Thursday 26 September 2013

अवैध गिरफ्तारी व हिरासत में रखना आई ए एस, तहसीलदार और पुलिस अधिकारी को भारी पडा

हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने सुरेशकुमार शर्मा को अवैध हिरासत में रखने के प्रकरण में राज्य सरकार को 2 लाख रुपये मुआवजा देने और घटना में संलिप्त आई ए एस अधिकारी के विरुद्ध अनुशासनिक कार्यवाही को 3 माह की अवधि में निपटाने के निर्देश दिए हैं| न्यायाधिपति राजीव शर्मा ने सुरेश कुमार शर्मा की रिट याचिका पर हिमाचल राज्य  को दिनांक 2.9.13 को  यह आदेश दिया है| स्मरण रहे कि न्यायालय ने पूर्व में ही दिनांक  23.05.13 को सुनवाई कर अंतरिम आदेश दिया था कि चूँकि आई ए एस - बी आर कमल और तहसीलदार सिद्धार्थ आचार्य ने याची की स्वतंत्रता का हनन विधि विरुद्ध रूप से किया है अत: उनके विरुद्ध अनुशासनिक कार्यवाही की जाये और उन्हें निलंबित कर दिया जाए| साथ ही न्यायालय ने यह भी आदेश दिया था कि सरकार हर्जाने के लिए रुपये दो लाख न्यायालय में अग्रिम जमा करवाएं |
  याची सुरेश कुमार शर्मा ने उपखंड मजिस्ट्रेट के दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 107 और 151 ( जिसका आम तौर पर दुरूपयोग किया जाता है) के अंतर्गत उसकी गिरफ्तारी के आदेश को चुनौती देते हुए आरोप लगाया था कि उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अनुचित हनन हुआ है व उसे 72 घंटे से अधिक अवधि के लिए हिरासत में रखा गया और जमानत मुचलका स्वीकार नहीं किया गया| याचिका में आरोप लगाए गए हैं कि याची ने उसके गाँव के दो व्यक्तियों द्वारा 60 बीघा सरकारी भूमि पर अतिक्रमण के विषय में उसने कई शिकायतें की थी| यद्यपि अतिक्रमण हटा दिया गया किन्तु अप्रसन्न होकर उसे झूठे मामले में फंसा दिया गया|  नतीजन रोहरू के उपखंड मजिस्ट्रेट बी आर कमल ने अतिक्रमियों की झूठी शिकायत पर दिनांक 7.7.09 को याची की गिरफ्तारी के आदेश जारी किये और उसे तीन बाद गिरफ्तार किया गया और तत्कालीन कार्यवाहक उपखंड मजिस्ट्रेट तहसीलदार जुब्बल सिद्धार्थ आचार्य ने उसका जमानत मुचलका स्वीकार नहीं किया| याची को दिनांक 13.07.09 को मुक्त किया गया और बाद में कार्यवाही बंद कर दी गयी |

