Thursday 28 February 2013

भारतीय न्याय व्यवस्था पर श्वेत-पत्र

उदारीकरण से देश में सूचना क्रांति, संचार, परिवहन, चिकित्सा आदि क्षेत्रों में सुधार अवश्य हुआ है किन्तु फिर भी आम आदमी की समस्याओं में बढ़ोतरी ही हुई है| आज भारत में आम नागरिक की जान-माल-सम्मान तीनों ही सुरक्षित नहीं हैं| ऊँचे लोक पदधारियों को सरकार जनता के पैसे से सुरक्षा उपलब्ध करवा देती है और पूंजीपति लोग अपनी स्वयं की ब्रिगेड रख रहे हैं या अपनी सम्पति, उद्योग, व्यापार की सुरक्षा के लिए पुलिस को मंथली, हफ्ता या बंधी देते हैं| छोटे व्यावसायी संगठित रूप में अपने सदस्यों से उगाही करके सुरक्षा के लिए पुलिस को धन देते हैं और पुलिस का बाहुबलियों की तरह उपयोग करते हैं| अन्य इंस्पेक्टरों-अधिकारियों की भी वे इसी भाव से सेवा करते हैं| व्यावसायियों को भ्रष्टाचार से वास्तव में कभी कोई आपति नहीं होती, जैसा कि भ्रष्टाचार के एक मामले में सुप्रीम कोर्ट के एक न्यायाधिपति ने कहा है,  वे तो अपनी वस्तु या सेवा की लागत में इसे शामिल कर लेते हैं और इसे अंतत: जनता ही वहन करती है| इतिहास साक्षी है कि व्यापरी वर्ग को किसी भी शासक या शासन प्रणाली में कोई आपति नहीं रही क्योंकि वह पैसे की शक्ति को भली भांति पहचानता है और जरुरत पड़ने पर चन्दा भेंट आदि देने में सक्षम है| 
भारत में एक सरकारी कर्मचारी को किसी दुराचार का संदिग्ध पाए जाने पर उसे निलंबित किया जा सकता है किन्तु उसे इस अवधि में जीवन यापन भत्ता दिया जाता है और उसे निर्दोष पाए जाने पर सभी बकाया वेतन और परिलब्धियां भुगतान कर नियमित सेवा में पुन: ले लिया जाता है| यदि उसे गंभीर दुराचार का दोषी पाया जाने पर उसकी सेवाएं समाप्त भी कर दी जाएँ तो भुगतान किया गया जीवन यापन भत्ता उससे वसूल नहीं किया जाता| दूसरी ओर यदि एक सामान्य नागरिक को किसी अपराध का संदिग्ध पाया जाये तो अनावश्यक होने पर भी पुलिस उसे गिरफ्तार कर लेती है और मजिस्ट्रेट उसे जेल भेज देता है, उसकी स्वतंत्रता का कोई मूल्य नहीं समझा जाता| देश के पुलिस आयोग के अनुसार 60% गिरफ्तारियां अनावश्यक हो रही हैं| गिरफ्तार व्यक्ति की प्रतिष्ठा को तो अपुर्तनीय क्षति होती ही है, इसके साथ साथ उसका परिवार इस अवधि में उसके स्नेह, संरक्षा व सानिद्य से वंचित रहता है| गिरफ्तार व्यक्ति हिरासती यातनाएं सहने के अतिरिक्त अपने जीविकोपार्जन से वंचित रहता है जिसका परिणाम उसके आश्रितों व परिवार को अनावश्यक भुगतना पड़ता है| कमजोर और भ्रष्ट न्याय व्यवस्था के चलते देश में मात्र 2% मामलों में दोष सिद्धियाँ हो पाती हैं और बलात्कार जैसे संगीन अपराधों में भी यह 26% से अधिक नहीं है| एक लम्बी अवधि की उत्पीडनकारी कानूनी प्रक्रिया के बाद जब यह व्यक्ति हिरासत से मुक्त हो जाता है तो भी उसे इस अनुचित हिरासत के लिए कोई क्षतिपूर्ति नहीं दी जाती जबकि सरकारी कर्मचारियों के दोषमुक्त होने पर उन्हें सम्पूर्ण अवधि का वेतन और परिलब्धियां भुगतान की जाती हैं|ठीक इसी प्रकार एक आपराधिक मामले में गवाही देने के लिए सरकारी कर्मचारी को वेतन और यात्रा भत्ता दोनों दिए जाते हैं जबकि आम नागरिक को यह सारा नुकसान स्वयम को वहां करना पड़ता है| हमारी यह व्यवस्था जनतांत्रिक सिद्धांतों के विपरीत और साम्राज्यवादी नीतियों की पोषक है| इल्लाहाबाद उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने पुलिस को सबसे बड़ा अपराधी समूह बताया था और उसके संरक्षण के लिए दिल्ली पुलिस (दंड एवं अपील) नियम,1980 के नियम 11(1) में तो यह विधिवत प्रावधान है कि यदि एक पुलिस अधिकारी को न्यायालय द्वारा दोष सिद्ध कर दिया जाता है तो भी वह अपील के निस्तारण तक सेवा में बना रहेगा| उल्लेखनीय है कि सी बी आई भी इसी नियम से शासित है और इससे लाभान्वित होती है| ऐसे भी उदाहरण हैं जहां इस नियम की आड़ में सरकार ने पुलिस अधिकारियों को अन्तिमत: दोषी पाए जाने के बावजूद भी 12 वर्ष तक सरकारी सेवा में बनाए रखा क्योंकि इन्हीं पुलिस अधिकारियों का अनुचित उपयोग कर लोग सत्ता में बने हुए हैं| ऐसी स्थिति में यह विश्वास करने का कोई कारण  नहीं कि देश में लोकतंत्र है  बल्कि लोकतंत्र तो मात्र कागजों तक सिमट कर रह गया है और देश में न्याय के नाम पर कागजी घोड़े दौड़ रहे हैं|   

