Sunday 27 March 2011

पर्दाफाश

सी.बी.आई. ने धारा 11 व 12 भ0 नि0 के अन्तर्गत रितु टैगोर के विषेश न्यायालय में चालान पेष किया गया जिसमें आगामी पेषी 6 अप्रेल निर्धारित की गई है। 45 पृश्ठीय चालान में मुख्य आरोप है कि निर्मल यादव ने सम्पति सम्बन्धित मामले में अत्यधिक फुर्ती दिखाई तथा हरियाणा के अतिरिक्त महाधिवक्ता संजीव बंसल द्वारा प्रतिनिधित मामले, जिसमें कि अपने निकट मित्र दिल्ली के व्यवसायी रविन्द्र सिंह के माध्यम से रूपये 15 लाख का भुगतान किया था, में पक्षपोशण किया । आरोप है कि निर्णय की तिथि दिनांक 11.03.2008 को रविन्द्रसिंह टेलीफोन द्वारा बंसल, न्यायाधीष यादव व प्रतिपक्षी मितल से सम्पर्क में था। पंचकुला के सेक्टर 16 में प्लाट सं0 601 जिसेकि मितल को बेचने का करार हुआ था के विशय में वीणा गोयल व सेवा निवृत मजिस्ट्रेट मितल के मध्य विवाद था ।
 मितल ने कई दौर के मुकदमों के बाद निचले अदालत में मामला जीता था। अरूण जैन नामक वरिश्ठ अधिवक्ता ने गोयल की अपील याचिका तैयार की थी किन्तु तत्पष्चात जैन से अनापति लेकर बंसल को इस कार्य हेतु लगाया गया था। प्रकरण दिनांक 01/2/2008 को न्यायाधीष निर्मल यादव के समक्ष सुनवाई हेतु आया था किन्तु उस दिन वह डिवीजन बैंच में व्यस्त थी।अतः पेषकार द्वारा मामला 03/03/2008 के लिए स्थगित किया गया किन्तु डिवीजन बैंच से लौटने के बाद न्यायाधीष निर्मल यादव ने इसे 04/02/08 को सुनवाई हेतु तय कर सुनवाई की एवं आदेषार्थ सुरक्षित रखा। मामला दिनांक 11/03/08 को वीणा गेायल के पक्ष में निर्णित किया गया।
 सी.बी.आई. का कहना कि मामलें में अतिषीघ्रता से निर्णय दिया गया। आरोप है कि अगस्त 2008 में एक व्यापारी रविन्द्र सिंह ने गलतीवष रिष्वत की राषि रूपये 15 लाख अन्य महिला न्यायाधीष निर्मलजीत कौर के यहां पहुंचा दी थी जिसने पुलिस को रिपोर्ट कर दिया था। पुलिस पड़ताल में पाया गया कि धन वास्तव में न्यायाधीष यादव के लिए भेजा गया था। चण्डीगढ पुलिस ने मात्र 9 दिन में तथ्यान्वेशण कर संजीव बंसल, राजीव गुप्ता व रविन्द्र सिंह को गिरफ्तार किया जिन्होंने बताया कि यह राषि निर्मल यादव के लिए थी। मोबाईल कॉल डिटेल से भी तथ्यों की पुश्टि हुई ।  पंजाब के गवर्नर एस.एस. रोडरिगस ने पंजाब हरियाणा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीष तीर्थसिंह ठाकुर के ध्यान में लाते हुए दिनांक 26/08/08 को सी.बी.आई. से जांच का आग्रह किया था।


सूचना का अधिकार के अन्तर्गत एक आवेदन केे जबाब में खुलासा हुआ कि रिष्वत के प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट तथा केन्द्र सरकार द्वारा क्लीन चिट देने के दो माह बाद पंजाब के गवर्नर, सी.बी.आई. तथा गोखले कमेटी ने निश्कर्श निकाला कि निर्मल यादव को वास्तव में रूपये 15 लाख दिए गए थे। अतिरिक्त महाधिवक्ता बंसल ने तत्पष्चात त्यागपत्र दे दिया था जबकि निर्मल यादव नैतिकता के आधार पर अवकाष पर चली गई थी। भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधिपति बालाकृश्णन ने अलग से न्यायाधीषों की कमेटी से जांच हेतु अनुषंसा की थी किन्तु मुख्य न्यायाधिपति बालाकृश्णन ने सरकार से कोई कार्यवाही नहीं करने की सलाह दी। मुख्य न्यायाधिपति बालाकृश्णन की अनुषंसा पर गठित गोखले कमेटी की 92 पृश्ठीय रिपोर्ट में कहा गया है कि न्यायाधीष निर्मल यादव पर लगाये गये आरोप सारभूत व गंभीर है और न्यायाधीष यादव को हटाने की कार्यवाही प्रारम्भ करने हेतु पर्याप्त है।
सूचना का अधिकार के अन्तर्गत उजागर हुआ है कि यद्यपि केन्द्रीय विधि एवं न्याय मंत्रालय ने सीबीआई से कहा कि संजीव बंसल रविन्द्रसिंह और निर्मल सिंह द्वारा न्यायाधीष यादव के साथ मिलकर शडयन्त्र कर अपराध करने का नाम मात्र का भी साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। गत वर्श मार्च में सी.बी.आई. द्वारा अभियोजन स्वीकृति के अभाव में चण्डीगढ सीबीआई न्यायालय से मामले को बन्द करने की प्रार्थना की जिसे न्यायालय द्वारा अस्वीकार कर दिया था। भारत के मुख्य न्यायाधिपति कपाड़िया की राय पर महामहिम राश्ट्रपति प्रतिभा पाटिल द्वारा दिनांक 28/02/2011 को अभियोजन स्वीकृति प्रदान की गई।

