प्राय: अखबारों की सुर्ख़ियों में ख़बरें
रहती हैं कि अमुक अपराध में पुलिस ने ऍफ़ आई आर नहीं लिखी और अपराधियों को बचाया है| पुलिस का कहना होता
है कि लोग व्यक्तिगत रंजिशवश झूठी ऍफ़ आई आर लिखवाते हैं और इससे उनके इलाके में
अपराध के आंकड़े अनावश्यक ही बढ़ जाते हैं जिससे उनकी रिपोर्ट खराब होती है और कई
बार तो विधान-सभाओं तक में सवाल-जवाब होते हैं| इस कारण चुनिन्दा मामलों में (सभी
में नहीं) पुलिस बहाना बनाती है कि वे मामले की पहले जांच करके ही रिपोर्ट लिखेगी|
आम नागरिक के मन में यह धारणा गहरी बैठ जाती है कि पुलिस निक्कमी और भ्रष्ट है अत:
कानून की पालना नहीं करती व जनता की रक्षा नहीं करती| किन्तु वास्तविक स्थिति क्या
है यह तो गहराई में जाकर शासन के विभिन्न अंगों का चरित्र-पुराण खंगालने से ही पता
लगेगा कि इस महान भारत भूमि पर कौन भ्रष्ट व निक्कमा नहीं |
सर्वप्रथम उच्चतम न्यायालय को ही परखते
हैं जिसने इफ आई आर के विषय में विभिन्न विरोधाभासी निर्णय देकर पुलिस को ऍफ़ आई आर
लिखने से मना करने के लिए बल प्रदान किया है| कहानी मात्र यहीं पूर्ण नहीं होती
अपितु उच्चतम न्यायालय ने अपने कार्यकरण के विषय में “ऐ हैण्ड बुक ऑफ़ इनफोर्मेसन” नामक एक पुस्तिका जारी की है जिसके पृष्ट
52 पर यह उल्लेख है कि ऍफ़ आई आर से मनाही के शिकायती पत्र को लेटर पिटीशन मानकर रिट
दर्ज की जावेगी किन्तु वास्तव में उच्चतम न्यायालय में इस परिधि में आने वाले
पत्रों को भी रिट की तरह दर्ज नहीं किया जाता है अपितु डाकघर की भांति ऐसी शिकायत
को उसी आरोपित पुलिस अधिकारी को अग्रेषित मात्र कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर दी जाती
है| जबकि ऐसा कोई प्रावधान इस पुस्तिका में नहीं है| यह मात्र साधारण मामलों में
ही नहीं अपितु भ्रष्टाचार के गंभीर मामलों में भी होता है जिसे देखकर कई बार
यह लगता है कि देश में न्याय और कानून तो
एक सपना मात्र है और देश की न्याय व्यवस्था बेरोजगारी दूर करने के लिए संचालित एक विशुद्ध
वाणिज्यिक उपक्रम है| अब निचले स्तर पर कोई मजिस्ट्रेट यदि उच्चतम न्यायालय का अनुसरण
करते हुए कानून का उल्लंघन कर यही सुगम
मार्ग अपनाए तो उसे दोष किस प्रकार दिया जा सकता है|
हमारी न्याय प्रणाली मूलत: इंग्लॅण्ड की
व्यवस्था पर आधारित है किन्तु हमने इसे
समसामयिक नहीं बनाया है और देश की जनता को गलत पाठ पढ़ाया जा रहा है कि न्यायपालिका
सर्वोच्च है| इसके विपरीत इंग्लॅण्ड में “न्यायिक पुनरीक्षा आयोग” कार्यरत है जो किसी भी न्यायालय में
विचाराधीन अथवा निर्णित मामले में हस्तक्षेप कर सकता है और अन्याय होने का उसे
विश्वास होने पर उचित राहत भी दे सकता है|
ऐसी व्यवस्था भारत में भी लागू की जा सकती है, विशेषकर तब जब न्यायपालिका
को संदेह की दृष्टि से देखा जा रहा हो| अभी हाल ही में यह कहा गया है कि तेजाब के
लिए लाइसेंस लागू कर दिया जाये किन्तु लाइसेंस तो हथियारों और विस्फोटकों के लिए
भी आवश्यक है, क्या इससे रक्तपात रुक गया
है अथवा स्वयं पुलिस और सेना ये वस्तुएं अपराधियों को उपलब्ध नहीं करवा रही हैं| वास्तव
में भारत में कड़े कानून बनाने का अर्थ भ्रष्ट लोकसेवकों की अपराधियों के साथ मोलभाव
की शक्ति को बढ़ाना मात्र है, किसी अपराध पर नियंत्रण करना नहीं है|
संविधान के अनुच्छेद 350 में जनता को अपने
चुने गए प्रतिनिधियों और विधायिकाओं को अपनी व्यथा निवेदन करने का अधिकार है और यह