अमेरिका में एक अभियुक्त को संयुक्त राज्य का अपराधी कहा जाता है और वहां सभी आपराधिक मामले राज्य द्वारा ही प्रस्तुत किये जाते हैं व वहां भारत की तरह कोई व्यक्तिगत आपराधिक शिकायत नहीं होती है| अमेरिका में प्रति लाख जनसंख्या 256 और भारत में 130 पुलिस है जबकि अमेरिका में भारत की तुलना में प्रति लाख जनसंख्या 4 गुणे मामले दर्ज होते हैं| तदनुसार भारत में प्रति लाख जनसंख्या 68 पुलिस होना पर्याप्त है| किन्तु भारत में पुलिस बल का काफी समय विशिष्ट लोगों को वैध और अवैध सुरक्षा देने, उनके घर बेगार करने, वसूली करने आदि में लग जाता है और जनता की सेवा में पुलिस थानों में तो मात्र 25% पुलिस बल ही उपलब्ध है| अपनी बची खुची ऊर्जा व समय  का उपयोग भी पुलिस अनावश्यक गिरफ्तारियों में करती है| आपराधिक मामले को अमेरिका में मामला कहा जाता है और सिविल मामले को वहां सिविल शिकायत कहा जाता है| भारत में भी गोरे कमेटी ने वर्ष 1971 में यही सिफारिश की थी कि समस्त आपराधिक मामलों को राज्य का मामला समझा जाये किन्तु उस पर आज तक कोई सार्थक कार्यवाही नहीं हुई है| हवाई अड्डों की सुरक्षा में तैनात पुलिस आगंतुकों के साथ, जो उच्च वर्ग के होते हैं, बड़ी शालीनता से पेश आती है| वही मौक़ापरस्त पुलिस थानों  में पहुंचते ही गाली-गलोज, अभद्र व्यवहार और मार पीट पर उतारू हो जाती है क्योंकि उसे इस बात का ज्ञान और विश्वास है कि आम आदमी उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता चाहे वह किसी भी न्यायिक या गैर-न्यायिक अधिकारी के पास चला जाये, कानून और व्यवस्था उसका साथ देगी| राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार एक वर्ष में पुलिस द्वारा मानव अधिकारों के हनन के सभी प्रकार के मात्र 141 मामले बताये जाते हैं जिनमें 466 पुलिस अधिकारियों को दोष सिद्ध किया गया| वहीं एशियाई मानव अधिकार आयोग के अनुसार देश में 9000 मामले तो मात्र हिरासत में मौत के हैं| इसमें अन्य मामले जोड़ दिए जाएँ तो यह आंकड़ा एक लाख को पार कर जाएगा| यह स्थिति पुलिस की कार्यप्रणाली और तथ्यों को तोड़ने मरोड़ने की सिद्धहस्तता का उत्कृष्ट नमूना प्रस्तुत करती है| जब  आपराधिक मामलों में न्याय के लिए ऐसी पुलिस पर निर्भर रहना पड़े तो न्याय एक भ्रमजाल से अधिक कुछ नहीं हो सकता| भारतीय रिजर्व बैंक की सुरक्षा में तैनात पुलिस कर्मियों की समय-समय पर अचानक जांच में काफी नफरी नदारद भी पाई जाती है और उस पर कोई कार्यवाही नहीं होती है| यह पुलिस और उसके वरिष्ठ अधिकारियों की कर्तव्यनिष्ठा का द्योतक है| |