Saturday 26 March 2011

भ्रष्ट को कोई संरक्षण नहीं -2

कन्हैयालाल आदि के विरुद्ध  एफ आइ आर दर्ज  करवाई गयी कि उसने विशेष अधिकारी राजस्थान आवासन मंडल के पद पर कार्य करते हुए सोसायटी के पदाधिकारियों के साथ मिलीभगत कर वर्ष 2002 में अनुचित ढंग से पट्टे जारी किये। राजस्थान उ. न्या ने उक्त एफ आइ आर निरस्त कर दी थी जिसके विरुद्ध  सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका  सुरेन्द्र कुमार भाटिया बनाम कन्हैयालाल के निर्णय दि 30.01.09 में कहा है कि अधिनियम के अन्तर्गत कार्याें का उन्मोचन करते हुए जैसा कि धारा 19 में परिभाशित है कलेक्टर न तो न्यायाधीष है और न ही वह न्यायिकतः कार्य करता है। अस्तु वह भा.द.सं. की धारा 77 का संरक्षण का पात्र नहीं है। अतः कलेक्टर/विषेश अधिकारी की हैसियत में न्यायाधीष की तरह कार्यवाही करने की विशय-वस्तु के सम्बन्ध में षिकायत की प्रथम सूचना प्रतिवेदन निरस्त करने का उच्च न्यायालय का निर्णय  विधि विरूद्ध है और इसलिए खारिज किये जाने योग्य है। एफ आइ आर पुनः कायम कर दी गयी।

Friday 25 March 2011

भ्रष्ट को कोई संरक्षण नहीं

कुषल कुमार ने वसूली अधिकारी के पद पर कार्य करते हुए गंभीर अनियमितताएं कीं जिसके लिए उनके विरुद्ध सी बी आई में भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम में एफ आइ आर दर्ज  करवाई गयी ।प्रसंज्ञान आदेश के विरुद्ध  अभियुक्त कुषल कुमार द्वारा दिल्ली उ. न्या -में दायर याचिका   कुषल कुमार बनाम  सी बी आई के निर्णय दि 7.11.08 में कहा है कि अस्तु, याची न्यायिक अधिकारी (संरक्षण) अधिनियम के अन्तर्गत संरक्षण जैसा दावा किया गया, मांगने का पात्र नहीं हो सकता और जैसा कि चूंकि याची द्वारा सेवारत होते हुए भ्रश्टाचरण करना किसी भी प्रकार से षासकीय कर्Ÿाव्यों के उन्मोचन में किया गया कृत्य नहीं हो सकता। अभियुक्त की याचिका    निरस्त कर  एफ आइ आर कायम कर दी गयी।

Thursday 24 March 2011

पुलिसिया व्यवहार पर नियंत्रण

पुलिस द्वारा  एफ आइ आर दर्ज करने से मना करने के चर्चित मामले में मुम्बई उ.न्या.ने  पंचभाई पोपटभाई बुटानी बनाम महाराश्ट्र राज्य के निर्णय दि 10.12.09 में कहा है कि जितेन्द्र मेहता के प्रकरण में पूर्व में खण्डपीठ ने यह दृश्टिकोण अपनाया था कि किसी परिवाद में विरोध प्रार्थना के अभाव में या विस्तृत तथ्यों के न होने पर भी परिवाद की वैधता तथा वैधानिकता प्रभावित नहीं होगी और संहिता की धारा 190 के अन्तर्गत संज्ञान लेने में सक्षम दण्डनायक संहिता की धारा 156 (3) के अनुसार अनुसंधान हेतु निर्देष देने हेतु सक्षम है। फिर भी आपराधिक न्यायषास्त्र के सिद्धान्तों को ध्यान में रखते हुए पुनः किसी कठोर प्रारूप का प्रावधान नहीं किया जा सकता और न ही प्रार्थना खण्डों के सम्बन्ध में ऐसा आवष्यक है। यह निष्चय परिवादी या पीड़ित व्यक्ति को करना है कि वह संहिता की धारा 156 (3) के अन्तर्गत अनुसंधान हेतु संदर्भित करना चाहता है या संहिता की धारा 200 के अन्तर्गत उसके परिवाद को नियमित परिवाद संव्यवहार किया जाना है। हमें यह अवधारित करने में कोई षंका नहीं है कि धारा 156 (3) के अन्तर्गत प्रार्थना पत्र या याचिका के लिए न तो कोई प्रारूप विषेश का प्रावधान है और न ही ऐसा बनाया जाना आवष्यक है। परिवादी या व्यथित पक्षकार द्वारा धारा 156 (3) के अन्तर्गत मात्र न्यायालय के यह ध्यान में लाया जाना पर्याप्त है कि पुलिस के ध्यान में लाये जाने के उपरान्त भी वह विधि के अनुसार संज्ञेय अपराध पर कार्यवाही करने तथा अनुसंधान करने में विफल रही है या तथ्यगत स्थिति में सीधे न्यायालय पहुंचना आवष्यक था। एक बार जब ऐसी याचिका प्रस्तुत कर दी जाय, विद्वान् दण्डनायक विधि अनुसार और परिवादी की प्रार्थना पर उपयुक्त क्षेत्राधिकार का प्रयोग करने हेतु स्वतन्त्र है। किन्तु एक याचिका जहां तक वह संज्ञेय अपराधों का प्रकटन करती है न्यायालय द्वारा मात्र इस आधार पर अस्वीकार नहीं की जा सकती कि इसमंे उपयुक्त प्रार्थना समाहित नहीं है। निर्णित किया कि परिवादी को निष्चय करना है कि संहिता की धारा 156 (3) या धारा 200 के अन्तर्गत उसके परिवाद पर कार्यवाही की जानी है।

Wednesday 23 March 2011

शरारतपूर्ण अन्याय

लिपोक की अन्वीक्षण  न्यायालय द्वारा दोषमुक्ति के विरुद्ध गौहाटी उच्च न्यायालय से समय सीमा में छूट की मांग  सहित अपील की गयी जिसे अस्वीकार करने पर सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका नागालैण्ड राज्य बनाम लिपोक के निर्णय दि 01.04.05 में कहा गया कि  अपील दायर करने के निर्णय की स्थिति में अपील दायर करने के लिए जिम्मेवार अधिकारी द्वारा तुरन्त कार्यवाही करने की आवष्यकता है तथा यदि कोई कमी रहती है तो उसके लिए उसे व्यक्तिषः दायी ठहराया जाना चाहिए। राज्य को एक व्यक्ति के समान धरातल पर नहीं रखा जा सकता। एक व्यक्ति यह निर्णय लेने में फुर्ती करेगा कि उसे अपील या आवेदन द्वारा कोई उपचार प्राप्त करना है क्योंकि वह ऐसा व्यक्ति है जो विधितः क्षतिग्रस्त है जबकि राज्य एक अव्यक्तिगत तन्त्र है जो अपने अधिकारियों या सेवकों के माध्यम से कार्य करता है। यह पाया गया है कि कड़े स्तर के प्रमाण अपनाना कई बार लोक न्याय की रक्षा में असफल रहता है और इससे अपील दायरी की प्रक्रिया में कुषलता द्वारा विलम्ब की सार्वजनिक कुचेश्टा परिणित होगी। समय सीमा में छूट अनुमत कर दी गयी।

