन स्वीकृतियों को भी चुनौती देकर न्यायालयों से स्थगन प्राप्त कर विवाद को और लंबा खेंचा जा सकता है जबकि ऐसा करना कानूनन निषिद्ध है| फिर भी न्यायाधीश कुछ अपवित्र कारणों और जवाबदेही के अभाव के कारण यह सब निस्संकोच कर रहे हैं| कानून में अभियोजन स्वीकृति के लिए कोई समयावधि अथवा प्रक्रिया निर्धारित नहीं हैं| यह भी स्पष्ट नहीं है कि व्यक्तिगत परिवाद की स्थिति में यह स्वीकृति किस प्रकार और किसके द्वारा मांगी जायेगी| कुलमिलाकर स्थिति भ्रमपूर्ण एवं अपराधियों के लिए अनुकूल है| यद्यपि राजस्थान सरकार के पूर्व में प्रशासनिक आदेश थे कि अभियोजन स्वीकृति का निपटान 15 दिवस में कर दिया जावे| बाद में केंद्रीय सतर्कता आयोग ने 2  माह के भीतर अभियोजन स्वीकृति का निपटान करने के आदेश जारी किये हैं| किन्तु इन आदेशों की अनुपालना की वास्तविक  स्थिति  स्वस्पष्ट है|
 आपराधिक प्रकरणों में प्रसंज्ञान मात्र तभी लिया जाता है जब प्रथम दृष्टया मामला बनता हो अतः अनावश्यक परेशानी की आशंका निर्मूल है| इसका दूसरा अभिप्राय यह निकलता है कि न्यायालयों द्वारा प्रसंज्ञान प्रक्रिया में स्वयम राज्य के विश्वास का अभाव होना है तथा प्रसंज्ञान के न्यायिक निर्णय की प्रशासनिक पुनरीक्षा कर  एक वर्ग विशेष के अपराधियों के अभियोजन की स्वीकृति रोक कर न्यायिक अभियोजन के प्रयास को विफल करना है व आम नागरिक एवं वंचित श्रेणी के लोक सेवकों को ऐसी अविश्वसनीय न्यायिक प्रक्रिया द्वारा परेशान किये जाने हेतु खुला छोड़ना है|
एक सक्षम मजिस्ट्रेट को मामले का प्रसंज्ञान लेने की शक्ति है तथा अभियोजन स्वीकृति के अभाव में प्रसंज्ञान को बाधित करना उचित क्षेत्राधिकार के प्रयोग में अवरोध है| प्रायः अभियोजन स्वीकृति की अपेक्षा के पक्ष में तर्क दिया जाता है कि यह लोक सेवकों को अनावश्यक परेशानी से बचाने के लिए उचित  है| जबकि निचले स्तर के लगभग 90% लोक सेवक, जिनका जनता से सीधा वास्ता पडता है और उनकी नियुक्ति राज्यपाल या राष्ट्रपति की अधिकृति के बिना की जाती है, को यह संरक्षण उपलब्ध नहीं है  तथा वे ऐसी सुरक्षा के बिना भी सेवाएं दे रहे हैं व जनता से सीधा संपर्क होने से उनके अभियोजन की संभावनाएं तथा जोखिम भी अधिक है| इसी प्रकार इंग्लॅण्ड , अमेरिका आदि देशों के सभी लोक सेवक भी ऐसी सुरक्षा के बिना सेवाएं दे रहे हैं तो हमारे देश में इस उपरी लोक सेवक वर्ग को ऐसी सुरक्षा का कोई औचित्य नहीं रह जाता है| फिर भी यदि अनुचित अभियोजन या परेशानी का अंदेशा हो व प्रथम दृष्टया मामला नहीं बनता हो तो उपरी स्तर के सक्षम लोक सेवक दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482  के अंतर्गत अन्य नागरिकों की तरह हाई कोर्ट से राहत प्राप्त कर सकते हैं|
उक्त प्रावधान का एक कानूनी पहलू यह भी है कि समस्त अपराधों का अभियोजन करना राज्य का कर्तव्य है और गोरे समिति (1970) ने भी यही सिफारिश की थी कि समस्त अपराधों का बिना किसी भेदभाव के अभियोजन राज्य ही करे|  अभियोजन का संचालन स्वयम राज्य करता है और उसके अभियोजन विभाग में आपराधिक कानून के विशेषज्ञ होते हैं अत: किसी सरकारी कर्मचारी के विरुद्ध आरोप पत्र पेश करने वाले इन विशेषज्ञों की राय को न मानना अपने आप में हास्यास्पद स्थिति बनती है| दूसरी ओर सरकारी विभाग कानूनी मुद्दों पर कानूनी विशेषज्ञों की राय के आधार पर ही अग्रिम कार्यवाही करते हैं अथवा न्यायालय में अपना बचाव प्रस्तुत करते हैं | विशेषज्ञों की राय को अपनी सुविधानुसार मानना या न मानना भी कोई औचित्यपूर्ण कदम नहीं है| कहने को तो सरकारी विभाग के आदेश के विरुद्ध अभियोजन द्वारा रिट याचिका दायर की जा सकती है किन्तु तकनीकि दृष्टि से देखा जाए तो यह अर्थ निकलता  सरकार स्वयम सरकार के विरुद्ध उपचार हेतु दावा करे| क्या यह संभव है कि कोई व्यक्ति अपने अधिकारों के लिए स्वयं अपने ही विरुद्ध कोई दावा पेश करे? वास्तव में देखा जाए तो अभियोजन स्वीकृति के प्रावधान का सारत: यही अर्थ है कि जिस अपराधी राज्य अधिकारी को सरकार दण्डित नहीं करना चाहे उसके विरुद्ध भारत भूमि के कानून में कोई उपचार नहीं है| राज्य का कानूनी कर्तव्य भी अपराधों का अभियोजन करना है न कि उनका अनुचित बचाव| क्या अभियोजन स्वीकृति के उक्त प्रावधान को विवेक के धरातल पर किसी भी दृष्टिकोण से उचित व तर्कसंगत ठराया जा सकता है?     
दण्ड प्रक्रिया संहिता एक सारभूत या  मौलिक कानून न होकर प्रक्रियागत कानून है जिसका उद्देश्य सारभूत कानून को लागू करने में सहायता करना है जबकि अभियोजन स्वीकृति सम्बन्धित प्रावधान तो कानून लागू करने में बाधक साबित हो रहा है| इसलिए प्रक्रियागत कानूनों को आज्ञापक के बजाय निर्देशात्मक ही बताया गया है|  स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने कैलाश बनाम ननकू के मामले में कहा है कि यद्यपि व्यवहार प्रक्रिया संहिता का आदेश 8 नियम 1 आज्ञापक प्रवृति का है किन्तु प्रक्रियागत कानून का भाग होने से यह निर्देशात्मक ही है| इस सिद्धांत को भी यदि समान रूप से  लागू किया जाय तो भी अभियोजन स्वीकृति मात्र एक रिक्त औपचारिकता ही हो सकती है अपरिहार्य नहीं|