देश में कानून और न्यायव्यवस्था की दशा में सोचनीय  गिरावट आई है समाज में बढती आर्थिक विषमता ने इस आग में घी का काम किया है| इस स्थिति के लिए हमारे न्यायविद, पुलिस अधिकारी और राजनेता संसाधनों की कमी का हवाला देते हैं और विदेशों की स्थिति से तुलना कर गुमराह करते हैं| किन्तु उनके इस तर्क में दम नहीं है| पाश्चात्य सभ्यता से प्रभावित महानगरीय संस्कृति को छोड़ दिया जाये तो भारत आज भी एक आध्यात्मिक चिंतन और उन्नत सांस्कृतिक पृष्ठ भूमि वाला देश है| यहाँ लोग धर्म- कर्म और ईश्वरीय सत्ता में विश्वास करते हैं| भारत में मात्र 4.2% लोगों के पास बंदूकें हैं जबकि हमारे पडौसी देश पकिस्तान में 11.6% और अमेरिका में 88.8% लोगों के पास बंदूकें हैं| इससे रक्तपात और अपराध की संभावना का अनुमान लगाया जा सकता है| अमेरिका में कानून, और कानून का उल्लंघन करने वालों के प्रति न्यायाधीशों- दोनों ही का रुख सख्त हैं अत: कानून का उल्लंघन करने वालों को विश्वास है कि उन्हें न्यायालय दण्डित करेंगे| इस कारण अपराधी लोग वहां प्राय: अपना अपराध कबूल कर लेते हैं जिससे मामले के परीक्षण में लंबा समय नहीं लगता और ऐसी स्थिति में दंड देने में न्यायाधीशों का उदार रवैया रहता है यद्यपि उनके पास दंड की अवधि निर्धारित करने के लिए भारत की तरह ज्यादा विवेकाधिकार नहीं होते| ऐसी व्यवस्था के चलते अमेरिका में  75% सिविल  मामलों में न्यायालय में जाने से पूर्व ही समझौते हो जाते हैं| अमेरिका में प्रति लाख जनसंख्या 5806 मुकदमे दायर होते हैं जबकि भारत में यह दर मात्र 1520 है| इसके अतिरिक्त अमेरिका में संघीय और राज्य कानूनों के लिए अलग अलग न्यायालय हैं| उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति बैंक का एटीएम तोड़ता है तो बैंक संघ का विषय होने के कारण संघीय न्यायालय का मामला होगा किन्तु वही व्यक्ति यदि एटीएम कक्ष में किसी व्यक्ति की चोरी करता है तो यह राज्य का मामला होगा| प्रति लाख जनसंख्या पर अमेरिका में 10.81  और भारत में 1.6 न्यायाधीश हैं| भारत में न्यायाधीश मामलों को निरस्त करने में बड़ा परिश्रम करते हैं| एक अनुमान के अनुसार भारत के न्यायालयों में दर्ज होने वाले मामलों में से 10% तो प्रारंभिक चरण में या तकनीकी आधार पर ही ख़ारिज कर कर दिये जाते हैं, कानूनी कार्यवाही लम्बी चलने के कारण 20% मामलों में पक्षकार अथवा गवाह मर जाते हैं| 20% मामलों में पक्षकार थकहार कर राजीनामा कर लेते हैं और 20% मामलों में गवाह बदल जाते हैं परिणामत: शेष 30 % मामले ही पूर्ण परीक्षण तक पहुँच पाते हैं वहीं वकील फीस पूरी ले लेते हैं| इस प्रकार परिश्रम और समय की लागत के दृष्टिकोण से भारत में दायर होने वाले मामलों को आधा ही मना जा सकता है और भारत में प्रति लाख जनसंख्या पर दायर होने वाले मामलों की संख्या मात्र 760 आती है जो अमेरिका से लगभग 1/7 है और भारत में प्रति लाख जनसंख्या न्यायाधीशों की संख्या भी लगभग 1/7 ही है जो दायर होने वाले मामलों को देखते हुए किसी प्रकार से कम नहीं है| संविधान के अनुच्छेद 227 में वकीलों की फीस तय करने के लिए उच्च न्यायालय अधिकृत हैं किन्तु देश में आन्ध्र प्रदेश उच्च न्यायालय को छोड़कर यह कार्य शायद ही किसी अन्य उच्च न्यायालय ने संपन्न किया हो| अपील एवं रिट याचिका में कोई साक्ष्य आदि नहीं दिया जाता और न ही कोई प्रतिपरीक्षा होती है| इसके बजाय निचले स्तर के न्यायालयों में ये कार्य अतिरिक्त होते हैं किन्तु वकीलों को फीस उनके परिश्रम के हिसाब से नहीं मिलता| जहां यह निचले न्यायालयों में हजारों में होता है वहीं पर यह ऊपरी स्तर के न्यायालयों में लाखों और करोड़ों रुपयों में होता है व इसका कोई बिल भी नहीं दिया जाता| राजस्थान में बनाए गए सामान्य नियम (सिविल) के अनुसार दावा दायरी, समन की तामिल, साक्ष्य और अंतिम बहस प्रत्येक स्तर के लिए निर्धारित की ¼ फीस भुगतान किये जाने का प्रावधान है| तदनुसार न्यायालयों में तो अपील या रिट के लिए ½ से कम ही फीस दी जानी चाहिए जबकि इसके विपरीत फीस का लेनदेन होता है| वकालत का पेशा एक सार्वजनिक पेशा है, वकील को न्यायालय का अधिकारी और लोक सेवक माना गया है अत: उसकी फीस का भी नियमन होना चाहिए|