अपेक्षित है कि जनप्रतिनिधि इन व्यथाओं पर गुणदोष के आधार पर निर्णय लें| जब जन
प्रतिनिधि प्रश्न पूछने के लिए ही धन लेते हों तो फिर बिना धनवाली (अर्थहीन) जनव्यथा
को सदन में उठाने की उनसे अपेक्षा नहीं की जा सकती| विधायिकाओं की स्थिति में इन
व्यथाओं पर निर्णय का अधिकार अध्यक्ष को दिया गया है किन्तु इन व्यथाओं को विधायिकाओं
में याचिकाओं के रूप में विधिवत दर्ज किये बिना निचले स्तर पर सचिव ही निरस्त कर
देते हैं और इसी प्रकार मंत्रालयों में भी सम्बन्धित मंत्री के ध्यान में लाये बिना
नीतिगत मामलों की जन परिवेदनाओं को भी रोजमर्रा के मामले की तरह सचिवों द्वारा ही निरस्त
कर दिया जाता है| इससे यह झूठी रंगीन छवि
प्रस्तुत की जाती है कि मंत्रालय में कोई परिवेदना बकाया नहीं है अथवा शीघ्र
निस्तारण कर दिया जाता है| इस प्रकार हमारा लोकतंत्र एक खाली डिब्बा-दिखावे से
अधिक कुछ नहीं है| जब किसी मामले पर जनता उद्वेलित होती है तो तुष्टिकरण की
कूटनीति अपनाते हुए किसी कमिटी या आयोग का गठन कर दिया जता है और उसके द्वारा
प्रस्तुत रिपोर्ट कालान्तर में कूड़ेदान की शोभा बढ़ाती है| देश का अकेला विधि आयोग
ही वर्ष में औसतन 4 रिपोर्टें दे रहा है और सरकार को एक रिपोर्ट पर कार्यवाही करने
में औसतन 10 वर्ष लगे रहें हैं| इसी दर से अब तक प्रस्तुत 250 रिपोर्टों पर अगले
2500 वर्षों में कार्यवाही हो पाएगी और तब तक परिस्थितियाँ और परिदृश्य ही बदल
चुका होगा तथा वे सभी रिपोर्टें अप्रासंगिक रह जाएँगी| यह हमारे लोकतंत्र की गति
और प्रगति (अथवा दुर्गति) है जिसमें जब तक प्रत्येक लोक सेवक की स्पष्ट जिम्मेदारी
तय करनेवाला कानून लागू नहीं होगा, संविधान सहित सभी अन्य कानून मात्र कागजी ही रहेंगे
और जनता इस भूल-भूलैया में चक्कर खाती रहेगी |
अभी सूचना का अधिकार अधिनियम के विषय में
भी सरकार बड़ी वाही-वाही लूटने का प्रयास कर रही है और कुछ अपरिपक्व बुद्धिवाले
नागरिक भी इस कानून को एक मील के पत्थर के रूप में महिमा मंडित कर रहे हैं| यह सही
है कि इस अधिनियम के बाद सरकारी मशीनरी ने कागजों को संभालना शुरू कर दिया है
किन्तु इससे अधिक कुछ नहीं हुआ है| लगभग एक हजार आवेदन के बाद मेरा विचार है कि आम
नागरिक को मात्र पंद्रह प्रतिशत मामलों में ही वांछित सूचनाएं मिलती हैं और शेष
मामलों में कोई सूचना नहीं मिलती चाहे किसी स्तर पर अपील दाखिल कर दें| प्रभावशाली
लोग तो वैध या अवैध ढंग से पहले भी सूचनाएं लेते रहे हैं व आज भी ले रहे हैं| अधिनियम
के प्रभाव से नागरिकों को कागज तो खूब मिलते हैं पर उनमें उपयोगी सूचनाएं अधिक
नहीं होती हैं| अधिनियम में तीस दिन में सूचना देने की कल्पना की गयी थी किन्तु
सूचना नहीं देने पर कई महीनों तक आयोगों में मामले दर्ज ही नहीं किये जाते हैं और
निर्णय आने में वर्षों लग जाते हैं| पुलिस थानों की ही भांति सूचना आयोगों का भी विचार
है कि मामले तुरंत दर्ज करने पर उनके पास बकाया का अम्बार दिखाई देगा अत: मामलों
को दर्ज नहीं करके आयोग की झूठी सुन्दर और लोकलुभावन छवि पेश की जाये कि आयोग में
बहुत कम मामले बकाया हैं और आयोग दक्षता पूर्वक कार्य कर रहा है| अब विद्वान्
पाठकगण स्वयं निर्णय करें कि देश में विधायिका, न्यायपालिका अथवा कार्यपालिका में
से कौनसा ऐसा तंत्र है जो मनमर्जी नहीं कर रहा अर्थात पुलिस थाने की तरह व्यवहार
नहीं कर रहा है| मेरे विचार से तो सभी शक्तिसंपन्न लोग लोकतंत्र रुपी द्रोपदी का
चीर हरने के लिए आतुर हैं|