Tuesday 23 December 2014

आम नागरिक को ट्रैफिक की तरह सभी राजनैतिक दलों से समान और सुरक्षित दूरी रखनी चाहिए

न्यायपालिका सहित , आज  देश का पूरा शासन तंत्र, और सारे राजनैतिक दल  जन विरोधी लगते हैं | इस देश में पञ्च तत्वों के अपवित्र गठबंधन का  शासन है - संगठित अपराधी, धन्ना सेठ , राजनेता, अधिकारी और न्यायाधीश | नागरिक के पास तो 5 वर्ष में वोट डालने के अलावा कुछ दिखाई नहीं देता | उसकी शिकायतें तो रद्दी की टोकरी की भेंट चढ़ जाती हैं - शासन चाहे किसी भी पार्टी को है - इस गुणधर्म और चरित्र  में कोई अंतर नहीं आता |  भारत   के मुख्य  चुनाव आयुक्त शेषन ने लगभग 20 वर्ष पूर्व  कहा था कि लोकतंत्र के चार स्तम्भ होते हैं और उनमें से साढ़े तीन क्षतिग्रस्त हो चुके हैं  --अब  तक कितने बचे हैं अनुमान लगाया   जा सकता है | गरीबी के विषय में भी इन लोगों  का कुतर्क होता है कि  धन मेहनत से कमाया   जा सकता है |मेरा इन धनिकों से निवेदन है की क्या वे एक मजदूर से ज्यादा मेहनत करते हैं जो दिन भर पसीना बहाने के बावजूद मूलभूत सुविधाओं से वह और उसका परिवार वंचित रहता है | वस्तु स्थिति तो  यह है कि  धन संचय , तो बेईमानी, और दूसरों का हक छीन कर ही किया जा सकता है | दूसरों की वस्तुएं और सेवाएं कौड़ियों के दाम सस्ती लेकर उन्हें महँगी बेचकर संचय ब्लैक करके , कृत्रिम कमी करके मुनाफाखोरी से ही यह संभव है | और पूंजी भी तो संचित श्रम ही है क्योंकि सभी वस्तुएं  तो प्रकृति ने सृष्टि  में निशुल्क उपलब्ध करवाई हैं  |
आम नागरिक को ट्रैफिक की तरह सभी राजनैतिक दलों से समान और सुरक्षित दूरी रखनी चाहिए  क्योंकि  राजनेताओं  का यह पेशा है उससे ही उनकी आजीविका चलती है  |  पार्टी कार्यालयों को चंदे के नाम पर भारी प्रोटेक्शन मनी मिलती है जिनसे पार्टी कार्यालयों के खर्चे चलते हैं  अन्यथा जो कार्यकर्ता पार्टी कार्यालयों  में जुटे रहते हैं उनके  जीवन यापन और चुनावी खर्च  का कौनसा स्वतंत्र  आधार है |   जहां तक जागरूकता का प्रश्न है तो देश में अभी मात्र 6 करोड़ लोग ही ग्रेजुएट या अधिक शिक्षित हैं |

बदसूरत व्यक्ति को यदि शीशा दिखाओ तो अगर वो समझदार होगा तो अपने स्वरूप को स्वीकार करेगा । यदि मूर्ख या पागल हुआ तो शीशा तोड़ने को आएगा । स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने करतार सिंह बनाम पंजाब राज्य (1956 AIR  541) के मामले में कहा है कि जो कोई लोक पद धारण करता हो उसे उस पद से जुड़े आलोचना के हमले को, यद्यपि दुखदायी है, स्वीकार करना चाहिए|  

Sunday 21 December 2014

कानून को चाहे कितना ही सख्त बना दिया जाए आखिर वह रसूख और पैसे के दम पर नरम हो जाता है

देश के कुछ तथाकथित अति बुद्धिमान लोगों का यह भी मत है कि जनता में  सक्रियता नहीं है | मेरा उनसे एक प्रश्न है कि  आम जनता में सक्रियता है या नहीं अलग बात हो सकती है किन्तु जो सक्रीय हैं उनके अधिकाँश आवेदन भी तो किसी न किसी  बनावटी बहाने से रद्दी की  टोकरी की भेंट चढ़ रहे या असामयिक अंत झेल रहे हैं  जो नीतिगत मामला  मंत्री को तय करना चाहिए उसे सचिव  ही निरस्त कर रहे हैं | यदि सचिव  ही नीतिगत मामले  पर  निर्णय लेने हेतु सक्षम हो तो फिर मंत्री  की  क्या भूमिका हो सकती  है|  जनता के सामान्य स्वर को नजर अंदाज किया जाता  है और ऊँचे स्वर को पुलिस की गोली, लात घूंसे और लाठियों से कुचल दिया जता है | यही अंग्रेज करते थे, यही कांग्रेस और यही भाजपा | देश में गरीबी बहुत अधिक है  और   मात्र 3प्रतिशत  लोग ही आयकर दाता है  तथा  70प्रतिशत  लोगों को दो जून  की रोटी के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है , बेरोजगारी, भ्रष्टाचार  और महंगाई सुरसा की तरह मुंह बाए  खड़े है | ऎसी  स्थिति में आंम  नागरिक क्या करेगा ? जनता की  सक्रियता में और क्या होना चाहिए या क्या कमी है यह कोई बता सकता है क्या?  जब जन प्रतिनिधियों को जनता की आवाज उठाने के लिए चुनकर भेज दिया गया तो जनता की बात को अपना स्वर देना उनका कर्तव्य है |  यदि वे ऐसा नहीं करते तो फिर चुनाव का भारी खर्चा क्यों किया जाए ? फिर अंग्रेजों के राज में और इस तथाकथित लोकतंत्र में फर्क क्या रह  जाता है | क्या इसी तरह शासन संचालित होने के लिए हमारे पूर्वजों ने क्रांति की थी ?

शायद  कुछ लोगों को परिवर्तन  की आशा हो किन्तु इस देश में कोई क्रांति भी नहीं होगी |क्रांति के लिए जनता का अति पीड़ित होना आवश्यक है जोकि ये राजनेता कभी नहीं होने देंगे | जनता को थोडा थोड़ा आराम देते रहेंगे| प्यासे को चमच  से पानी पिलाते  रहेंगे  ताकि न  तो उसकी प्यास बुझे और न उसकी प्यास बुझाने कि दिलासा   टूटे|  यह हमें लगातार गुलाम बनाए रखने की एक सुनियोजित कूटनीति का हिस्सा है | अमेरिका में भी रोटरी क्लब का गठन रूस की क्रांति के बाद इसीलिए हुआ था कि कहीं गरीब लोग दुखी होकर रूस की  तरह क्रांति नहीं कर दें इसलिए इनकी थोड़ी थोड़ी मदद करते रहे हो ताकि इनके मन में यह विचार रहे कि धनवान उनके प्रति हमदर्दी रखते हैं| सरकारों के लुभावने नारे और सुधार कार्यक्रम मौसमी और वायरल बुखार की तरह हैं जो कुछ दिनों बाद शून्य  परिणाम  के साथ अपने आप उतर जाते  हैं |

कहने को तो सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दे रखें  हैं कि नारी सुरक्षा हेतु सिटी बसों में सादा वर्दी में पुलिस को तैनात किया जाए किन्तु स्वयं दिल्ली पुलिस में ही सौ से अधिक बलात्कार  के आरोपी कार्यरत हैं| पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी अपनी कनिष्ठ  महिला पुलिस कर्मी से प्रणय निवेदन करते हैं और वे यदि इस पर सहमत न हों  तो उसकी ड्यूटी ऐसे विषम समय और स्थान पर लगाते  हैं कि उसे कठिनाई  हो और वह समर्पण कर दे | उसे कहा जाता है कि  वह कुछ समय वरिष्ठ  के बिस्तर की शोभा बनकर  अपना शेष दाम्पत्य जीवन भोग सकती है अन्यथा उसकी ड्यूटी रात में लगा दी  जाती है| न  केवल  महिला  कर्मियों बल्कि कनिष्ठ पुलिस कर्मियों की भी ड्यूटी ऐसी विषम परिस्थितियों और समय में लगाई जाती है ताकि वे अपना सुखमय दाम्पत्य जीवन व्यतीत नहीं कर सकें |  अपना यदि वे अपना सुखमय दाम्पत्य जीवन  चाहें तो उनसे अपेक्षा की   जाती है कि   वे अपनी बीबी को उन वरिष्ठ के बिस्तर की शोभा बनाएं| वैसे  पुलिस वालों को खुद को पता है कि उनकी समाज में कितनी इज्ज़त है इसलिए वे फेसबुक पर प्रोफाइल में कहीं  भी अपना पुलिसिया काम नहीं लिखते| ऐसा करने पर कोई उनसे दोस्ती नहीं करना चाहेगा|वरिष्ठ पुलिस अधिकारी गिल और राठोर ने भी पुलिस का नाम काफी रोशन किया   है| न्यायाधिपति स्वतंत्र कुमार और गांगुली भी इसी श्रृंखला का हिस्सा रह चुके हैं |कानून  को चाहे कितना ही सख्त बना दिया जाए आखिर वह रसूख और पैसे के दम पर नरम  हो  जाता है |

Saturday 20 December 2014

देश की राजनीति तो एक चूहेदानी हैं जिसमें चुपड़ी रोटी लगाकर चूहों को पकड़ा जाता है

मतदान  का प्रश्न  उठायें तो देश में लगभग 60प्रतिशत  मतदान होता है और मोदीजी की सरकार को 25प्रतिशत  से अधिक मत नहीं मिले हैं अर्थात वे 75प्रतिशत  लोगों को पसंद नहीं हैं |यह तो इस देश का मतदान ढांचा ही ऐसा है कि  अप्रिय लोग भी सत्ता पर काबिज हो जाते हैं | न्यायाधिपति काटजू ने कहा था कि  देश की 90प्रतिशत   जनता नासमझ है | विकल्प के अभाव में वह विवश भी है क्योंकि इस प्रशासनिक ढांचे और संविधान के अंतर्गत कोई उपचार उपलब्ध नहीं हैं | अरुणा राय, अरुंधती, मेधा पाटकर, अन्ना , केजरीवाल , बाबा रामदेव , किरण बेदी आदि  कई लोगों ने प्रयास करके देख लिए हैं लेकिन शायद सफलता अभी भी कोसों दूर है |देश   की राजनीति   तो  एक चूहेदानी   हैं जिसमें चुपड़ी रोटी लगाकर चूहों को पकड़ा जाता है |

