Saturday 31 March 2012

क्या हमें न्याय मिलेगा ?


भारत में ब्रिटिश सरकार ने इस मंशा से कानून बनाये थे कि उसके कार्यों में गोपनीयता बनी रहे और उसके कर्मचारी किसी भी प्रकार के भय और दंड से निरापद बने रहें तथा सरकारी खजाना निर्बाध रूप से भरता रहे| शायद स्वतंत्रता के बाद भी देश में यही नीति अनुसरण की जा रही है| स्वतंत्र भारत के इतिहास में सूचना का अधिकार अधिनियम पहला ऐसा कानून है जिससे यह संकेत मिलता है कि  देश अब स्वतंत्र है| यद्यपि इस कानून का भी गहराई से अवलोकन करें और अमेरिका जैसे देशों के सम्बंधित कानून से तुलना करें तो  हमारा यह कानून भी बौना दिखाई देता है|

उच्चतम न्यायालय देश की सर्वोच्च न्यायिक संस्था है, बार काउन्सिल ऑफ इंडिया देश के विधि व्यवसाय पर नियंत्रण रखने वाली सर्वोच्च संस्था है और भारत के अटॉर्नी जनरल देश के सर्वोच्च विधि अधिकारी हैं|ये तीनों निकाय देश में न्यायिक ढांचे की नींव हैं जिनके पुख्तापन पर देश के न्यायिक ढांचे की मजबूती निर्भर करती है| इसके अतिरिक्त इन संस्थाओं के पदाधिकारियों से विधि का विशेष ज्ञान रखने की भी अपेक्षा की जाती है| देश की जनता आशा करती है कि ये संस्थान अपने कार्यों का निष्पादन जनहित के अनुकूल करें और इसमें ऐसा कुछ भी नहीं हो जिसे जनता से गुप्त रखा जाय| देश के उच्चतम न्यायालय ने क्रान्ति एण्ड एसोसिएट्स बनाम मसूद अहमद खान की अपील सं0 2042/8 में कहा भी है कि इस बात में संदेह नहीं है कि पारदर्शिता न्यायिक शक्तियों के दुरूपयोग पर नियंत्रण है। निर्णय लेने में पारदर्शिता न केवल न्यायाधीशों तथा निर्णय लेने वालों को गलतियों से दूर करती है बल्कि उन्हें विस्तृत संवीक्षा के अधीन करती है।

सूचना का अधिकार कानून बड़ा स्पष्ट है कि यह लोक प्राधिकारियों पर लागू होता है और लोक प्राधिकारी शब्द को कानून में परिभाषित भी कर रखा है | किन्तु विडम्बना यह है देश के तत्कालीन मुख्य न्यायाधिपति माननीय श्री के जी बालाकृष्णन  ने अपने कार्यालय को सूचना के अधिकार कानून के दायरे से बाहर होने का दावा किया| ठीक इसी प्रकार केन्द्रीय सूचना आयोग के समक्ष एक मामले में बार काउन्सिल ऑफ इंडिया ने भी अपने आपको सूचना के अधिकार कानून के दायरे से बाहर होने का दावा किया| अंततोगत्वा इन्हें दायरे में मान लिया गया| भारत के अटॉर्नी जनरल ने अभी तक सूचना का अधिकार कानून के प्रावधानों की अनुपालना नहीं की है और स्वयं को सूचना के अधिकार कानून के दायरे से बाहर होने का दावा करते हैं| यह मामला भी केन्द्रीय सूचना आयोग के पास विचाराधीन है और दिनांक 11.04.12 को सुनवाई हेतु सूचीबद्ध है| अब जनता के सामने यह यक्ष प्रश्न उठता है कि जो पदाधिकारीगण जनता को अपने कार्यालय में उपलब्ध सूचना तक नहीं देना चाहते क्या उनसे जनता को न्याय प्राप्त हो सकेगा| इसके दूसरे संभावित पहलू पर विचार करें कि जिन लोगों को सूचना के अधिकार कानून  की जनतांत्रिक व्याख्या तक करनी नहीं आती क्या वे इन गरिमामयी पदों को धारण करने लायक हैं| और इस प्रकार के अहम वाले या वैकल्पिक रूप में ज्ञान के अभाव वाले व्यक्तियों के हाथों में लोकतंत्र कितना सुरक्षित हो सकता है यह अपने आप में एक ज्वलंत प्रश्न बन जाता है|

इंग्लॅण्ड के लोर्ड चांसलर के अनुसार न्यायपालिका में भले व्यक्तियों की आवश्यकता है और कानून का कुछ ज्ञान तो एक अतिरिक्त लाभ है (ए आई आर 1994 एस सी 268 - सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट ऑन रिकोर्ड एसोसिअसन बनाम भारत संघ)| भारतीय परिपेक्ष्य में इस पर विचार करें कि क्या  इन ऊँचे पदों पर बैठे ये लोग वास्तव में भले हैं| माननीय श्री सौमित्र सेन ने वकील होते हुए कुछ दुराचरण किये थे किन्तु इन दुराचरणों की अनदेखी कर उनका नाम उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के पद के लिए अनुशंसित कर दिया गया| बाद में जब उक्त दुराचरण उजागर हुए तो उन पर महाभियोग चलाया गया किन्तु इस बात की कोई जांच नहीं की गयी कि एक दुराचारी को आखिर ऐसा गरिमामय पद किस प्रकार प्राप्त हो गया| यह सब इसलिए संभव हुआ कि  उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के पद के लिए होने वाले वाले चयनों को सरकार और न्यायालय दोनों ही गुप्त रख रहे हैं और शायद सत्ता की मजबूती बनाये रखना चाहते हैं|

भारतीय न्याय व्यवस्था के संबंध में एक अन्य दुखदायी पहलू बकाया मामलों का अम्बार है| इसके लिए भारतीय न्यायपालिका न्यायाधीशों की कमी को जिम्मेदार बताती है और अमेरिका जैसे देशों का उदाहरण देती है, जहां जनसंख्या के अनुपात में अधिक न्यायाधीश कार्यरत हैं| किन्तु यह भी गंभीर विषय है कि भारत में अभी तक न्यायाधीशों के पद सृजन के लिए कोई नीति तक तय नहीं है| दूसरा, अमरीका में न्यूनतम मजदूरी लगभग 15000 डॉलर प्रतिवर्ष है और जिला न्यायाधीशों को लगभग 25000 डॉलर प्रतिवर्ष वेतन दिया जाता है जबकि भारत जैसे गरीब देश में जहां न्यूनतम मजदूरी 5500 रूपये प्रति माह है वहीँ जिला न्यायाधीशों को रुपये 60000 से भी अधिक प्रति माह वेतन दिया जा रहा है| यदि भारत में भी न्यायाधीशों (और सभी  लोक सेवकों) को सुसंगत आनुपातिक वेतन दिया जाये तो इसी बजट में 6 गुणे न्यायाधीश लगाये जा सकते हैं|
अक्सर न्यायपालिका के समर्थक लोग तर्क देते हैं कि अच्छे वेतन से न्यायाधीशों की सभी जरूरतें पूरी हो सकेंगी और न्यायपलिका में भ्रष्टाचार नहीं होगा| किन्तु विचारणीय प्रश्न यह रह जाता है कि छठे वेतन आयोग में सभी कर्मचारियों के वेतन में लगभग 50% प्रतिशत वृद्धि हुई है और इसके बाद  भ्रष्टाचार में कितनी कमी आई है यह जनता अच्छी तरह जानती है| गत दो दशकों में हमारे जन प्रतिनिधियों के वेतन भत्तों में जिस गति से वृद्धि हुई है शायद उससे भी तेज गति से उनके स्तर पर भ्रष्टाचार में वृद्धि हुई है| हमारे आदर्श नीति ग्रन्थ महाभारत में कहा गया है कि प्रायः  भौतिक प्रगति और आध्यात्मिक प्रगति एक दूसरे के विपरीत होती है| जिस प्रकार जल की कमी होने पर उसके उपयोग में मितव्ययता बरती जाती है और पर्याप्तता होने पर उसका दुरूपयोग होता है वैसे ही उपभोग तो अपने आप में एक कुचक्र है जो उतरोतर नयी आवश्यकताओं को जन्म देता है अतः वर्तमान आवश्यकताओं के संतुष्ट होने पर नयी आवश्यकताएँ जन्म ले लेंगी| इस प्रकार वेतन में काफी बढ़ोतरी करके भी भ्रष्टाचार पर नियंत्रण नहीं पाया जा सकता| न्यायाधीश अपनी आवश्यकताओं को सीमित रख कर, और यदि वे भले व्यक्ति हैं तो संतोष से ही नैतिक रूप में  भ्रष्टाचार पर नियंत्रण पा सकते हैं|