Tuesday 22 March 2011

न्यायिक आचरण-03

चन्द्रसिंह राजस्थान उच्चतर न्यायिक सेवा में थे तथा उन्हें 58 वर्ष के बाद सेवा विस्तार नहीं दिया गया। उच्च न्यायालय द्वारा उनकी प्रार्थना को अस्वीकार कर देने पर सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका  चन्द्रसिंह बनाम राजस्थान राज्य (ए.आई.आर. 2003 स.न्या. 2889)में कहा गया कि  भारतीय संविधान का अनुच्छेद 235 उच्च न्यायालय को काली भेड़ों को अनुषासित करने अथवा सूखी लकड.ी को उखाड़ फैंकने के दृश्टिकोण से किसी न्यायिक अधिकारी के निश्पादन का मूल्यांकन हेतु समर्थ बनाता है। उच्च न्यायालय की यह संवैधानिक षक्ति किसी नियम या आदेष से परिमित नहीं की जा सकती। हम अनुच्छेद 235 पर कुछ प्रमुख वादों का लाभप्रद संदर्भ ले सकते है। न्यायिक सेवाओं की प्रकृति ऐसी है कि संदिग्ध निश्ठा वालेया उपयोगिता खो चुके व्यक्तियों की सेवाओं से (जनता को) लगातार पीड़ित नहीं रख सकते। अपील निरस्त कर  दी गयी।

Monday 21 March 2011

लोक सेवकों का दायित्व

नारायण दिवाकर ने रजिस्ट्रªार सहकारी समितियां के पद पर कार्य करते हुए गंभीर आपराध किये जिसके लिए 30 एफ आइ आरें दर्ज हुईं। नारायण दिवाकर द्वारा सी बी आई के समक्ष  जांच हेतु उपस्थित नहीं होने व भूमिगत होने पर वारंट जारी हुआ था। नारायण दिवाकर ने इस कार्यवाही को रद्द करने  हेतु दायर याचिका  में दिल्ली उ. न्या. ने नारायण दिवाकर बनाम सी बी आई के निर्णय दि 07.03.06 में कहा कि सद्विष्वास का विलोम दुर्विष्वास या दुर्भाव है और इसलिए यदि यह प्रष्न उठे कि क्या रजिस्ट्रार सहकारी समितियां या अन्य अधिकारी ने असद्भावपूर्ण कार्य किया तो अधिनियम की धारा 95 में उल्लेखित सुरक्षा उपलब्ध नहीं होगी तथा केन्द्रीय अन्वेशण ब्यूरो सहित कोई सक्षम प्राधिकृत संाविधिक अन्वेशण एजेन्सी किसी प्रष्न की तह में जा सकती है। इस न्यायालय के मत में याची को कथित प्रावधान की छत्रछाया मंे षरण लेने और समाज में षाखाओं की तरह पर्याप्त विस्तृत मामलों में अन्वेशण को नश्ट करने की अनुमति नहीं दी जा सकती।  याचिका  निरस्त कर  दी गयी।

Sunday 20 March 2011

न्यायिक आचरण-2

कुछ टस्टों के माध्यम से कर निर्धारणों में आयकर अधिकारी के पद पर कार्य करते हुए ए. एन. सक्सेना  अनुचित लाभ देने का दोशी  पाये गये तथा उनके विरुद्ध प्रारंभ की गयी अनुशानिक कार्यवाही को सर्विस  टाईब्यूनल द्वारा रोक दिया गया था। सरकार द्वारा  सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका  भारत संघ बनाम ए. एन. सक्सेना ( ए.आई.आर. 1992 स. न्या. 1233) में कहा गया कि यदि इतने गंभीर मामलों में अनुषासनिक कार्यवाही हल्के फुल्के ढंग से रोक दी जाय, जैसा कि अधिकरण द्वारा किया जाना प्रतीत होता है तो किसी भी दोशी को बुक करना अत्यन्त कठिन हो जावेगा। हमारी सम्मति में यह तर्क अषुद्ध है कि तात्पर्यित न्यायिक या अर्द्ध न्यायिक कार्यवाही किये जाने के सम्बन्ध में कोई अनुषासनिक कार्यवाही नहीं की जा सकती ..किन्तु ऐसा नहीं है कि ऐसी कार्यवाही बिल्कुल नहीं की जा सकती। निषेधज्ञा हटाकर शीघ्र सुनवायी के आदेश प्रदान किये गये ।

Saturday 19 March 2011

न्यायिक आचरण

प्रार्थी न्यायिक अधिकारी होते हुए  एल एल एम की परीक्षा में बैठा था तथा परीक्षा में अनुचित साधनों के उपयोग का दोषी पाये जाने पर सेवामुक्त कर दिया गया था ।सुप्रीम कोर्ट में याचिका  दयाषंकर बनाम इलाहाबाद उ. न्या. ( ए. आई. आर. 1987 स. न्या. 1469) में कहा गया कि कोई भी इन्कारी उसे उजागर सख्त तथ्यों से परे नहीं कर सकती। याची का आचरण न्यायिक अधिकारी के रूप में असंदिग्धतः अयोग्य है। न्यायिक अधिकारी दो तरह के आचरण- एक न्यायालय में तथा दूसरा न्यायालय के बाहर- नहीं अपना सकते। उन्हें मात्र खरापन, ईमानदारी और निश्ठावान का एक मात्र मानक अपनाना चाहिए। जिस पद को वे धारण करते हैं वे दूर तक भी उसके अयोग्य होने वाला कार्य  नहीं कर सकते।  याचिका  निरस्त कर सेवामुक्ति को उचित ठहराया गया ।