भारत की राजनीति में भाग लेना सबसे बड़ा  अधर्म  और चुनाव लड़ना नरक का टिकट बुक करवाना है  |मुझे मोदीजी या अन्य किसी भी पार्टी से न तो लगाव है न पूर्वाग्रह क्योंकि मैं गैर राजनैतिक व्यक्ति हूँ तथा अन्य पार्टियों की पूर्ववर्ती सरकारों की कमियों की ओर  भी समान रूप से ध्यान  आकर्षित करने का प्रयास करता रहा हूँ | देश की  विकलांग न्याय  व  शासन व्यवस्था का जब  तक पूरी तरह से सत्यानाश  नहीं हो  जाता तब तक कोई क्रांति भी  नहीं होगी | यह कार्य हमने  आदरणीय  के हाथों  में सौंप दिया है और शायद वे यह कार्य अपने शासन काल   में अवश्य पूरा करके गुजरात के समान ही एक पूर्ण तानाशाही स्थापित कर देंगे| किन्तु  सुधार तो तब तक नहीं होगा जब तक आम नागरिक ऐसी चर्चा में सक्रीय भागीदार नहीं बन जाता और यह अभ्यास कम से कम 20 वर्ष और लेगा| फिर भी  जनता को  निराशवादी नहीं होना चाहिए और न ही हवा के झोंके के साथ उड़ने वाला  तिनका –बल्कि वास्तविकता में विश्वास कर रखना चाहिए |
वैसे तो  पारदर्शिता और जनतंत्र के विकास के लिए यह आवश्यक है कि शासन की सफलताएं और विफलताएं दोनों को सार्वजनिक किया जाए किन्तु विफलताओं को सार्वजनिक नहीं किया जाता और सफलताओं पर भी मुल्लम्मा चढ़ाकर पेश किया जता है जिससे जनता के सामने वास्तविक तस्वीर कभी नहीं आ पाती है | सफलताओं के गुणगान तो समर्थक ही काफी कर देते हैं और सत्तासीन लोगों की विफलताओं  का ज्ञान होना आवश्यक है ताकि उनमें सुधार के लिए जमीन तैयार की जा सके | सफलताओं के जिक्र से जनता को कोई लाभ भी नहीं बल्कि सत्तासीन पार्टी को ही लाभ हो सकता है | कार्य तो सत्तासीन ही कर सकते हैं अत: आलोचना भी उसी की होगी  सत्ता से वंचित इस व्यवस्था में न तो कुछ कर सकते और न ही उनकी आलोचना से जनता  को कोई लाभ होना है |यदि आम  नागरिक  गुणगान   में अपनी सीमित ऊर्जा  लगा दे  तो फिर कमियों कि और ध्यान कैसे जाएगा|


जिस व्यक्ति ने अपने वरिष्ठ  साथियों तक को दर किनार कर कर दिया वह आम नागरिक को साथ लेकर कैसे चल सकता है| जिसे  प्रकाश नहीं अन्धेरा पसंद हो  -जन संवाद नहीं  एकाधिकार पसंद हो वह जनता का कोई भला कैसे कर सकता है |  मोदीजी जहां एक और इ-गवर्नेंस  की बातें करते हैं वहीँ  आदरणीय के आने के बाद  उनके कार्यालय के सारे इमेल  आई डी  जनता के लिए बंद कर दिए गए हैं और किसी भी अधिकारी का इमेल आई डी  वेबसाइट पर उपलब्ध नहीं है | शायद  जल्द ही ये अपने सभी विभागों, मंत्रालयों, उपक्रमों और कार्यालयों की इमेल आई डी बंद करदें तो भी आश्चर्य नहीं करना चाहिए|  जनता के लिए मात्र दो वेबसाइट /लिंक दिए गए हैं जिनके लिए सिर्फ 500  अक्षरों की सीमा है और वह भी आप 72  घंटे के बाद ही दूसरा सन्देश भेज सकते हैं |इस प्रकार मोदीजी ने चुनाव जीतते ही आम नागरिक से दूरी बढ़ा ली गयी और सिर्फ उनके व्यक्तिगत संपर्क वाले ही उनसे संपर्क कर सकते हैं और उनको तो विदेश यात्राओं के प्रतिक्षण सचित्र विवरण मिलते रहते हैं| यही मोदीजी के प्रजातंत्र का असली मोडल है |किसी  कार्य में सफलता हमें तभी मिल   सकती है जब उसे पूर्ण मनोयोग – मन, वचन एवं कर्म से किया जाए| किन्तु मोदीजी की इ-गवर्नस  में तो इसका कोई  तालमेल नजर नहीं आता | जब वे लिखे हुए पर ध्यान नहीं दें तो कैसे विश्वास किया जाए कि   वे व्यक्तिगत मिलने पर दुःख दर्द सुनेगें | वैसे उमा भारती  से मिलने गयी मेधा पाटकर को लौटते  समय  पुलिस ने गिरफ्तार  भी कर लिया था|जिस तेज गति से   मोदीजी  की  छवि में सुधार  हुआ है  शायद उससे तेज गति से यह छवि धूमिल   हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं |

Friday 19 December 2014

मोदीजी भी इंदिराजी का एक हिन्दू संस्करण हैं

भ्रष्ट  राजनीति की लम्बी लम्बी बातें आदरणीय मोदीजी कर रहे हैं उसका आगाज दिल्ली के रामलीला मैदान में आप ने किया था और उसी मंच पर भारत के लगभग सभी राजनैतिक दल भाजपा सहित , यूपीए को छोड़कर , शामिल रहे हैं | मोदीजी एक अच्छे  वक्ता और धुरंधर राजनेता हैं जिन्हें जोड़तोड़  की राजनीति का अच्छा  ज्ञान है  यह ओवैसी, शिव सेना और राकपा  ने साबित कर भी दिया है | किन्तु जनता इन भाषणों को आखिर कितने समय  तक सुनने का संयम रख पाएगी | मोदीजी अच्छे राजनेता हैं किन्तु बुरे प्रशासक हैं | टाटा  स्टील के अध्यक्ष पद से  रुसी मोदी  को हटाकर जब इरानी को अध्यक्ष बनाया गया था तब उन्होंने कहा था कि  इरानी अच्छा स्टील तो बनाना जानते हैं किन्तु  अच्छे  आदमी नहीं | मोदीजी का भी हाल कुछ ऐसा ही है | बेशक राजनैतिक समीकरणों के वे अच्छे ज्ञाता हैं किन्तु  धरातल स्तर  पर एक भी सुधार   का कार्य उन्होंने नहीं किया है |
प्रधान मंत्री जी के संवाद कौशल की राजनीति के अन्त की अब शुरुआत है, अगर उनके पिछले इतिहास पर गौर की जाए तो उन्होंने आजतक जिस सीढ़ी के डंडे पर पैर रखकर ऊपर गये वहां पहुंचते  ही सबसे पहला कार्य पिछली सीढ़ी को तोडने का करते हैं।गुजरात में विश्व हिंदू परिषद और गुजरात भाजपा, फिर राजनाथ पर पैर रखकर आडवाणी, जोशी, सुषमा, जेटली, फिर मीडिया, सोशल मीडिया सहयोगी पार्टियों पर पैर रखकर पी एम की कुर्सी पर पहुंचे, पहुंचते ही राजनाथ का हश्र, शिव सेना की गत, जुकरबर्ग से मुलाकात, और समाज में लगातार गिरता मीडिया का स्तर और उसपर से जनता का उठता विश्वास, टीवी 18 की खरीदारी आदि ये साबित करने के लिए काफी है कि  ये शाहजहाँ जिन हाथों से ताजमहल बनवाते है उन्हें दूसरा ताजमहल बनाने लायक नहीं छोडते| 2019 तक टॉम  एन जैरी की जगह बच्चे न्यूज चैनल देखने की जिद करने लगे तो कोई अचरज की बात नहीं होगी|

 उनके विचारों में राजनीति की अप्रिय बू आती  है जो जन संवाद की  बजाय व्यक्तिगत संपर्क रखने और उसके माध्यम से अपना जनाधार या पंथ प्रसार पर बल देते हैं कि लोगों को काम करवाना हो तो पार्टी से संपर्क रखें, उसके सदस्य बने | वे पार्टी के ज्यादा और जनता के कम प्रतिनिधि  हैं| नाम तो हिन्दुत्व का लेते हैं और हाथ  अवैसी से मिलाते हैं जो कहते हैं  कि 15   मिनट   के लिए पुलिस हटा ली  जाए  तो 100  करोड़ हिन्दुओं को साफ़ कर देंगे | प्रचंड बहुमत मिलना भी इस बात का कोई निश्चायक  प्रमाण नहीं है कि वह व्यक्ति जन प्रिय, संवेदनशील है तथा तानाशाह नहीं है | इस तथ्य का मूल्यांकन एक बार इंदिरा गांधी के चरित्र   के परिपेक्ष्य में करके देखें| मोदीजी भी इंदिराजी  का एक हिन्दू संस्करण हैं |


दवा की कीमतों और रेल भाड़े में वृद्धि तथा श्रम कानूनों में हाल के संशोधनों से आने वाले अच्छे  दिनों को झलक मिलती है | जो व्यक्ति लिखे हुए आवेदन को पढ़कर कोई समुचित कार्यवाही नहीं कर सकता  विश्वास नहीं होता की वह व्यक्तिगत मिलने पर कोई हल निकालेगा| 

Thursday 18 December 2014

हवाई जहाज में उड़ने और डिज़ाइनर कपड़ों के लिए लोग पहले रिक्शे में चलते हैं |

भाजपा सुशासन  का दावा करते समय यह कहती है कि  60  वर्षों से  देश  के हालत बिगड़ते गए हैं जबकि  भाजपा तो स्वयम रामराज्य करने का  दावा करती है  और अभी कांग्रेस को लगातार मात्र 10 साल हुए हैं |इससे पहले तो स्वयं भाजपा 5  साल शासन कर चुकी है  | इस अवधि में इन्होंने कौनसा  टिकाऊ  या मौलिक सुधार किया ? या यदि इन्होंने  कोई ऐसा सुधार किया जो 10 साल भी नहीं टिक सका तो फिर ऐसे सुधार को   क्या कोरी सस्ती लोकप्रियता की लिए कदम नहीं कहा जाए |  गत चुनाव में दिल्ली में शत प्रतिशत सीटें जीतने वाली पार्टी विधान सभा चुनावों  में क्या इसे बरकरार रख पाएगी ?  यदि अभी संसद के लिए पुन: मतदान तो भाजपा 10%  से अधिक सीटें खो देगी |यदि भाजपा अपने 5  साल के शासन में कुछ नहीं सुधर सकी तो कांग्रेस को 10 साल के शासन के लिए ज्यादा दोष नहीं दिया जा सकता |