उक्त तथ्यों को ध्यान रखते हुए राज्य सभा की 37 वीं रिपोर्ट दिनांक 09.03.10  में अनुशंसा की गयी  है कि अभियोजन स्वीकृति पर 15  दिवस के भीतर निर्णय कर लिया जाये अन्यथा उसे स्वतः ही  स्वीकृति मान लिया जावे| पर्यावरण संरक्षण अधिनियम ,1986  की धारा 19(1)(क) में प्रावधान है कि कोई भी न्यायालय इस अधिनयम के अंतर्गत अपराध का सरकार द्वारा शिकायत के बिना प्रसंज्ञान नहीं लेगा किन्तु उपधारा (ख) में यह भी प्रावधान किया गया है कि किसी व्यक्ति द्वारा इस आशय का  ६०  दिन का नोटिस देने के पश्चात ऐसी कार्यवाही संस्थित की जा सकेगी| अधिक सुरक्षा के लिए ऐसा ही प्रावधान दण्ड प्रक्रिया संहिता में भी किया जा सकता है| यह भी स्मरणीय है कि संयुक्त राष्ट्र संघ की साधारण सभा द्वारा वर्ष 1985 में पारित प्रस्ताव के अनुसार भी न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए न्यायाधीशों को मात्र दीवानी अभियोजन से सुरक्षा की अनुशंसा की गयी है| अतः अभियोजन पूर्व स्वीकृति का प्रावधान किसी भी प्रकार  से अपेक्षित , तर्कसंगत, न्यायोचित एवं भारतीय गणराज्य में  संवैधानिक नहीं है- चाहे देश के न्यायविद इस पर कोई भी आवरण क्यों न चढ़ा दें  और उसे  हटाये  जाने की  आवश्यकता का अब संसद को मूल्यांकन करना चाहिए है|  

Thursday 23 June 2011

राहत के लिए प्रारूप महत्वपूर्ण नहीं


सुप्रीम कोर्ट ने रामचन्द्र गणपत षिंदे बनाम महाराश्ट्र राज्य (एआईआर 1994 एस सी 1673) में कहा है कि दुःसंधि न्यायिक प्रक्रिया को अग्रसर करने का एक रूप है और मुकाबले का बहाना है जिसमें अवास्तविक बल और डिक्री या आदेष प्राप्त किया जाता है। यह न्यायालयों का प्राथमिक कर्त्तव्य एवं सर्वोच्च दायित्व है कि इस प्रकार के आदेषों को यथा षीघ्र ठीक करे तथा विवाद्यकों के विष्वास को पुनर्स्थापित करे, न्याय के स्रोतों की षुद्धता में न्यायिक दक्षता पर लगे धब्बों को हटाये, विधि के षासन के प्रति सम्मान ताकि लोग न्यायालयों में विष्वास न खोयें तथा संविधानेतर उपचार अपनाये जिससे विधि के षासन की मृत्यु की आवाज हो।यदि एक प्रत्यर्थी मामले में मुकाबला नहीं कर रहा हो तो सामान्यतया खर्चे नहीं लगाये जाने चाहिए। किन्तु अपवाद स्वरूप ऐसे व्यक्ति पर खर्चे लगाये जाने चाहिए जिसने कानून को गतिमान किया, उसका लाभ लिया और उसने एक तरफा रहने दिया। इस न्यायालय को अनुच्छेद 142 के अन्तर्गत ऐसी षक्तियों है जिसके अन्तर्गत किसी हेतुक में पूर्ण न्याय के लिए कोई आदेष पारित करने की षक्ति है।
बम्बई उच्च न्यायालय ने जोगानी एण्ड सचदेव डेवलेपमेन्ट्स बनाम लारेंस डिसूजा (2006 (2) एम एच एल जे 369) में कहा है कि राहत के लिए प्रार्थना का प्रारूप या प्रयुक्त षब्दावली असंगत तथ्य है जो कुछ देखने योग्य है वह साररूप में राहत है जो स्वीकृत करने की याचना की गई है।
सुप्रीम कोर्ट ने यूनियन कारबाईड कॉरपोरेषन बनाम भारत संघ (1992 एआईआर एससी 248) में कहा है कि बाद के चरण में प्राकृतिक न्याय पूर्ववर्ती स्तर पर विनिष्चय में जान नहीं डाल सकता जो प्रारम्भ से ही व्यर्थ था। किसी भी व्यक्ति के विचारों को सुने बिना उसके अधिकार प्रभावित नहीं होने चाहिए। हमें यह भी ध्यान है कि न्याय एक मनोवैज्ञानिक उत्सुकता है जिसमें कि लोग अपना दृश्टिकोण प्रस्तुत कर उसकी स्वीकृति चाहते हैं। एक मंच या अधिकारी के समक्ष जो कि उनके अधिकारों के विनिष्चय के दायित्वाधीन हो। फिर भी एक व्यक्ति को विषेश परिस्थितियों में यह ध्यान रखना होता है कि इसका उल्लंघन न्याय के अनुसार किस प्रकार दूर किया जाय। जब सूचना पर पुनरीक्षण आवेदन सुना जावे तो तथ्य व परिस्थितियांे में जैसा कि न्यायालय द्वारा निर्देष दिया गया पर्याप्त अवसर उपलब्ध था कोई और आगे अवसर देना आवष्यक नहीं है और यह नहीं कहा जा सकता कि अन्याय हुआ। आखिरकार बड़ा ठीक कार्य करने के लिए छोटा गलत करना अनुमत है। इन तथ्यों व परिस्थितियों में यह दुर्लभ मामलों में से एक है।