अमरीका में न्यायालय में दिए गए अपने वक्तव्य से एक वकील बाध्य है और वह कानून या तथ्य के सम्बन्ध में झूठ नहीं बोल सकता क्योंकि ऐसी स्थिति में दण्डित करने की शक्ति स्वयं न्यायालय के ही पास है| वहीं भारत में एक महाबली सांसद पर अपहरण और बलात्कार के मुकदमें की सुनवाई में एक ओर सत्र न्यायालय में वकील ने कहा कि उनके मुवक्किल को अभी समन नहीं मिले हैं वहीं उच्च न्यायालय में उसी दिन याचिका दायर कर इस समन पर 2 घंटे के भीतर स्टे ले लिया गया| यह न्यायिक प्रक्रिया का दुरूपयोग और उसका उपहास करने का अच्छा उदाहरण है| हैरानी की बात है कि एक ओर माननीय न्यायमूर्ति इसे मूकदर्शक बने देख रहे हैं वहीं समाचार जगत में प्रकट होने वाले कुछ समाचारों पर स्वप्रेरणा से संज्ञान ले लेते हैं| मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायाधिपति किरुबकरन  ने हाल ही एक अवमान मामले की सुनवाई में कहा है कि देश की जनता पहले ही न्यायपालिका से कुण्ठित है अत: पीड़ित लोग में से मात्र 10% अर्थात अतिपीडित ही न्यायालय तक पहुंचते हैं| यह स्थिति न्यायपालिका की विश्वसनीयता पर स्वत: ही एक बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह लगाती है| देश के संवैधानिक न्यायालयों में नियुक्तियां भी पारदर्शी और स्वच्छ ढंग से नहीं हो रही हैं अत: राज्य सभा की 44 वीं रिपोर्ट दिनांक 09.12.10 में यह अनुसंशा की गयी है कि उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्तियां लिखित परीक्षा के आधार पर की जानी चाहिए| सुप्रीम कोर्ट न्यायाधीशों के समूह या मुख्य न्यायाधीश द्वारा उन्हीं लोगों को पदलाभ दिया जाता है जो उनके समान विचार रखते हों| बहु सदस्यीय या कोलोजियम प्रणाली का भी कोई लाभ नहीं है क्योंकि इससे सदस्यों का दायित्व कमजोर हो जाता है| वहीं एक अध्यन में पाया गया है कि सुप्रीम कोर्ट के 40% न्यायाधीश किसी न्यायाधीश या वकील के पुत्र रहे हैं| इसी अध्ययन के अनुसार सुप्रीम कोर्ट के 95% न्यायाधीश धनाढ्य या ऊपरी माध्यम वर्ग से रहे हैं अत: उनके मौलिक विचारों, संस्कारों और आचरण में सामजिक व आर्थिक न्याय की ठीक उसी प्रकार कल्पना नहीं की जा सकती जिस प्रकार एक बधिक से दया की अपेक्षा नहीं की जा सकती| लेखक के निजी मतानुसार भी स्वतंत्र भारत के इतिहास में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश, अपवादस्वरूप मात्र एक न्यायाधीश को छोड़कर, आर्थिक न्याय देने में आम जन की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरे हैं| देश के संवैधानिक न्यायालयों का संचालन अंग्रेजी भाषी-पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव में शिक्षित - उच्च वर्ग के  लोगों द्वारा किया जा रहा है जिन्होंने मात्र पुस्तकों में ही इंडिया को पढ़ा होता है| उन्हें आम व्यक्ति की कठिनाइयों का धरातल स्तरीय ज्ञान नहीं होता है|अब न्यायपलिका को आत्मावलोकन करना चाहिए कि वह जनता की अपेक्षा पर कितना खरा उतर रही है|
121 करोड़ की आबादी वाले भारत में 3 करोड़ मुक़दमे, 20 हजार न्यायाधीश, 17 लाख वकील, 16 लाख पुलिस है| देश में वकीलों की संख्या पुलिस से भी ज्यादा है| इस प्रकार प्रति न्यायाधीश 85 वकील और 80 पुलिस है| वहीं प्रति न्यायाधीश 1500 व पक्ष व विपक्ष को शामिल करते हुए प्रति वकील 34 मुक़दमे औसत हिस्से में आते हैं| किसी मामले में वास्तव में सुनवाई से पूर्व प्रकरण पत्रावली का अध्ययन और होमवर्क आवश्यक है अत: एक न्यायाधीश औसतन एक दिन में 50 मुकदमों में सुनवाई कर सकता है| कानून के समक्ष समानता को वास्तव में कोई अधिकार समझा जाये तो वर्ष में 250 कार्य दिवस मानते हुए औसतन मामले में 50 दिन बाद सुनवाई का पुन: अवसर मिल जाना चाहिए और एक वर्ष में एक मामले में 8 अवसर सुनवाई हेतु मिलने चाहिए| किन्तु कई मामलों में वर्षों तक कोई सुनवाई नहीं होती और कुछ मामले राहत देकर कुछ दिनों में ही निपटा दिए जाते हैं| दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 314 में यद्यपि न्यायाधीश को बहस को विनियमित करने की शक्तियां दी गयी हैं किन्तु इनका भी मनमाना प्रयोग होता है और कहीं तो आवश्यक बात रखने का अवसर भी नहीं दिया जाता और कहीं वकील अनावश्यक बहस में घंटों बर्बाद करते हैं और न्यायाधीश महोदय मात्र दर्शक बने रहते हैं| 

