Tuesday 23 July 2013

भारत में लगभग सभी सरकारी संगठन पुलिस थाने के समान ही हैं

प्राय: अखबारों की सुर्ख़ियों में ख़बरें रहती हैं कि अमुक अपराध में पुलिस ने ऍफ़ आई आर नहीं लिखी  और अपराधियों को बचाया है| पुलिस का कहना होता है कि लोग व्यक्तिगत रंजिशवश झूठी ऍफ़ आई आर लिखवाते हैं और इससे उनके इलाके में अपराध के आंकड़े अनावश्यक ही बढ़ जाते हैं जिससे उनकी रिपोर्ट खराब होती है और कई बार तो विधान-सभाओं तक में सवाल-जवाब होते हैं| इस कारण चुनिन्दा मामलों में (सभी में नहीं) पुलिस बहाना बनाती है कि वे मामले की पहले जांच करके ही रिपोर्ट लिखेगी| आम नागरिक के मन में यह धारणा गहरी बैठ जाती है कि पुलिस निक्कमी और भ्रष्ट है अत: कानून की पालना नहीं करती व जनता की रक्षा नहीं करती| किन्तु वास्तविक स्थिति क्या है यह तो गहराई में जाकर शासन के विभिन्न अंगों का चरित्र-पुराण खंगालने से ही पता लगेगा कि इस महान भारत भूमि पर कौन भ्रष्ट व निक्कमा नहीं |  

सर्वप्रथम उच्चतम न्यायालय को ही परखते हैं जिसने इफ आई आर के विषय में विभिन्न विरोधाभासी निर्णय देकर पुलिस को ऍफ़ आई आर लिखने से मना करने के लिए बल प्रदान किया है| कहानी मात्र यहीं पूर्ण नहीं होती अपितु उच्चतम न्यायालय ने अपने कार्यकरण के विषय में ऐ हैण्ड बुक ऑफ़ इनफोर्मेसन नामक एक पुस्तिका जारी की है जिसके पृष्ट 52 पर यह उल्लेख है कि ऍफ़ आई आर से मनाही के शिकायती पत्र को लेटर पिटीशन मानकर रिट दर्ज की जावेगी किन्तु वास्तव में उच्चतम न्यायालय में इस परिधि में आने वाले पत्रों को भी रिट की तरह दर्ज नहीं किया जाता है अपितु डाकघर की भांति ऐसी शिकायत को उसी आरोपित पुलिस अधिकारी को अग्रेषित मात्र कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर दी जाती है| जबकि ऐसा कोई प्रावधान इस पुस्तिका में नहीं है| यह मात्र साधारण मामलों में ही नहीं अपितु भ्रष्टाचार के गंभीर मामलों में भी होता है जिसे देखकर कई बार यह  लगता है कि देश में न्याय और कानून तो एक सपना मात्र है और देश की न्याय व्यवस्था बेरोजगारी दूर करने के लिए संचालित एक विशुद्ध वाणिज्यिक उपक्रम है| अब निचले स्तर पर कोई मजिस्ट्रेट यदि उच्चतम न्यायालय का अनुसरण  करते हुए कानून का उल्लंघन कर यही सुगम मार्ग अपनाए तो उसे दोष किस प्रकार दिया जा सकता है|
हमारी न्याय प्रणाली मूलत: इंग्लॅण्ड की व्यवस्था पर आधारित है किन्तु हमने  इसे समसामयिक नहीं बनाया है और देश की जनता को गलत पाठ पढ़ाया जा रहा है कि न्यायपालिका सर्वोच्च है| इसके विपरीत इंग्लॅण्ड में न्यायिक पुनरीक्षा आयोग कार्यरत है जो किसी भी न्यायालय में विचाराधीन अथवा निर्णित मामले में हस्तक्षेप कर सकता है और अन्याय होने का उसे विश्वास होने पर उचित राहत भी दे सकता है|  ऐसी व्यवस्था भारत में भी लागू की जा सकती है, विशेषकर तब जब न्यायपालिका को संदेह की दृष्टि से देखा जा रहा हो| अभी हाल ही में यह कहा गया है कि तेजाब के लिए लाइसेंस लागू कर दिया जाये किन्तु लाइसेंस तो हथियारों और विस्फोटकों के लिए भी आवश्यक  है, क्या इससे रक्तपात रुक गया है अथवा स्वयं पुलिस और सेना ये वस्तुएं अपराधियों को उपलब्ध नहीं करवा रही हैं| वास्तव में भारत में कड़े कानून बनाने का अर्थ भ्रष्ट लोकसेवकों की अपराधियों के साथ मोलभाव की शक्ति को बढ़ाना मात्र है, किसी अपराध पर नियंत्रण करना नहीं है|  