Friday 30 March 2012

न्याय के बिना अधिकार की व्याख्या संभव नहीं


न्याय के बिना अधिकार की व्याख्या संभव नहीं
      ----सचिन कुमार जैन , मध्यप्रदेश

मंशा का सवाल सबसे बड़ा सवाल है। एक तरफ तो न्याय के लिए तंत्र और ढांचा नही है, और वहीँ दूसरी और हमारे न्यायिक तंत्र अपने विशेष अधिकारों के संरक्षण में लगे रहते हैं। भारत में वर्ष 2011 की स्थिति में 2.63 करोड़ मामले अदालतों में लंबित हैं, जिनके निराकरण में, यदि कोई नया मामला दाखिल न हो तो 24 वर्ष लगेंगे। और जिस तरह से मामले दर्ज हो रहे हैं, यदि वैसे ही होते रहे तो वर्ष 2030 में भारत की अदालतों में 24 करोड़ मामले लंबित होंगे। इसका मतलब यह है कि हमारी कार्यपालिका अपनी भूमिका निभाने में लगातार असक्षम होती जा रही है और अन्याय के साथ अधिकारों के हनन की प्रवृति  बढ़ रही है। फिर भी सरकार यह नहीं कहती कि हम एक निश्चित समय में एक सक्रिय और जवाबदेय ढांचा खड़ा कर देंगे ताकि लोगों को न्याय के लिए सालों तक इंतजार न करना पडे। उत्तर पूर्वी भारत के राज्यों-मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, त्रिपुरा जैसे राज्यों में अभी भी उच्च न्यायलय नहीं हैं। उन्हें गुवाहाटी उच्च न्यायालय तक का सफर तय करना पड़ता है।
जरा इस उदाहरण को देखिये. वर्ष 2006 में भारत सरकार ने आदिवासियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों के वनों पर अधिकार के लिए कानून बनाया।  इसके आधार वक्तव्य में लिखा गया कि सालों से आदिवासियों के साथ ऐतिहासिक अन्याय होता रहा है और सरकार इस कानून के जरिये उन्हें न्याय देना चाहती है। अब जरा इसके प्रावधान देखिये। वनों पर सामुदायिक हकों को हासिल करने के लिए गाँव के लोगों को यह दस्तावेजी प्रमाण देना होगा कि वे जंगल का उपयोग सांस्कृतिक, धार्मिक, जीवन यापन, आवाजाही, दैनिक उपयोग के लिए लघु वन उपज लेने या चराई के लिए करते रहे हैं। वर्ष 1950 के पहले ही भारत में जिला स्तरों पर सरकारी रिकार्ड रूम में हर एक गाँव के ऐसे दस्तावेज रखे गए हैं जिनमे हर गाँव के संसाधनों के उपयोग का विवरण दर्ज है। जिनके बारे में अब तो कई लोग जानते भी नहीं हैं। इन दस्तावेजों को बाज़िब-उल-अर्ज़ और निस्तार पत्रक कहा जाता है। आज के लाल-फीताशाही के जमाने में गाँव के लोग उन दस्तावेजों तक पंहुच पायेंगे यह असंभव है। परिणाम यह हुआ कि केवल 5 फीसदी मामलों में ही समुदाय जंगलों पर अपने सामुदायिक हकों के दावे कर पाया। अब यदि सरकार की मंशा जंगलों पर समुदाय को हक सौंपने की थी तो कानून में यह प्रावधान क्यों नहीं किया गया कि सरकार यह सुनिश्चित करेगी कि हर ग्राम सभा और ग्राम वनाधिकार समिति को सरकार उपलब्ध दस्तावेजी प्रमाण उपलब्ध करवाएगी। प्रमाण उपलब्ध करवाना सरकार की जिम्मेदारी होगी, न कि उन लोगों कि जिनके साथ यह ऐतिहासिक अन्याय होता रहा है। यहाँ जब तक राज्य न्याय का चरित्र नही अपनाएगा, तब तक अधिकारों की हर बात बेमानी और बेकार है। सरकार लोगों पर लागू होने वाली अपनी सत्ता और ताकत को कम करने के लिए तैयार नहीं है।
ऐसा भी नहीं है कि सरकार ने किसी भी कानून के सन्दर्भ में इस तरह के कड़क ढाँचे बनाए ही नहीं हैं। जहाँ उसे अपनी को  सत्ता को मजबूत करना था, वहां ऐसे ढाँचे बनाए गए। बिजली का निजीकरण कर दिया गया. अब सरकार के बजाय कम्पनियाँ बिजली की कीमतें  बढ़ाती है। इसके लिए विद्युत नियामक आयोग बना दिए गए हैं, जो इन कीमतों को बढाने की अनुमति  देते हैं। ये आयोग सरकार की नहीं, कंपनियों के तर्क को प्राथमिकता देते हैं. परिणामस्वरुप हर साल बिजली की कीमतें 20 से 30 फीसदी बढती जा रही हैं। अब पानी का भी निजीकरण  हो रहा है और उसमे भी ढांचागत बदलाव लाये जा रहे हैं, अब गरीबों-झुग्गी बस्तियों को भी मुफ्त पानी नहीं मिलेगा. इसकी भी कीमतें बढती जाएँगी। जो कीमतें नहीं चुका पायेगा उसे बिजली और पानी का अधिकार नहीं मिलेगा। इन नियामक आयोगों को राज्य खूब ताकत देता है, ये तो हमारी संसदीय संस्थाओं से भी ऊपर हैं। इसका मतलब है कि नियमों-कानून का लागू होना, इस बात पर निर्भर करता है कि उनके क्रियान्वयन के लिए किस तरह की व्यवस्था बनाई गयी है, व्यवस्था बनी भी है या नहीं और उसके पीछे राज्य की मंशा क्या है?
समस्या यह नहीं है कि 42 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं और हमारे प्रधानमंत्री कहते हैं कि यह राष्ट्रीय शर्म का विषय है, समस्या यह है कि राज्य ने इस समस्या से निपटने के लिए कोई ठोस, जवाबदेय और संसाधनों से संपन्न कार्यक्रम नहीं बनाया है, हमारे पास जिम्मेदार लोगों का तंत्र नहीं है, नीतियां बनाने वालों और उन्हें क्रियान्वित करने वालों की कोई सुनियोजित व्यवस्था नहीं है, समस्या यह है कि यदि नौकरशाहों का तंत्र है, तो वह जवाबदेय और सक्षम नहीं है। समस्या यह है कि हमारे तंत्र में अच्छा काम करने वालों को पुरुस्कृत करने के बजाय दण्डित किया जाता है। भ्रष्टाचार को जिस तरह से कामकाज के एक तरीके के हिस्से के रूप में मान्यता दे दी गयी है, वह समस्या है। समस्या यह है कि राज्य को बहुत सारी शक्तियां दे दी गयी हैं, परन्तु उनके पास जो नजरिया है, वह उन्हे यह सिखाता है कि राज्य ही सर्वोपरि है, जो उसकी कमियों की बात करे उसे दबाव के जरिये निष्क्रिय कर दिया जाए। वह शक्तियों को जान लेता है और संविधान के उस अध्याय को बंद कर देता है, जिसमें जिम्मेदारियों और कर्तव्यों का उल्लेख होता है। यही कारण है कि कई बार हम राज्य को अपने काम में निरंकुश पाते हैं। अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए आज वह हर नीतिगत और अनीतिगत तरीकों को अपनाता है। हमें उन तरीकों का विश्लेषण करना होगा और लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ उनकी खिलाफत भी करना होगी। आन्दोलन और जनवकालत के बीच के अंतर-संबंधों को भी हमें समझना जरूरी है।
समाज के चरित्र में बदलाव के नजरिए से जन आन्दोलन उपजते हैं। वे कुछ खास परिस्थितियों में बदलाव लाने की पहल करते हैं। वे राजनीतिक और आर्थिक नजरिए से समस्या को देखते हैं, परन्तु आज वे कई दुविधाओं में फंसे हुए हैं। वे तय नहीं कर पा रहे हैं कि यदि व्यवस्था के अन्याय आधारित चरित्र ही संकट का कारण है तो इस व्यवस्था को कैसे बदला जाए। यह व्यवस्था तो लोकतांत्रिक औजारों से ही बदली जा सकती है। हम इस बदलाव को राजनीतिक मानते हैं, परन्तु  सक्रिय  चुनावी राजनीति में दखल नहीं देना चाहते हैं। वे आज केवल सरकार द्वारा खडे किये जा रहे सवालों के जवाब देने में फंस रहे हैं, जबकि जरूरत इस बात की है कि हम सरकार को जवाब देने के लिए मजबूर करें। जिस तरह से सरकार ने समाज को सुविधाओं और सेवाओं के जरिये अलग-अलग भागों में बाँट दिया है, उससे जन आन्दोलन कमजोर हुए हैं।
1997 से पहले राशन की दूकान से सभी को राशन मिलता था, 1997 में सरकार ने नीति बनायी कि अब गरीबी की रेखा खींची जायेगी और जो इसके नीचे होगा, उसे ही सस्ता राशन मिलेगा। इस रेखा के जरिये सरकार ने 64 फीसदी लोगों को राशन की व्यवस्था से बाहर कर दिया। और आज आज जब राशन व्यवस्था में ढांचागत बदलाव के लिए लड़ाई लड़ी जा रही है, तब हमारा माध्यम वर्ग और वह वर्ग जिसे गरीबी की रेखा के नाम पर राशन के दायरे से बाहर कर दिया गया है, वह यह सोच कर लड़ाई से बाहर हो जाता है कि इससे उसका तो लेना-देना ही नहीं है। और जो इसके दायरे में हैं वे सामाजिक और आर्थिक रूप से इतने वंचित हैं कि वे सब कुछ छोड़ कर इस लड़ाई में खड़े ही नहीं हो पा रहे हैं। इस तरह से सामाजिक-राजनीति-आर्थिक अधिकारों की लड़ाई को राज्य कमजोर कर देता है। पिछले 20 वर्षों में हमने देखा कि किसान और मजदूर मिल कर एक ताकत बनते हैं, परन्तु नीतियों के जरिये उनके बीच में भेद खड़ा कर दिया गया। एक तरफ तो खेती पर से रियायत बहुत कम कर दी गयी और उत्पादन का लागत मूल्य बढ़ता गया। ऐसे में राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून के जरिये अकुशल मजदूरों, जो कि खेतिहर मजदूर के रूप में भी काम करते हैं, के लिए मजदूरी की दर को बढ़ाया जाने लगा। भारत में उपजाए जाने वाले उत्पादों को सरकार ने सही मूल्य नहीं दिलवाया और दूसरे देशों से (जहाँ किसानों को खूब रियायत मिलती है) से सस्ते उत्पाद मँगा कर देश के बाजार में खपाए जाने दिए गए। स्थानीय किसान को अपने उत्पाद के लिए बाजार नहीं मिला और वह बदहाली की स्थिति में पंहुच गया। परिणाम यह हुआ कि किसान (भारत में 77 प्रतिशत किसान छोटे और मझौले किसान हैं जिनकी जोत 2 हेक्टेयर से कम है) के लिए खेती से ज्यादा सरल काम आत्महत्या करना हो गया। इसी तरह देश के शहरीकरण ने समाज को गाँव के मुद्दों और नीतिगत समस्याओं से बहुत दूर कर दिया। गाँव में स्वास्थ्य सेवाओं और शिक्षा व्यवस्था की बदहाली से लेकर विकास परियोजनाओं के कारण होने वाले विस्थापन के संकटों में शहरी समाज साथ खडे होने तो तैयार नहीं दीखता। इन सब स्थितियों में जनसंघर्ष की संभावनाएं कमजोर हुई। यदि हम जन वकालत और जनसंघर्ष के बीच के महीन अंतर हो देखें तो हमें पता चलता है कि आन्दोलन का मतलब मुद्दों को उभार कर राज्य के तंत्रों के सामने लाना है, जिसमें जनवकालत तथ्यात्मक समझ बनाने के साथ परिस्थिति का विश्लेषण करने और आन्दोलन की ताकत को मजबूत करने की भूमिका निभाती है। ये दोनों ही समस्या को हल करने का काम नहीं करते, बल्कि समाज और राज्य को उसके हल के लिए प्रेरित करने का काम करते हैं।
वकालत किसी एक मुद्दे यह एक दूसरे से जुडे हुए मुद्दों के सन्दर्भ में बदलाव लाने के नजरिए से चलाई जाने वाली प्रक्रिया है। जब हम एक उदाहरण या एक प्रकरण या एक घटना पर काम करते हैं तब हमारे तीन मकसद होते हैं -
1.         जो व्यक्ति, लोग, समुदाय प्रभावित हैं, उन्हें न्याय के साथ हक मिलें,
2.         जो अन्याय के लिए जिम्मेदार हैं उन्हे सजा मिले और जवाबदेहिता तय हो, ताकि भविष्य में हकों के हनन ना करें,
3.         इसके आधार पर व्यवस्था में जो कमजोरी है उसे दूर किया जाए ताकि अन्याय उस व्यवस्था का चरित्र न बने,
अंत में - हमें खुद इस मामले में स्पष्ट होना होगा कि न्याय के बिना अधिकार की व्याख्या संभव नहीं है। न्याय केवल अदालत तक सीमित नहीं हो सकता है, इसे समाज, सरकार और व्यवस्था के हर हिस्से में होना चाहिए। महज कानून और नीतियां बन जाने से व्यवस्था और परिस्थितियों में बदलाव नहीं आता है, इसके लिए प्रशासनिक, आर्थिक, अधौसंरचनात्मक ढांचा (यानी इमारतें, मशीनें, सड़कें, नल और शौचालय आदि), जवाबदेय शिकायत निवारण तंत्र, जो समयबद्ध तरीके से काम करे, दंड, सजा, प्रोत्साहन और पुरूस्कार ले प्रावधान होना जरूरी है।  कुल मिला कर हमें ढाँचे और तंत्र के मूल्य और मानक तय करने होंगे और सरकार तो सुनिश्चित करना होगा कि वह उनका पालन करे।