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 107  में यह प्रावधान है कि पर्याप्त आधार होने पर मजिस्ट्रेट सम्बद्ध व्यक्ति से शांति बनाए रखने के लिए मुचलका प्रस्तुत करने की अपेक्षा कर सकता है| धारा 109 में मजिस्ट्रेट ऐसे व्यक्ति को प्राप्त सूचना का सार, मुचलका की रकम, प्रतिभुओं  की संख्या, प्रकार और वर्ग बताते हुए  कारण दर्शित करने  की अपेक्षा करेगा| न्यायालय में ऐसा व्यक्ति उपस्थित होने की दशा में उसे यह सार बताया जाएगा| धारा 113 के अनुसार ऐसे व्यक्ति की उपस्थति के लिए समन जारी किया जाएगा और गिरफ्तारी का वारंट केवल अत्यावश्यक परिस्थितियों में ही जारी किया जाएगा | समन या वारंट के साथ ऐसे आदेश की प्रति गिरफ्तार व्यक्ति को दी  जायेगी| धारा 116(1) के  अनुसार ऐसे व्यक्ति के उपस्थित होने पर शिकायत की सत्यता की जांच  की जाएगी और उचित होने पर अतिरिक्त साक्ष्य लिया जाएगा| धारा 116 (3) के परंतुक के अनुसार, धारा 108, 109 या 110 के अलावा,  जांच किये बिना अंतरिम अवधि के लिए मुचलका के लिए निर्देश नहीं दिए जा सकते| जबकि प्रकरण में पुलिस अधिकारी के बुलाये जाने पर याची उपस्थित हुआ और उसे गिरफ्तार कर मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत किया गया| उसके द्वारा प्रस्तुत व्यक्तिगत मुचलका और उसके पिता द्वारा प्रस्तुत मुचलका को  भी इस बनावटी आधार पर अस्वीकार कर दिया गया कि उसमें सम्पति के विवरण नहीं हैं| बाद में सम्पति के विवरण सहित आवेदन प्रस्तुत करने पर ही उसे रिहा किया गया|
याची को कानूनन एक बार में 24 घंटे से अधिक अवधि के लिए हिरासत में नहीं भेजा जा सकता था  किन्तु उसे दिनांक 10.07.09 से 13.07.09 तक 72 घंटे हिरासत में भेजने का अवैध आदेश दिया गया| यदि याची द्वारा प्रस्तुत मुचलका में सम्पति का पूर्ण विवरण नहीं था तो उसे तीन दिन बाद के स्थान पर उसी दिन विवरण प्रस्तुत करने की अपेक्षा की जा सकती थी| लेखक का विनम्र मत है कि मजिस्ट्रेट 24 घंटे ड्यूटी पर होता है तथा बिना अनुमति व वैकल्पिक व्यवस्था के वह मुख्यालय भी नहीं छोड़ सकता| इसी दृष्टिकोण से दंड प्रक्रिया संहिता में मजिस्ट्रेट न्यायालय शब्द के स्थान पर मात्र मजिस्ट्रेट शब्द का प्रयोग किया गया है अर्थात मजिस्ट्रेट द्वारा कार्यवाही करने के लिए न्यायालय लगा होना आवश्यक नहीं है क्योंकि न्यायालय का निर्धारित समय और छुट्टियां होती हैं जबकि ये मजिस्ट्रेट पर लागू नहीं होती| जब मजिस्ट्रेट छुट्टी के समय या दिन शांति रखने के लिए आदेश दे सकता है तो फिर वह जनता का सेवक होते होते हुए जमानत के लिए मना कैसे कर सकता है|

याचिका की सुनवाई के समय न्यायालय ने पाया कि याची की गिरफ्तारी की सम्पूर्ण प्रक्रिया में निर्धारित आवश्यक कानून की अनुपालना नहीं की गयी है और इसमें दुर्भावाना की बू आती है| यह सम्पूर्ण कार्यवाही सरकारी भूमि पर अतिक्रमियों की सह पर की गयी है| याची के विरुद्ध उक्त अनुचित कार्यवाही को निरस्त करते हुए न्यायालय ने आगे आदेश दिया कि सरकार याची को दो लाख रूपये का हर्जाना दे व सरकार चाहे तो हर्जाने की राशि की वसूली आई ए एस और तहसीलदार से कर सकती है तथा उनके विरुद्ध प्रारंभ की गयी अनुशासनिक कार्यवाही को तीन माह की अवधि में निपटा दिया जाये| न्यायालय ने आगे यह भी आदिष्ट किया है कि  सरस्वतीनगर पुलिस चौकी के सहायक उप निरीक्षक ओम प्रकाश, जोकि उक्त गिरफ्तारी में संलिप्त रहा है, को भी समान रूप से निलंबित किया जाए और उसके विरुद्ध अनुशासनिक कार्यवाही को भी 3 माह की अवधि में निपटाया जाय| सरकारी भूमि पर अतिक्रमण करने वालों के विरुद्ध कार्यवाही की जाये|