Thursday 10 March 2011

मात्र नाम की निर्मल


उच्च न्यायालय न्यायाधीश निर्मल यादव के विरूद्ध आरोप पत्र दाखिल
केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो की प्रेस विज्ञप्ति दिनांक 04/03/11 में कहा गया है कि अगस्त 2008 में पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय के एक अन्य न्यायाधीश के दरवाजे पर पाये गये रु 15 लाख के सम्बन्ध में पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश और चार अन्य लोगों के विरूद्ध चंडीगढ के विशेष न्यायाधीश के न्यायालय में आज आरोप पत्र दाखिल कर दिया। विधि एवं न्याय मंत्रालय से भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 19 के अन्तर्गत अभियोजन स्वीकृति प्राप्त होने बाद यह आरोप पत्र दाखिल किया गया है।
केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरों की जांच में यह स्थापित हुआ है कि तत्कालीन उच्च न्यायालय न्यायाधीश ने पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की हैसियत में लोक सेवक होते हुए (प्रथम) निजी व्यक्ति से बिना किसी प्रतिफल के रु15 लाख प्राप्त किए तथा यह भी ज्ञात हुआ कि उसने अन्य (द्वितीय) निजी व्यक्ति जिससे, एक हवाई यात्रा का टिकट भी प्राप्त किया,में हित रखते हुए अन्य मूल्यवान वस्तुएं प्राप्त की है । आगे यह भी पाया गया है कि (द्वितीय) निजी व्यक्ति उच्च न्यायालय न्यायाधीश के समक्ष प्रकरण सं0 आर एस ए 550/2007 में मात्र वकील ही नहीं था अपितु पंचकुला में एक भूखण्ड, जो कि उसके मित्र (तीसरे निजी व्यक्ति) के साथ प्रकरण की विषय वस्तु रही है, में भी हितबद्ध था । उच्च न्यायालय के न्यायाधीश ने (प्रथम) निजी व्यक्ति से रु 2.5 लाख पूर्व में भी एक अवसर पर लिए थे और उसके नाम का एक मोबाईल फोन प्रयोग में लेते हुए पायी गयीं।
उच्च न्यायालय न्यायाधीश द्वारा भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1988 की धारा 11, (प्रथम) निजी व्यक्ति द्वारा भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की 12 सहपठित धारा 120 बी भा.द.सं., अन्य निजी व्यक्ति (द्वितीय), उसके मित्र/(तीसरे) निजी व्यक्ति द्वारा धारा 120 बी भा.द.सं. सहपठित धारा 193 सहपठित 192, 196, 199 और 200 भा.द.सं. के अधीन दण्डनीय अपराधों के लिए और निजी व्यक्ति (द्वितीय) निजी व्यक्ति (तीसरे) और अन्य निजी व्यक्ति (चौथे) द्वारा उनके सारभूत अपराधों के लिए आरोप पत्र दाखिल किया गया है।
के.अ.ब्यूरो ने आगे जोड़ा है कि उपरोक्त निष्कर्ष ब्यूरो द्वारा अनुसंधान एवं संग्रहित साक्ष्यों पर आधारित हैं। भारतीय कानून में एक अभियुक्त को उचित परीक्षण में दोषी न पाये जाने तक निर्दोष समझा जाता है।
न्यायाधीश निर्मल यादव ने टिप्पणी करते हुए कहा है कि के.अ.ब्यूरो पागल हो गया है । ध्यान देने योग्य है कि के.अ. ब्यूरो की विज्ञप्ति में उच्च पदासीन व्यक्तियों के नाम तक उजागर नहीं किए गए है और अन्त में स्पष्टीकरण जोड़कर अभियुक्तों को निर्दोष भी बताया है यद्यपि यह समाचार दैनिक समाचार पत्रों में पूर्व में सचित्र प्रकाशित हो चुका है। आरोप पत्र एक लोक दस्तावेज है जिसको गोपनीय रखने का कोई औचित्य नहीं है और उच्चतम न्यायालय द्वारा शिवनंदन पासवान प्रकरण में कहे अनुसार चूंकि अपराधिक कार्यवाही समाज हित में संचालित होती है अतः कोई भी नागरिक इसमें किसी भी स्तर पर भागीदार बन सकता है। प्रश्न यह है कि क्या के.अ.ब्यूरो पूर्व में भी ऐसा करता रहा है और क्या सभी मामलों में ऐसा स्पष्टीकरण जोड़ता रहा है। यद्यपि विनीत नारायण के मामले में उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट कहा है कि कानून अभियोजन एवं अनुसंधान हेतु अभियुक्तों को उनकी हैसियत के अनुसार वर्गीकृत नहीं करता। समान प्रकार का अपराध करने वाले सभी अपराधियों के साथ समान व्यवहार होना चाहिए। यह संदेहास्पद है कि जो के.अ.ब्यूरो अभियुक्तों का नाम तक प्रकट करने में संकोच कर रहा है और उन्हें निर्दोष भी बता रहा है क्या अभियोजन का दृढ़तापूर्वक संचालन करते समय दबाव में  नहीं आयेगा। यह भी संदिग्ध है कि के.अ.ब्यूरो कंपकंपाते हाथों से अभियुक्तों को दण्डित करवाने में सफल हो जायेगा।

न्यायिक संरक्षण में भ्रष्टाचार के नए आयाम

सी.बी.आई. ने धारा 11 व 12 भ0 नि0 के अन्तर्गत रितु टैगोर के विषेश न्यायालय में चालान पेष किया गया जिसमें आगामी पेषी 6 अप्रेल निर्धारित की गई है। 45 पृश्ठीय चालान में मुख्य आरोप है कि निर्मल यादव ने सम्पति सम्बन्धित मामले में अत्यधिक फुर्ती दिखाई तथा हरियाणा के अतिरिक्त महाधिवक्ता संजीव बंसल द्वारा प्रतिनिधित मामले, जिसमें कि अपने निकट मित्र दिल्ली के व्यवसायी रविन्द्र सिंह के माध्यम से रूपये 15 लाख का भुगतान किया था, में पक्षपोशण किया । आरोप है कि निर्णय की तिथि दिनांक 11.03.2008 को रविन्द्रसिंह टेलीफोन द्वारा बंसल, न्यायाधीष यादव व प्रतिपक्षी मितल से सम्पर्क में था। पंचकुला के सेक्टर 16 में प्लाट सं0 601 जिसेकि मितल को बेचने का करार हुआ था के विशय में वीणा गोयल व सेवा निवृत मजिस्ट्रेट मितल के मध्य विवाद था ।
 मितल ने कई दौर के मुकदमों के बाद निचले अदालत में मामला जीता था। अरूण जैन नामक वरिश्ठ अधिवक्ता ने गोयल की अपील याचिका तैयार की थी किन्तु तत्पष्चात जैन से अनापति लेकर बंसल को इस कार्य हेतु लगाया गया था। प्रकरण दिनांक 01/2/2008 को न्यायाधीष निर्मल यादव के समक्ष सुनवाई हेतु आया था किन्तु उस दिन वह डिवीजन बैंच में व्यस्त थी।अतः पेषकार द्वारा मामला 03/03/2008 के लिए स्थगित किया गया किन्तु डिवीजन बैंच से लौटने के बाद न्यायाधीष निर्मल यादव ने इसे 04/02/08 को सुनवाई हेतु तय कर सुनवाई की एवं आदेषार्थ सुरक्षित रखा। मामला दिनांक 11/03/08 को वीणा गेायल के पक्ष में निर्णित किया गया।
 सी.बी.आई. का कहना कि मामलें में अतिषीघ्रता से निर्णय दिया गया। आरोप है कि अगस्त 2008 में एक व्यापारी रविन्द्र सिंह ने गलतीवष रिष्वत की राषि रूपये 15 लाख अन्य महिला न्यायाधीष निर्मलजीत कौर के यहां पहुंचा दी थी जिसने पुलिस को रिपोर्ट कर दिया था। पुलिस पड़ताल में पाया गया कि धन वास्तव में न्यायाधीष यादव के लिए भेजा गया था। चण्डीगढ पुलिस ने मात्र 9 दिन में तथ्यान्वेशण कर संजीव बंसल, राजीव गुप्ता व रविन्द्र सिंह को गिरफ्तार किया जिन्होंने बताया कि यह राषि निर्मल यादव के लिए थी। मोबाईल कॉल डिटेल से भी तथ्यों की पुश्टि हुई ।  पंजाब के गवर्नर एस.एस. रोडरिगस ने पंजाब हरियाणा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीष तीर्थसिंह ठाकुर के ध्यान में लाते हुए दिनांक 26/08/08 को सी.बी.आई. से जांच का आग्रह किया था।