संविधान के अनुच्छेद 350 में जनता को अपने चुने गए प्रतिनिधियों और विधायिकाओं को अपनी व्यथा निवेदन करने का अधिकार है और यह अपेक्षित है कि जनप्रतिनिधि इन व्यथाओं पर गुणदोष के आधार पर निर्णय लें| जब जन प्रतिनिधि प्रश्न पूछने के लिए ही धन लेते हों तो फिर बिना धनवाली (अर्थहीन) जनव्यथा को सदन में उठाने की उनसे अपेक्षा नहीं की जा सकती| विधायिकाओं की स्थिति में इन व्यथाओं पर निर्णय का अधिकार अध्यक्ष को दिया गया है किन्तु इन व्यथाओं को विधायिकाओं में याचिकाओं के रूप में विधिवत दर्ज किये बिना निचले स्तर पर सचिव ही निरस्त कर देते हैं और इसी प्रकार मंत्रालयों में भी सम्बन्धित मंत्री के ध्यान में लाये बिना नीतिगत मामलों की जन परिवेदनाओं को भी रोजमर्रा के मामले की तरह सचिवों द्वारा ही निरस्त कर दिया जाता है|  इससे यह झूठी रंगीन छवि प्रस्तुत की जाती है कि मंत्रालय में कोई परिवेदना बकाया नहीं है अथवा शीघ्र निस्तारण कर दिया जाता है| इस प्रकार हमारा लोकतंत्र एक खाली डिब्बा-दिखावे से अधिक कुछ नहीं है| जब किसी मामले पर जनता उद्वेलित होती है तो तुष्टिकरण की कूटनीति अपनाते हुए किसी कमिटी या आयोग का गठन कर दिया जता है और उसके द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट कालान्तर में कूड़ेदान की शोभा बढ़ाती है| देश का अकेला विधि आयोग ही वर्ष में औसतन 4 रिपोर्टें दे रहा है और सरकार को एक रिपोर्ट पर कार्यवाही करने में औसतन 10 वर्ष लगे रहें हैं| इसी दर से अब तक प्रस्तुत 250 रिपोर्टों पर अगले 2500 वर्षों में कार्यवाही हो पाएगी और तब तक परिस्थितियाँ और परिदृश्य ही बदल चुका होगा तथा वे सभी रिपोर्टें अप्रासंगिक रह जाएँगी| यह हमारे लोकतंत्र की गति और प्रगति (अथवा दुर्गति) है जिसमें जब तक प्रत्येक लोक सेवक की स्पष्ट जिम्मेदारी तय करनेवाला कानून लागू नहीं होगा, संविधान सहित सभी अन्य कानून मात्र कागजी ही रहेंगे और जनता इस भूल-भूलैया में चक्कर खाती रहेगी |   