रिजर्व बैंक का समाजवादीकरण

मनीराम शर्मा
अध्यक्ष, इंडियन नेशनल बार एसोसिएशन , चुरू प्रसंग
रोडवेज डिपो के पीछे
सरदारशहर  331403
दिनांक 21.09.13
माननीय अध्यक्ष महोदय,
कार्मिक, जनशिकायत, विधि एवं न्याय समिति,
राज्य सभा,
नई दिल्ली   
महोदय,
रिजर्व बैंक का समाजवादीकरण 
आपको ज्ञात ही है कि देश के संविधान में यद्यपि समाजवाद का समावेश अवश्य है किन्तु देश के सर्वोच्च वितीय संस्थान रिजर्व बैंक के केन्द्रीय बोर्ड में ऐसे सदस्यों के चयन में इस प्रकार की कोई व्यवस्था नहीं है जिनकी समाजवादी चिंतन की पृष्ठभूमि अथवा कार्यों से कभी भी वास्ता रहा है| सर्व प्रथम तो बोर्ड के अधिकाँश सदस्य निजी उद्योगपति पूंजीपति हैं| जिन सदस्यों को उद्योगपतियों के लिए निर्धारित कोटे के अतिरिक्त -  समाज सेवा , पत्रकारिता आदि क्षेत्रों से चुना जाता है वे भी समाज सेवा, पत्रकारिता आदि का मात्र चोगा पहने हुए होते हैं व वास्तव में वे किसी न किसी  औद्योगिक घराने से जुड़े हुए हैं| एक उद्योगपति का स्पष्ट झुकाव स्वाभाविक रूप से व्यापार के हित में नीति निर्माण में होगा| इससे भी अधिक दुखदायी तथ्य यह है कि  केन्द्रीय बोर्ड के 80% से अधिक सदस्य विदेशों से शिक्षा प्राप्त हैं फलत: उन्हें जमीनी स्तर की भारतीय परिस्थितियों का कोई व्यवहारिक ज्ञान नहीं है अपितु उन्होंने तो इंडिया को मात्र पुस्तकों  में पढ़ा है| ऐसी स्थिति में रिजर्व बैंक बोर्ड द्वारा नीति निर्माण में संविधान सम्मत और जनोन्मुख नीतियों की अपेक्षा करना ही निरर्थक है| रिजर्व बैंक, स्वतन्त्रता पूर्व 1934 के अधिनियम से स्थापित एक बैंक है अत: उसकी स्थापना में संवैधानिक समाजवाद के स्थान पर औपनिवेशिक साम्राज्यवाद की बू आना स्वाभाविक  है| देश के 65% गरीब, वंचित और अशिक्षित वर्ग का रिजर्व बैंक के केन्द्रीय बोर्ड में वास्तव में कोई प्रतिनिधित्व नहीं है और देश आयातित नीतियों पर चल रहा है| दूसरी ओर भारत से 14 वर्ष बाद 1961 में स्वतंत्र हुए दक्षिण अफ्रिका के रिजर्व बैंक के निदेशकों में से एक कृषि व एक श्रम क्षेत्र से होता है| हमारे पडौसी देश पाकिस्तान के केन्द्रीय बैंक में निदेशक मंडल में प्रत्येक राज्य से न्यूनतम एक निदेशक अवश्य होता है जबकि हमारे देश में ऐसे  प्रावधान का नितांत अभाव है|
अत: रिजर्व बैंक अधिनियम में संशोधन कर इसे समाजवादी बनाया जाये और यह सुनिश्चित किया जाए कि उसके निदेशक/शासकीय मंडल में  कृषक, मजदूर वर्ग तथा समस्त राज्यों का समुचित प्रतिनिधित्व हो| इस प्रसंग में आप द्वारा की गयी कार्यवाही का मुझे उत्सुकता से इंतज़ार रहेगा|
भवनिष्ठ
मनीराम शर्मा 