मोदीजी जैसे व्यक्ति का जीतना उनके लिए सौभाग्य और जनता के लिए दुर्भाग्य की  बात है क्योंकि देश की राजनीति में कोई विकल्प नहीं है और न ही कोई विकल्प पनपने दिया गया | जिस प्रकार पूर्व देश में ( जहां कोई वृक्ष नहीं होता ) वहां एरंड ही वृक्ष कहलाता है | देश की राजनीति तो एक दलदल है जो इसमें से निकालने के लिए जितना   जोर लगाएगा उतना ही अंदर धंसता जाएगा| ये  वही मोदीजी हैं जो सत्ता में आने से पहले शेर की तरह दहाड़ते थे और शशि थरूर की बीबी को करोड़ों  की बीबी बताते थे |
देश में लगभग 70प्रतिशत  लोग गरीब हैं 10प्रतिशत  धनी  और 20प्रतिशत  मध्य वर्गीय हैं | ऊपरी उद्योगपतियों को सरकारी अनुदान दिया जाता है और निचले लोगों को भी अनुदान किन्तु मध्यम वर्ग  को कोई लाभ उपलब्ध नहीं हैं है| गुजरात में 40प्रतिशत  शहरी और  व्यापारी हैं जिनका उन्हें समर्थन प्राप्त  है |  आदर्श  ग्राम योजना भी एक छलावा मात्र है  | एक सांसद के क्षेत्र  में लगभग एक हजार गाँव हैं  तो इतने गाँवों के विकास में कितनी पीढियां लगेंगी , अनुमान लगाया जा सकता है | स्वच्छ   भारत अभियान भी इसी कड़ी  का एक हिस्सा है और प्रशासन की विफलता का द्योतक है कि  वे नगर निकायों से काम नहीं  ले सकते | दूसरी पार्टियों या राजनेताओं  पर आरोप लगाने से भी भाजपा उज्जवल  नहीं हो  जाती है बल्कि यह तो इस बात की  पुष्टि है कि  हम भी  उन जैसे  ही हैं जबकि अलग  चाल ,चरित्र और चेहरे   का दावा खोखला है |
केंद्र सरकार के सचिवालयों में आज भी बात करें कि मोदीजी ने यह कहा है तो वे निर्भय होकर कहते हैं हम तो यों ही काम करेंगे आप मोदीजी से शिकायत कर  दें या उनसे काम करवा लें|भारत में  प्रधान मंत्री   का तो पद खाली है  और दो विदेश मंत्री कार्यरत   हैं | पी एम ओ ( प्रधान मंत्री कार्यालय )  पहले भी पोस्टमैन   का कार्यालय था और अब भी यही है | जनता से प्राप्त शिकायतों को सम्बंधित मंत्रालय को डाकिये की भांति आगे भेज दिया  जाता है और उस पर इस बात कोई निगरानी नहीं रखी जाती कि उसका समय पर व  समुचित निपटान हो रहा है |  दिन में 20 घंट  काम तो मोदीजी अवश्य करते होंगे किन्तु इस अवधि में राजनैतिक जोड़तोड़  पर चिंतन ही करते हैं और राकापा, शिव सेना, ओवैसी  आदि के साथ अपवित्र गठबंधन करने में अपना समय और ऊर्जा लगाते हैं  किन्तु जन हित चिंतन उनके  स्वभाव  का  अंग नहीं है |जो अम्बानी से हाथ मिलाएगा वह विकास तो अम्बानी का ही करेगा आम जनता का  नहीं |अम्बानी तो व्यापारी हैं पहले इनके  पिता तात्कालीन वित्त  मंत्री  प्रणब मुखर्जी के ख़ास थे,  फिर मुलायम के और अब मोदी के|  ये पैसे  के अतिरिक्त किसके  ख़ास हो सकते  हैं|  यदि चाय बेचने वाला कोई प्रधान मंत्री बन जाये तो उससे विकास तो उसका ही हुआ है न कि  देश का | रेलवे  स्टेशन पर खुम्चे वाले आज कई बड़े धनपति बने बैठे हैं –इससे  क्या फर्क पड़ता है आम जनता की नियती तो वही रहती है |  हवाई जहाज में उड़ने और डिज़ाइनर कपड़ों के लिए लोग पहले रिक्शे में चलते हैं | 

Wednesday 17 December 2014

गुजरात प्रशासन पर पुलिस भारी पड़ती हैं

लंबा  शासन तो वाम ने भी प. बंगाल में मोदीजी से ज्यादा 25 साल तक  किया है | भाजपा और स्वयम कांग्रेस ने भी केंद्र और अन्य राज्यों में कर रखा है | गुजरात में लंबा शासन करना सुशासन का प्रमाण नहीं हो सकता और न ही  अविवाहित होना इस बात  का प्रमाण हो सकता कि  वह भ्रष्टाचार किसके लिए करेंगे | जय ललिता, ममता, मायावती भी तो अविवाहित हैं |  वैसे राजनेताओं को विवाह करने की कोई ज्यादा आवश्यकता भी नहीं रहती है | सांसदों के प्रोफाइल को देखने से ज्ञात होता है कि  अधिकाँश शादीसुदा सांसदों  ने  भी अपनी युवा अवस्था ( 35)  के बाद ही शादियाँ की हैं| जब जयललिता  को सजा सुनाई गयी  तो बड़ी संख्या में लोग मरने मारने  को उतारु हो गए थे,  तो क्या जन  समर्थन से  यह मान लिया जाए कि वह  पाक साफ़ है | ईमानदारी  का पता  तो कुर्सी छोड़ने पर ही लगेगा   क्योंकि जब तक सत्ता में हैं वास्तविक स्थिति दबी रहती है |
गुजरात में सम्प्रदाय विशेष के सैंकड़ों लोगों  को झूठे   मामलों में फंसाया गया है और  कुछ तो अक्षरधाम जैसे प्रकरण में अभी सुप्रीम कोर्ट से निर्दोष मानते हुए छूटकर गए हैं| कानून के अनुसार दोषी पाए जाने के लिए व्यक्ति का  तर्कसंगत संदेह से परे दोषी पाया जाना  आवश्यक है और निर्दोष और दोषी पाए जाने में  तो जमीन  आसमान का अंतर होता है| जिसे सुप्रीम कोर्ट निर्दोष मानता हो उसे कम  से  कम  निचले न्यायालयों द्वारा   संदेह  का लाभ तो दिया ही जाना  चाहिए था| इससे पता चलता है कि  राज्य की  न्यायपालिका  कितनी दबावमुक्त, स्वतंत्र और निष्पक्ष है | फर्जी मुठभेड़ के कई मामले भी चल रहे हैं यह पूरी दुनिया जानती है| मुख्य मंत्री होते हुए कानून बनाना मोदीजी का काम था जो उन्होंने  नहीं करके पुलिस को भेज दिया तो फिर क्या पुलिस कानून बनाएगी| समुद्र को पूरा पीने कि जरुरत नहीं होती , उसके स्वाद  का पता लगाने के लिए अंगुली भर चखना काफी होता है | मूर्ख होने के कारण ही यह जनता केजरीवाल को सिरमौर बना लेती है और 6 माह में उसे गालियाँ निकालती है और उसके बाद मोदी को जीता देती है| जो भी सत्ता में आता है वह मूर्खों की वजह से ही आता है  वरना कोई भी चुनाव ही नहीं जीत पाता| जिनके हाथ में नीता अम्बानी का हाथ और कंधे पर मुकेश अम्बानी का हाथ हो वे किस गरीब और कमजोर का भला कर सकते हैं -मैं तो यह समझने में असमर्थ हूँ | स्वयम सुप्रीम कोर्ट ने नडियाद प्रकरण में  कहा है कि   पुलिस गुजरात प्रशासन पर भारी पड़ती  हैं | कानून   बनाने का जो काम विधायिका को करना चाहिए वे पुलिस को सौंप दे तो या तो उन्हें ज्ञान नहीं या वे डरते हैं |दोनों ही  बातें देश का दुर्भाग्य हैं|
कॉमन वेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव संस्था ने सूचना   का अधिकार और पारदर्शिता की प्रभावशीलता पर गुजारत में सर्वेक्षण किया था  तो सामने आया कि  गुजरात की न्यायपालिका और अन्य सभी अंगों को इस कानून  से परहेज है | किसी न किसी  बहाने से सभी  अंगों ने रिकार्ड का निरिक्षण करवाने तक से इनकार  दिया था |मानवता को शर्मसार करने वाला सोनी सोरी काण्ड भी भाजपा के  शासन छत्तीसगढ़ में ही हुआ था |

Tuesday 16 December 2014

गुजरात में औद्योगिक विकास और श्रमिक शोषण

गुजरात राज्य में औद्योगिक मजदूरों की दर्दनाक कहानी इस प्रकार है। गुजरात राज्य के उद्योगपतियों को राज्य में अपने उद्योगों की स्थापना के लिए इसलिए एक आकर्षक ठिकाना लगता है कि क्योंकि वहां उद्योगपतियों द्वारा मजदूरों का शोषण आसान  हैं। श्रम के संरक्षण और सुरक्षा के करने के लिए किसी भी कानून को लागू नहीं  किया   जा रहा है।  
उद्योगपति मजदूरों को देश के कानून के तहत उपलब्ध सभी अधिकारों से वंचित कर रहे हैं। पीएफ और प्रकीर्ण कानून  गुजरात में उद्योगों में अपवाद स्वरुप ही लागू  है, और वह भी एक यूनिट में श्रमिकों की सीमित संख्या के लिए है। राज्य के भ्रष्ट प्रशासन - श्रम विभाग, पीएफ कमिश्नर, और इंस्पेक्टर सहित -के संरक्षण के द्वारा शायद ही राज्य के 10प्रतिशत श्रमिकों  को औद्योगिक   इकाइयां  कानून के तहत कवर किया जाता है | कार्य समय  12 घंटे की दो पारियों में विभाजित  है और 24 घंटे के एक दिन के लिए संचालित औद्योगिक इकाइयों काम करती हैं  और ओवरटाइम सहित डबल मजदूरी के लिए उनकी पात्रता के स्थान पर श्रमिकों को 8 घंटे एक दिन के लिए तय न्यूनतम मजदूरी का ही भुगतान किया जाता है। इस स्थिति को बिजली की खपत और विभिन्न इकाइयों में कार्यरत मशीनों की क्षमता से सत्यापित किया जा सकता है। अधिकाँश श्रमिक  रोजगार कार्ड से वंचित हैं और जो श्रमिक  4-5 दिनों के लिए काम करने के बाद छोड़ कार्य देता है उसे  कोई मजदूरी का भुगतान नहीं किया जाता है । कार्ड केवल 15-20 दिनों के लिए काम करने के बाद जारी किए गए हैं। कारखाना  अधिनियम या अन्य कानूनों के तहत सुरक्षा उपायों का लेशमात्र भी  पालन नहीं कर रहे हैं। इन सभी कानूनों को लागू करने के लिए जिम्मेदार सरकारी मशीनरी के सक्रिय सहयोग से उल्लंघन  कर रहे हैं। शायद ही 10-15प्रतिशत  कर्मचारियों को श्रम कल्याण कानूनों के प्रयोजन के लिए रोल में दिखाया जाता है। दो पारियों के लिए वेतन रोल से छेड़छाड़ करके  और तथाकथित श्रम सलाहकार की मदद से श्रम कानूनों को लागू करने के लिए उत्तरदायी विभिन्न विभागों को तीन पारियों में समायोजित व फिक्स और प्रबंधन कर लिया जाता  हैं। असंगठित क्षेत्र में श्रमिक  बहुत कठिन जीवन जी रहे हैं और कोई ट्रेड यूनियन राज्य में सक्रिय नहीं हैं।  ट्रेड यूनियन का गठन करने के किसी भी प्रयास को  बेरहमी रौंद डाला जाता है और श्रमिकों के कल्याण के लिए कोई संघ राज्य में कार्यरत नहीं  है। कमजोर श्रमिक वर्ग की उसके नियोक्ता के मुकाबले कोई सशक्त सौदेबाजी की शक्ति नहीं  होती  है, इसलिए राज्य को उनके बचाव के लिए आगे आना चाहिए है, लेकिन उद्योगपतियों से प्रोटेक्शन  मनी  प्राप्त राज्य की भ्रष्ट मशीनरी अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए अनिच्छुक  हैं। जो कोई भी हिम्मत कर  एक श्रम संघ का आरंभ करना  चाहे उसे पुलिस के साथ मिलकर झूठे आपराधिक मामले में फंसा  कर ऐसी  पहल से वापस लेने के लिए मजबूरकर दिया  जाता है  और ऐसे पवित्र प्रयास को नाकाम कर दिया जाता  हैं । राज्य के हीरा उद्योग के श्रमिकों के शोषण भी  शीर्ष पर है।
श्रमिकों को साप्ताहिक छुट्टी नहीं दी  जाती है  तथा उन्हें   दैनिक मजदूरी के आधार पर, और बिना किसी  अवकाश लाभ के,  भुगतान कर रहे हैं । आदेश विशिष्ट आधार पर कार्य कर रहे उद्योगों में मनमर्जी से  और बिजली कटौती के कारण अवकाश के घोषित कर रहे हैं। शायद ही 2-3प्रतिशत  श्रमिक  समूह बीमा पॉलिसियों के अंतर्गत आते हैं और श्रमिकों को दुर्घटनाओं, और यहां तक कि लोगों की मृत्यु पर मुआवजा से  इन्कार  कर रहे हैं। यह भी ज्ञात हुआ है  कि  समुद्र किनारे या नदी के किनारे के संचालित   औद्योगिक इकाइयों में दुर्घटनाओं के शिकार लोगों के शव समुद्र या नदी फेंका जा सकता है और मुआवजे के भुगतान के लिए कानूनी दायित्व से बचने के लिए श्रमिकों के निशान तक मिटाये जा सकते है। उद्योगपति अपने उत्पादों पर उचित उत्पाद व  अन्य शुल्क चुकाए बिना बेच रहे हैं और जिससे राजस्व  हितों को भी हानि हो रही है ।