अभी सूचना का अधिकार अधिनियम के विषय में भी सरकार बड़ी वाही-वाही लूटने का प्रयास कर रही है और कुछ अपरिपक्व बुद्धिवाले नागरिक भी इस कानून को एक मील के पत्थर के रूप में महिमा मंडित कर रहे हैं| यह सही है कि इस अधिनियम के बाद सरकारी मशीनरी ने कागजों को संभालना शुरू कर दिया है किन्तु इससे अधिक कुछ नहीं हुआ है| लगभग एक हजार आवेदन के बाद मेरा विचार है कि आम नागरिक को मात्र पंद्रह प्रतिशत मामलों में ही वांछित सूचनाएं मिलती हैं और शेष मामलों में कोई सूचना नहीं मिलती चाहे किसी स्तर पर अपील दाखिल कर दें| प्रभावशाली लोग तो वैध या अवैध ढंग से पहले भी सूचनाएं लेते रहे हैं व आज भी ले रहे हैं| अधिनियम के प्रभाव से नागरिकों को कागज तो खूब मिलते हैं पर उनमें उपयोगी सूचनाएं अधिक नहीं होती हैं| अधिनियम में तीस दिन में सूचना देने की कल्पना की गयी थी किन्तु सूचना नहीं देने पर कई महीनों तक आयोगों में मामले दर्ज ही नहीं किये जाते हैं और निर्णय आने में वर्षों लग जाते हैं| पुलिस थानों की ही भांति सूचना आयोगों का भी विचार है कि मामले तुरंत दर्ज करने पर उनके पास बकाया का अम्बार दिखाई देगा अत: मामलों को दर्ज नहीं करके आयोग की झूठी सुन्दर और लोकलुभावन छवि पेश की जाये कि आयोग में बहुत कम मामले बकाया हैं और आयोग दक्षता पूर्वक कार्य कर रहा है| अब विद्वान् पाठकगण स्वयं निर्णय करें कि देश में विधायिका, न्यायपालिका अथवा कार्यपालिका में से कौनसा ऐसा तंत्र है जो मनमर्जी नहीं कर रहा अर्थात पुलिस थाने की तरह व्यवहार नहीं कर रहा है| मेरे विचार से तो सभी शक्तिसंपन्न लोग लोकतंत्र रुपी द्रोपदी का चीर हरने के लिए आतुर हैं|        