Wednesday 22 June 2011

सही कानून का अनुसरण हो


सुप्रीम कोर्ट ने सैयद दस्तगीर बनाम गोपालकृश्ण षेट्टी (1999 (6) एससीसी) में कहा है कि यदि अभिवचन के निर्वचन से दो व्याख्याएं संभव हो तो वह व्याख्या जिससे न्याय विफल होता हो को छोड़कर उसे अपनाना चाहिए जिससे न्याय का उद्देष्य फलित होता हो।
सुप्रीम कोर्ट ने पंजाब नेषनल बैंक बनाम आर.एल. वैध (एआईआर 2004 एससी 4269) में कहा है कि इस प्रकार की कार्यवाही में न्यायालय को अंधेरे में नहीं रखा जाना चाहिए, न्याय प्रषासन की पहुंच यथा संभव हर सुसंगत विशय वस्तु तक होनी चाहिए। मात्र एक निर्णय पर निर्भर होते हुए निपटान देना ठीक नहीं। दृश्टान्त का अनुसरण तब तक ही होना चाहिए जब तक कि वह न्याय पथ को आलोकित करे लेकिन आपको सूखी लकड़ियां तथा आस पास की षाखाएं काट देनी चाहिए अन्यथा आप घने जंगल और षाखाओं में खो जाओगे।
राजस्थान उच्च न्यायालय ने वाणिज्यिक कर अधिकारी बनाम अलायड इलेक्ट्रोनिक्स एण्ड मेगनेटिक्स लि0 (आरएल डब्ल्यू (4) राज. 2650) में कहा है कि मैं यह समझता हूं कि यदि एक मद दो अधिसूचनाओं के अन्तर्गत आता है तो जो अधिसूचना कर-निर्धारिती के लिए लाभप्रद है वह लागू की जानी चाहिए। इसी प्रकार सुप्रीम कोर्ट ने मैसूर मिनरलस लि0 बनाम कमीषनर आयकर (एआईआर 1999 एस सी 3185) में कहा है कि यदि कराधान के एक प्रावधान के दो अर्थ निकलते हों तो जो कर-निर्धारिती के पक्ष में हो उसे लागू किया जाना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने प्रीतमपाल बनाम मध्यप्रदेष उच्च न्यायालय (1992 एआईआर 904) में बल दिया है कि लोगों का कल्याण ही सर्वोपरि कानून है में कानून के विचार की पर्याप्त झलक मिलती है।
उड़ीसा उच्च न्यायालय ने अजन्ता एन्टरप्राईजेज बनाम हेक्सट फार्मास्यूटिक्लस (एआईआर 1987 उड़ीसा 34) में कहा है कि निश्कर्श रूप में जब प्रस्तुत करने के पांच वर्श बाद वाद परीक्षण हेतु तैयार है तो ऐसी कोई विशय वस्तु नहीं है जिससे प्रत्यर्थी यह स्थापित कर सके कि वह पूर्वाग्रह से ग्रसित होगा ।न्यायालय द्वारा वाद पत्र लौटाना न्यायोचित नहीं है।
गौहाटी उच्च न्यायालय ने वाई आबोयामा सिंह बनाम मणीपुर स्टेट कॉपरेटिव ट्राईब्यूनल (एआईआर 1985 गोहाटी 88) के मामले में निर्णय दिनांक 22.02.1984 में कहा है कि यह सुस्थापित तथ्य है कि व्याकरण पर आधारित अर्थ लगाते समय उदार अर्थ लगाया जाना चाहिए ताकि अधिनियम के उद्देष्य एवं अन्य प्रावधानों से आने वाला प्रकाष प्रावधानों के छिपे हुए उद्देष्यों को आलोकित कर सके। ट्राईब्यूनल का कोई विषेश उद्देष्य है। न्यायालय, जोे कई विपरीत प्रकृति के हैं कि, तुलना में इसके कई लाभ है। वास्तव में ट्राईब्यूनल के समक्ष की कार्यवाहियां सस्ती एवं त्वरित है। इस प्रकार अधिनियम की धारा 97 के प्रसंग में सहकारी समितियां सामान्यतया छोटे व्यक्तियों की सस्थायें है। विधायिका ने छोटे व्यक्ति को लम्बे एवं खर्चीले मुकदमेबाजी से रक्षा करने का आषय रखा था।

Tuesday 21 June 2011

रक्षक भक्षक की भूमिका न निभाएं


सुप्रीम कोर्ट ने टी. अरिवन्ददम बनाम टी.वी. सत्यपाल (एआईआर 1977 एससी 2421) में कहा है कि हमें यह कहने में लेषमात्र भी संकोच नहीं है कि याची ने न्यायालय की प्रक्रिया का बिना किसी पष्चाताप के बार-बार दुरूपयोग किया हैे। उच्च न्यायालय के निर्णय में समाविश्ट तथ्यों के कथन से स्पश्ट है कि वाद प्रथम मंुसिफ कोर्ट बैंगलोर के समक्ष बकाया है यह कानून की दया का घोर दुरूपयोग है। यदि वाद पत्र का औपचारिक पठन भी किया जावे तो स्पश्टतया, तंग करने वाली और गुणहीन है, अर्थ यह है कि वाद संस्थित करने का कोई स्पश्ट अधिकार भी नहीं देती है। अन्वीक्षण न्यायालय को आदेष 7 नियम 11 सिविल प्रक्रिया संहिता का ध्यान रखते हुए अपनी षक्तियों का प्रयोग करना चाहिए कि उसके द्वारा वांछित आधारों की पूर्ति हुई है और यदि चालाकीपूर्ण अभिवचनों से हेतुक के लिए भ्रमजाल उत्पन्न किया हो तो सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेष 10 के अन्तर्गत षोध करते हुए पहली सुनवाई में ही प्रारम्भ में ही पकड़ लेना चाहिए।
मध्यप्रदेष उच्च न्यायालय ने विनोद कुमार षुक्ल बनाम मध्य प्रदेष राज्य (1999(2) एमपीएलजे 374) में कहा है कि यह सुनिष्चित सिद्धान्त है कि साक्ष्य का वजन देखा जाता है न कि गिनती की जाती है। साक्ष्य की गुणवता अधिक महत्वपूर्ण है बजाय उसकी मात्रा महत्व रखे। यदि पुलिस अधिकारी अखण्डनीय चरित्रवाला, ईमानदार और सच्चा हो तो बिना स्वतन्त्र साक्षी के समर्थन के उसे स्वीकार किया जा सकता है।
पंजाब हरियाणा उच्च न्यायालय ने चर्चित प्रकरण एस.पी.एस. राठौड़ बनाम केन्द्रीय अन्वेक्षण ब्यूरो के परिवीक्षा के मामले में निर्णय दिनांक 01.09.10 में कहा है कि सबसे सुसंगत तथ्य इस सम्बन्ध में याची का जो पद था का कर्त्तव्य मात्र स्वयं के परिवार के संरक्षक के तौर पर कार्य करने की अपेक्षा नहीं थी। अपितु समस्त समाज के रक्षक की जिम्मेवारी था। न्याय प्रदानगी निकाय को यहां दायित्व लेना है और न्याय प्रदानगी निकाय में पीड़ितों और आम व्यक्ति का बढ़ता विष्वास और आस्था अर्जित करनी है। जोखिमपूर्ण वर्ग के साथ विषेश कर स्त्रियों के साथ अपराधों के साथ कड़ाई से निपटना समय की आवष्यकता है और यदि इसकी सुसंगतता को प्रोत्साहित नहीं किया गया तो लोगों को राज्य संस्थाओं विषेशकर न्यायिक निकायों में आम आदमी का विष्वास खो जायेगा। विषेशाधिकार एवं षक्ति सम्पन्न लोगों को अपने प्रतिश्ठा के प्रति सचेत होना चाहिए। निकाय द्वारा जो दायित्व याची पर डाला गया था, उसने महत्वपूर्ण कार्यकारी होते हुए पूर्णतया नकार दिया । परिवीक्षा के लाभ के लिए उसकी प्रार्थनाओं पर निचले न्यायालयों ने विस्तार से विचार किया है तथा सुसंगत तथ्यों के ध्यानपूर्वक विचारण के बाद निरस्त किया गया है।