Thursday 29 March 2012

जिम्मेदारी का अभाव और सत्ता पर मज़बूत पकड़


जिम्मेदारी का अभाव और सत्ता पर मज़बूत पकड़
      ----सचिन कुमार जैन , मध्यप्रदेश

मध्यप्रदेश, वह राज्य जिसके 60 लाख बच्चे कुपोषण से लड़ाई लड़ रहे हैं। बच्चे कुपोषण से यह लड़ाई जीत नहीं पा रहे हैं क्योंकि राज्य इस लड़ाई में पूरी तरह से उनके साथ नहीं खड़ा है। यह लड़ाई सबसे पहले राज्य की  लड़ाई है, क्योंकि वह हमारी और हर  बच्चे की संवैधानिक पालक है।  हमारे यहाँ इस समस्या के निपटने के लिए सन 1975 में  एकीकृत बाल विकास परियोजना कार्यक्रम (आईसीडीएस) बनाया और लागू किया गया। 6 वर्ष से कम उम्र के बच्चों, जो की कुपोषण के सबसे ज्यादा शिकार होते हैं, के लिए एक समग्र कार्यक्रम है। परन्तु यह कुपोषण को मिटा न पाया! 37 साल बाद भी कुपोषण का राक्षस वहीँ का वहीँ खड़ा हुआ है और लील रहा है बचपन को। सवाल यह है की आखिर क्यों इतना महत्वाकांक्षी कार्यक्रम कुपोषण की स्थिति में उल्लेखनीय बदलाव नहीं ला पाया? इस कार्यक्रम के तहत एक आंगनवाडी केंद्र चलाया जाता है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय के आदेश हैं कि  गाँव और हर बसाहट में इस तरह के केंद्र होना चाहिए और कोई भी बच्चा इसकी सेवाओं से बाहर नहीं होना चाहिए। इस कार्यक्रम के तहत 6 सेवाएँ, बहुत ही संवेदनशील सेवाएँ प्रदान किये जाने की व्यवस्था हैं, कम से कम कागज पर। इन सेवाओं के तहत बच्चों के विकास और वृद्धि की निगरानी करना, उन्हें पोषण आहार देना, गर्भवती, धात्री महिलाओं और किशोरी बालिकाओं को स्वास्थ्य और पोषण शिक्षा देना, टीकाकरण करवाना, बच्चों को स्कूल पूर्व शिक्षा देना, गंभीर बीमारी की स्थिति में बच्चों-महिलाओं को अस्पताल भेजने की व्यवस्था करवाने जैसे काम शामिल हैं। इस आंगनवाडी केंद्र में 6 वर्ष से कम उम्र के औसतन 40 बच्चे आते हैं, जिनकी देखभाल की जिम्मेदारी एक आँगनवाड़ी कार्यकर्ता और एक आँगनवाड़ी सहायिका पर है, जिन्हें गाँव के समुदाय से ही चुना जाता है। उन्हें 6 रजिस्टरों में जानकारियाँ भी दर्ज करना होती है।  अब जरा इस सन्दर्भ में अपने मन में सोचिये कि क्या ये दो कार्यकर्ता इन जिम्मेदारियों को निभा सकती हैं? अदालत ने कह दिया कि इस कार्यक्रम का गुणवत्तापूर्ण लोकव्यापीकरण करो, सरकार में और बच्चों को केंद्र में भर्ती करना शुरू कर दिया पर एक आँगनवाड़ी पर कार्यकर्ताओं की संख्या तो बढ़ाई ही नहीं! 
भारत में वर्ष 1991 में यह तय हुआ था कि आईसीडीएस के तहत एक बच्चे के पोषण आहार के लिए एक रूपए प्रतिदिन  के बजट का प्रावधान किया जायेगा, परन्तु वास्तव में 47 पैसे का ही प्रावधान किया गया, या दूसरे नजरिए से  देखें तो 47 प्रतिशत बच्चों को ही इस कार्यक्रम में शामिल किया गया। गाँव में जब साल में छह माह पोषण आहार नहीं मिलता है और समुदाय शिकायत करता है तो हमारी नौकरशाही यह नहीं बताती कि आवंटन ही कम होता है इसलिए आधे साल बच्चे भूखे रहते हैं, बल्कि वह आंगनवाडी कार्यकर्ता के खिलाफ ही कार्यवाही कर देती है, ताकि राज्य की सत्ता बनी रहे। वह आंगनवाडी कार्यकर्ता अपने न्याय और हक की लड़ाई कहाँ लड़े उसके लिए कोई तंत्र नहीं है।  बात यह भी है कि 1991 में हुए बजट प्रावधान को अगले 15 सालों तक बदला ही नहीं गया। यह एक रूपए ही रहा। वर्ष 2005 में इसे बढ़ा कर दो रूपए किया गया। एक तरफ तो सरकार इसे राष्ट्रीय शर्म कहती है वहीँ दूसरी और इस संकट को खत्म करने के लिए इतना कम बजट, जिससे बाजार में एक चाय भी नहीं खरीदी जा सकती है, रखा जाता है। आज वर्ष 2012 में एक बच्चे के पोषण आहार के लिए 4 रूपए प्रतिदिन का प्रावधान है, आज भी यह वास्तविक जरूरत का आधा ही है। सबसे तेजी से बढती अर्थव्यवस्था कहे जाने वाले भारत में दुनिया के सबसे ज्यादा कुपोषित बच्चे निवास करते हैं और उनके लिए पूरे बजट का एक फीसदी से कम का हिस्सा दिया जाता है। यह 6 वर्ष से कम उम्र के बच्चों की संख्या भारत की आबादी का 14 प्रतिशत है। यह कार्यक्रम अपने पूरे जीवनकाल में भ्रष्टाचार के जाल में फंसा रहा। इस पूरे तंत्र में कहीं पर भी शिकायत दर्ज करने, निष्पक्ष जांच करने, उस पर तत्काल कार्यवाही  करने, जिम्मेदार को दंड देने और बच्चों-महिलाओं के हकों को सुरक्षित रखने के लिए कोई ढांचा ही नहीं तैयार किया गया है। जब भी कोई शिकायत आती है तो राज्य सरकार उन्ही कलेक्टर और जिला कार्यक्रम अधिकारी से शिकायत की जांच करवाती है, जो कि वास्तव में कार्यक्रम के क्रियान्वयन की एजेंसियां हैं और एक तरह से लापरवाही और भ्रष्टाचार के लिए जिम्मेदार हैं। क्या आरोपी से ही अपराध की जाँच करवाना एक सही व्यवस्था है? हमारे यहाँ राज्य और केंद्र सरकार के स्तर पर बाल अधिकार संरक्षण आयोग बने हुए हैं। पहले पहल तो वे भी सक्रीय नहीं होते हैं। और यदि उनमे से कोई अपनी जिम्मेदारी निभाना शुरू करते हैं, तो पता चलता है कि उन्हें तो केवल अनुशंसा करने का ही अधिकार है, यह जरूरी नहीं कि क्रियान्वयन एजेंसी उनकी अनुशंसाओं को माने या उन्हें लागू करे ही। हमारे यहाँ राज्य के क्रियान्वयन वाले हिस्से बहुत ताकतवर हैं। उनकी शक्तियां असीमित और निरंकुश हैं। सरकार भी इसे ज्यों का त्यों बनाए रखना चाहती है, शायद इसीलिए वह कभी भी यह नहीं कहती कि गैर-जवाबदेहिता, लापरवाही और भ्रष्टाचार अक्षम्य अपराध हैं और उन पर निष्पक्ष-समयबद्ध और न्याय परक कार्यवाही की जा सके, इसके लिए ढांचागत व्यवस्था बनायी जायेगी। हमारा राज्य न्याय और हकों के संरक्षण के लिए अभी भी प्रतिबद्ध नजर नहीं आताय ऐसे में बच्चे भी तो भूखे ही रहेंगे।  बच्चों की भुखमरी भोजन की कमी का परिमाण नहीं है, यह व्यवस्था और राज्य के गैर-जवाबदेय, भ्रष्ट, लापरवाह और क्षमताहीन होने का परिणाम है।