सूचना का अधिकार के अन्तर्गत एक आवेदन केे जबाब में खुलासा हुआ कि रिष्वत के प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट तथा केन्द्र सरकार द्वारा क्लीन चिट देने के दो माह बाद पंजाब के गवर्नर, सी.बी.आई. तथा गोखले कमेटी ने निश्कर्श निकाला कि निर्मल यादव को वास्तव में रूपये 15 लाख दिए गए थे। अतिरिक्त महाधिवक्ता बंसल ने तत्पष्चात त्यागपत्र दे दिया था जबकि निर्मल यादव नैतिकता के आधार पर अवकाष पर चली गई थी। भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधिपति बालाकृश्णन ने अलग से न्यायाधीषों की कमेटी से जांच हेतु अनुषंसा की थी किन्तु मुख्य न्यायाधिपति बालाकृश्णन ने सरकार से कोई कार्यवाही नहीं करने की सलाह दी। मुख्य न्यायाधिपति बालाकृश्णन की अनुषंसा पर गठित गोखले कमेटी की 92 पृश्ठीय रिपोर्ट में कहा गया है कि न्यायाधीष निर्मल यादव पर लगाये गये आरोप सारभूत व गंभीर है और न्यायाधीष यादव को हटाने की कार्यवाही प्रारम्भ करने हेतु पर्याप्त है।
सूचना का अधिकार के अन्तर्गत उजागर हुआ है कि यद्यपि केन्द्रीय विधि एवं न्याय मंत्रालय ने सीबीआई से कहा कि संजीव बंसल रविन्द्रसिंह और निर्मल सिंह द्वारा न्यायाधीष यादव के साथ मिलकर शडयन्त्र कर अपराध करने का नाम मात्र का भी साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। गत वर्श मार्च में सी.बी.आई. द्वारा अभियोजन स्वीकृति के अभाव में चण्डीगढ सीबीआई न्यायालय से मामले को बन्द करने की प्रार्थना की जिसे न्यायालय द्वारा अस्वीकार कर दिया था। भारत के मुख्य न्यायाधिपति कपाड़िया की राय पर महामहिम राश्ट्रपति प्रतिभा पाटिल द्वारा दिनांक 28/02/2011 को अभियोजन स्वीकृति प्रदान की गई।