Monday 20 June 2011

कारण देने में विफलता न्याय देने में विफलता है


सुप्रीम कोर्ट ने आयकर आयुक्त बनाम मानिक संस (1969 एआईआर 1122) में कहा है कि ट्राईब्यूनल को अपने समक्ष की अपील का विनिष्चय करते समय उन विधि एवं तथ्यों सम्बन्धित प्रष्नों जो आयकर अधिकारी एवं अपीलीय सहायक कमीष्नर के आदेषों से उठते है निर्धारण करना चाहिए। यह अधिनियम के स्पश्ट प्रावधानों के असंगत या योजना से असंगत षक्तियां उपयोग नहीं कर सकती।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने महावीर जी विराजमान मंदिर बनाम प्रेमनारायण (एआईआर 1965 इलाहा 494) में कहा है कि साक्ष्य अधिनियम की धारा 125 के प्रभाव में किसी भी मजिस्ट्रेट या पुलिस अधिकारी को सूचितकर्ता का नाम और उसे दी गई सूचना को प्रकट करने के लिए विवष नहीं किया जा सकता। ऐसे व्यक्तियों के संदर्भ में विषेशाधिकार का दावा किया जा सकता है और दावा अनुमत किया जावेगा लेकिन ऐसे व्यक्ति निरपवादरूप से किसी भी सिविल या आपराधिक मुकदमें में परीक्षित नहीं किये जावेंगे।
सुप्रीम कोर्ट ने श्रीमती स्वर्णलता घोश बनाम हरेन्द्र कुमार बनर्जी (एआईआर 1969 एस सी 1167) में कहा है कि न्यायिक अन्वीक्षण में एक न्यायाधीष को एक निश्कर्श जो कि न्यायोचित है मात्र वहां तक पहंुचना ही नहीं चाहिए अपितु उसे पूरी मानसिक प्रक्रिया, यदि न्यायालय या कानूनी परम्परा द्वारा अन्यथा अनुमत हो तो, विवाद से लेकर हल तक को दर्ज किया जाना चाहिए। जहां एक सारभूत विधि या तथ्य का प्रष्न उठता हो तो एक विवादित दावे का न्यायिक विनिष्चय केवल तभी संतुश्टिप्रद हल है जबकि उचित कारण द्वारा समर्थित हो जो कि न्यायाधीष को परामर्ष देता हो, एक आदेष जो मात्र विवादित मामले का विनिष्चय करता हो कारण द्वारा संदर्भित नहीं है तो निर्णय बिल्कुल नहीं है। यह इस बात को सुनिष्चित करने के लिए है कि यह किसी उन्माद या कल्पना का परिणाम नहीं है। यह मामलों का विनिष्चय कानून और कानून द्वारा विनिष्चित प्रक्रिया के अनुसार होना सुनिष्चित करने के उद्देष्य से है। सुप्रीम कोर्ट ने इसी क्रम में पंजाब राज्य बनाम भागसिंह (2004 (1) एससीसी 547) में पुनः बल दिया है कि कारण देने में असफल रहना न्याय देने में असफलता होना होगा।

Sunday 19 June 2011

न्यायालय का उद्देश्य सत्य की स्थापना


सुप्रीम कोर्ट ने कालीराम बनाम हिमाचल प्रदेष राज्य (1973 एआईआर 2773) में कहा है कि न्यायालय भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 114 के अनुसार प्राकृतिक घटनाओं, मानव आचरण तथा सार्वजनिक एवं निजी व्यवसाय के विषेश तथ्यों पर ध्यान देते हुए किसी तथ्य की घटित होने की स्थिति मान सकता है । इस धारा में दिये गये उदाहरण मानव की विभिन्न गतिविधियों के क्षेत्रों से लिए हुए हैं किन्तु परिपूर्ण नहीं है। वे मानव अनुभव पर आधारित है और प्रत्येक मामले के परिपेक्ष्य में लागू किये जाने है। प्रत्येक मामले के तथ्यों के अनुसार इस धारा की परिस्थितियों में अन्य मान्यताएं भी हो सकती है। निष्चित रूप से यह एक प्राथमिक सिद्धान्त है कि एक अभियुक्त दोश सिद्ध किये जाने से पहले दोशी होना चाहिए न कि दोशी हो सकता है और हो सकता है तथा होना चाहिए में निष्चितता के आधार पर बड़ा अन्तर है।
सुप्रीम कोर्ट ने मद्रास पोर्ट ट्रस्ट बनाम हिमांषु इन्टरनेषनल (एआईआर 1979 एस सी 1144) में कहा है कि इस धारा पर आधारित समय सीमा के अभिवचन पर यह न्यायालय विपरीत दृश्टिकोण लेता है तथा यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि पोर्ट ट्रस्ट जैसे लोक प्राधिकरण, नैतिकता और न्याय की दृश्टि से नागरिक का वाजिब दावा विफल करने के लिए ऐसा तर्क ले रहे हैं। यह समय आ गया है जबकि सरकार और लोक प्राधिकारियों को इस प्रकार के वाजिब दावे तकनीकी आधारों पर विफल करने की परम्परा पर निर्भर नहीं रहना चाहिए और वही करना चाहिए जो कि नागरिकों के लिए उचित व न्यायपूर्ण हो।
सुप्रीम कोर्ट ने राश्ट्रीय मानवाधिकार आयोग बनाम गुजरात राज्य के निर्णय दिनांक 01.05.09 में कहा है कि यह महत्वपूर्ण है कि कानून उचित एवं न्यायपूर्ण हो इसके लिए आवष्यक है कि यह दोश रहित हो। यह न्याय के साथ वचन निभा सके और यह दूशित न हो तथा तटस्थ रहे। कानून को इस तरह षांत बैठा नहीं देखा जाना चाहिए कि जो इसका उल्लंघन करे बच निकले तथा जो इससे संरक्षण मांगे वह आषा छोड़ दे। एक दार्षनिक ने कहा है कि कानून मकड़जाल की तरह है यदि कुछ हल्का या कमजोर इसके अन्दर गिरता है पकड़ा जाता है और बड़ा इसके अन्दर से होता हुआ बाहर निकल जाता है। कानून के प्रारम्भ से ही यह धारण रही है कि न्यायालय का उद्देष्य सत्य की खोज, अन्वेशण तथा स्थापना है। इस न्यायालय ने धारित किया है कि एक अंतिम /बन्द रिपोर्ट जिसे अभियोजन ने प्रस्तुत किया हो सूचित कर्ता को सुने बिना स्वीकार नहीं की जा सकती।
सुप्रीम कोर्ट ने ठाकुर सुखपालसिंह बनाम ठाकुर कल्याणसिंह (1963 एआईआर 146) में कहा है कि मात्र इस आधार पर जिला न्यायाधीष द्वारा अपील निरस्त करना न्यायोचित नहीं है कि वह बहस नहीं कर सकता। दी गई परिस्थितियों में उसके लिए आवष्यक था कि वह अपील के आधारों पर विचार करता और मामले पर गुणावगुण के आधार पर निर्णय करता। उसने ऐसा नहीं किया है।