Wednesday 28 March 2012

विरासत में मिला लोकतंत्र


विरासत में मिला लोकतंत्र
      ----सचिन कुमार जैन , मध्यप्रदेश

ब्रिटिश राज द्वारा ऐसी कर और राजस्व व्यवस्था बनायी गयी, जिनसे और आसानी से यहाँ के संसाधनों को लूटा जा सके। ऐसी शिक्षा व्यवस्था बनायी गयी जिससे बंधुआ समाज की स्थापना की जा सके, लोग विचार हीन हो जाएँ और उनकी सवाल करने की क्षमता खत्म कर दी जाए। भय का ऐसा माहौल बने कि भुखमरी होने पर भी लोग विद्रोह करने के बारे में ना सोचें. ऐसी थीं उनकी मंशाएं, तो स्वाभाविक है कि उनके लिए कानून और व्यवस्था के कुछ दूसरे ही मायने स्थापित हो जाते हैं। न्याय उनकी व्यवस्था का चरित्र हो ही नहीं सकता। एक स्तर पर महसूस होता है कि स्वतंत्र होने की बाद भी हमने कम से कम व्यवस्था के उस चरित्र  को तिलांजलि नहीं दी। हमने उपनिवेशिक कानूनों को खत्म करने की मंशा ही नहीं दिखाई। उन्होंने शोषण के लिए दरोगा और पटवारी की व्यवस्था बनाई थी, वह बनी रही, लोगों की जमीन लूटने के लिए 1894 में भूमि अधिग्रहण कानून बनाया गया था, वर्ष 2012 तक वह कानून चल रहा है. किसी को सरकार की कोई जानकारी ना मिल सके या उसका उपयोग न किया जा सके, इसके लिए शासकीय गोपनीयता कानून 1923 में बना, उसे हटाये बिना सूचना के अधिकार का कानून बनाया गया!! आज भी हर रोज हम देखते हैं कि लोकतंत्र कायम करने का दावा किया गया परन्तु समाज और लोगों के लिए वह स्थान कम होता गया, जहाँ वे अपने विरोध और असहमति को अभिव्यक्त कर सकें। जब लोग विरोध करते हैं तो उसे राष्ट्र विरोधी कृत्य माना जाता है और सजा दी जाती है। सवाल यह है कि उपनिवेशवाद से मुक्त होकर स्वतंत्र हो जाने का सूचक न्याय आधारित मूल्य नहीं होना चाहिएक्या कानून के राज का मतलब स्वतंत्र के बाद भी अपराधी को सम्मान और आम लोगों का दमन ही होना चाहिए! यदि न्याय को आधार माना जाए तो यह सवाल पूछने का बार-बार मन करता है कि हम उपनिवेशवाद से कब मुक्त हुए थे?   
यूँ तो कानून बनाने का काम एक सहभागी प्रक्रिया के तहत हमारी संसद करती है। सरकार एक विधेयक बनाती है और संसद में पेश करती है। आम तौर पर ये विधेयक संसद की स्थाई समिति को भेज दिए जाते हैं। जहाँ समिति लोगों और संस्था-संगठनों से सुझाव मंगाती है। इनके आधार पर वह विधेयक में बदलाव करती है और संसद को वापस सौंप देती है पर सरकार इस समिति के सुझावों को मानने के लिए बाध्य नहीं होती है, इसलिए जो प्रावधान उसे अपनी सत्ता और नीतियों के माकूल नहीं लगते, उन्हें वह मिटा देती है। संसद में भी ताकत के बल पर ही कानून बनते हैं। यदि सत्तारूढ़ दल बहुमत में है, तो वह जरूरी नहीं कि वह लोगों के अपनी नीतियों के केंद्र में रखे। यहीं से कमजोर कानून की नींव रखी जाती है। चलिए कानून तो मुद्दे पर व्यापक दस्तावेज होता है और क्रियान्वयन और कानून से सम्बंधित ढांचों के निर्माण की बात कानून में नहीं आ पाती है। इन्हें नियमों और प्रक्रिया में शामिल किया जाता है। यहाँ लोगों के साथ दूसरा धोखा होता है। विधेयक की तरह, नियमों को न तो विचार और सुझावों के लिए संसदीय समिति के पास भेजा जाता है, न ही लोगों को अपनी बात कहने का वहां कोई हक ही होता है। नियमों और प्रक्रिया में ऐसे गड्ढे बना कर छोड़े जाते हैं, जिनमे लोग लड़खड़ा कर गिरते रहते हैं. इसमे भी ऐसी व्यवस्थाएं नहीं बनायी जाती हैं, जो अधिकार को न्याय का जामा औढ़ाये। कहने को जन अधिकार के लिए कानून बन जाता है, पर क्रियान्वयन के सूत्र उस सत्ता के पास रह जाते हैं, जो अपनी ताकत के केवल बढाने में विश्वास रखती है। हमारे यहाँ तिहात्तरवें संविधान संशोधन के जरिये सत्ता का विकेंद्रीकरण किया गया और पंचायतों-ग्रामसभा को अधिकार दिए गए। परन्तु कोई भी पंचायत भ्रष्ट अधिकारी का वेतन नहीं रोक सकती है, केवल अनुशंसा कर सकती है। अतीत में गाँव राज्य को व्यवस्था चलाने के लिए संसाधन देती थी, पर अब गाँव के संसाधनों को राज्य अपने खजाने में रखता है और गाँव उसके सामने हाथ फैलाए खडे़ रहते हैं। अब जीवन के हर पल का हिसाब सरकार देश की राजधानी में बैठ कर करती है। 
हम जानते हैं कि हमारे समाज में जातिगत व्यवस्था है, भेदभाव है, लैंगिक भेदभाव है, छुआछूत है, सामंतवाद है, और यही कारण है कि समाज या सामाजिक ढांचों से अब यह उम्मीद नहीं की जा सकती है कि वह समानता और न्याय आधारित व्यवस्था को खड़ा करने की सक्रीय भूमिका निभाएगा। यह समाज अब भुखमरी और कुपोषण से होने वाली मौतों पर मौन रह जाता है, सामने होते बलात्कार को देखते हुए भी संगठित प्रतिरोध नहीं करता है, संसाधन छीन लिए जाते हैं, और वह उनका विरोध करने के बजाये अपने लिए  कोई भी विकल्प, जैसे पलायन, खोजने में जुट जाता है, इन परिस्थितियों में राज्य की भूमिका केंद्र में आती है। उससे अपेक्षा की जाती है कि वह असमानता, भेदभाव, शोषण और बहिष्कार को मिटाने के लिए व्यवस्था बनाएगा। इस व्यवस्था का मतलब केवल कानून और नीति बनाना नहीं है। कानून एक व्यवस्था का निर्माण करता है और सिद्धांत यह है कि व्यवस्था को उसके मुताबिक काम करना चाहिए। सामाजिक विसंगतियों को ऐसे कानून के राज के द्वारा समाप्त किया जा सकता है, जो मूल्यों और न्याय की अवधारणा पर बनाए गए हों। नए सन्दर्भों में केवल सरकारी तंत्र में न्याय के चरित्र की बात नहीं है, अब बेंकों, मीडिया, बाजार, उत्पादक तंत्र सहित निजी क्षेत्र में भी न्याय का चरित्र चाहिए अन्यथा वे शोषण के नए खिलाड़ी बन कर स्थापित हो जायेंगे।
कोई भी अधिकार तब तक हासिल नहीं किया जा सकता है या तब तक नहीं दिया जा सकता है, जब तक की उसे लागू करने के लिए संस्थागत, जवाबदेय संस्था और व्यवस्था नहीं बनाई जाती। सबसे पहले कानून ऐसा बनना चाहिए, जो न्याय के साथ अधिकार का सन्देश देता हो, जिसमें निगरानी की साफ और विकेंद्रीकृत व्यवस्था का उल्लेख हो, शिकायत को दर्ज करने और निश्चित समय अवधि में उसके सही निराकरण की व्यवस्था हो, दोषियों के खिलाफ दंड और प्रभावित के लिए मुआवजे का प्रावधान हो, उस कानून को लागू करने के लिए ढांचा बनाया जाय। इन सब कामों के लिए बजट चाहिए, बजट के बिना कानून बेकार है।

Tuesday 27 March 2012

जब राज्य में न्याय का चरित्र ही न हो!