Wednesday 9 March 2011

थर्थार्राता केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो

निदेशक, केंद्रीय जांच ब्यूरो, नई दिल्ली
प्रिय महोदय,
मैं निम्नलिखित प्रेस अपनी वेबसाइट पर प्रदर्शित होने विज्ञप्ति के माध्यम से चले गए हैं: -
सीबीआई ने उच्च न्यायालय के न्यायाधीश और चार अन्य के खिलाफ आरोप पत्र फ़ाइलें प्रेस विज्ञप्ति नई दिल्ली, 2011/04/03 केंद्रीय जांच ब्यूरो रूपये वितरण से संबंधित मामले में आज दायर की एक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के खिलाफ आरोप पत्र और विशेष न्यायाधीश, चंडीगढ़ कोर्ट में चार अन्य लोगों की है. 15 पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के एक और उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के अगस्त, 2008 में दरवाजे कदम पर लाख नकद. आरोप पत्र अभियोजन स्वीकृति यू / विधि और न्याय मंत्रालय से 19 भ्रष्टाचार अधिनियम की रोकथाम, 1988 के एस की प्राप्ति के बाद दर्ज किया गया है.
सीबीआई जांच की स्थापना की है कि तब उच्च न्यायालय के न्यायाधीश, एक सरकारी नौकर जा रहा है, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश की क्षमता में रुपए की राशि प्राप्त की. 15 लाख और एक निजी व्यक्ति (प्रथम) से अन्य मूल्यवान प्रतिफल के बिना बातें, वह किसी अन्य निजी व्यक्ति में रुचि हो जानता (सेकंड) जिसे भी से वह एक हवाई टिकट प्राप्त किया था. यह आगे की स्थापना की है कि एक निजी व्यक्ति (द्वितीय) एक नहीं हैं जो 2007 के 550 आरएसए के मामले में उच्च न्यायालय के न्यायाधीश से पहले दिखाई दिया था, लेकिन यह भी पंचकुला, जो की विषय वस्तु थी साजिश में दिलचस्पी केवल वकील था RSA कहा साथ उसके दोस्त (तीसरा निजी व्यक्ति) के साथ. उच्च न्यायालय के न्यायाधीश भी रुपये प्राप्त किया था. पहले अवसर पर निजी व्यक्ति (प्रथम) से 2.5 लाख रुपए और उसके नाम में पाया गया एक मोबाइल फोन का उपयोग कर.
आरोपपत्र उच्च न्यायालय के न्यायाधीश द्वारा भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के, 1988 की धारा 11 के तहत दंडनीय अपराधों के आयोग के लिए दर्ज किया गया है, यू एस / 120 आईपीसी के बी द्वारा एक निजी भ्रष्टाचार अधिनियम, 1988 की रोकथाम की धारा 12 के साथ पढ़ा (प्रथम) व्यक्ति, एक निजी व्यक्ति (सेकंड), उसके दोस्त / निजी व्यक्ति (तृतीय) के रूप में 120 बी आईपीसी के रूप में अच्छी तरह से आर / डब्ल्यू 193 आर / डब्ल्यू 192, 196, 199 और 200 आईपीसी और पर्याप्त अपराधों निजी व्यक्ति द्वारा उसके वर्गों (सेकंड), निजी व्यक्ति (तृतीय) और एक अन्य निजी व्यक्ति (चौथा).
जनता को याद दिलाया है कि उपरोक्त निष्कर्ष सीबीआई और यह द्वारा एकत्र साक्ष्य के द्वारा किया जांच पर आधारित हैं. भारतीय कानून के तहत, अभियुक्त को निर्दोष होने तक उनके अपराध अंत में एक निष्पक्ष सुनवाई के बाद स्थापित किया गया है माना जाता है.
लेकिन मैं ऊपर समाचार आइटम से पालन कि आरोपी व्यक्तियों के नाम यह पिछले दो शब्दजाल वाक्य है कि अभियुक्त को निर्दोष होना माना जा तक उनके gult अंत में एक निष्पक्ष सुनवाई के बाद स्थापित किया गया है रहे हैं सहित के अलावा नहीं बताया गया है. मुझे लगता है कि इस तरह के काम करने का ढंग operandii मामले में किया गया है सीबीआई द्वारा अपनाई गई विशेष रूप से क्योंकि हाई प्रोफ़ाइल अभियुक्त है एक न्यायाधीश अन्यथा सीबीआई किसी भी अन्य मामले में इस बयानबाजी इस्तेमाल नहीं हो सकता है. आप remmber चाहिए कि भारत के माननीय उच्चतम न्यायालय (1998 AIR 889 एससी) में विनीत नारायण वी. भारत संघ की कृपा कहना है, "कानून अपराधियों अलग नहीं वर्गीकृत करता है इस आधार पर उपचार के लिए अपमान और अभियोजन पक्ष के लिए जांच भी शामिल है अपराधों, जीवन में उनकी स्थिति के अनुसार हर एक ही अपराध के आरोपी व्यक्ति. लिए के साथ एक ही तरीके से कानून है, जो अपनी हर किसी के लिए आवेदन में बराबर है के अनुसार निपटा जाना है. " मुझे शक है कि कांप सीबीआई जबकि प्रेस विज्ञप्ति जारी करने के मामले में मुकदमा चलाने की मजबूती से हो सकता है और अभियुक्त की सजा को हासिल करने में सफल होते हैं. मुझे कितना मामलों सीबीआई बयानबाजी वाक्यांश पहले जोड़ा था में पता है. मैं तुम से मेरे लिए नहीं बल्कि अपने सभी बिरादरी जो आप के प्रति उसी के लिए मांग रहा है के लिए एक प्रतिक्रिया का इंतजार किया जाएगा. दिनांक: 09.03.11 भवदीय

                                                                                                                           
मणि राम शर्मा

भ्रष्टाचार और न्यायिक संरक्षण

प. बंगाल के मुख्यमन्त्री ज्योति बसु द्वारा कलकता उ.न्या. के एक न्यायाधिपति के प्रभाव में आकर भूखंड आवंटन के प्रकरण में दायर जनहित याचिका कलकता उ.न्या ने तारकसिंह नामोपरि ज्योति बसु - ए.आई.आर. 1999 कल 354 में महाराष्ट्र में मुख्यमन्त्री द्वारा मेडिकल सीट आवंटन प्रकरण का उल्लेख करते हुए कहा है कि  इस प्रसंग में यह बल देना महत्त्वपूर्ण है कि विधि शासन की प्रथम आवष्यकता मनमानी शक्तियों का अभाव होना है जिस पर हमारा सम्पूर्ण संवैधानिक निकाय आधारित है। विधि शासन द्वारा शासित शासन में किसी कार्यपालक प्राधिकारी को विवेकाधिकार जब भी दिया जाये वह स्पष्ट रूप से परिभाशाओं में परिमित होना चाहिए। विधि शासन का अभिप्राय है कि निर्णय ज्ञात सिद्धान्तों एवं नियमों को लागू करते हुए लिए जाने चाहिए और सामान्यतया ऐसे निर्णय नागरिकों द्वारा पूर्वानुमान योग्य होने चाहिए। यहां तक कि संविधान द्वारा 34 वर्ष पूर्व विधि के समक्ष समानता एवं अवसर की समानता की घोषणा के बावजूद कुछ राज्यों के मुख्यमन्त्री अभी भी व्यावसायिक महाविद्यालयों में प्रवेश और राज्य पदों पर नियुक्तियों को अपना निजी साम्राज्य मानते आ रहे हैं। इस बात की अनुमति नहीं दी जा सकती कि एक ही श्रेणी के पंक्तिबद्ध खडे़ कई व्यक्तियों में से मनमानीपूर्वक चुनकर चयन किया जावे। एक ही वर्ग या श्रेणी से सम्बन्ध लोगों में पसंदगी हेतु एक तर्काधारित पारदर्शी एवं सोद्देश्य प्रक्रिया /परिमान बनाये जाने की आवश्यकता है जो उचित एवं गैर मनमाना हो। हम निर्देश देते हैं कि सरकार द्वारा अपनायी जाने वाली कोई भी प्रक्रिया पारदर्शी, न्यायपूर्ण, उचित एवं गैर मनमानीपूर्ण हो। किन्तु आवंटन फिर भी निरस्त नहीं  किया गया।