Saturday 18 June 2011

प्रक्रियागत नियम न्याय के साधक हैं बाधक नहीं


सुप्रीम कोर्ट ने मैनेंजिंग कमेटी बनाम सीके राजन (जेटी 2003 (7) सुको 312) में कहा है कि लोक हित वाद ठहर गए हैं और इसकी आवष्यकता को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। न्यायालय ने एक संवेदना आधारित न्यायषास्त्र की खोज की। प्रक्रियागत औचित्य को अधिकारों से वंचित करने वाले सारभूत मुद्दों से कम महत्व दिया गया। मान्य स्थिति के नियम को मन्द कर दिया गया। न्यायालय संवेदनहीन एंव अरूचिबद्ध के स्थान पर न्याय प्रषासन में सक्रिय भागीदार हो गये।
सुप्रीम कोर्ट ने गाजियाबाद विकास प्राधिकरण बनाम बलवीर सिंह (एआईआर 2004 सुको 2141) में कहा है कि यदि एक उच्चतर मंच से निशेधाज्ञा नहीं ले रखी है तो ऊपरी मंच में अपील या पुनरीक्षण दायर करना मात्र निचले मंच के आदेष की अनुपालना नहीं करने के लिए अधिकृत नहीं करेगा। यहां तक की यदि प्राधिकारी ने अपील या पुनरीक्षण दायर कर रखी है और निशेधाज्ञा प्राप्त नहीं की है या मना कर दिया गया है तो आदेष की पालना की जानी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने सैयद मोहम्मद बनाम अब्दुल्ला हबीब (1988 4 एससीसी 343) में कहा है कि प्रक्रिया गत कानून हमेषा न्याय की मदद के लिए है न कि विरोधाभास या जिस लक्ष्य को प्राप्त करना है उसकी विफलता के लिए।
सुप्रीम कोर्ट ने राम मनोहर लाल बनाम एनबीएम सप्लाई (एआईआर 1969 सुको 1267) में कहा है कि एक पक्षकार को वाजिब राहत से महज इसलिए इन्कार नहीं किया जा सकता कि कुछ चूक, उपेक्षा, गलती या प्रक्रियागत नियम का उल्लंघन हुआ है। न्याय प्रषासन के लिए प्रक्रियागत नियमों से नौकरानी की अपेक्षा की जाती है। इसलिए इनका उदार और इस प्रकार अर्थ लगाया जाना चाहिए जिससे कि सारभूत अधिकारों को प्रभावी रूप से प्रवृतमान किया जा सके।
सुप्रीम कोर्ट ने नरोहां बनाम प्रेम कुमारी (एआईआर 1980 सुको 193) में कहा है कि जब अभिवचनों का अर्थ लगाया जाये तो सामान्य बुद्धि को ठण्डे बस्ते में नहीं छोड़ देना चाहिए। पक्षकार सारभूत प्रष्नों पर जीते अथवा हारे किन्तु तकनीकी उत्पीड़न पर नहीं और न्यायालयों दुश्प्रेरक नहीं हो सकते।
सुप्रीम कोर्ट ने एसोसिएटेड जर्नल बनाम मैसूर पेपर मिल्स के निर्णय दिनांक 11.07.06 में कहा है कि हमारा विचार है कि प्रक्रिया गत नियम न्याय के साथ छल करने का साधन नहीं होने चाहिए। वास्तव में नियम न्याय के त्वरित निश्पादन में मदद के लिए है।

Friday 17 June 2011

न्यायालय सभी प्रश्नों का पक्षपातहीन निर्णय करें


सुप्रीम कोर्ट ने न्यू प्रकाष ट्रांसपोर्ट कम्पनी बनाम न्यू स्वर्ण ट्रांसपोर्ट कम्पनी के निर्णय दिनांक 30.09.56 में कहा है कि सुविधा और न्याय की प्रायः आपस में बनती नहीं है। जिन लोगों का कर्त्तव्य अपील का निर्णय करना हो उन्हें यह न्यायिकतः करना चाहिए। उन्हें संदर्भित किये गये प्रष्न बिना पक्षपात के विरचित करने चाहिए और उन्हें प्रत्येक पक्षकार को अपना मामला प्रस्तुत करने के लिए पूर्ण अवसर देना चाहिए। निर्णय इसी भावना और अर्थ में दिया जाना चाहिए जिस ट्राईब्यूनल का कर्त्तव्य है वह न्याय करे।
सुप्रीम कोर्ट ने एस.जी. जयसिंघानी बनाम भारत संघ (1967 एआईआर 1427) में कहा है कि विधि के षासन का प्रथम तत्व मनमानी षक्तियों का अभाव है और जब कभी भी कार्यपालिका के अधिकारी को विवेकाधिकार दिया जाये तो वह स्पश्ट रूप से परिभाशित सीमाओं के भीतर बन्धा हुआ होना चाहिये और उनके निर्णय सुज्ञात सिद्धान्तों और नियमों के प्रयोग द्वारा लियो जाने चाहिये।
सुप्रीम कोर्ट ने द्वारिकेष षुगर इण्डस्ट्रीज बनाम प्रेम हैवी इंजीनियरिंग वर्क्स (1997 एसएससी 450) में कहा है कि जब इस न्यायालय द्वारा घोशित कानून के परिणामस्वरूप कानूनी स्थिति स्पश्ट हो तो उच्च न्यायालय सहित अधिनस्थ न्यायालयों के लिए न्यायिक अनौचित्य होगा कि वे निर्णित निर्णयों की अनदेखी करें और तब वे कानूनी स्थिति से विपरीत निर्णय पारित करें। इस प्रकार के न्यायिक साहस की अनुमति नहीं दी जा सकती और हम अधीनस्थ न्यायालयों की सुनिष्चित सिद्धान्तों के लागू न करने और उन्मादी निर्णय देने जिसका आवष्यकीय प्रभाव यह होता है कि एक पक्षकार को गलत एवं अनुचित लाभ मिलता है की हम कड़ी भर्त्सना करते हैं ।अब उपयुक्त समय है कि यह प्रवृति रूके।
सुप्रीम कोर्ट ने भारत संघ बनाम माजी जंग माया (एआईआर 1977 सुको 757) में कहा है कि वास्तव में प्रषासनिक निर्देषों के माध्यम से इस प्रकार के तर्क को निरस्त करके जो कि केन्द्रीय राजस्व बोर्ड द्वारा प्रेशित किया गया था कि यह तय किया जाता है कि प्रषासनिक निर्देष अथवा आदेष कोई कानूनी नियम नहीं है।