दक्षिण ऑस्ट्रेलिया में एक दिन में एक न्यायालय के सामने सुनवाई की सूची सामान्यतया 40 तक सीमित रखी जाती है व उन सब में सुनवाई  होती है वहीं भारत के उच्च न्यायालयों में तो एक दिन  में 400 तक मामले सुनवाई हेतु अनावश्यक ही लगा दिए जाते हैं और सुनवाई हेतु शेष बचे मामले स्थगित कर दिए जाते हैं| यह भी एक कूटनीति है कि मामले न्यायालय के सामने लगाये जाते रहें ताकि जनता में भ्रम बना रहे कि उनकी सुनवाई हो रही है|        
पूर्ण न्याय की अवधारणा में सामाजिक और आर्थिक न्याय को ध्यान में रखे बिना न्याय अपने आप में अपूर्ण है| भारत में प्रति व्यक्ति औसत आय 60000 रुपये, न्यूनतम मजदूरी 72000 रुपये और एक सत्र न्यायधीश का वेतन 720000 रुपये वार्षिक है वहीँ यह अमेरिका में क्रमश: 48000, 15000 और 25000 डॉलर वार्षिक है| अमेरिका में न्यायालयों में वर्ष भर में मात्र 10 छुटियाँ होती हैं वहीँ भारत में उच्चतम न्यायालय में 100, उच्च न्यायलय में 80 और अधीनस्थ न्यायालयों में 60 छुटियाँ होती है व वर्ष में औसतन 60 दिन वकील हड़ताल रखते हैं | इस दृष्टि से देखा जाये तो भारतीय न्यायाधीशों का वेतन बहुत अधिक है| इस प्रकार भारत की जनता कानून और न्याय प्रशासन पर अपनी क्षमता से काफी अधिक धन व्यय कर रही है| उक्त धरातल स्तरीय तथ्यों को देखें तो भारत में कानून और न्याय प्रशासन के मद पर होने वाला व्यय किसी प्रकार से कम नहीं है बल्कि देश में कानून-व्यवस्था और न्याय प्रशासन कुप्रबंधित हैं| भारत में कानून, प्रक्रियाओं और अस्वस्थ परिपाटियों के जरिये  जटिलताएं उत्पन्न कर न्यायमार्ग में कई बाधाएं खड़ी कर दी गयी हैं जिससे मुकदमे द्रौपदी के चीर की भांति लम्बे चलते हैं| भारत में 121 करोड़ की आबादी के लिए 17 लाख वकील कार्यरत हैं अर्थात प्रति लाख जनसँख्या पर 141 वकील हैं और अमेरिका में प्रति लाख जनसंख्या पर 391 वकील हैं| परीक्षण पूर्ण होने वाले मामलों के साथ इसकी तुलना की जाये भारत में यह संख्या 60 तक सीमित होनी चाहिए| दूसरी ओर हमारे पडौसी चीन में 135 करोड़ लोगों की सेवा में मात्र 2 लाख वकील हैं| इस दृष्टिकोण से भारत में प्रति लाख जनसंख्या पर चीन से 10 गुने ज्यादा वकीलों की फ़ौज हैं जिनके पालन पोषण का दायित्व अप्रत्यक्ष रूप से न्यायार्थियों पर आ जाता है| दिल्ली राज्य की तो स्थिति यह है कि वहां हर तीन सौ में एक वकील है| वहीँ  चीन का यह सुखद तथ्य है कि वहां न्यायालयों के लिए निर्णय देने की समय सीमा है और इस सीमा के बाद निर्णय देने के लिए उन्हें उच्च स्तरीय न्यायालय से अनुमति लेनी पड़ती है जबकि भारत में तो न्यायालय के मंत्रालयिक कर्मचारियों के लिए तारीख पेशी देना, जैसा कि रजिस्ट्रार जनरलों की एक मीटिंग में कहा गया था, एक आकर्षक धंधा है और इससे न्यायालयों की बहुत बदनामी हो रही है|