व्यापारी  लोगों को श्रमिकों के शोषण  का निर्बाध अधिकार दे दिया गया  और उसके बदले वे सत्तासीनों  को चंदे रूप में प्रोटेक्शन मनी और अपना समर्थन भी देते हैं | गुजरात में वैसे भी व्यापारी और शहरी जनसंख्या भारत के औसत 20प्रतिशत  के स्थान पर 40प्रतिशत है| अधिकारी निर्भय होकर  रिश्वत लेते हैं अत: वे भी सरकार और सत्ता का ही समर्थन करते हैं | सम्प्रदाय  विशेष के लोग भी डर  के मारे  सत्ता को ही वोट देते हैं | शेष रहे कमजोर लोगों  का भी सत्ता का विरोध करने का कोई साहस नहीं होता |

Saturday 13 December 2014

पांच सात करोड़ खर्च करके किसी आई ए एस या आई पी एस को दामाद बना लेंगे

गुजरात के बहुत कम लोग अखिल भारतीय स्तर की प्रतियोगी परीक्षा में बैठते  और  सफल होते हैं क्योंकि गुजराती व्यापारी  खरीदने में ज्यादा विश्वास करते हैं  | कुछ बड़े व्यापारियों  से बातचीत में उन्होंने  बताया कि  किताबों में माथा खपाने में क्या रखा है,  व्यापार करेंगे कमाएंगे और बेटा आईएस या आईपीएस नहीं तो क्या  पांच सात करोड़ खर्च करके किसी  आई  ए एस या आई पी एस को दामाद बना लेंगे | प्रतिवर्ष की इन सूचियों  और आईएस या आईपीएस  के रिश्तों  को देखकर इनकी पुष्टि की जा सकती है |
जहां तक विकास  का प्रश्न है  सरकारी खजाने से जो भी धन खर्चा होगा उसे मंजूर करने वाले को कमीशन मिलता है अत: उसमें वह पूरी रूचि लेता है किन्तु कानून व्यवस्था बनाए रखने पर कोई रूचि नहीं लेते क्योंकि उसमें कोई कमीशन नहीं मिलता बल्कि अपराधियों को संरक्षण ख़त्म करने पर प्रोटेक्शन मनी मिलना बंद   हो  जाता है|  भाजपा या मोदीजी से पहले भी गुजरात कोई पिछड़ा राज्य नहीं रहा है| वहां पर्याप्त भौतिक संसाधन, समुद्री तट, अच्छा  जलवायु, अच्छी   और उपजाऊ मिटटी है | अत: आर्थिक विकास होना ठीक उसी प्रकार स्वाभाविक है  जैसे पंजाब में कृषि और बिजली  | 
राज्य में उद्योग विभाग में भी  काम करवाने की दरें प्रत्येक सीट के लिए तय हैं और  भेंट चढाने पर काम जेट की तरह से आगे बढ़ता है | राजस्थान में यह कमी रही है कि यहाँ भेंट चढाने पर भी हरियाणा और गुजरात की तरह तुरत फुरत में काम नहीं होता है | इसीलिए  राजस्थान विकास में पिछड़ता गया है |यदि भाजपा ही विकासोन्मुख पार्टी है तो फिर छत्तीसगढ़ , मध्य प्रदेश और राजस्थान का विकास क्यों नहीं  हो रहा है ?


Friday 12 December 2014

क्या गुजरात के ये कीर्तिमान वहां सुशासन मानने के लिए पर्याप्त नहीं हैं ?

सरकार   का प्राथमिक कर्तव्य कानून  व्यवस्था बनाये रखना और नागरिकों की सुरक्षा और शांति सुनिश्चिय करना है  और अन्य सभी कार्य गौण होते हैं |   गुजरात राज्य में सूचना का अधिकार कानून बहुत कम प्रभाव शाली है और वेबसाइट पर उपलब्ध नगण्य सूचना भी गुजराती भाषा में है  ताकि अन्य राज्य   का नागरिक उसे नहीं जान पाए | और यदि राज्य  का कोई नागरिक ऐसी हिमाकत करे तो उससे निपटने के लिए प्रशासन और पुलिस कटिबद्ध तैयार हैं तथा शासन का उन्हें पूर्ण संरक्षण उपलब्ध है| गुजरात के कई लोगों से स्वतंत्र पूछताछ की जिसमें कई महत्वपूर्ण तथ्य सामने आये हैं | गुजरात राज्य की पुलिस की कार्य शैली में भी अपने पडौसी राज्यों की पुलिस से कोई  ज्यादा भिन्नता नहीं है | यद्यपि राज्य में  शराब बंदी है किन्तु पुलिस थानों के पीछे  ही और झुग्गी झोम्पडियों  में शराब उपलब्ध है | गुजरात में शराब भगवान की तरह है । दिखती कहीं नहीं, पर मिलती हर जगह है ।आम जनता पुलिस से घृणा करती है और पुलिस में प्रत्येक काम करवाने के लिए प्रत्येक सीट की दर तय है | वे प्राप्त रिश्वत की राशि निर्भय होकर खुले रूप से बैंक में काउंटर पर केशियर की तरह गिनकर ले लेते हैं |
गुजरात में शराब  बंदी का यह हाल है कि प्रशासन और पुलिस से मिलकर राजस्थान के रास्ते से पंजाब, हरियाणा से गुजरात बड़ी मात्रा में गुजरात में शराब  की तस्करी होती है | मुख्य गरबा में   भी लोग नशा करके आते हैं अत: स्त्रियाँ अपने घर के आसपास के छोटे मंदिरों  के प्रांगणों में ही गरबा में भाग लेती हैं |   उच्च  न्यायालय में गरीब व्यक्ति को पैरवी  के लिए गुजरात सरकार मात्र 400 रूपये की आर्थिक सहायता देती है जबकि राजस्थान  में  5000 रूपये दिये जाते हैं और दूसरी ओर  राजस्थान की  प्रतिव्यक्ति आय गुजरात से भी आधी है|

 देश में मात्र गुजरात  ही एक राज्य है जहां  अहमदाबाद के मजिस्ट्रेट  ब्रह्मभट्ट  द्वारा  चालीस हज़ार रूपये के बदले  भारत के राष्ट्रपति , मुख्य  न्यायाधीश, एक अन्य  न्यायाधीश और एक एक सुप्रीम कोर्ट के वकील के नाम वारंट जारी करने का मामला सुप्रीम कोर्ट में   आया है | ठीक इसी प्रकार मात्र गुजरात राज्य से ही  ऐसा अन्य मामला सुप्रीम कोर्ट में   आया जहां मजिस्ट्रेट  को जबरदस्ती शराब पिलाकर पुलिस ने उसका नडियाद में सरे  बाज़ार जुलूस निकाला गया | ऐसे राज्य में आम नागरिक की क्या औकात और वजूद है और वह वर्दी धारी की बर्बरता से कितना  सुरक्षित है | क्या गुजरात के ये कीर्तिमान वहां सुशासन मानने के लिए पर्याप्त नहीं हैं ? बम  विस्फोट और साम्प्रदायिक दंगे समय समय पर गुजरात में भी होते रहते हैं|   फर्जी मुठभेड़  में नागरिकों  के मारे जाने के मामलों में  भी गुजरात  का स्थान सर्व विदित है |

Wednesday 10 December 2014

यदि भले लोग राजनीति में आ गए तो ये सब राजनेता बेरोजगार हो जायेंगे

यों  तो लोग  नेताओं  और अधिकारियों  के भ्रष्टाचर  की बड़ी बड़ी  बातें करते हैं लेकिन उनके  घर समारोहों में बिना बुलाये  ही जाना  अपना सौभाग्य समझते हैं जबकि किसी व्यक्तिगत या सामाजिक समारोह में भी नेता और बड़े अधिकारी धन भेंट देने पर ही आते हैं – अन्य काम की बात तो छोड़ देनी चाहिए | स्वास्थ्य  लाभ के लिए हमारे राजनेता  और बड़े अधिकारी एक बार मसाज पर ही  5-7 हजार खर्च कर देते हैं, उससे जुडे  मनोरंजन और अन्य आतिथ्य व्यय तो अलग हैं |प्रश्न   पूछने तक के लिए धन लिया जाता है |

सता तो वैसे ही लक्ष्मी की चेरी होती है है | एक धर्म पंथ के धर्माचार्य का स्वर्गवास हो गया | उस पंथ के सम्पूर्ण भारत   में ही  साढ़े चार लाख मात्र अनुयायी हैं किन्तु आचार्य की अंतिम यात्रा  में शामिल होने के लिए राष्ट्रपति, पूर्व राष्ट्रपति, कई प्रमुख मंत्री, विपक्ष के नेता आदि सभी पधारे क्योंकि  वह सम्प्रदाय व्यापारी वर्ग  का है और देश  की अर्थ व्यवस्था में हस्तक्षेप रखता है  और  चंदे  के नाम पर राजनेताओं को   प्रोटेक्शन मनी देता है वरना इतने से लोगों के धर्माचार्य की अंतिम यात्रा में कौन सा नेता आने को तैयार होगा |

देश  की क्षुद्र  राजनीति में न तो भले लोगों  के लिए कोई प्रवेश द्वार हैं और यदि संयोगवश कोई  आ भी जाए तो उसके पनपने के अवसर नहीं हैं, उनके पर कतर दिये  जाते हैं | इस कला में भाजपा, कांग्रेस और बसपा आदि कोई पीछे नहीं है | वैसे भी भले लोग देश  का आखिर भला ही चाहते हैं  अत:  वे राजनीति में नहीं  आना चाहते | उन्हें नेता कहलवाना एक गाली लगता है | आज सफ़ेदपोश अपराधी, गुंडे, बदमाश , माफिया राजनीति  में सक्रीय हैं  और रिमोट   से देश  की राजनीति   को संचालित कर रहे हैं | यदि भले लोग राजनीति में  आ गए तो ये सब राजनेता  बेरोजगार  हो जायेंगे और  अपने पुराने धंधों   में लौट आयेंगे जिससे  देश में अपराध , अराजकता, अशांति बढ़ जायेगी | यदि भले लोगों को देश की राजनीति कोई महत्व दे तो उनका सक्रीय होना आवश्यक नहीं है अपितु उनके दिये  गए जन हितकारी सुझावों  पर अमल करना ही अपने आप में पर्याप्त है | अपराधियों और राजनेताओं के अपवित्र गठबंधन के सम्बन्ध में वोरा कमिटी द्वारा 21वर्ष पूर्व दी गयी सलाह  पर कार्यवाही की अभी प्रतीक्षा है |सरकारें  सुधार की बिलकुल भी इच्छुक नहीं हैं  -जब पूर्ण बहुमत में होती हैं तब मनमानी करती हैं और अल्पमत में होने पर रोना रोती हैं  कि  वे सहयोगियों   के अनुसार  ही चल सकती हैं  | पूर्व में जब समस्त निर्माण कार्य सार्वजनिक विभाग के माध्यम  से होते थे तो जन प्रतिनिधि ( विधायक और सांसद) बिलकुल कडाके के दिन गुजारते थे  इसलिए वे इन कामों की शिकायतें करते रहते थे  | सरकार ने इस शिकायत को दूर करने और जन प्रतिनिधियों को खुश करने के लिए सांसद और विधायक निधि की योजनाएं बना डाली हैं | अब जन प्रतिनिधियों की मंजूरी से  ही यह निधि खर्च होती है और मंजूरी के लिए खर्च करना पडना है |