Thursday 16 June 2011

कारण ही निर्णय के प्राण हैं


राजस्थान उच्च न्यायालय ने चन्द्रपालसिंह चौधरी बनाम विजीतसिंह के निर्णय दिनांक 03.03.09 में कहा है कि एक अन्तवर्ती आदेष वह है कि जो एक मामले विषेश या पहलू विषेश या मुद्दे विषेश की कार्यवाही को निर्धारित करता हो। फिर भी पुलिस को इन षक्तियों के चालाकी से दुरूपयोग की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए और देष के कानून को पेचिदा करने।
सुप्रीम कोर्ट ने जगमोहन सिंह बनाम पंजाब राज्य के निर्णय दिनांक 29.04.08 में कहा है कि न्यायालय की ओर से एक गलती में परिवचन प्रकृति की गलती भी षामिल है जिसे की पुनरीक्षा के आदेष द्वारा ठीक किया जा सकता है। एक पुनरीक्षा का आवेदन यदि पर्याप्त कारण मौजूद है तो संधारण योग्य है। पुनरीक्षण हेतु एक आवेदन पत्र ‘‘न्यायालय के कार्य से किसी को नुकसान नहीं होना चाहिए’’ के सिद्धान्त से भी आवष्यक बनता है।
भारत संघ बनाम मोहनलाल कपूर (1974 एआईआर 87) में कहा है कि कारण वास्तविक निश्कर्शों से और विशय वस्तु जिस पर कारण आधारित है के बीच सम्बन्ध का काम करते है वे यह प्रकट करते हैं कि एक निर्णय लेने चाहे वह षुद्ध प्रषासनिक या अर्द्ध न्यायिक हो पर दिमाग किस तरह लगाया गया। उन्हें विचार किय गये तथ्यों और पहंुचे गये निश्कर्श के मध्य तर्क संगत सम्बन्ध प्रकट करना चाहिए। मात्र इसी तरीके से दर्ज किये गये विचार तथा निर्णय स्पश्ट रूप से प्रदर्षित कर सकते हैं कि वे न्यायपूर्ण तथा तर्क संगत है।
सुप्रीम कोर्ट ने हिन्दुस्तान टाईम्स बनाम भारत संघ (एआईआर 1998 सुको 688) में कहा है कि कारण के अभाव मंे सुप्रीम कोर्ट यह जानने से वंचित हो गया कि वे क्या परिस्थितियां थी जिनमें उच्च न्यायालय ने सरसरी तौर पर निरस्त करना उचित समझा यह एक निपटान का असंतोशजनक तरीका है। इस बात पर बल देने की आवष्यकता नहीं है कि उच्च न्यायालय को अपने निश्कर्शों के लिए चाहे कितने ही संक्षिप्त हो कारण देने चाहिये। कारण देने का दायित्व स्पश्टता लाता है और मनमानेपन की गुंजाइष को कम करता है और उच्चतर मंच इन कारणों की षुद्धता की जांच कर सकता है। इस न्यायालय के लिए प्रकरण को पुनः प्रतिप्रेेशित करना कठिन हो जाता है क्योंकि जब तक प्रकरण इस न्यायालय में पहंुचता है कई वर्श व्यतीत हो चुके होते हैं। मामले का निपटान महत्वपूर्ण है लेकिन निर्णय की गुणवता यदि अधिक नहीं तो भी समान महत्वपूर्ण है। इन सब संषोधनों के बावजूद भी विद्यायिका ने मर्यादा की अवधि तय करने पर विचार नहीं किया है। हमारे विचार में यह महत्वपूर्ण और स्पश्ट है कि विद्यायिका का उद्देष्य बकाया की गणना और वसूली के लिए कोई मर्यादावधि तय नहीं की है जैसे कि रकम ट्रस्टकोश को देनी है और वसूली दावे द्वारा रही है। भारतीय मर्यादा अधिनियम 1963 के प्रावधान लागू नहीं होते। न्यायालय द्वारा कारण देने में असफलता एक विवाद्यक को दिये गये अपील के अधिकार का अतिक्रमण है। हमारे विचार से एक हारने वाले पक्षकार या उसके वकील को तर्क संगत निर्णय से मिलने वाला संतोश अच्छे निर्णय की परीक्षा है। विवाद्यकों के लिए एक न्यायाधीष का कर्त्तव्य है कि अपनी सत्यनिश्ठा को बनाये रखे और हारने वाले पक्षकारों को जानने दे कि उसने मामला क्यों हारा।