उच्चतम और उच्च न्यायालयों में प्रमुखतया सरकारों के विरुद्ध मामले दर्ज होते हैं और यदि सरकार अपना पक्ष सही सही और सत्य रूप में प्रस्तुत करे तो मुकदमे आसानी से निपटाए जा सकते हैं किन्तु सरकरी पक्ष अक्सर सत्य से परे होते हैं फलत: मुकदमे लम्बे चलते हैं| यदि मामला सरकार के विरुद्ध निर्णित हो जावे तो भी उसकी अनुपालना नहीं की जाती क्योंकि सरकारी अधिकारियों को विश्वास होता है कि न्यायाधीश उनके प्रति उदार हैं अत: वे चाहे झूठ बोलें या अनुपालना न करें उनका कुछ भी बिगड़ने वाला नहीं है, एक नागरिक को ही गीली लकड़ी की भांति अन्याय की अग्नि में सुलगना है और आखिर चूर और व्ययभार से जेरबार होकर लगभग अन्याय के आगे घुटने टेकना है| देश में ऐसे मुकदमों  का अभाव नहीं है जहां राज्य अधिकारियों ने मात्र एक गाय-बैल की कीमत वाले मुकदमों को जनता के लाखों रुपये लगाकर सुप्रीम कोर्ट तक लड़ा हो, अंत में हार जाने पर भी उनका कुछ भी नहीं बिगड़ा हो| अत: एक ही समान  मुकदमे अनावश्यक रूप से बारबार दर्ज होते रहते हैं| मामले के सभी मुद्दों का और सम्यक निर्धारण नहीं करने से भी बारबार अपीलें होती हैं|न्यायालय के आदेश तब मात्र उपदेश बनकर रह जाते हैं जब पीड़ित को कोई राहत और कानून का उल्लंघन करने वाले को दंड देने के स्थान पर कोई अनुशंसा करके न्यायालय अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं| इस सम्बन्ध में उच्चतम न्यायालय की स्थिति भी समान रूप से खराब है| उच्चतम और उच्च न्यायालयों में सामान्यतया कोई साक्ष्य नहीं दिया जाता है और मात्र बहस व शपथपत्र के आधार पर निर्णय होते हैं अत: इनमें लंबा समय लगने को उचित नहीं ठहराया जा सकता है| किन्तु जो आज बेंच में हैं वे कल तक बार में थे और स्थगन के लिए स्टाफ को स्वयं टिप्स देते थे अत: वे आज स्थगन के लिए नाँ कहने का नैतिक साहस नहीं जुटा पाते हैं| एक बार एक अपर सत्र न्यायालय का कैम्प कोर्ट स्थायी न्यायालय में तव्दील हो गया और बेंच के साथ बार की मीटिंग थी| इस मीटिंग में न्यायाधीश महोदय के मुंह से निकल गया कि यदि पूरी ऊर्जा से कार्य किया जाए तो ये सारे मुक़दमे मात्र 6 माह में निपट सकते हैं| वकीलों ने न्यायाधीश महोदय से अनुनय-विनय की कि वे ऐसा नहीं करें अन्यथा बड़े प्रयासों के बाद जो स्थायी न्यायालय खुला है वह बंद हो जाएगा| फ़ास्ट ट्रेक न्यायालयों का भी कोई महत्व नहीं रह जाता जब मामले को उच्च स्तरीय न्यायालयों द्वारा स्टे कर दिया जाये और उसे फ़ास्ट ट्रैक मामला ही मानते हुए तुरंत निपटान नहीं दिया जाए|