Tuesday 8 March 2011

अवमान क़ानून के नए आयाम


गौहाटी उ.न्या. के कुछ न्यायाधीषों के प्रति असम्मानजनक भाशा में समाचार प्रकाषित करने पर स्वप्रेरणा से अवमान हेतु संज्ञान लिया गया। प्रत्यथर््िायों ने बाद में असम्मानजनक षब्दों के लिए क्षमा याचना करते हुए तथ्यों की पुश्टि कायम रखी ।  गौहाटी उ.न्या. ललित कलिता के मामले में 04.03.08 निर्णय समालोचना हेतु असंदिग्ध रूप से खुले हैं। एक निर्णय की कोई भी समालोचना चाहे कितनी ही सषक्त हो, न्यायालय की अवमान नहीं हो सकती बषर्तें कि यह सद्भाविक एवं तर्क संगत षालीनता की सीमाओं के भीतर हो। एक निर्णय जो लोक दस्तावेज है या न्याय प्रषासक न्यायाधीष का लोक कृत्य है कि उचित एवं तर्क संगत आलोचना अवमान नहीं बनती है।
ऐसी समालोचना में यह उचित रूप में जताया जा सकता है कि निर्णय अषुद्ध है या विधि या स्थापित तथ्यों, दावों के विशय में भूल हुई है। न्यायाधीष की विष्वसनीयता, निश्ठा, ईमानदारी और निश्पक्षता न्यायिक प्रणाली में के आवष्यक तत्व हैं। इस आवेदन पत्र पर जो ध्यानाकर्शण हुआ है -जिस गति से इसका प्रक्रियान्वयन हुआ हमारे द्वारा ध्यान दिये बिना नहीं रहा जा सकता। यहां तक कि यह धारित करते हुए भी कि न्यायाधिपति अग्रवाल को इस आवेदन पत्र का कोई ज्ञान नहीं था, उपलब्ध विशय वस्तु के अनुसार समयानुसार हम कम से कम इस निश्कर्श पर पहंुचते हैं कि जनहित याचिका में निर्णय एवं भूमि-आवंटन के मुद्दे के तथ्य के मध्य स्वीकार्य सम्बन्ध का प्रत्यर्थीगण ने तर्कसंगत एवं सद्भाविक विष्वास किया जिस पर कि प्रत्यर्थीगण हमारे तर्कसंगत संदेह का लाभ पाने के पात्र है व उ.न्या. ने प्रत्यर्थीगण को दोशमुक्त कर दिया ।

Monday 7 March 2011

लोक सेवकों का दायित्व


सुप्रीम कोर्ट ने अपील के निर्णय  लखनऊ विकास प्राधिकरण बनाम एम.के. गुप्ता ए.आई.आर. 1994 स.न्या. 787 में कहा है हमारे संविधान के अन्तर्गत सम्प्रभुता लोगों में निहित है। संवैधानिक तन्त्र के प्रत्येक अंग का दायित्व लोगोन्मुखी होता है। कोई भी कार्यकारी अपनी संविधिक षक्तियों के प्रयोजन में   कानून द्वारा संरक्षित सीमा के अतिरिक्त संरक्षण का दावा नहीं कर सकता। संवैधानिक या सांविधिक प्रावधानों के उल्लंघन में अन्यायपूर्ण कार्य करन वालेे लोक प्राधिकारी  आयोग या न्यायालय के समक्ष अपने व्यवहार के लिए जवाबदेह हैं।
क्षतिपूर्ति षब्द अत्यधिक विस्तृत अर्थवाला है। इसे अधिनियम में परिभाशित नहीं किया गया है। षब्दकोश के अनुसार इसका अर्थ है, क्षतिपूर्ति करना या क्षतिपूरित होना, पूर्ति मंे वस्तु देना। विधिक अर्थ में यह वास्तविक हानि या संभावित हानि और षारीरिक, मानसिक या भावनात्मक पीड़ा, अपमान या क्षति या हानि की पूर्ति तक विस्तारित हो सकती है। एक उदाहरणात्मक क्षतिपूर्ति प्रदानगी प्रतिषोधात्मक विधिक षक्ति के उद्देष्य की परिपूर्ति में उपयुक्त हो सकती है। एक सामान्य या आम नागरिक के पास राज्य या इसके अभिकरणों की षक्ति के बराबरी के उपकरण मुष्किल से ही होते हैं। सरकारी सेवक जनता के भी सेवक हैं। यदि एक लोक कार्यकारी दमनात्मक या दुर्भावनात्मक कार्य करता है और ऐसी षक्ति का प्रयोजन  संताप एवं उत्पीड़न में परिणित होता है तो यह षक्ति का प्रयोजन नहीं अपितु दुरूपयोग है। कोई भी कानून इसके विरूद्ध संरक्षण नहीं देता है। जो कोई भी इसके लिए दायी है, उसे इसे भुगतना चाहिए। यहां तक कि जब अधिकारी ने अपने कर्त्तव्यों का उन्मोचन ईमानदारी तथा सद्भाव से किया तो भी क्षतिपूर्ति या प्रतिपूर्ति जैसा कि पूर्व में स्पश्ट किया गया है उद्भूत हो सकती है। किन्तु जब इसका उद्भव स्वैच्छाचार या अनुचित व्यवहार से होता है तब इसका व्यक्तिगत चरित्र समाप्त हो जाता है और यह सामाजिक महत्व ग्रहण कर लेता है। एक आम व्यक्ति का लोक अधिकारियांे द्वारा उत्पीड़न सामाजिक रूप से निन्दनीय तथा कानूनन गैर अनुमत है। इससे व्यक्तिगत क्षति ही नहीं किन्तु समाज को होने वाली क्षति अधिक गम्भीर है। लोगों द्वारा विरोध के अभाव में समाज मंे अपराध तथा भ्रश्टाचार पनपते एवं फलते फूलते हैं । लाचारी की भावना से अधिक घातक और कुछ नहीं है। कार्यालयों की अवांछनीय कार्यषैली के दबाव का सामना करने ,परिवाद करने और लड़ने केे स्थान पर एक सामान्य नागरिक घुटने टेक देता है । अतएव लोक प्राधिकारियों द्वारा कारित उत्पीड़न के लिए क्षतिपूर्ति प्रदानगी मात्र व्यक्ति विषेश को परिपूर्ति - व्यक्तिगत संतोश नहीं देती है अपितु सामाजिक बुराई का इलाज करने में मदद करती है। यह कार्य संस्कृति में सुधार करने में परिणित हो सकती है तथा दृश्टिकोण परिवर्तित करने में सहायता करती है।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिन मामलों में तुरन्त ध्यान दिये जाने की आवष्यकता है, लटकते रहते हैं और गली के आदमी को बिना किसी परिणाम के इस छोर से उस छोर दौड़ाया जाता है। जब न्यायालय क्षतिपूर्ति या परिपूर्ति के भुगतान हेतु राज्य को निर्देष देते हैं तो अंतिम भुक्तभोगी आम आदमी है। यह कर-दाताओं का धन है जिसे उन लोगों की अकर्मण्यता के लिए चुकाया गया जिन्हें अधिनियम के अन्तर्गत कानून के अनुसार कर्त्तव्य  करना सौंपा गया था।