Wednesday 15 June 2011

न्यायालय न्यायिक विफलता को रोकें


सुप्रीम कोर्ट ने प्रसिद्ध प्रकरण जाहीरा हबीबुल्ला षेख बनाम गुजरात राज्य (2004 एआईआर 3114) में कहा है कि यदि राज्य की मषीनरी नागरिकों के जीवन, स्वतन्त्रता और सम्पति की रक्षा करने में असफल रहती है और अनुसंधान इस प्रकार की जाती है जिससे अभियुक्तों की मदद हो तो इस न्यायालय के लिए उपयुक्त होगा कि न्याय के लिए पीड़ित और उसके परिवारों पर होेन वाले अनुचित स्खलन को रोकने के लिए आगे आये । यद्यपि नाम कोई महत्वपूर्ण नहीं है। इस बात के लिए प्रार्थना की कि षपथ पत्रों को रिकॉर्ड पर लिया जाये, स्वीकार किया जावे और षपथ पत्र देने वालों से अतिरिक्त साक्ष्य लिया जाये और यदि अतिरिक्त साक्ष्य के बाद उच्च न्यायालय आवष्यक समझता तो पुनः अन्वीक्षा हेतु निर्देष जारी किये जाये। चूंकि हम पुनः परीक्षण के निर्देष देते हैं अतः संहिता की धारा 309 के अनुसरण में इसे दिन प्रतिदिन के आधार पर और दिसम्बर 2004 के अन्त तक पूरा करना उपयुक्त रहेगा।
सुप्रीम कोर्ट ने भारत संघ बनाम सूबेदार देवासिंह (2006 एआईआर 909) में कहा है कि यदि एक पक्षकार किसी आदेष से व्यथित है कि उसके विचार में वह आदेष गलत या नियम विरूद्ध या जिसका लागू करना व्यवहारिक रूप से असंभव है तो उसे उसी न्यायालय में जाना चाहिऐ या अपीलीय क्षेत्राधिकार वाले न्यायालय में जाना चाहिए। आदेष की षुद्धता या गलती को अवमान कार्यवाही में नहीं उठाया जा सकता। सही या गलत हो आदेष की अनुपालना होनी चाहिए। न्यायालय के आदेष का उल्लंघन एक पक्षकार को अवमान के लिए दायी ठहराये जायेगा।
सुप्रीम कोर्ट ने नवाब खां अब्बास खां बनाम गुजरात राज्य (1974 एआईआर सुको 1471) में कहा है कि यदि एक पक्षकार को संविधान द्वारा गारंटी किये गये अधिकार को हानि पहंुचती है तो उसके लिए सुरक्षित रास्ता यही है कि जब तक विधायिका द्वारा उस पर सीधी और सुनिष्चित रोषनी नहीं डाली जाती तो प्रभावित पक्षकारों को सुने बिना दिये गये आदेष को प्रारम्भ से ही व्यर्थ एवं निश्प्रभ आना जाना चाहिए। दूसरे मामलों में प्राकृतिक न्याय के उल्लंघन में दिया गया आदेष  न्यायालय द्वारा सीमित अर्थों में अवैध ठहराये जाने योग्य है।
सुप्रीम कोर्ट ने मोतीलाल सर्राफ बनाम जम्मू कष्मीर राज्य के निर्णय दिनांक 29.09.06 में कहा है कि अतर्कसंगत विलम्ब को रोकना न्यायालय और अभियोजन दोनों का बाध्यकारी दायित्व है।

Tuesday 14 June 2011

वास्तविक न्याय


सुप्रीम कोर्ट ने रूपा अषोक हुर्रा बनाम अषोक हुर्रा (एआईआर 2005 एस सी 1771) में अपने उदार न्यायपूर्ण विचार व्यक्त करते हुए कहा है कि कानून को समाज का अनुसरण करना चाहिए न कि परित्याग जिससे समाज अनायास आपति में पड़ जाय,और सामाजिक परिवर्तन के साथ अपने रास्ते पर कड़ाई से, बिना विचलन या व्यवधान के । जहां कि इसी प्रकार के स्वर में कहा गया है कि जब कोई अपनी यात्रा गलत दिषा में पाता है उसे हमेषा सही दिषा में मुड़ने का यत्न करना चाहिए क्योंकि विधि न्यायालयों को बजाय गलत के हमेषा सही रास्ते पर चलना चाहिए । यह न्यायालय अपने आदेष को वापिस लेने या पुनरीक्षा करने से प्रवारित नहीं है यदि यह संतुश्ट है कि न्याय के लिए ऐसा करना आवष्यक है। प्रासंगिक रूप से यह न्यायालय मात्र पुनरीक्षण क्षेत्राधिकार जो कि संविधान द्वारा प्रदत है के अन्तर्गत ही परिवेदनाओं का निवारण नहीं करता अपितु देष की प्रत्येक परिवेदना के लिए एक प्लेटफॉर्म व मंच है। अब समय आ गया है कि जब प्रक्रियागत न्याय को वास्तविक न्याय के लिए रास्ता छोड़ देना चाहिए और कानूनी न्यायालयों के प्रयास इसी ओर निर्दिश्ट होने चाहिए। वे दिन चले गये हैं जब कानून के निर्दयी ढंग या व्याख्या पर बल दिया जाता था- वर्तमान न्यायालयों की उदारता इसका महानतम गुण है और इकीसवीं सदी में आगे बढ़ने के लिए न्यायोन्मुख अवधारणा आज की आवष्यकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान राज्य बनाम खण्डाका जैन ज्वैलर्स (2008 एआईआर 509) में कहा है कि किसी भी व्यक्ति को वादकरण के परिणामस्वरूप हानि नहीं होनी चाहिए। चूंकि विवाद को पर्याप्त समय हो गया है। अतः वादकरण की पीड़ा से प्रत्यर्थी पीड़ित नहीं होना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने वाई.ए.अजीत बनाम सोफाना अजीत (2007 एआईआर 3151) में कहा है कि कार्य हेतुक से सामान्य यह अर्थ है जो एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति के विरूद्ध उपचार प्राप्त करने के लिए अधिकृत करता है। इस उपवाक्य में जैेसे कि पुराने समय से षामिल है कि तथ्यों का प्रत्येक समूह जो कि याची को सफल होने के लिए आवष्यक है और प्रत्येक तथ्य जो कि प्रत्यर्थी द्वारा विपरीत अधिकार रखता है। कार्य हेतुक में विषेशकर विपक्षी की ओर से कार्य जो कि प्रार्थी द्वारा षिकायत या परिवेदना की विशय वस्तु है जिस पर कार्य आधारित है, केवल तकनीकी कार्य हेतुक ही नहीं है।