      ----सचिन कुमार जैन , मध्यप्रदेश
इसमें कोई दो मत नहीं हैं कि हकों की बात अब ज्यादातर टुकड़ों-टुकड़ों में होती है, और हकों के लिए संघर्ष भी टुकड़ों-टुकड़ों में ही है। इस पूरी बहस में जनकल्याण की अवधारणा महत्वपूर्ण मानी जाने लगी है, परन्तु यह बहस गायब है कि क्या न्याय के बिना अधिकार मिल पाना संभव है? अब हर लड़ाई के जवाब में सरकार एक नीति और एक कानून बना देती है। ये सारे कानून बिना व्यवस्था, बिना प्रशासनिक और आर्थिक ढांचे और बिना जवाबदेहिता के लागू किया जाते है। आखिर में हम सब उन कानूनों के सही क्रियान्वयन के लिए लड़ रहे होते हैं। एक तरह से हम एक जाल में फंसा दिए जाते हैं। और राज्य अपनी सत्ता हो मजबूत करते जाता है। ऐसे में हमें पुनः यह विश्लेषण करने की जरूरत है कि जिन अधिकारों के लिए जन संघर्षों  की मेहनतकश प्रक्रिया चल रही है, उनके हनन की जड़ें राज्य व्यवस्था में कहाँ और कितनी गहराई तक जाती हैं।
इस देश में 3000 से ज्यादा आन्दोलन चल रहे हैं, 6 लाख गाँव के देश में 14  लाख स्वैच्छिक संस्थाएं काम कर रही हैं, दुनिया के सबसे ज्यादा प्रगतिशील कानून यहाँ बने हुए हैं, और इसे सबसे बड़ा जीवित लोकतंत्र माना जाता है। उस देश में हिरासत में 9000 से ज्यादा मौतें होती हैं, 15 लाख बच्चों की मौतें कुपोषण के कारण होती हैं। नीतियां बनना भी जारी हैं। ऐसे में हम यह सवाल कैसे भूल सकते हैं कि व्यवस्था में वह बदलाव क्यों नहीं आ रहा है, जिससे लोगों की जिन्दगी और जीवन स्तर में बदलाव आये। मध्यप्रदेश की जेलों में 15777 और महाराष्ट्र की जेलों में 15784 ऐसे लोग बंद हैं, जिनके मामलों पर सुनवाई चल रही है। उन्हें जमानत का भी अधिकार नहीं दिया गया है। इनमे से कई ऐसे हैं जो उस अपराध के लिए मुकर्रर सजा के ज्यादा समय जेलों में बिता चुके हैं। हमारे यहाँ न्याय की प्रक्रिया अन्याय के रास्ते पर अक्सर ही चल पड़ती है, क्योंकि उसे विशेष अधिकार तो हैं, पर न्याय देने की जवाबदेहिता का अभाव रखा गया है शायद यह भी राज्य की सोची समझी व्यवस्था है।  
हमें सबसे पहले अपने आप से यह जरूर पूछना चाहिए कि समाज की समस्या क्या है और उन्हें हल करने के लिए किस तरह के बदलाव की जरूरत है? आज का दौर नीतियों और कानूनों का दौर है। सरकार समस्याओं के निपटान के लिए नीतियां और कानून बनाती है, ये कानून पहले कागज पर आते हैं। इन्हें समाज में तभी उतारा जा सकता है जब उन नीतियों और कानूनों के क्रियान्वयन के लिए पूरा ढांचा खड़ा किया जाए, बजट आवंटित किया जाए, पूरे लोगों की नियुक्ति की जाए, आधारभूत  ढांचा खड़ा किया जाए। सरकार कह सकती है कि हम स्वास्थ्य का अधिकार दे रहे हैं, परन्तु डाक्टर नहीं है, अस्पताल नहीं हैं और दवाओं के लिए बजट नहीं है, तो क्या स्वास्थ्य का अधिकार मिल पायेगा? सरकार ने शिक्षा के अधिकार का कानून बना दिया है, परन्तु गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने के लिए लाखों प्रशिक्षित शिक्षकों, स्कूलों में कमरों, शौचालयों, नई तकनीकों की जरूरत है। इस जरूरतों को पूरा करने के लिए जितने बजट की जरूरत है, सरकार उससे आधा भी आवंटित नहीं कर रही है, ऐसे में क्या गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का अधिकार हासिल हो पायेगा?
हमें यह समझना होगा कि न्याय सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में हमेशा नजर आना चाहिए। अधिकारों को न्यायपूर्ण व्यवस्था से अलग हटा कर नहीं देखा जा सकता है। यदि राज्य अपने मूल चरित्र में न्यायपक्षीय नहीं है, तो वहां लोगों के अधिकार भी सुरक्षित नहीं हो सकते हैं। और यदि हमारे राज्य या समाज में  लगातार अधिकारों का उल्लंघन हो रहा है तो यह मान लेना चाहिए की राज्य न्याय-केन्द्रित नहीं है, वहां नीतियों और कानून का बनना राज्य से जनपक्षीय होना महज एक  अभिनय है, इससे ज्यादा कुछ और नहीं! हमारे कानून में यह कहीं नहीं लिखा होता है कि कानून के प्रावधानों होने की स्थिति में सरकार कोई समझौता नहीं करेगी और ऐसी कार्यवाही करेगी जिससे व्यक्ति को केवल अधिकार नहीं, बल्कि न्याय भी मिले। भारत में सूचना के अधिकार  का कानून लागू है। यह कानून कहता है कि यदि सूचना नहीं दी गयी तो जिम्मेदार अधिकारी पर अर्थ दंड लगाया जाएगा ताकि फिर से सूचना के अधिकार का उल्लंघन न हो और व्यक्ति को सूचना भी दिलाई जायेगी।  यहाँ सूचना मिलना अधिकार की बात है और ऐसे कदम उठाये जाना जिनसे अधिकार हनन करने वाले को दंड मिले, वह न्याय का पक्ष है। जब तक न्याय के पक्ष को नजरंदाज किया जाता रहेगा, तब तक अधिकारों की बात किसी धोखाधड़ी से कम नहीं है।
न्याय और अधिकार की बात का जुड़ाव केवल न्यायपालिका से ही नहीं है। न्याय एक चरित्र है। जैसे बहादुरी एक चरित्र है, मिलनसार होना एक चरित्र है, समानता का व्यवहार एक चरित्र हैप्रकृति का सम्मान करने की भावना एक चरित्र है, उसी तरह न्याय भी एक चारित्रिक सच्चाई है, न्याय केवल अदालत में नहीं होता। न्याय आता है उस पड़ोस से, जिसने आपके साथ अन्याय होते देखा है और उसके खिलाफ वह आपके साथ खड़ा होता है। न्याय आता है उस अधिकारी और तंत्र से जहाँ आप अपने हक के लिए जाते हैं, जैसे उस पुलिस थाने के अधिकारियों और कर्मचारियों से, जो आपके हक को समझे और आपके साथ ऐसा व्यवहार करें, जिससे आपका मनोबल और व्यवस्था में विश्वास बरकरार रहे। यदि उसका चरित्र न्यायिक नहीं है तो वह आपके साथ न्यायपूर्ण व्यवहार नहीं करेगा और आपका केस इस तरह से दर्ज नहीं किया जाएगा, जिससे आपको आगे चल कर  न्याय मिल सके, इसके बाद आप अदालत में जाते हैं। वहां पुलिस जो प्रकरण बनाती है, उसी के आधार पर कार्यवाही होती है न! इसलिए न्याय केवल अदालत में नहीं मिल सकता है। फिर आपके प्रकरण को लोगों के सामने ले जाता है मीडिया। यदि उसके चरित्र में न्याय नहीं है, तो वह आपके हक हो महसूस नहीं कर सकता न ही उस नजरिए से मामले की जांच पड़ताल कर सकता है, इसके बाद यदि इस तरह के हकों के उल्लंघन के बहुत से प्रकरण हैं, परन्तु इस पूरी प्रक्रिया में वे न्याय के नजरिए से नहीं देखे जाते हैं तो उस पर  आगे बनने वाली नीति में भी न्याय नहीं होगा। और जहाँ न्याय चरित्र में नहीं है, वहां व्यवस्था का हर हिस्सा अन्याय का पहरेदार हो जाता है। या तो न्याय होगा या अन्याय होगा, या तो भ्रष्टाचार होगा या भ्रष्टाचार नहीं ही होगा! बीच का कोई रास्ता नहीं है। कोई यह नहीं कह सकता कि 40 प्रतिशत न्याय हो रहा है या व्यवस्था पूरी भ्रष्ट नहीं है केवल 50 प्रतिशत भ्रष्ट है। यह विश्लेषण बिलकुल गलत है कि कलेक्टर साहब तो ईमानदार हैं, भ्रष्ट तो उनके आफिस के अधिकारी हैं, मुख्यमंत्री तो ईमानदार हैं, उनके मंत्री भ्रष्ट हैं या फिर प्रधानमन्त्री बहुत अच्छे और ईमानदार हैं परन्तु उनका मंत्रिमंडल भ्रष्ट है! इस तरह के तर्क लोकतंत्र, समाज और संविधान के लिए बेहद खतरनाक हैं।
ब्रिटेन ने भारत पर 200 वर्षों तक शासन किया- एक उपनिवेश की तरह अपने साम्राज्य के एक हिस्से की तरह, एक गुलाम की तरह। वे भारत व्यापार के लिए आये थे और धीरे धीरे व्यवस्था - राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक  के भीतर घुसते चले गए।  उन्होने भी कानून बनाए, नीतियां बनायी और व्यवस्था के लिए नियम बनाए। निःसंदेह उन्होने वे कानून और नियम लोगों के कल्याण और उन्हें न्याय देने के लिए नहीं बनाए थे। उन्होंने कानून इसलिए बनाए ताकि ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ उठने वाली आवाजों का दमन किया जा सके। वे चाहते थे कि लोग बोलें नहीं, और राज्य का भय उनके मन में रहे, इसके लिए उन्होने 1861 में पुलिस कानून बनाया और एक ऐसी व्यवस्था खड़ी की  जिसका काम कानून-व्यवस्था के नाम पर समाज पर नियंत्रण करना था। उन्होने इसी साल वन विभाग की स्थापना करके में उस जंगल और प्राकृतिक संसाधनों को राज्य की संपत्ति बना दिया, जिस पर हजारों सालों से समुदाय का मालिकाना रहा। और एक सरकारी विभाग की स्थापना से जंगल के मालिक, अचानक से ही अप्रत्याशित तरीके से अतिक्रमणकारी घोषित कर दिए गए।
उपनिवेशवाद में लोगों के लिए अवसर और स्थान इतने कम कर दिए कि लोगों के लिए सांस लेने के लिए भी मौके कम पडने लगे। उपनिवेशवादी सत्ता के लिए कानून के राज के मायने और मकसद कुछ दूसरा ही रहता है। इसके जरिये वे स्थानीय समाज के ऊपर अपनी सत्ता स्थापित करने के लिए करते हैं न्याय और कल्याण के लिए नहीं। वे समाज की ताकत को तोडने के लिए इसका उपयोग करते हैं, ताकि साम्राज्यवादी हितो के खिलाफ लोग आवाज ना उठा सकें। वहां असहमति और विरोध को मान्यता नहीं मिलती है, यह अपराध माना गया। यह याद रखिये एक देश दूसरे देश पर कब्जा इसीलिए करना चाहता है ताकि वहां के संसाधनों को लूटा जा सके, समाज का शोषण किया जा सके, इसके अलावा उपनिवेशवाद का कोई और मकसद हो ही नहीं सकता है। ऐसी स्थिति में यह अपेक्षा करना बेमानी है कि ब्रिटेन जैसे देश भारत में जीवन स्तर के मापदंड तय करते, मानवाधिकार और कल्याणकारी व्यवस्था की भूमिका बांधते। स्वाभाविक है कि इन परिस्थितियों में शासक (यहाँ राज्य नहीं) मानव अधिकारों के हनन के लिए मुख्य अपराधी माना जाना चाहिए। वह शासक राज्य के शोषणकारी चरित्र की रूपरेखा गढ़ता है। और जब हम यहाँ न्याय की बात करते हैं तब इसका मतलब होता है उस खास तबके को संरक्षण दिया जाना जो शासक को भारत में उसकी सत्ता बनाये रखने में सहयोग करता रहा।
ब्रिटेन ने हजारों उन भारतीयों को फांसी पर टांग दिया या सजायाफ्ता बना दिया जो न्याय, गरिमा, अधिकार और स्वाधीनता की मांग करते थे। जो उपनिवेशवाद से मुक्ति की मांग कर रहे थे। हालांकि उन्होंने न्यायपालिका की व्यवस्था बनायी, पर उसका मकसद न्याय देना नहीं, बल्कि न्याय के सिद्धांतों को दरकिनार करते हुए उन लोगों को सजा देना था जो ब्रिटिश राजसत्ता के खिलाफ खड़े हो रहे थे, जो स्वतंत्रता  चाहते थे। उन लोगों की आँखें फोड़ने का काम करने के लिए जो गुलामी से मुक्ति का सपना देख रहे थे।