Friday 4 March 2011

दोषपूर्ण अवरोध

वोरूगन्ती को अपने खेत में बैल व हल आदि ले जाते हुए मदाला आदि द्वारा रोकने पर निचले न्यायालयों द्वारा दोशी पाया गया तथा मद्रास उ. न्या. में दायर  अपील याचिका - मदाला पेरिहा बनाम वोरूगन्ती ए.आई.आर 1954 मद्रास 247   में निर्णय में कहा गया है कि एक व्यक्ति की इच्छा के विपरीत उसकी स्वतन्त्रता का दमन अपराध है। इन सभी निर्णयों का समेकित सार यह है कि जिस दिषा में पीड़ित जाना चाहता है उससे भिन्न मार्ग जाने के लिए निर्दिश्ट करना, आवष्यक रूप से दोशपूर्ण अवरोध के गठन के लिए  पर्याप्त है। बाधक की भौतिक उपस्थिति आवष्यक नहीं है, न ही वास्तविक हमला आवष्यक है और एक व्यक्ति को जहां जाने   का अधिकार है उस स्थान से बाहर रहने के लिए अवरोधित करने हेतु तुरन्त हानि का भय दिखाना इस धारा के अन्तर्गत अपराध के गठन के लिए पर्याप्त है। जहंा और जब कोई  जाना चाहे जिसका उसे विधिपूर्ण अधिकार हो, की स्वतन्त्रता में लघुतम अवैध अवरोध उचित नहीं ठहराया जा सकता और दण्डनीय है। मद्रास उ. न्यायालय द्वारा अभियुक्त की दोशसिद्धि उचित ठहरायी गयी ।

Thursday 3 March 2011

भ्रष्टाचार और सार्वजानिक पद -2

झारखण्ड राज्य में जब दागी  श्री राजीव रंजन और श्री सच्चिदानन्द अधिकारी को झारखण्ड राज्य विद्युत मण्डल के अध्यक्ष एवं सदस्य बना दिये गये तब  झारखण्ड उ. न्या. में दायर जनहित याचिका - अरविन्द कुमार राय बनाम झारखण्ड राज्य निर्णय में कहा गया है कि  समाचार पत्रों ने भी इन व्यक्तियों के पूर्व जीवन पर कथाएं व वृतचित्र प्रकाषित करना प्रारम्भ किया और विभिन्न रंगो में इन्हें चित्रित किया। इन प्रकाषनों ने कुछ अन्देषों को और बढावा दिया (इन प्रकाषनों की विशय-वस्तु को देखते हुए) तथा जनता में यह विचार बना कि उनके भूत एवं प्रमाणित अभिलेख को देखते हुए जिन्हें इन पदों के लिए आहुत किया गया है वे उसकी आवष्यकताओं के अनुसार तथा अनुरूप बेदाग,उच्चतम गुणवान, असंदिग्ध एवं विष्वसनीय प्रत्याषी साबित नहीं हो सकते है । जैसा कि नवोदित झारखण्ड राज्य की जनता सुखद उज्जवल स्थिति की आषा और राज्य की उन्नति तथा वैभव के प्रति उच्चाकांक्षा एवं लोक भावना से ओतप्रोत थी, कि राज्य ऐसे लोगों की नियुक्ति उन पदोें पर न करें जिनकी दागदार छवि, कंलकित  या संदिग्ध सत्यनिश्ठा या खण्डनीय विष्वसनीयता हो ताकि राज्य षासकीय एवं अन्य क्षेत्रों में  प्रभावी एवं भ्रश्टाचार मुक्त प्रषासन आधारित आदर्ष राज्य प्रमाणित हो । झारखण्ड राज्य विद्युत मण्डल के अध्यक्ष एवं सदस्य पद पर श्री राजीव रंजन और श्री सच्चिदानन्द अधिकारी की नियुक्ति निरस्त और निश्प्रभावी की जाती है। राज्य को बोर्ड के अध्यक्ष एवं सदस्य के पदों पर नई नियुक्तियां करने की प्रक्रिया पुनः प्रारम्भ करने के निर्देष दिये जाते हैं।

Tuesday 1 March 2011

प्रभावी लोगों के मध्य न्याय

दिल्ली उ. न्या. ने बी एम डब्लू कार दुर्घटना  के प्रमुख प्रकरण संजीव नन्दा बनाम राज्य में निर्णय दि. 12.05.09  में कहा है कि न्यायालय ने यह भी अवलोकन किया है कि इस प्रकार के प्रकरण में साक्ष्यों को सुनहरे तराजू में तोलने का सिद्धान्त लागू नहीं किया जा सकता क्योंकि हस्तगत प्रकरण एक उदाहरण है जिसमें सम्पूर्ण आपराधिक न्याय का धनी एवं प्रभावी लोगों द्वारा अपहरण कर लिया गया है। न्यायालय का अवलोकन मात्र यह संदर्भ व्यक्त करना नहीं अपितु एक न्यायाधीष द्वारा आक्रोष एवं दुःखद चिन्ता का वर्णन करता है कि पुलिस द्वारा अन्वेशण के दौरान पर्याप्त कमियां छोड़ते हुए खेल योजना तैयार की गयी जिससे अंततः अपराधियों की सहायता हो। यदि एक आपराधिक न्यायालय को न्याय दान का प्रभावी उपकरण होना हो तो पीठासीन न्यायाधीष को अन्वीक्षा में मात्र एक मूक दर्षक बनकर नहीं रहना चाहिए, सक्रिय रूचि तथा सत्य का पता लगाने और दोनों पक्षों के साथ निश्पक्षता व औचित्य के साथ न्याय करना चाहिए, अन्वीक्षा में भागीदार बनकर प्रतिभा प्रमाणित करते हुए समस्त सुसंगत विशय सामग्री ढूंढ निकालनी चाहिए। जो दमनात्मक या तंग करने वाला आचरण कार्यवाही के दौरान घटित हुआ, न्यायालय- इस बात पर आखें नहीं मंूद सकते । अन्ततः संजीव नन्दा की सजा बढा कर सहअभियुक्तों को साक्ष्य मिटाने के अभियोग में दण्डित किया गया और झूठी गवाही के अभियोग में अभियुक्त पर कार्यवाही की गयी। स्मरण रहे कि उक्त प्रकरण में मीडिया द्वारा स्ंिटग ऑपरेषन पर न्यायालय सक्रिय हुआ था ।