Monday 13 June 2011

वास्तविक न्याय के आयाम


सुप्रीम कोर्ट ने ओमप्रकाष मरवाह बनाम जगदीषलाल मरवाह (2008 (15) स्केल 560) में कहा है कि न्यायालय के कृत्य से किसी को कोई हानि नहीं पहुंचनी चाहिए। इस न्यायालय ने धारित किया कि गलती का न्यायालय द्वारा संषोधन होना चाहिए और पक्षकारों को जब गलती हुई उस तिथि की स्थिति में पुनर्स्थापित होना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने जंगसिंह बनाम बृजलाल (1966 एआईआर 1634) में कहा है कि मामले के तथ्य लगभग स्वतः बोलते हैं। न्यायालय के मार्गदर्षन के लिए इससे बड़ा कोई सिद्धान्त नहीं है कि न्यायालय के कृत्य से विवाद्यक को कोई हानि नहीं पहंुचनी चाहिए और न्यायालय का यह बाध्यकारी कर्त्तव्य है कि एक पक्षकार को न्यायालय की चूक से हानि होती है तो वह उस स्थिति में पुनर्स्थापित किया जाना चाहिए जो कि चूक से पहले थी।
सुप्रीम कोर्ट ने द्वारका प्रसाद लक्ष्मीनारायण बनाम उत्तर प्रदेष राज्य (1954 एआईआर एस सी 224) में कहा है कि व्यापार के विनियमीकरण या सामान्य रूप में उपलब्ध वस्तु के व्यापार को एक कानून या आदेष जो कि कार्यपालक को मनमर्जी एवं अनियंत्रित षक्तियां देता है, तर्क संगत नहीं ठहराया जा सकता। विधायन यदि यह अनुच्छेद 19 (1) (जी) और 19 (6) द्वारा अनुमत सामाजिक नियंत्रण के मध्य संतुलन स्थापित नहीं करता ,जो कि मनमानेपन से या अधिकारों पर अत्यधिक आक्रमण करता है, तर्कसंगतता की किस्म का नहीं माना जा सकता । इसलिए कारण जो कि दर्ज करने आवष्यक है। व्यक्तिगत या विशय सम्बन्धित संतुश्टि लाईसेन्स प्रदाता अधिकारी के लिए है न कि पीड़ित व्यक्ति को कोई उपचार प्रदानगी के लिए है।
सुप्रीम केार्ट ने राज्य बनाम अहमद जान के निर्णय दिनांक 12.08.08 में कहा है कि राज्य समाज के सामुहिक हेतुक का प्रतिनिधित्व करता है और उसे विवाद्यक की स्थिति स्वीकृत है। न्यायालयों को अन्यायोन्मुख विचारधारा नहीं अपनानी चाहिए। विलम्ब को क्षमा करने की याचिका को अस्वीकार करके, जहां प्रार्थी राज्य हो तो सौतेला व्यवहार नहीं होना चाहिए। न्यायपालिका अपनी षक्ति जिससे तकनीकी आधार पर अन्याय के वैधानीकीकरण किया जा सके के लिए सम्मानित नहीं की जाती है लेकिन यह अन्याय को हटाने में सक्षम है तथा ऐसा करने की इससे आषा है। यह सर्वविदित है कि इस न्यायालय में दायर होने वाले मामलों में यह न्यायालय काफी उदार है। किन्तु यह संदेष पद सोपान में निचले न्यायालयों तक नहीं पहुंचा है। 

Saturday 11 June 2011

न्यायिक दायित्व


सुप्रीम कोर्ट ने मेनका संजय गांधी बनाम रानी जेठमलानी (1979 एआईआर 468) में कहा है कि हमें याची के आधारों की इस नियम के आलोक में परीक्षा करनी है कि सामान्यतया षिकायतकर्ता को यह अधिकार है कि क्षेत्राधिकार वाले  न्यायालयों में से चुनाव करे और अभियुक्त इस बात पर हावी नहीं हो सकता कि उसके विरूद्ध किस न्यायालय में अन्वीक्षा की जाय। अन्वीक्षण न्यायालय को अभियुक्त की व्यक्तिगत उपस्थिति से छूट के लिए, आवष्यक अवसरांे को छोड़ते हुए, अपनी षक्ति का प्रयोग करना चाहिए। मजिस्ट्रेट न्यायालय की कार्यवाहियांे के व्यवस्थित संचालन का स्वामी है। यदि धमकाने से उसका कार्य बाधित होता है तो उसकी प्राधिकृति नहीं लंगड़ानी चाहिए। भीड़ न्यायिक प्रक्रिया के गियर एवं पहियों को व्यवस्था से बाहर कर सकती है। सुनियोजित भय पक्षकार के अपना मामला या परीक्षण में भाग लेना की क्षमता बाधित कर सकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने वकील प्रसाद सिंह बनाम बिहार राज्य के निर्णय दिनांक 23.01.09 में कहा है कि ऐसी प्रक्रिया जो तर्क संगत त्वरित अन्वीक्षा सुनिष्चित नहीं करती उसे तर्कसंगत, उचित या न्यायपूर्ण नहीं माना जा सकता और यह अनुच्छेद 21 के क्रम में दूशित है। न्यायालय ने स्पश्ट किया कि अन्वीक्षण का अर्थ तर्कसंगत त्वरित अन्वीक्षण से है जो कि अनुच्छेद 21 के अर्थ में जीवन तथा स्वतन्त्रता के मूल अधिकार का एकीकृत एवं आवष्यक भाग है। अनुच्छेद 21 के अनुसरण में अन्वीक्षण के अधिकार के संदर्भ में सभी चरणों पर नाम्ना- अनुसंधान, जांच, अन्वीक्षा, अपील, पुनरीक्षण एवं पुनः अन्वीक्षण षामिल है।
सुप्रीम कोर्ट ने बाबूभाई जमनादास पटेल बनाम गुजरात राज्य के निर्णय दिनांक 02.09.09 में कहा है कि न्यायालय को नागरिकों जिनके हितों के लिए वे बनाये गये हैं उनके द्वारा दायित्वों व कर्त्तव्यों के निर्वहन में प्राधिकारियों की अकर्मण्यता पर लगातार सतर्कता रखनी होती है । अतः इस बात में कोई संदेह नहीं है कि जब न्यायालय को यह संतोश हो कि अनुसंधान नहीं हो रहा है या हितबद्ध लोगों द्वारा प्रभावित हो रहा है तो उपयुक्त मामलों में न्यायालय को किसी अपराध के अनुसंधान का अनुश्रवण करना पड़ता है । यदि न्यायालय के यह ध्यान में लाया जाता है कि किसी अपराध में अनुसंधान जिस प्रकार से होना चाहिए उस तरह नहीं हो रहा है तो अनुसंधान एजेन्सी को न्यायालय द्वारा निर्देष दिया जाये कि निर्धारित दिषा निर्देषों के अनुरूप अनुसंधान हो अन्यथा अनुसंधान का उद्देष्य फलहीन हो जायेगा।
सुप्रीम कोर्ट ने अरूंधति राय के अवमान प्रकरण के निर्णय दिनांक 06.03.02 में कहा है कि एक समाज जो कि पहले से राजनैतिक दिवालियापन, आर्थिक विपन्नता तथा धार्मिक व सांस्कृतिक असहिश्णुता से ग्रसित हो में न्यायिक असहिश्णुता एक गंभीर चोट का कार्य करेगी। यदि न्यायपलिका अपने ऊपर से जन संवीक्षण एवं जिम्मेदारी को हटा लेती है तथा समाज से अपना सम्बन्ध विच्छेद कर लेती है तो जिसे सर्वप्रथम पूर्ण करने के लिए इसे स्थापित किया गया था इसका अभिप्राय यह होगा कि भारतीय लोकतन्त्र का दूसरा स्तम्भ धराषायी हो जायेगा। न्यायिक तानाषाही एक सैनिक तानाषाही या अन्य एक चक्रीय षासन से भी अधिक घातक साबित होगी। कानून का सुपरिचित प्रस्थापन यह है कि वह धनुर्धर को तीर चलाते ही दण्डित करता है चाहे यह लक्ष्य के टकराने में चूक जाये।