Thursday 15 March 2012

देरी और अव्यवस्था के लिए न्यायाधीश दण्डित

अमेरिका के मैंनि राज्य के सुप्रीम कोर्ट को वहाँ की न्यायिक जिम्मेदारी एवं निर्योग्यता समिति से दिनांक 20.05.11 को रिपोर्ट मिली कि प्रोबेट न्यायाधीश लीमेन होम्स ने  न्यायिक आचरण की मैनी संहिता के कुछ सिद्धांतों का उल्लंघन किया है जोकि समस्त न्यायिक मामलों के तुरंत निपटान की आवश्यकता बताती है| न्यायाधिपति लेवी ने पक्षकारों की सुनवाई की और दिनांक 04.10.11 को अपनी रिपोर्ट और सिफारिशें प्रस्तुत की| प्रकरण में दिनांक 08.11.11 को सार प्रस्तुत किया गया और दिनांक 01.12.11 को निर्णय घोषित किया गया| इतनी अल्प अवधि में और वह भी न्यायाधीश के मामले में निर्णय भारत में दिवा स्वप्न सा लगता है|

उपयुक्त दंड के निर्धारण के लिए न्यायालय कई पहलुओं पर विचार करते हैं जैसे कि न्यायाधीश का पूर्व इतिहास, पृष्ठभूमि जिसमें आरोपित उल्लंघन हुआ, मुकदमे के पक्षकारों और जनता को हुई हानि, न्यायाधीश की उल्लंघन की अभिस्वीकृति व पक्षकारों पर असर की समझ, उल्लंघन की गंभीरता, और न्यायाधीश के कार्य में जन विश्वास व आस्था की भावी संभावनाएं|  न्यायाधीश होम्स वाशिंगटन जिला के 1989 से प्रोबेट न्यायाधीश हैं| वे अन्य संबद्ध जिलों के मामले भी सुनते हैं जहां के न्यायाधीश उन मामलों से दूर रहते हों| उनके 22 वर्ष के सेवा काल में आचार संहिता के उल्लंघन का कोई मामला नहीं हुआ| वर्तमान में प्रश्नगत मामला यह है कि  वे, अपनी याददाश्त के आधार के अतिरिक्त,  मामलों के निपटान के प्रबंधन में असफल रहे |
मामलों के कार्यभार के प्रभावी प्रबंधन के अभाव का स्पष्ट कारण गत वर्षों में मामलों की संख्या में भारी बढ़ोतरी था| अंशकालिक (23826 डॉलर वार्षिक पर) न्यायाधीश के रूप में नियुक्त होम्स को मदद करने के लिए प्रशासनिक संसाधनों में इस अनुपात में बढ़ोतरी नहीं हुई थी| स्मरणीय है कि अमेरिका में लगभग 18000 डॉलर वार्षिक तो न्यूनतम मजदूरी है और इससे थोडा ही अधिक न्यायाधीशों को दिया जाता है जबकि भारत में न्यूनतम मजदूरी लगभग 5500रुपये प्रति माह है और संविधान (अनुच्छेद 38(2)- राज्य विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए समूहों के बीच भी प्रतिष्ठा, सुविधाओं और अवसरों की असमानता को समाप्त करने का प्रयास करेगा|) से विपरीत इससे 10 गुणा वेतन न्यायाधीशों को दिया जा रहा है|

अपनी याददाश्त के आधार पर मामलों का प्रबंधन करना न्यायाधीश होम्स की एक पुरानी परंपरा थी जोकि प्रारम्भिक समय में तो प्रभावी हो सकती थी किन्तु कालांतर में कारभार बढ़ने के कारण बच्चों और परिवारों की सामयिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अब अप्रभावी थी| निर्धारित प्रक्रियानुसार होम्स को रजिस्टर रखना था जिसमें 30 दिन और 60 दिन से अधिक समय से बकाया मामलों की सूचि अलग से रखी जानी थी| किन्तु होम्स ने मात्र 30 दिन से अधिक समय से बकाया का ही रजिस्टर रखा और 60 दिन से अधिक बकाया मामलों पर ध्यान ही नहीं दिया |
पक्षकारों और अन्य लोगों को विलम्ब से हुई कठिनाई के लिए न्यायाधीश होम्स ने खेद व्यक्त किया | न्यायालय ने होम्स के खेद को निष्ठापूर्ण माना |जांचकर्ता न्यायाधिपति लेवी ने एक माह के निलंबन की सिफारिश की किन्तु न्यायालय का विचार रहा कि होम्स ने उल्लंघनों को स्वीकार कर लिया है और भविष्य में ऐसी समस्या से दूर रहने के लिए योजना तैयार कर ली है, वह पूर्व में दण्डित नहीं है व वाशिंगटन जिले को 22 वर्ष से  निष्ठापूर्वक सेवाएँ दी हैं| अपने कर्तव्यों के प्रति होम्स की भावी प्रतिबद्धता को देखते हुए उनका एक माह के लिए निलंबन जनता व विवाद्यकों के हितों पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगा और इससे जनहित सुरक्षित नहीं होगा|

न्यायालय ने आगे कहा की हमें विश्वास है कि सार्वजनिक भर्त्सना और सुधारात्मक योजना से उसके व्यवहार में मौलिक परिवर्तन होगा, जनता की रक्षा होगी, और इससे इन उल्लंघनों की पुनरावृति नहीं होना सुनिश्चित होगा| तदनुसार न्यायालय ने आदेश दिया की होम्स को इन उल्लंघनों के लिए सार्वजनिक प्रताडना दी जाय और होम्स तीस दिन से अधिक समय से बकाया मामलों के विषय में प्रति माह न्यायिक जिम्मेदारी समिति को रिपोर्ट देते रहेंगे| इधर भारत में तो न्यायधीशों को देवतुल्य माना जाता है उन्हें कोई बड़ा दंड देना तो दूर उनकी सार्वजनिक भर्त्सना तक नहीं की जा सकती|

Wednesday 14 March 2012

पूर्ण न्याय देने में संकोच कैसा

....