Sunday 21 July 2013

भ्रष्ट शासन व्यवस्था की बुनियाद

ब्रिटिश साम्राज्य के व्यापक हितों को ध्यान में रखते हुए गवर्नर जनरल ने भारतियों पर विभिन्न कानून थोपे थे| यह स्वस्प्ष्ट है कि भारत में राज्य पदों पर बैठे लोग तत्कालीन ब्रिटिश साम्राज्य के प्रतिनिधि थे और उनका मकसद कानून बनाकर जनता को न्याय सुनिश्चित करना नहीं बल्कि ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार करना, उसकी पकड को मजबूत बनाए रखना था और बदले में अच्छे वेतन-भत्ते, सुख-सुविधाएँ व वाही-वाही लूटना था| इसी कूटनीति के सहारे ब्रिटेन ने लगभग पूरे विश्व पर शासन स्थापित कर लिया था और एक समय ऐसा था जब ब्रिटिश साम्राज्य में कभी भी सूर्यास्त नहीं होता था अर्थात उत्तर से दक्षिण व पूर्व से पश्चिम तक उनका ही साम्राज्य दिखाई देता था| उनके साम्राज्य के पूर्वी भाग में यदि सूर्यास्त हो रहा होता तो पश्चिम में सूर्योदय हो रहा होता था| इसी क्रम में बेंजामिन फ्रेंक्लिन ने ब्रिटिश सम्राट व मंत्रियों को भी ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार हेतु कूटनीतिक मूल मन्त्र दिया था| बेंजामिन फ्रेंक्लिन ने ऐसा ही सुझाव देते हुए कहा था कि यदि प्रजाजन स्वतन्त्रता की मांग करें, परिवर्तनकारी विचारों का पोषण करें तो उन्हें दण्डित करें| वे चाहे कितना ही शांतिपूर्ण ढंग से जीवन यापन करें, शासन के प्रति अपना लगाव रखें, धैर्यपूर्वक आपके अत्याचारों को सहन करें तो भी उन्हें क्रांतिकारी ही समझें उनसे गोलियों और डंडे से निपटें और दबाये-कुचले रखें| यद्यपि शासन की शक्ति लोगों के विचारों पर निर्भर करती है किन्तु राजा की इच्छा को सर्वोपरि समझें| यदि आप अच्छे और बुद्धिमान लोगों को वहां गवर्नर बनाकर भेजेंगे तो वे समझेंगे कि उनका राजा अच्छा है और उनका भला चाहता है| यदि आप विद्वान और सही लोगों को वहां जज नियुक्त करोगे तो लोग समझेंगे कि राजा न्यायप्रिय है|इसलिए आप इन पदों पर नियुक्ति करने में सावधानी बरतें|
यदि आप कुछ हारे हुए जुआरियों, सटोरियों व फिजूलखर्ची लोगों को वहां गवर्नर बनकर भेजें तो वे इस पद के लिए बड़े उपयुक्त होंगे क्योंकि लोगों का शोषण कर वे उन्हें उद्वेलित करेंगे| झगडालू और अनावश्यक बहसबाजी  करने वाले वकीलों को भी न भूलें क्योंकि वे अपनी छोटी सी संसद में हमेशा विवाद खडा करते रहेंगे| अटोर्नी क्लर्क और नए वकील मुख्य न्यायाधीश के पद के लिए बड़े माफिक रहेंगे और वे आपके विचारों से प्रभावित रहेंगे| इन प्रभावों की पुष्टि और गहरे प्रभाव  के लिए, जब कभी भी कोई पीड़ित कुप्रबन्ध, उत्पीडन या अन्याय  की शिकायत लेकर आये तो ऐसे लोगों को भरपूर देरी, खर्चे से जेरबार कर और अंतत: पीड़ित करने वाले के पक्ष में निर्णय देकर शिकायतकर्ता को ही दण्डित करें| ऐसा करने का यह सुप्रभाव होगा कि भविष्य में होने वाली शिकायतों और मुकदमों पर स्वत: अंकुश लगेगा तथा स्वयम गवर्नर और जज, अन्याय व उत्पीडन करने के लिए आगे और प्रेरित होंगे जिससे लोग हताश होंगे| जब ऐसे गवर्नर यह महसूस करने लगें कि वे लोगों के बीच सुरक्षित नहीं रह सकते तो उन्हें वापिस बुला लिया जाये और उन्हें पेंशन से नवाजें | इससे नए गवर्नर भी यही मार्ग अपनाने को प्रेरित होंगे और सर्वोच्च सरकार को स्थायित्व प्रदान करेंगे|
जनता पर नए नए कर लगायें| जब जनता अपनी संसद को शिकायत करें कि उन पर ऐसी संस्था कर लगा रही है जहां उनका कोई प्रतिनिधित्व ही नहीं है और यह सामान्य अधिकारों के विपरीत है| वे अपनी शिकायतों के निवारण के लिए प्रार्थना करेंगे |संसद को उनके दावों को ख़ारिज करने दें और यहाँ तक कि उनकी प्रार्थनाओं को पढने से ही मना कर दें, और प्रार्थियों के साथ उल्लंघनकारी की तरह बर्ताव करें| इस सब को सुकर बनाने के लिए ऐसे जटिल और अंतहीन कानून बनायें कि उनकी पालना और याद रखना असंभव हो| जनता की प्रत्येक विफलता के लिए उनकी सम्पति जब्त करें| ऐसी सम्पति के दावों के मुकदमों को जूरी से वापिस लेलें और इसे ऐसे मनमाने जजों को सौंपें जिन्हें आपने नियुक्त किया हो तथा जो देश में निकृष्टतम चरित्र वाले हो व जिनके वेतन भत्ते इस सम्पति की कीमत से जुड़े हों व उनका कार्यकाल आपकी कृपा पर निर्भर हो|
बेंजामिन ने आगे यह परामर्श दिया कि तब यह भी घोषणा कर दें कि आपके आदेशों की अवहेलना देशद्रोह होगा और ऐसा करनेवाले संदिग्ध लोगों को पकड़कर सम्राट के न्यायालय में सुनवाई के लिए लन्दन भेज दें| सेना का एक नया न्यायालय बना दें जिसे निर्देश हों कि ऐसे लोग यदि अपनी निर्दोषिता की कोई गवाही देना चाहें तो उन्हें खर्चे से बर्बाद कर दें और यदि वे ऐसा न कर सकें तो उन्हें फांसी पर लटका दें| ऐसा करने से लोगों को यह विश्वास हो जाएगा कि यह कोई ऐसी शक्ति है जिसका धर्म ग्रंथों में उल्लेख हो जो न केवल उनके शरीर बल्कि उनकी आत्मा को ही मार देगी| लोगों पर कर लगाने के लिए, जहां तक संभव हो सबसे घटिया दर्जे के उपलब्ध निकृष्टतम लोगों का बोर्ड बनाकर भेजें| इन लोगों के वेतन-भत्ते, सुख-सुविधाएँ मेहनतकश जनता के खून पसीने  की कमाई के शोषण से उपजते हों क्योंकि राजा ने कोई खर्चा नहीं देना है | ऐसे  लोगों के सभी वेतन-भत्ते, सुख सुविधाओं पर कोई कर न लगे और इनकी सम्पति कानूनन सुरक्षित रहे| यदि किसी राजस्व अधिकारी पर जनता के प्रति नरमी का ज़रा भी संदेह हो तो उसे तुरंत निकाल फेंके| यदि अन्य राजस्व अधिकारियों के विरूद्ध कोई जायज शिकायत भी हो तो उसका संरक्षण करें| सबसे अच्छा तो यह रहेगा कि कि लोग असंतुष्ट रहें, उनका सम्मान-मनोबल घटे और उनमें पारस्परिक लगाव-प्रेम घटता जाए जिससे आपके लिए शासन करना आसान हो जाएगा|