Tuesday 9 December 2014

पुलिस की गोली से भारत में हजारों, अमेरिका में 409 , जर्मनी में 3 और ब्रिटेन और जापान में शून्य व्यक्ति प्रतिवर्ष मरते है |

भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त शेषन ने एक बार कहा था कि  लोकतंत्र के चार स्तम्भ  होते हैं और उनमें से साढ़े   तीन क्षतिग्रस्त हो चुके हैं | उसके बाद आगे हुई प्रगति को देखकर वर्तमान का आकलन किया जा सकता है | वैसे भी राजनीति, पुलिस और सेना में हुक्म मानने वाले हाजरियों  की  जरुरत होती है जो बिना दिमाग का उपयोग किये आदेश मानते  रहें |दिमाग लगाने वालों और विरोध करने वालों के लिए वहाँ अलग से उत्पीडन  व उपचार केंद्र होते हैं | एक बार मैं जब ग्रामीण  क्षेत्र में सेवारत था जहां बिजली, पानी, सडक, और फोन जैसी कोई सुविधा नहीं थी | मैं भाजपा के जिलाध्यक्ष के पास इन समस्याओं  को लेकर चला गया  तो उन्होंने बताया  कि   सडक  का मंजूर काम तो मैंने ही निरस्त करवाया था क्योंकि वहां की विधायक अन्य पार्टी की है | मुझे उन्होंने यह भी कहा कि आप सडक के लिए क्यों आये हैं  आपको चुनाव लड़ना  है क्या |मैंने कहा मैं चुनाव लड़ने की  तो सपने में भी नहीं सोचता लेकिन ग्रामीण लोगों की  परेशानी है |   आगे उन्होंने खुलासा किया कि  यदि यह सडक बना दी  गयी तो बाद में इसकी मरम्मत  और टूटी होने की शिकायत लेकर लोग आयेंगे  इसलिए आप इसे छोड़ दें | खैर मैंने तो सार्वजनिक निर्माण विभाग के माध्यम प्रस्ताव मंजूर करवा लिया | किन्तु राजनीति  का आइना मेरे सामने एकदम साफ़ हो गया था| देश में हर क्षेत्र में विदेशी  निवेश  और तकनीक का जिक्र किया जाता है किन्तु प्रशासन और न्याय में कभी नहीं |क्या इन क्षेत्रों  में सुधार की कोई आवश्यकता नहीं है ? यदि निष्ठापूर्वक प्रतिवर्ष 1प्रतिशत  भी परिवर्तन प्रतिवर्ष किया जाता तो यह प्रशासनिक, पुलिस और न्याय व्यवस्था में 67 वर्ष में 67 प्रतिशत  परिवर्तन  आ सकता था |
देश में कानून और न्याय  कितना प्रभावी है इसका मुझे असली अनुमान तब लगा जब पाली जिले में  तैनात एक अतिरिक्त मुख्य मजिस्ट्रेट  ने बैंक में कार्यरत अपने एक सम्बन्धी  की सहायता के लिए मुझसे आग्रह किया| शासन में उच्च प्रशासनिक और न्यायिक पदों पर दागियों को ही लगाया जाता है ताकि उनसे मनमर्जी के काम करवाए जा सकें और यदि वे सत्तासीन  की इच्छानुसार नहीं चलें  तो उन पर लगे दाग के आधार पर उन्हें हटाया  जा सके| देश में खुफिया एजेंसियों का भी  देश के लिए कम और राजनैतिक  उपयोग   ज्यादा  होता है| इंदिरा गाँधी  ने भी आपातकाल के बाद उसके चुनाव जीतने की स्थिति पर  खुफिया एजेंसियों से रिपोर्ट मांगी थी और उस रिपोर्ट के आधार पर ही 77  में चुनाव करवाए गए| अभी हाल ही में मिजोरम में महिलाओं  के साथ बड़े पैमाने पर सेना द्वारा बलात्कार  की  घटाएं सचित्र प्रकाशित करने पर एक सेना आधिकारी ने कहा कि यह आईएस आई  की  करतूत है| लेकिन मैंने उनसे यह प्रतिप्रश्न किया कि  यदि आई एस  आई  भारत में आकर ऐसे घिनोने काम  करने में सफल   हो रही  है तो फिर सुरक्षा और खुफिया एजेंसियां क्या कर रही हैं और देश की सीमाओं की सुरक्षा उनके हाथों   में कितनी सुरक्षित है | आज भी देश के कुल पुलिस बलों  का एक चौथाई भाग ही थानों में तैनात है बाकी तो महत्वपूर्ण व्यक्तियों की सुरक्षा और बेगार में तैनात है |देश  आज भी कुपोषण , शिशु एवं मातृ मृत्यु दर , भ्रष्टाचार में विश्व में उच्च  स्थान रखता है |
भारत में सरकारों का काम हमेशा ही गोपनीय रहा है व उसमें कोई जन भागीदारी नहीं रही  और इ गवर्नेंस की बातें ही बेमानी है जब जनता को इन्टरनेट की स्पीड 50 के बी  मिल रही है | भारत पाक का 1970  का युद्ध अमेरिका और  कनाडा में  सीधे प्रसारित किया था |दूर संचार विभाग की भारत में वेबसाइट भी 1970 में तैयार हो गयी थी किन्तु जनता को यह सुविधा बहुत देरी से मिली है | बलिदान देने, मरने या शहीद होने से भी इस संवेदनहीन व्यवस्था में क्या कुछ हो सकता है जब पुलिस ही प्रतिवर्ष दस हजार लोगों को फर्जी मुठभेड़ और हिरासत में मार देती है  जबकि अमेरिका में यह 409 , जर्मनी में 3 और ब्रिटेन और जापान में यह शून्य है |

Monday 8 December 2014

किसी भी पार्टी को जिताना मतलब उसे 5 साल के लिए मनमानी और भ्रष्टाचार फैलाने का लाइसेंस देना मात्र है

काले ( चमड़ी और मन दोनों) अंग्रेजों  द्वारा जनता में यह भ्रम प्रसारित किया गया कि  हमारा अपना संविधान  लागू   हो  गया है जबकि वर्तमान संविधान के मौलिक प्रावधान भारत सरकार अधिनियम 1935  की 95प्रतिशत  नकल मात्र हैं | अंग्रेजों  द्वारा बनाए गए कानून जनता पर थोपे गए एक तरफा अनुबंध थे  और  उन पर जनता की कोई सहमति नहीं थी | आज भी जो कानून बनाए जा रहे हैं वे भी इस देश में रहने की शर्त हैं और उनमें भी जनता की कोई सहमति  नहीं है | कानून इतने दुरूह  बनाए जाते हैं कि  उन्हें समझना और उनकी अनुपालना जनता के लिए कठिन ही  नहीं   बल्कि लगभग असंभव है |इसलिए जनता को किसी  भी अधिकारी द्वारा इस मकडजाल में फंसाया जा सकता है  और शोषण किया जा  सकता है | अधिकारियों को तो कोई शक्ति नहीं दी  जाए तो भी वे झूठ  मूठ की शक्तियां अर्जित कर लेंगे, फंसाते  रहेंगे और माल बनाते रहेंगे | पुलिस  को  किसि भी कानून में यातना देने की  शक्ति नहीं है फिर भी वह सब कुछ करती है|  कुछ  दुर्बुद्धि लोग कहते हैं कि अप्राधितों को तो यातना डी   जा सकती है |यदि अपराधी के दोष और दंड का निर्धारण पुलिस की शक्तियों में ही है तो फिर न्यायालयों की क्या आवश्यकता है |यदि पुलिस द्वारा ऐसी यातनाएं उचित हैं  तो फिर जो यह सलूक  छोटे मोटे अपराधियों के साथ  किया   जाता है  वही फिर इन घोटालेबाज नेताओं के साथ क्यों नहीं ?

किसी भी को कार्य करने के लिए कोई कारण होना आवश्यक है |बिना प्रेरणा के कोई कार्य नहीं होता यह कानून की भी धारणा है|  सरकारी अधिकारी, पुलिस और न्यायिक अधिकारियों का  मानना है कि वेतन तो वे पद का लेते हैं, जनता को काम करवाना है तो पैसे देने पड़ेंगे | और तरक्की तो अपने बड़े अधिकारियों और जन प्रतिनिधियों  को खुश करने, सेवा करने मात्र से मिलती है, कर्तव्य पालन से नहीं | इनके लिए कोई आचार संहिता भी नहीं है | इन्हें दण्डित करने के लिए कोई मंच भी  देश में नहीं है|  सेवा से हटाने के विरूद्ध उन्हें संविधान का पूर्ण संरक्षण प्राप्त है और न्यायालय से दण्डित होने पूर्व उन्हें दंड प्रक्रिया संहिता की धरा 197 का पूर्ण संरक्षण प्राप्त है| फिर भला कोई सरकारी अधिकारी कर्मचारी जनता का कोई काम क्यों करे ? कर्मचारियों और नेताओं  को यह पता है कि  उनका कुछ भी नहीं बिगड़ने वाला है वे चाहे जो मर्जी करें  अन्यथा  वे बिजली के नंगे  तार  को  हाथ लगाने का दुस्साहस क्यों नहीं करते |जिस प्रकार अंग्रेजों  से सत्ता हथियाने के लिए आन्दोलन चले और गांधीजी को बिडला जैसे परिवारों ने धन दिया ठीक उसी प्रकार आज विपक्षी से सत्ता हथियाने के लिए सब हथकंडे अपनाते हैं | व्यवस्था  परिवर्तन में किसी  की कोई रूचि नहीं है | देश सेवा करने के नाम नेता सत्ता पर काबिज होते हैं और मेवा प्राप्त करने का उद्देश्य छिपा रहता है |भारतीय राजनीति सेवा नहीं अपितु मेवा प्रति का एक अच्छा  साधन है | देश में 70प्रतिशत  लोग कमजोर और गरीब हैं  और देश के राजनेताओं से  एक ही यक्ष प्रश्न है कि  उन्होंने  उनकी सुरक्षा , न्याय और सहायता के लिए कौनसा टिकाऊ काम 67 साल में किया है |
जिस प्रकार पौधों  को पानी तो नीचे जड़ों से प्राप्त होता है किन्तु पोषण ऊपर पतियों से प्राप्त होता है वैसे ही भ्रष्टाचार का पोषण और संरक्षण ऊपर से मिलता है |निचले  स्तर पर यदि कोई अधिकारी ईमानदार है और अनुचित काम के लिए मना भी  करदे तो वही काम रिश्वत लेकर ऊपर  से मंजूर हो जाएगा|  इस व्यवस्था में ऊपर वालों को वैसे भी प्रसन्न  रखना जरुरी है | अत: यदि निचले स्तर पर कोई अधिकारी किसी  अनुचित काम के लिए मना करे दे तो नाराजगी झेलनी पड़ेगी और जो कमाई होनी थी वह उससे भी वंचित हो गया   फिर भी वह अनुचित काम को रोक नहीं पाया |इसलिए इन परिस्थितियों में निचले अधिकारी भी रिश्वत लेना ही श्रेयस्कर समझते हैं |