प्रतिष्ठा में,
माननीय श्री ऐ एस ओका
न्यायाधिपति,
व माननीय श्री ऐ वी पोतदार,
न्यायाधिपति,
बम्बई उच्च न्यायालय,
फोर्ट, मुंबई 400032

मान्यवर,
विषय : दाण्डिक रिट याचिका  संख्या  1666-10 -सुश्री वीणा सिप्पी बनाम नारायण दुम्ब्रे आदि

पुलिस द्वारा अवैध हिरासत एवं गिरफ्तारी के उक्त प्रकरण में आपके निर्णय दिनांक 05.03.2012  के लिए मैं आप द्वय को धन्यवाद देता हूँ| महिला याचिकाकर्त्री सुश्री वीणा सिप्पी भी इस साहसिक कार्य के लिए धन्यवाद की पात्र है जिसने महाराष्ट्र पुलिस जैसे संगठन से मुकाबला किया है| मीडिया व महिला जगत में आपके उक्त निर्णय की बड़ी सराहना हो रही है किन्तु इस प्रसंग में मेरा विचार किंचित भिन्न है|

माननीय न्यायालय के उक्त निर्णय का सम्मान करते हुए मेरे विचार इस प्रकार हैं:
1.                 माननीय न्यायालय ने प्रासंगिक प्रकरण में निर्णय प्रसारित करते हुए अन्य बातों  के साथ साथ कहा है कि मामले की परिस्थितियों को देखते हुए याचिकाकर्त्री को 250000रुपये क्षतिपूर्ति जिस दिन उसे अवैध रूप से गिरफ्तार किया गया अर्थात दिनांक 05.04.2008 से 8% वार्षिक ब्याज सहित आंकना उचित समझते हैं| राज्य सरकार इस क्षतिपूर्ति का भुगतान करेगी| याचिकाकर्त्री इस न्यायालय में कम से कम 22 बार उपस्थित हुई जिसके लिए हम 25000रुपये खर्चे के दिलाना उपयुक्त समझते हैं| राज्य सरकार इस क्षतिपूर्ति और खर्चे की, दोषी अधिकारियों का दायित्व निर्धारित करने के पश्चात, उनसे वसूली करने को स्वतंत्र है|
2.                 माननीय सुप्रीम कोर्ट ने रूपा अशोक हुर्रा बनाम अशोक हुर्रा (AIR 2002 SC 1771)   के मामले में कहा है कि कानून को समाज का अनुसरण करना चाहिए न कि उसका त्याग| अतः न्यायालय का यह भी कर्तव्य है कि वह समाज के वास्तविक धरातल को ध्यान रखे| मेरा निवेदन है कि स्वतंत्र भारत में मुद्रा स्फीति की औसत वार्षिक चक्रवृद्धि दर 8% से अधिक आती है और इतना ब्याज तो वास्तव में शून्य हो जाता है| गत वर्षों की मुद्रा स्फीति की दर तो 10% से अधिक चल रही है अतः 8% ब्याज देने से तो लाभार्थी को ऋणात्मक ब्याज मिलेगा और उसे हानि ही होगी| अतः माननीय न्यायालय को किसी भी मामले में ब्याज देते समय इस तथ्य को ध्यान रखना चाहिए कि पीड़ित पक्ष को हुई हानि की ब्याज से पूर्ति अवश्य हो|
3.                 प्रकरण के विचारण के दौरान माननीय न्यायालय ने यह भी पाया है कि याचिकाकर्त्री को पुलिस ने अवैध रूप से गिरफ्तार कर पुलिस लोक अप में डाल दिया और उस पर बम्बई पुलिस अधिनयम, 1959 की  धारा 117 सहपठित 112 के आरोप मिथ्या रूप से गढ़ दिए गए| यही नहीं याचिकाकर्त्री की गिरफ्तारी का कोई पंचनामा तक तैयार नहीं किया गया और न ही उसकी 90 वर्षीय वृद्ध और बीमार माता को कोई सूचना दी गयी किन्तु इन सभी अभियोगों से बचाव के लिए पुलिस ने फिर कुछ फर्जी दस्तावेज गढे हैं और महत्वपूर्ण तथ्यों को छुपाया भी है|
4.                 यह है कि माननीय दिल्ली उच्च न्यायालय ने अवैध गिरफ्तारी के समान प्रकरण संजीव कुमार सिंह बनाम दिल्ली राज्य के निर्णय दिनांक 25.02.2008 में सम्पूर्ण घटनाक्रम की सी बी आई जांच करवाने और दोषी अधिकारियों के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही के अतिरिक्त आदेश दिए थे| माननीय न्यायालय का भी यह पुनीत कर्तव्य है कि वह पूर्ण न्याय के लिए दोषियों के प्रति कोई उदारता और नरमी नहीं बरते|
5.                 याचिकाकर्त्री ने यह भी कहा है कि उसने मजिस्ट्रेट को निवेदन कर दिया था कि उसे झूठा फंसाया गया है और उसे 700रुपये के निजी मुचलके पर रिहा किया गया| उसने यह भी स्पष्ट आरोप लगाया है कि उसे माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा डी के बासु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य के मामले में दिए गए निर्देशों के सरासर उल्लंघन में गिरफ्तार किया गया| उसके अनुसार संविधान के अनुच्छेद 2122 द्वारा प्रदत उसके अधिकारों का उल्लंघन हुआ है और उसे अवैध रूप से हिरासत में रखा गया| उक्त के परिणाम स्वरुप उसे शारीरिक, मानसिक और आर्थिक पीड़ा हुई है| याचिकाकर्त्री महिला को 40व्यक्तियों के साथ  एक पुलिस लोक अप में अमानवीय दशा में एक रात बितानी पड़ी | याचिकाकर्त्री का यह भी कहना है कि लोक अप में ताज़ा हवा का अभाव था अतः उसका दम घुटता रहा| इस आरोप का प्रत्यर्थी गण ने भी कोई विरोध नहीं किया|
6.                 माननीय सुप्रीम कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट ओन रिकोर्ड एसोसिएसन (AIR 1994 SC 268)  के मामले में कहा है कि ऊपरी स्तर के न्यायालयों के लिए, अन्तर्निहित सीमाओं के अध्यधीन, आकाश के नीचे कोई भी प्रकरण न्यायिक समीक्षा के लिए खुला है| माननीय न्यायालय को यह भी स्मरण में रहना चाहिए कि संवैधानिक न्यायालय के लिए पूर्ण और वास्तविक न्याय देने हेतु संविधान ही सीमा है, यदि न्याय देने में  विधायिका का कोई अन्य कानून अपूर्ण हो अथवा किसी सुसंगत कानून का अभाव हो तो भी संवैधानिक न्यायालय पूर्ण न्याय दे सकते हैं| कानून और न्याय प्रदानगी निकाय का उद्देश्य यह है कि पीड़ित पक्षकार को समुचित राहत मिले और पीडक पक्षकार को उचित दंड मिले ताकि अन्य लोग भविष्य में वैसा दंडनीय कृत्य करने से दूर रहें|
7.                 माननीय सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो बनाम अनुपम कुलकर्णी (1992 AIR 1768) के मामले में कहा है कि कानून पुलिस हिरासत के पक्ष में नहीं है| राष्ट्रीय पुलिस आयोग ने भी अपनी तीसरी रिपोर्ट में कहा है कि देश में 60% गिरफ्तारियाँ अनावश्यक होती हैं जिन पर जेलों में अनावश्यक 43.2% खर्चा होता है| माननीय न्यायालय ने जोगिन्दर कुमार बनाम उत्तरप्रदेश राज्य(AIR 1994 SC 1349) के मामले में भी स्पष्ट शब्दों में कहा है कि जघन्य अपराध के अतिरिक्त गिरफ्तारी को टाला जाना चाहिए| भारत के विधि आयोग की  एक सौ बहत्तरवीं रिपोर्ट दिनांक 14 दिसम्बर 2001 में कहा गया है, गिरफ्तार करने की शक्ति पुलिस द्वारा उद्दापन और भ्रष्टाचार का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत है .... जहाँ तक बहुसंख्य अपराधियों का प्रश्न है (हत्या , डकैती , लूटपाट , और राज्य के विरुद्ध अपराध आदि को छोड़ते  हुए) वे गायब होने वाले नहीं हैं| उपरोक्त से स्पष्ट है कि जघन्य अपराध, जिनकी अन्वीक्षा सत्र न्यायाधीश द्वारा की जाती है, के अतिरिक्त सामान्यतया गिरफ्तारी नहीं की जानी  चाहिए| संविधान के अनुछेद 141 के आलोक में सुप्रीम कोर्ट द्वारा घोषित उक्त निर्णय कानून का प्रभाव रखता है| माननीय न्यायालय ने जोगिन्दर कुमार बनाम उत्तरप्रदेश राज्य के मामले के निर्णय के पैरा 27 में  स्पष्ट शब्दों में कहा है कि जिस मजिस्ट्रेट के सामने गिरफ्तार व्यक्ति को पेश किया जाए उसका यह कर्तव्य होगा कि इन अनुदेशों की पालना से वह संतुष्ट हो|
8.                 यह है कि माननीय सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता एक व्यक्ति के जीवन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण अधिकार है और इसे ध्यान में रखते हुए इन्दर मोहन गोस्वामी बनाम उत्तरांचल राज्य के मामले के निर्णय दिनांक 09.10.2007 में कहा है कि मजिस्ट्रेटों को गिरफतारी वारंट जारी करने का विकल्प अंतिम उपचार के रूप में ही प्रयोग किया जाना चाहिए| गिरफ्तार करने का उद्देश्य अभियुक्त का न्यायिक प्रक्रिया से बचना रोकना है और जब व्यक्ति स्वयम पुलिस थाने में उपस्थित हो तो ऐसी कल्पना नहीं की जा सकती| अतः दी गयी परिस्थितियों में याचिकाकर्त्री की गिरफ्तारी प्रथम दृष्टया ही अवैध है|
9.                 यह है कि जो गिरफ्तारी अनावश्यक, व सुप्रीम कोर्ट के अनुदेशों के उल्लंघन में हो कानून उसका समर्थन नहीं करता और ऐसा कृत्य स्पष्टतया  भारतीय दंड संहिता की धारा 342 (सदोष परिरोध) की परिधि में अपराध है| जहां तक  पुलिस अधिकारियों ने  याचिकाकर्त्री पर दुर्व्यवहार और गाली गलोज के आरोप लगाये हैं तो यदि यह सत्य हो तो भी पुलिस के कर्तव्यहीन आचरण ने ही उसे इस सीमा तक उतेजित किया है और  पुलिस संवर्ग अपने वरिष्ठ अधिकारियों और प्रभावी राजनेताओं से ऐसा व्यवहार अक्सर पाता है किन्तु एक भी मामलें में वे उनके विरुद्ध कोई अपराध दर्ज नहीं करते| आखिर क्यों..?