Sunday 1 September 2013

कहने को देश में लोकतंत्र है किन्तु इसमें आम नागरिक की कोई सक्रीय भागीदारी नहीं रह गयी है

श्री मनमोहन सिंह जी,
प्रधान मंत्री,
भारत सरकार,
नई दिल्ली

मान्यवर, 
नीतिगत मामले : अधिकारों का प्रत्यायोजन एवं जन शिकायतों का निवारण

मैं आपको यह स्मरण करवाने की आवश्यकता नहीं समझता कि आपकी लोकप्रिय सरकार ने शिकायत निवारण तंत्र लोक शिकायत निवारण 2010 हेतु दिशा-निर्देश जारी किये हैं और इसकी अनुपालना में शिकायत निवारण अधिकारी भी नियुक्त कर रखें हैं जो प्रशासनिक शिकायतों का निवारण करने के लिए अधिकृत हैं| किन्तु नीतिगत मामलों की शिकायतें इसकी परिधि में नहीं आती हैं क्योंकि राष्ट्र द्वारा अपनाई गयी लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में नीतिगत मामले मात्र जनप्रतिनिधियों के ही दायरे में आते हैं|अत: नीतिगत मामलों की शिकायतें इस पोर्टल पर दायरे से बाहर बताते हुए निरस्त कर दी जाती हैं| दूसरी ओर नीतिगत मामलों के सामान्य जन प्रतिवेदनों को जन प्रतिनिधियों के ध्यान में लाये बिना ही सचिवालय स्तर पर निरस्त कर लोकतंत्र को विफल किया जा रहा है|यह स्थिति अत्यंत दुखदायी है जहां सरकार द्वारा दोहरे मानदंड अपनाए जा रहे हैं|इस प्रकार नीतिगत मामलों में जनता को अपनी व्यथा जन प्रतिनिधियों तक पहुँचाने का कोई विकल्प ही उपलब्ध नहीं है और कहने को देश में लोकतंत्र है किन्तु इसमें आम नागरिक की कोई सक्रीय भागीदारी नहीं रह गयी है|

     
लोकतंत्र में सरकारी अधिकारी अपने विभाग प्रमुख के प्रति जवाबदेह हैं और जनप्रतिनिधि जनता के प्रति जवाबदेह हैं| किसी भी नीतिगत मामले में हस्तक्षेप करने, संशोधन करने या स्वीकार करने का अधिकार मात्र जनप्रतिनिधियों को ही है| निश्चित रूप से जब किसी नीतिगत मामले को स्वीकार करने का किसी अधिकारी को कोई अधिकार नहीं है तो फिर उसे अस्वीकार करने का भी कोई अधिकार नहीं हो सकता| यदि अस्वीकार करने का अधिकार ही नीचे के स्तर पर दे दिया जाए या प्रयोग किया जाए तो फिर उच्च स्तर पर ऐसा कोई अधिकार अर्थहीन रह जाएगा| अतेव कृपया व्यवस्था करें कि समस्त अधिकारियों की शक्तियां सहज दृश्य रूप में प्रकाशित की जाती हैं और नीतिगत मामलों में कोई भी निर्णय, यथा स्थिति, सशक्त सम्बंधित मंत्री, समिति या अध्यक्ष की अनुमति के बिना नहीं लिया जाये ताकि देश में वास्तव में लोकतंत्र स्थापित हो सके| आप द्वारा इस प्रसंग में की गयी कार्यवाही का मुझे उत्सुकता से इन्तजार रहेगा|  

सादर,

 भवनिष्ठ

मनीराम शर्मा                                       दिनांक: 01.09.2013
एडवोकेट
नकुल निवास, रोडवेज डिपो के पीछे
सरदारशहर-331403
जिला-चुरू(राज)