आज भी भारत में एक सेवानिवृत न्यायाधीश का चित्र गलती से मीडिया द्वारा दिखा दिए जाने से मानहानि की कीमत 100 करोड़ रुपये आंकी जाती है किन्तु हिरासत में मरने वाले व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन का मूल्य ही 2 लाख रूपये आंककर न्यायिक कर्तव्य की बलि दे दी जाती है, वहीं हम कानून का राज होने और स्वतन्त्रता का झूठा दम भरते हैं जबकि समाजवाद व न्याय का सिद्धांत कहता है जिसे जीवन में कम मिला हो उसे कानून में अधिक मिलना चाहिए| क्या हमारे जज और वकील  इसे याद नहीं रख पाते हैं या कुछ अन्य गोपनीय कारण कार्य कर रहे हैं|  भारत की वर्तमान शासन व न्याय व्यवस्था भी हमें अंग्रेजी शासन से विरासत में मिली हुई है और उसका हमने आज तक प्रजातांत्रिकीकरण नहीं किया है- जजों को देवतुल्य मान लिया है- बल्कि पोषण कर इसे आगे बढाया है| अब विद्वान् पाठक स्वतंत्र चिन्तन और मूल्याङ्कन करें कि हमारी विद्यमान व्यवस्था में क्या बेंजामिन द्वारा सुझाई गयी उक्त व्यवस्था से कोई भिन्नता है`, और हमें इसमें कैसे परिवर्तन करने की आवश्यकता है जिससे वास्तविक अर्थों में लोकतंत्र स्थापित हो सके|