आज समाज में भी विधि के शासन के नाम पर दुनिया भर में सरकारे नागरिको के लिये विधि का निर्माण करती है। विधि का उद्देश्य समाज के आचरण को नियमित करना है। अधिकार एवं दायित्वों के लिये स्पष्ट व्याख्या करना भी है, साथ ही समाज में हो रहे अनैतिक कार्य या लोकनीति के विरूद्ध होने वाले कार्यो को अपराध घोषित करके अपराधियों में भय पैदा करना भी अपराध विधि का उदेश्य है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1945 से लेकर आज तक अपने चार्टर के माध्यम से या अपने विभिन्न आनुषांगिक सगठनों के माध्यम से नागरिकों को यह बताने का प्रयास किया कि बिना शांति के समाज का विकास संभव नहीं है परन्तु शांति के लिये सहअस्तित्व एवं न्यायपूर्ण दृष्टिकोण ही नहीं आचरण को जिंदा करना भी जरूरी है। न्यायपूर्ण आचरण न होने के कारण ही आज समाज में अन्याय को ही न्याय मान लिया गया है। आज वक्त आ गया है न्यायपूर्ण समाज की रचना के लिये केवल विचार ही व्यक्त ना करे बल्कि न्यायपूर्ण आचरण भी करे तभी दुनिया में न्यायपूर्ण समाज की रचना संभव हो पायेगी। न्यायपूर्ण समाज में ही शांति, सदभाव, मैत्री, सहअस्तित्व कायम हो पाता है। देश के प्रबुद्ध, जागरूक, जिम्मेदार और निष्ठावान नागरिकों से अपेक्षा है कि वे इस स्थिति पर मंथन कर देश में अच्छे कानून का राज पुनर्स्थापित करें|
जय हिन्द ! 