सरकारों द्वारा स्थापित शिकायत समाधान प्रणालियाँ भी जनता को बनाने के लिए  एक दिखावा और छलावा मात्र हैं| किसी  नागरिक के संवैधानिक अधिकारों  के हनन पर रिट याचिका दायर करने का प्रावधान है और सभी कार्यपालक , न्यायाधीश तथा जन प्रतिनिधि  संविधान और कानून  की पालना की शपथ लेते हैं| आज हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में चल रहे 75प्रतिशत  मामलों में सरकारें पक्षकार हैं  जहां नागरिकों के अधिकारों का सरकारों ने अतिक्रमण किया है | यदि इन शपथ पत्रों का कोई अर्थ है तो फिर ये याचिकाएं क्यों दर्ज होती हैं |और इन शपथ पत्रों को भंग करने  वालों के विरुद्ध कोई भी कार्यवाही क्यों नहीं ? यदि सरकारें प्रतिबद्ध  हों तो इन  विवादों को टाला जा सकता है |
शांति सुरक्षा और न्याय उनके एजेंडे में कहीं  नहीं है जबकि यह सरकार का मौलिक कर्तव्य है | अतिवादी, उग्रवादी गतिविधियाँ सुरक्षा की  नहीं अपितु सामाजिक और धन के असमान  वितरण की समस्याएं हैं जिनका हथियारों के दम  पर आजतक समाधान नहीं हो पाया है | ये सब गतिविधियाँ भी राजनीति और पुलिस के संरक्षण में ही संचालित हैं  अन्यथा उन क्षेत्रों में व्यापार व  परिवहन  आदि बंद क्यों  नहीं होता | भ्रष्टाचार या अन्य अनाचार  से व्यापारी को कभी कोई परेशानी नहीं होती क्योंकि जैसा कि  सोमपाल के मामले में न्यायाधिपति  कृष्णा इय्येर ने कहा है कि  वह इन सब खर्चों को वस्तु या सेवा की  लागत में जोड़ लेता है और उसका अंतिम परिणाम जनता को भुगतना पड़ता है |व्यापार  बेईमानी  का सभ्य नाम  है और यदि बेईमान को दण्डित  करना शुरू कर दिया जाये तो सबसे ज्यादा प्रभाव व्यापार  पर पड़ेगा| धन   कमाना ही व्यापारी  का एक   मात्र धर्म  है | व्यापार में समय ही धन है अत: सरकारी मशीनरी काम में विलंब  करती रहती है फलत रिश्वत मात्र अनुचित  काम के लिए नहीं अपितु सही काम को जल्द करवाने के लिए भी दी  जाती है |
वैसे पार्टी और विचाराधारा का आवरण तो जनता को बनाने के लिए है| आज भी114 भूतपूर्व कांग्रेसी सांसद अन्य दलों से चुन कर आये हैं और जो हिंदुत्व का दम भरते हैं वे अवैसी जैसे लोगों से हाथ मिला लेते हैं जो कल तक कहते थे कि 15 मिनट के लिए पुलिस हटालें तो हम 100 करोड़ हिन्दुओं का सफाया कर देंगे|  हमारे राजनेता  तो तीर्थ यात्री हैं जो समय  समय पर अलग अलग घाटों  पर स्नान  करते हैं|  जब उत्तर प्रदेश जैसे सबसे बड़े  राज्य में बहुमत   के आधार पर शासन करने वाली बसपा एक भी सांसद चुनकर संसद में नहीं भेज सके  तो लोकतंत्र  और विचारधारा तो एक मजाक से अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता | 5 साल राज करने के लिए लोग कुछ दिन  वोटों की भीख मांगते हैं और बाद में उनके दर्शन दुर्लभ हो जाते हैं | विधायिकाओं की कार्यवाहियां लगभग पूर्व नियोजित और फिक्स्ड  होती हैं | जिस  प्रकार फिल्म की शूटिंग  के दौरान नायक और नायिका मात्र होठ हिलाते हैं गाने और डायलाग तो पहले से रिकार्डेड होते हैं ठीक उसी प्रकार पक्ष और विपक्ष पहले मिलकर कार्यवाही की रूप रेखा  तय कर लेते हैं |

वोट किसी  को देदो क्या फर्क पढ़ना है |यह राजनीति है एक बार इस ओर  से  और फिर उस ओर से रोटियाँ दोनों की सिक जायेंगी |एक सांपनाथ दूसरा नागनाथ | वैसे भी सांप का जहर 12 वर्ष तक असर रखता है |जब तक यह अंग्रेजों से विरासत में मिली व्यवस्था जारी है  -जनता के सर पर तलवार लटकती  रहेगी , पीठ पर पुलिस के डंडे और पेट पर भ्रष्टाचार और महंगाई की मार पडती रहेगी ....किसी भी पार्टी को जिताना मतलब उसे 5 साल के लिए मनमानी और भ्रष्टाचार फैलाने का लाइसेंस देना मात्र है |

Wednesday 26 November 2014

जवाबदेही के अभाव में वर्तमान शासन प्रणाली में राजनैतिक पार्टियों के घोषणा-पत्रों, नीतियों, कार्यक्रमों का अभिप्रायः समाप्त हो गया है

तमिलनाडू राज्य में जब भ्रष्टाचार की दोषी पायी गयी जे. जयललिता को अनिर्वाचित मुख्यमन्त्री बना दिया गया तब  सुप्रीम कोर्ट  में बी. आर. कपूर द्वारा दायर जनहित याचिका बी. आर. कपूर बनाम तमिलनाडू राज्य में निर्णय दि. 21.09.01 में कहा है कि जब एक निचले न्यायालय द्वारा अभियुक्त को दोषसिद्ध किया जाता है और दण्डित किया जाता है तो अभियुक्त निर्दोष  है यह मान्यता समाप्त हो जाती है। दोषसिद्धि प्रभावी हो जाती है और अभियुक्त को सजा काटनी होती है। अपील न्यायालय द्वारा सजा स्थगित की जा सकती है और अभियुक्त को जमानत पर छोड़ा जा सकता है। भारतीय संवैधानिक व्यवस्था द्वारा न्यायिक पुनरीक्षण का मौलिक एवं आवश्यक विशेष कृत्य  न्यायपालिका को सौंपा गया है। विधि शासन का सारतत्व यह है कि राज्य द्वारा शक्ति का प्रयोग, चाहे विधायिका या कार्यपालिका या अन्य प्राधिकारी द्वारा हो ,संवैधानिक सीमाओं के भीतर ही किया जाना चाहिए और यदि किसी कार्यपालक द्वारा अपनायी गयी कार्यप्रणाली संवैधानिक मर्यादा के उल्लंघन में है तब उसकी न्यायालयों द्वारा परीक्षा की जा सकती है।   
       पायोनियर पत्रिका में श्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा प्रकाशित(1996), ‘‘जवाबदेही किधर’’ में हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली की वर्तमान अशुद्धता की सफाई के लिए समस्त संभव प्रक्रियागत बदलावों पर राष्ट्रीय  बहस का आह्वान किया था। उन्होंने असंतोष व्यक्त किया है कि विधायी कार्य को जिस सीमा तक सक्षमता या प्रतिबद्धता से करना चाहिए  न तो संसद, न ही राज्य विधान सभाएं कर रहीं है। उनके अनुसार, कुछ अपवादों को छोड़कर जो लोग इन लोकतान्त्रिक संस्थानों के लिए चुने जाते है, वे औपचारिक या अनौपचारिक रूप से विधि-निर्माण में न तो प्रशिक्षित हैं और न ही अपने पेशे में सक्षमता और आवश्यक ज्ञान का विकास करने में प्रवृत प्रतीत होते हैं। समाज के वे लोग जो मतदाताओं की सेवा में सामान्यतः रूचि रखते हैं और विधायी कार्य कर रहे हैं, आज की मतदान प्रणाली में सफलता प्राप्त करना कठिन पाते हैं और मतदान प्रणाली धन-बल, भुज-बल और जाति व समुदाय आधारित वोट बैंक द्वारा लगभग विध्वंस की जा चुकी है। शासन के ढांचे में भ्रष्टाचार ने लोकतंत्र के सार-मताधिकार- को ही जंग लगा दिया है, उनके अनुसार शासन -ढांचे में भ्रष्टाचार की सुनिश्चित संभावना के कारण राजनैतिक पार्टियों में अवसरवाद व बेशर्मी बढ़ी है जिससे बिना लोकप्रिय जनादेश  के प्रायः अवसरवादी गठबन्धन व समूहीकरण हुआ है। प्रणाली में कमियों के कारण वे सत्ता पर फिर भी काबिज हो जाते है तथा बने रहते हैं। जातिवाद, भ्रष्टाचार तथा राजनीतिकरण ने हमारी सिविल सेवाओं की दक्षता व निष्ठा में भी कमी की है। जवाबदेही के अभाव में वर्तमान शासन प्रणाली में राजनैतिक पार्टियों के घोषणा-पत्रों, नीतियों, कार्यक्रमों का अभिप्रायः समाप्त हो गया है।  जे. जयललिता की मुख्यमन्त्री पद पर नियुक्ति निरस्त कर दी गयी ।




Sunday 23 November 2014

सरकारी बैंकों में डूबते ऋणों की समस्या व सुरक्षा

गत वर्षों से बैंकों के डूबत ऋणों में  भारी वृद्धि हो रही है  किन्तु सरकार को इनकी कोई विशेष चिंता नहीं है| बैंकों में ऊँचे पदों पर नियुक्तियां तो राजनैतिक हस्तक्षेप से होती ही हैं किन्तु निचले स्तर पर भी हस्तक्षेप से इनकार नहीं किया जा सकता| बड़े उद्योगपतियों को ऋण देना ऊँचे अधिकारियों की शक्तियों में आता है जिन पर राजनेताओं के उपकार होते हैं अत: उनमें कायदे कानून गुणवता सब ताक पर रख दी जाती है और ये ऋण कालांतर में डूबते हैं, मूल धन और ब्याज माफ़ कर दिए जाते हैं| दूसरी ओर बैंकों द्वारा इन ऋणियों की सम्पतियों का निर्धारित निरीक्षण  भी नहीं किया जाता| बैंकों को यह निर्देश हैं कि  वे एक लाख से बड़े ऋणों  का मासिक अंतराल से निरीक्षण  करें और इससे छोटे ऋणों का त्रैमासिक निरीक्षण  करें| जहां संदेह हो वहां  कम अवधि में निरीक्षण करें किन्तु वास्तविक स्थिति बहुत भिन्न है| बैंक ऋणों के अधिकाँश मामलों में ऋण देने के बाद कोई निरीक्षण किया ही नहीं जता है किन्तु फिर भी ऋणियों से निरीक्षण  व्यय नियमित वसूल किये जाते हैं| निरीक्षण  व्यय एक खर्चे की पूर्ति है जो लगे हुए खर्चे  की भरपाई के लिए होते हैंऐसी  स्थिति में बिना निरीक्षण  किये इनकी  वसूली बिलकुल अवैध और अनुचित है| इस स्थिति को जानते हुए भी  रिजर्व बैंक, भारत सरकार और ऑडिटर  मौन हैं |