8 comments:

  1. Bhai sahab maine Railway ko ke RTI lagaya tha jisme maine Gareeb rath ke bare me jankari chahi thi ki kitni gadiya chali aur kitni income hui hai jab se wah train chali hai.. mai usme kharche ka byora mangna bhool gaya. kripaya mujhe bataye ki kharche ka byora kaise manga jaa sakta hai ?

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    1. आप अपनी आवश्यकतानुसार नया आवेदन करें | खर्चे के ब्योरे के लिए किसी रेलवे कर्मचारी को विशवास में लेकर लिखें तो ज्यादा अच्छा रहेगा , वह विभागीय पैंतरे भी बता देगा|

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  2. OH MERE DEH BHART TERI AABRU KAUN SHREE KRISHAN BCHAYEGAA....TERE KO TO TERE HI RAKSHAK KHANE ME MASHGOOL HO GYE HAIN ....PT. JI YE SB KB TK CHALEGAA
    OH GOD SAVE MY BHART DESH....RK VIKRMA SHRMA BUREAU ALPHA NEWS SERVICES CHANDIGRH--47

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  3. sir, ajawab lekh . par jo aapne likha hai iska ilaj kya hai . aap mujhe call bhi kar sakte hai 07587154546 . call ke intjaar me .

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  4. sir , aapka lekh accha hai . par is samasya ka samadhan kya hai ? mob. 07587154546 . jawab ya call ki prtiksha me ...

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    1. इसका समाधान इसी ब्लॉग पर "न्यायिक सुधार" और"विदेशी न्यायव्यवस्था" शीर्षकों में दिया गया है | मेरा संपर्क भी प्रोफाइल में उपलब्ध है |

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  5. sir , achha lekh hai . laikn is samasya ka samadhan kya hai . mob. 07587154546 . kripya jawab de.

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