बैंकों की वार्षिक विवरणी में बीमा के समान ऋणीवार निरीक्षण  का कोई ब्यौरा नहीं दिया जता है बल्कि अंत में एक साथ यह सामान्य और झूठी पुष्टि प्रबंधक द्वारा कर दी जाती है कि ऋणों का निर्धारित निरीक्षण  किया जाता रहा है वे सब ठीक हैं| इस प्रकार बैंक प्रबंधकों द्वारा अपने कर्तव्यों की उपेक्षा कर एक और ऋणों को डूबत बना दिया जता है वहीं ऋणियों से ऐसे खर्चे की वसूली की जा रही जो बैंकों  ने उठाये ही नहीं |

Sunday 16 November 2014

न्यायपालिका को अपने गिरेबान में जनता की नजर से झांककर देखना चाहिए के स्वयं किस श्रेणी में आते हैं

राजस्थान पत्रिका में आज राजस्थान उच्च न्यायालय के एक पूर्व न्यायाधीश का लेख पढ़ने का सौभाग्य मिला जिसमें माननीय न्यायाधिपति ने अन्य बातों के साथ यह कहा है कि यह आवश्यक  कर दिया जाए कि यदि थाने  में रिपोर्ट दर्ज नहीं की  जाए तो सम्बंधित अधिकारी के विरुद्ध कार्यवाही की जाएगी| किन्तु माननीय को शायद यह ज्ञान नहीं है कि राजस्थान पुलिस अधिनियम, 2007  की धारा 31 में यह प्रावधान पहले से ही मौजूद है परन्तु यक्ष  प्रश्न यह है कि इसे लागू कौन और क्यों करेगा| किसी भी कार्य करने के लिए कोई कारण होना आवश्यक है |बिना प्रेरणा के कोई कार्य नहीं होता यह कानून की भी धारणा है|  सरकारी अधिकारी, पुलिस और न्यायिक अधिकारियों का  मानना है कि वेतन तो वे पद का लेते हैं, जनता को काम करवाना है तो पैसे देने पड़ेंगे | और तरक्की तो अपने बड़े अधिकारियों और जन प्रतिनिधियों  को खुश करने, सेवा करने मात्र से मिलती है, कर्तव्य पालन से नहीं | इनके लिए कोई आचार संहिता भी नहीं है | इन्हें दण्डित करने के लिए कोई मंच भी  नहीं है|  सेवा से हटाने के लिए उन्हें संविधान का पूर्ण संरक्षण प्राप्त है और न्यायालय से दण्डित होने पूर्व उन्हें दंड प्रक्रिया संहिता की धरा 197 का पूर्ण संरक्षण प्राप्त है|  जब कर्तव्य पालन में विफलता पर पुलिस को स्वतंत्र कहे जाने वाले न्यायाधीश भी दण्डित नहीं करते तो फिर उनके वरिष्ठ उनको दंड क्यों और कैसे दे सकते हैं जिनकी वे दिन रात सेवा करते हैं| न्यायिक अधिकारियों को पुलिस विभिन्न  सेवाएं और सुविधाएं उपलब्ध करवाती है और न्यायिक  अधिकारियों के घर जाकर मिलती रहती है व  फोन, मोबाइल से निरंतर संपर्क में रहती है तो फिर यह तो एक सपना ही हुआ कि उन्हें कोई दण्डित कर सकता है | पुलिस अधिकारी के पद पर एक बार 5 साल सेवा कर ली जाए तो इतना कमा लिया जता है कि वह अपना सम्पूर्ण  जीवन निर्वाह कर सकता है | और यदि संयोग या दुर्भाग्यवश उसे सेवा से बर्खास्त कर दिया जाए तो भी पुलिस की दलाली करने का काम तो फिर भी बचा रहेगा|  
वैसे भी देश के निकम्मे और भ्रष्ट  जन प्रतिनिधि मुश्किल से ही कोई ऐसा कानून बनाते हैं जिसमें जनता के हाथों में कोई शक्ति दी  गयी हो | शक्तियां तो अधिकारियों को ही दी जाती हैं जबकि उन्हें शक्ति न दें तो भी वे धक्केशाही से झूठी शक्तियां प्राप्त कर लेते हैं |  फिर भी यदि चूक  से  कोई जन प्रिय कानून बन भी जाए तो उसकी धार को न्यायिक, पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी भोंथरा कर देते हैं और वह भी निष्प्रभावी हो जाता है | सूचना का अधिकार कानून इसका जीवंत उदाहरण है |
देश और राज्य में ऐसे न्यायिक अधिकारी भी हैं जो जनता से आवेदन नहीं लेते –रजिस्टर्ड डाक को भी  लेने ही मना कर देते हैं और उनका कुछ नहीं बिगड़ता| जहां कानून में मौखिक बात कहने का प्रावधान है वहां न्यायिक अधिकारी लिखित  के लिए आदेश देते हैं और जहां लिखित का प्रावधान हैं वहां मौखिक के लिए |  देश में शायद ही कोई न्यायालय, न्यायिक, पुलिस या प्रशासनिक अधिकारी होगा जो संविधान या कानून के अनुसार चलता है | जनोन्मुखी प्रावधानों  की तो 10% भी अनुपालना नहीं होती है | पुलिस पर अंगुली उठाने से पूर्व न्यायपालिका को अपने गिरेबान में जनता की नजर से  झांककर  देखना चाहिए के स्वयं किस श्रेणी में आते हैं |

http://epaper.patrika.com/c/3836949

Saturday 15 November 2014

गिरफ्तारी और जमानत – एक दुधारू गाय

   गिरफ्तारी  और जमानत – एक दुधारू गाय
वैसे तो संविधान में व्यक्तिगत स्वतंत्रता को एक अमूल्य मूल अधिकार माना गया है और भारत के सुप्रीम कोर्ट और विभिन्न हाई कोर्ट ने गिरफ्तारी के विषय में काफी दिशानिर्देश दे रखें हैं किन्तु मुश्किल से ही इनकी अनुपालना पुलिस द्वारा की जाती है| सात साल तक की सजा वाले अपराधों के अभियुक्तों को गिरफ्तार करने की कानूनन भी कोई आवश्यकता नहीं है किन्तु छिपे हुए उद्देश्यों के लिए पुलिस तो असंज्ञेय और छिटपुट अपराधों में भी गिरफ्तार कर लेती है और जमानत भी नहीं देती| निचले न्यायालयों द्वारा जमानत नहीं लेने के पीछे यह जन चर्चा का विषय होना स्वाभाविक है कि जिन कानूनों और परिस्थितियों में शीर्ष न्यायालय जमानत ले सकता है उन्हीं परिस्थितियों में निचले न्यायालय अथवा पुलिस जमानत क्यों नहीं लेते| देश का पुलिस आयोग भी कह चुका है कि 60 % गिरफ्तारियां अनावश्यक होती हैं तो आखिर ये गिरफ्तारियां होती क्यों हैं और जमानत क्यों नहीं मिलती? इस प्रकार अनावश्यक रूप से गिरफ्तार किये गए व्यक्ति को मजिस्ट्रेट द्वारा दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 59 के अंतर्गत बिना जमानत छोड़ दिया जाना चाहिए व पुलिस आचरण की भर्त्सना की जानी चाहिए  किन्तु न तो वकीलों द्वारा ऐसी प्रार्थना कभी की जाती है और न ही मजिस्ट्रेटों द्वारा ऐसा किया जाता है| ये यक्ष प्रश्न आम नागरिक को रात दिन कुरेदते हैं| दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 437 में प्रावधान है कि किसी  गैर-जमानती अपराध के लिए  पहली बार गिरफ्तार किये गए व्यक्ति को पुलिस द्वारा भी जमानत दी सकती है यदि अपराध मृत्यु दंड अथवा आजीवन कारावास से दंडनीय न हो| किन्तु स्वतंत्र भारत के इतिहास में एक भी ऐसा उदाहरण मिलना मुश्किल जहां पुलिस ने इस प्रावधान की  अपनी शक्तियों का कभी विवेकपूर्ण उपयोग किया हो और किसी व्यक्ति को जमानत दी  हो| पुलिस का बड़ा अजीब तर्क होता  है कि यदि वे इस प्रावधान में जमानत स्वीकार कर लेंगे तो उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगेंगे इसलिए वे जमानत नहीं लेते|   इस प्रकार जमानत जो भी अधिकारी लेगा उस पर भ्रष्टाचार के आरोप तो लगेंगे ही चाहे उसका स्तर कुछ भी क्यों न हो | आश्चर्य की बात है कि जो कार्य पुलिस को करना चाहिए वह कार्य देश के न्यायालय प्रसन्नतापूर्वक  करते हैं और वे पुलिस से जमानत नहीं लेने का कारण तक नहीं पूछते, न ही वकील निवेदन करते कि पुलिस ने जमानत लेने से इन्कार  कर दिया इसलिए उन्हें न्यायालय आना पडा | क्या यह स्पष्ट दुर्भि संधि नहीं है ? न ही कभी सुप्रीम कोर्ट ने अपने इतिहास में इस हेतु किसी पुलिस अधिकारी से जवाब पूछा है कि उसने जमानत क्यों नहीं ली|

हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की स्थापना संवैधानिक प्रावधानों  कि व्याख्या करने के लिए की जाती है किन्तु राजस्थान उच्च न्यायालय में एक वर्ष में लगभग 18000 जमानत आवेदन आते हैं जिससे इस रहस्य को समझने में और आसानी होगी| अन्य हाई कोर्ट  की स्थिति भी लगभग समान ही है|  जमानत के बहुत से प्रकरण सुप्रीम कोर्ट तक भी पहुंचते हैं | जमानत देने में निचले न्यायालयों और पुलिस द्वारा मनमानापन बरतने के अंदेशे के कारण प्रख्यात लेखिका तसलीमा नसरीन को सीधे ही सुप्रीम कोर्ट ने जमानत दी थी | शायद विश्व में भारत ही ऐसा देश है जहां लोगो को जमानत के लिए सुप्रीम कोर्ट तक की यात्रा करनी पड़ती है  फिर  अंतिम न्याय किस मंच से मिलेगा ...विचारणीय प्रश्न है |
गिरफ्तारी का उद्देश्य यह होता है कि अभियुक्त न्यायिक प्रक्रिया से गायब न हो और न्याय निश्चित किया जा सके | किन्तु भारत में तो  मात्र 2% से भी कम मामलों में सजाएं होती हैं अत: 2% दोषी लोगों के लिए 98% निर्दोष लोगों की गिरफ्तारी करना अथवा उन्हें पुलिस, मजिस्ट्रेट, सत्र न्यायालय अथवा हाई कोर्ट द्वारा जमानत से इन्कार कर सुप्रीम कोर्ट जाने के लिए विवश करने  का क्या औचित्य रह जाता है –समझ से बाहर है | बम्बई उच्च न्यायालय ने आपराधिक अपील संख्या  685/ 2013 के निर्णय में कहा है कि यदि एक मामले में दोषी सिद्ध होने की संभावना कम हो व अभियोजन से  कोई उद्देश्य पूर्ति न हो तो न्यायालय को मामले को प्रारम्भिक स्तर पर ही निरस्त कर देना चाहिए | मेरे विचार से जब भी किसी मामले में अनावश्यक गिरफ्तार किया जाए या जमानत से इन्कार  किया जाए तो अभियुक्त की ओर  से यह निवेदन भी  किया जाना चाहिए कि मामले में दोष सिद्धि की अत्यंत क्षीण संभावना है अत: उसकी गिरफ्तारी या जमानत से इन्कारी  अनुचित होगी और यदि अभियुक्त आरोपित अपराध के लिए दोषी नहीं ठहराया गया तो हिरासत की अवधि के लिए उसे उचित क्षति पूर्ति दी जाए | इस दृष्टि से तो भारत के अधिकाँश मामले, आपराधिक न्यायालय, अभियोजन  और पुलिस के कार्यालय ही बंद हो जाने चाहिए|   
इंग्लैंड में पुलिस एवं आपराधिक साक्ष्य अधिनियम की  धारा 44  के अंतर्गत  पुलिस द्वारा रिमांड की मांग करने पर उसे शपथपत्र देना पडता है| कहने के लिए भारत में कानून का राज है और देश का कानून सबके लिए समान है किन्तु अभियुक्त को तो जमानत के लिए विभिन्न प्रकार के वचन देने पड़ते हैं और न्यायालय भी जमानत देते समय कई अनुचित शर्तें थोपते हैं और दूसरी ओर पुलिस को रिमांड माँगते समय किसी प्रकार के वचन देने की कोई आवश्यकता नहीं है मात्र जबानी तौर मांगने पर ही रिमान्ड दे दिया जाता है| पुलिस द्वारा रिमांड मांगते समय न्यायालयों को पुलिस से अंडरटेकिंग लेनी चाहिए कि वे रिमांड के समय देश के संवैधानिक न्यायालयों द्वारा जारी समस्त निर्देशों और मानवाधिकार पर अंतर्राष्ट्रीय संधि की समस्त बातों की अनुपालना करेंगे|
यद्यपि देश का कानून गिरफ्तारी के पक्ष में नहीं है फिर भी  गिरफ्तारियां महज  इसलिए  की जाती हैं कि पुलिस एवं जेल अधिकारी गिरफ्तार व्यक्ति को यातना न देने और सुविधा देने, दोनों के लिए वसूली करते हैं तथा अभिरक्षा के दौरान व्यक्ति पर होने वाले भोजनादि व्यय में  कटौती का लाभ भी जेल एवं पुलिस अधिकारियों को मिलता है| इस प्रकार गिरफ्तारी में समाज का कम किन्तु न्याय तंत्र से जुड़े सभी लोगों का हित अधिक निहित है|

आस्ट्रेलिया में जमानत को व्यक्ति का अधिकार बताया गया है तथा जमानत के लिए अलग से एक कानून है  किन्तु हमारे यहाँ तो धन खर्च करके स्वतंत्रता खरीदनी पड़ती है | उत्तर प्रदेश में तो सत्र न्यायाधीशों द्वारा अग्रिम जमानत लेने का अधिकार ही दिनांक 01.05.1976   से छीन लिया गया है और इस लोक तंत्र में स्वतंत्रता के अधिकार को  एक फरेब व मजाक बनाकर रख दिया है | पुलिस को गिरफ्तारी का अधिकार मात्र तभी होना चाहिए जब कोई सात साल से अधिक अवधि की सजा वाला अपराध उसकी मौजूदगी में किया जाए अन्यथा जब मामला न्यायालय में चला जाए व  गिरफ्तारी उचित और वांछनीय हो तो सक्षम मजिस्ट्रेट  से वारंट प्राप्त किया जा सकता |  गिरफ्तारियों और जमानत का यह सिलसिला इसलिए जारी है क्योंकि यही भारतीय न्याय प्रणाली उर्फ़  मुकदमेबाजी उद्योग की रीढ़ है  और सम्बद्ध लोगों के लिए दुधारू गाय है | सत्तासीन लोग भी पुलिस क्रूरता और पुलिस की भय उत्पन्न करने वाली कर्कश आवाज़ के दम पर ही शासन कर रहे हैं | 

Thursday 6 November 2014

भारत में पुलिस राज के पद सोपान और शासन तंत्र पर मजबूत पकड़

सुप्रीम कोर्ट ने यह व्यवस्था दे रखी है कि किसी भी व्यक्ति पर उसकी सहमति के बिना नार्को या पॉलीग्राफ टेस्ट नहीं किया जाए| किन्तु यह आदेश कितना प्रभावी है कहना आसान नहीं होगा| हिरासत में व्यक्ति से पूछताछ के लिए पुलिस द्वारा थर्ड डिग्री इस्तेमाल किया जाना कोई नया नहीं है| फिर भी जब हिरासती व्यक्ति किसी प्रकार के नशे का आदी हो तो पुलिस के लिए यह कार्य और आसान है| नशीले पदार्थ और अवैध हथियार तो पुलिस के पास उपलब्ध रहते ही हैं| उसे मित्रतापूर्वक नशा करवाके पूछताछ की जाती है| यदि सामन्य नशे से बात न बने तो फिर बहुत ज्यादा नशा दिया जाता है और होश खोने पर उससे पूछताछ की जाती है|     

हिरासती व्यक्ति पर प्रयुक्त यातनाओं के मामले समय समय पर मिडिया के माध्यम से उजागर होते  रहते  है और पुलिस द्वारा नए–नए तथा अमानवीय  तरीकों का इस्तेमाल किया जाता है क्योंकि मानवाधिकार पर 1955 में अंतर्राष्ट्रीय संधि के बावजूद इन्हें रोकने के लिए भारत में कोई कानून नहीं है और न ही हमारे संविधान में कहीं मानव अधिकार शब्द का उपयोग तक किया गया है| 6 करोड़ की आबादी वाले फिलीपींस ने इस सम्बन्ध में एक व्यापक कानून बना दिया है और भारत सरकार को इसके अनुसरण के लिए मैंने काफी समय पहले परामर्श भी दिया है| मारपीट तो पुलिस अपना अधिकार समझती है| गुप्तांगों में मिर्ची, पेट्रोल, केरोसिन, कंकड़, डंडे आदि का इस्तेमाल तो सर्व विदित हैं और ये तरीके अब पुराने पड़ गए हैं| छत्तीसगढ़ में सोनी सोरी के साथ की गयी अमानवीय बर्बरता से पूरा देश परिचित है| संवेदनशील अंगों को बिजली के नंगे तार से स्पर्श भी पुलिस द्वारा प्रयोग किया जाता है| हवालात में बंद व्यक्ति को सिर्फ अधो वस्त्रो में रखा जाता है और उसे न पेशाब के लिए बाहर लाया जाता और न ही उसे पीने के लिए पानी दिया जाता बल्कि एक घडा हवालात में ही रख दिया जता है और हिरासती व्यक्ति को यह कहा जाता है कि वह उस घड़े में पेशाब कर ले और प्यास लगने पर वही पी ले| कई बार तो हिरासती व्यक्ति को एक दम निर्वस्त्र करके रखा जाता है और साथ में उसकी माँ, बहन, सास आदि को भी उसी हवालात में निर्वस्त्र रखा जाता है तथा हिरासती व्यक्ति को दुष्कर्म के लिए विवश किया जाता है| पुलिस को जब लगे कि हिरासती व्यक्ति साधारण यातना से जुबान नहीं खोलेगा या अपराध (चाहे किया हो या नहीं ) कबूल नहीं करेगा और शिकायतकर्ता ने पुलिस को खुश कर दिया हो तो यातना के और उन्नत व बर्बर तरीके अपना सकती है| हिरासती व्यक्ति के मुंह पर मजबूत टेप चिपका दी जाती है, टेबल पर सीधा लेटा दिया जाता है, हाथ पीछे की ओर बाँध दिए जाते हैं| अब उसकी नाक में पाइप से पानी चढ़ाया जाता है, व्यक्ति का दम घुटने लगता है और कई बार तो सांस भी चढ़ जाती है जो काफी देर बाद लौटती है| मल-मूत्र का बलपूर्वक सेवन करवाना, गर्म तेल या ठन्डे पानी, सिगरेट के  टुकडे, तेजाब,  पानी में डुबोना, दुष्कर्म, खींचकर नाख़ून-दांत-केश निकालना, धूप या तेज रोशनी, प्लास्टिक की थेली से सर ढककर दम घोटना, नींद और विश्राम के बिना लम्बी पूछताछ, सार्वजानिक स्थल पर बदनामी, परिवार के सदस्यों को हानि की धमकी, गांधी कटिंग आदि पुलिस बर्बरता की कहानी के कुछ प्रचलित नमूने हैं|   
बर्बर पुलिस टांगों के बीच में चारपाई फंसाने व गुप्तांगों पर तेज चोट पहुंचाकर नपुंसक बनाने का कृत्य भी निस्संकोच कर देती है और चुनौती देकर हिरासती व्यक्ति को यह कहती है कि अब तुम्हारी बीबी किसी और की ही प्रतीक्षा करेगी| स्मरणीय है कि पुलिस बर्बरता से निपटने के लिए देश में कोई प्रभावी कानून नहीं है| मानवाधिकार आयोगों में भी जांच के लिए पुलिस अधिकारी ही हैं और वे भाई चारे के मजबूत बंधन में बंधे हुए अपनी बिरादरी के विरुद्ध कोई न्यायोचित व सही रिपोर्ट नहीं करते| हमारी पुलिस वैसे भी तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने में सिद्धहस्त और भ्रष्ट है| इस कारण आपराधिक मामलों में मात्र 2% को ही सजाएं होती हैं| जेल  में बंद हिरासती व्यक्तियों को पैसे के बदले सभी सुविधाएं उपलब्ध करवाना तो समय समय पर मिडिया में उजागर होता रहता है और यदि कोई कैदी जेल से इस बीच भाग जाए तो जेल के सरियों को बाद में लोहे की आरी से काटकर जेल तोड़ने के मामले का रूप दे दिया जाता है| यह भारतीय लोकतंत्र की रक्षक की पुलिस की कहानी का एक अंश मात्र है जोकि अंग्रेजी शासन काल से भी ज्यादा शर्मनाक है| आम नागरिक की तो हैसियत ही क्या है जब नडियाद (सुशासन वाले गुजरात राज्य) में एक मजिस्ट्रेट को जबरदस्ती शराब पिलाकर पुलिस ने उसका सरे बाज़ार आम जुलूस निकाल दिया था व डॉक्टरों से फर्जी प्रमाण पत्र हासिल कर लिया और सुप्रीम कोर्ट ने मामले में कहा कि गुजरात प्रशासन पुलिस से डरता है| किन्तु किसी भी सरकार ने गत 67 वर्षों से इसमें सुधार का कोई निष्ठापूर्वक प्रयास नहीं किया है क्योंकि भारत में सभी सरकारें पुलिस की बर्बरता और भय उत्पन्न करने वाली कर्कश आवाज की ताकत पर ही चल रही हैं –पार्टी या लेबल चाहे कुछ भी रहा हो|