10.             यह है कि भारत संयुक्त राष्ट्र संघ (संक्षेप में संघ) का सदस्य है और मानवाधिकार संरक्षण के विषय में संघ द्वारा बनाये गए कानून भी संविधान के अनुच्छेद 2122 के अलोक में विधि का बल रखते हैं| जिस प्रकार किसी विधिक प्रावधान के अभाव में भी माननीय न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 21 22 की जनतांत्रिक व्याख्या कर क्षतिपूर्ति का आदेश दिया है ठीक उसी प्रकार मानवाधिकारों की रक्षा के लिए माननीय न्यायालय पुलिस को भी मानवाधिकार संरक्षण के लिए समुचित आदेश प्रदान कर सकता है|
11.             यह है कि मूल अधिकार मात्र नागरिकों को ही उपलब्ध हैं जबकि मानवाधिकार मनुष्य के रूप में जन्म लेने मात्र से उपलब्ध हैं और उनका स्थान मूल अधिकारों से ऊपर है| मानवाधिकार अंतर्राष्ट्रीय संधियों से प्राप्त हैं और उनकी मांग करने के लिए विधायिका के किसी औपचारिक कानून की अनिवार्यता नहीं है बल्कि वे संविधान के अंतर्गत स्वतः ही उपलब्ध हैं|
12.             यह है कि संघ ने हिरासती व्यक्तियों के उपचार हेतु न्यूनतम मानक नियम बना रखे हैं| उक्त का नियम 9 (1) यह प्रावधान करता है कि एक कमरे या सेल में एक से अधिक व्यक्ति नहीं रखे जायेंगे| नियम 10 यह प्रावधान करता है कि शयन व्यवस्था इस प्रकार होगी कि वह स्वास्थ्य, मौसम, घन फीट हवा तत्व, न्यूनतम स्थान, रोशनी, (सर्दी के मौसम में) ताप और रोशनदान आदि का पूर्ण ध्यान रखे| जहाँ हिरासती व्यक्ति रहते अथवा कार्य करते हों वहाँ खिडकियां इतनी बड़ी व इस प्रकार से होंगी कि हिरासती व्यक्ति प्राकृतिक रोशनी में पढ़ सकें और चाहे कृत्रिम रोशनदान हों अथवा नहीं किन्तु ताज़ा हवा आ सके| कृत्रिम रोशनी इतनी पर्याप्त दी जायेगी कि हिरासती व्यक्ति आँखों को बिना किसी प्रकार की क्षति के आराम से पढ़ अथवा कार्य कर सके| नियम 12 के अनुसार सफाई व्यवस्था पर्याप्त होगी, नियम 13 के अनुसार  मौसम के अनुकूल स्नान की व्यवस्था होगी तथा नियम 14 के अनुसार हिरासती व्यक्तियों के प्रयोग में आने वाले संस्था के सभी भाग सफाई से रखे जायेंगे| आगे के नियमों के अनुसार उन्हें धोने के लिए साबुन और जल उपलब्ध करवाया जायेगा तथा हिरासती व्यक्ति अपना स्वाभिमान बनाये रखें इसलिए उन्हें बालों और दाढ़ी की उचित देखभाल करने के लिए सुविधाएं दी जाएँगी व पुरुषों को नियमित दाढ़ी बनाने की सुविधा दी जायेगी| प्रत्येक हिरासती व्यक्ति को साफ़ सुथरे कपडे और बिस्तर दिया जायेगा| नियम 20 के अनुसार प्रत्येक हिरासती व्यक्ति को स्वास्थ्य वर्धक और अच्छी तरह बनाया हुआ भोजन, व आवश्यकतानुसार जल उपलब्ध करवाया जायेगा|
13.             यह है कि भारत में अंग्रेजी शासन काल में जेल अधिनियम, 1894 व उसके सुसंगत नियम और मनुअल बनाये गए थे जिनका उद्देश्य अंग्रेजी  शासन द्वारा भारतियों का दमन कर उनके शोषण से ब्रिटिश खजाने को भरना था किन्तु आज कल्याणकारी राज्य में ये सभी प्रासंगिक  नहीं रह गए हैं| जबकि स्वयं ब्रिटिश शासन ने इंग्लॅण्ड में लागू जेल अधिनियम को 1952 में ही बदल दिया है| इसी स्थिति से चिंतित होकर माननीय सुप्रीम कोर्ट ने राम मूर्ति बनाम कर्नाटक राज्य के मामले (1996) में केंद्र और राज्य सरकारों को  एक नई आदर्श जेल मनुअल बनाने का निर्देश दिया था| इन्हीं निर्देशों की अनुपालना में गृह मंत्रालय भारत सरकार ने वर्ष 2003 में आदर्श जेल मनुअल तैयार कर ली है किन्तु अधिकांश राज्य सरकारों ने अभी तक इसे लागू नहीं किया है और हिरासती व्यक्तियों के मानवाधिकारों का खुला हनन जारी है|
14.             यह है कि माननीय न्यायालय का यह पुनीत कर्तव्य है कि वह मानव गरिमा की रक्षा के लिए राज्य सरकार को निर्देश दे कि वह आदर्श जेल मनुअल तथा संयक्त राष्ट्र संघ के हिरासती व्यक्तियों के उपचार हेतु न्यूनतम मानक नियमों को अविलम्ब लागू करे ताकि अभिरक्षा के दौरान नागरिकों को मानवोचित व्यवहार मिले |
15.             यह है कि माननीय इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने न्यायपालिका के कर्तव्यों को रेखांकित करते हुए शेलेस्वर नाथ सिंह के मामले के निर्णय दिनांक 11.08.1999  में कहा भी है कि प्रत्येक को समझ लेना चाहिए कि न्यायपालिका जनता की सेवा के लिए बनाई  गयी है न कि वकीलों और न्यायाधीशों की सेवा के लिए| कानून के अच्छे शासन के लिए आवश्यक है कि न केवल उच्च न्यायालय और सुप्रीम कोर्ट उक्त नियमों का लागू किया जाना सुनिश्चित करें बल्कि निचले स्तर के न्यायालय भी इस प्रक्रिया में निर्भय होकर समान रूप से भागीदार बनें| प्रकरण से स्पष्ट है कि सम्बंधित मजिस्ट्रेट ने भी सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों की अनुपालना सुनिश्चित नहीं की है| माननीय न्यायालय ने  याचिकाकर्त्री की गिरफ्तारी को अवैध पाया है| जिन अभियोगों के लिए अधिकतम दंड मात्र 1200रुपये अर्थदंड ही हो और कारावास का कोई प्रावधान ही न हो उन अभियोगों में तो गिरफ्तार करना सरासर अनुचित और अवैध है| जब गिरफ्तारी मूल रूप से अवैध हो तो गिरफ्तार व्यक्ति से जमानत की अपेक्षा ही क्यों की जाय अर्थात मजिस्ट्रेट को उसे दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 59 के अंतर्गत बिना शर्त रिहा करना चाहिए था| किन्तु माननीय न्यायालय ने न तो मजिस्ट्रेट के आचरण पर कोई टिपण्णी की है और न ही विधि के उल्लंघन के लिए मजिस्ट्रेट के विरुद्ध  किसी प्रकार की कार्यवाही प्रारम्भ की है|
16.             यह है कि माननीय न्यायालय के निर्णयों से जनता को यह सन्देश नहीं जाना चाहिए कि राज्य में अच्छे कानून के शासन का अभाव है अथवा लोकतंत्र के तीनों स्तंभ एक ही जैसे व एकजुट हैं और जरुरत पडने पर आपस में एकदूसरे का बचाव करते हैं| न्याय के पूजनीय मंदिर पीडितों को यह सन्देश न दें कि भारतीय गणतंत्र के संवैधानिक न्यायालयों में भी न्याय एक अपवाद मात्र ही है|
17.             यह है कि उक्त घटनाक्रम से पुलिस द्वारा न्यायिक अवमान के साथ-साथ कानून का उल्लंघनकर क्षति पहुँचाने,  मिथ्या  दस्तवेज तैयार करने व  काम में लेने, तथ्यों को छुपाने और सदोष परिरोध के आरोप प्रथम दृष्टया स्थापित होते हैं किन्तु माननीय न्यायालय ने इन अपराधों का कोई प्रसंज्ञान नहीं लिया है और न ही कोई निर्देश दिए हैं| जहां तक पीड़ित व्यक्ति को राजकोष से क्षतिपूर्ति देने का प्रश्न है, यह परिपाटी लंबे समय से चली आरही है किन्तु इससे पुलिस की मनोवृति में कोई मौलिक परिवर्तन नहीं हुआ है| न्यायालय के निर्णय से पुलिस प्रशासन को इस प्रकार सन्देश जाना चाहिए कि इस प्रकार की घटनाओं की पुनरावृति न हो| यदि सरकार इस रकम की पुलिस अधिकारियों से व्यक्तिगत वसूली करे तो भी पुलिस के अनैतिक व भ्रष्ट आचरण और उससे संभावित आय को देखते हुए यह रकम तो पुलिस अधिकारियों के लिए तुच्छ्मात्र है|
18.             यह है कि राज्य सरकारें पुलिस से अनुचित कार्य लेती हैं फलतः वे पुलिस से डरती हैं| माननीय सुप्रीम कोर्ट ने देल्ही जुडीशियल सर्विस एसोसिएसन (1991 AIR 2176) के मामले में कहा भी है, पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध प्रभावी कार्यवाही करने में सरकारी उदासीनता से यह सन्देश मिलता है कि गुजरात राज्य में प्रशासन पर पुलिस भारी पड़ती है अतः प्रशासन दोषी पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध कार्यवाही करने में संकोच कर रहा है| यदि यही प्रवृति और परिपाटी बढ़ने दी गयी तो यह राज्य में विधि के शासन का नाश कर देगी| ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टि से गुजरात और महाराष्ट्र राज्य समानपृष्ठ भूमि वाले ही हैं| अतः माननीय न्यायालय के कड़े निर्देशों के अभाव में महाराष्ट्र राज्य सरकार पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध मुश्किल से ही कोई कार्यवाही करेगी|

मैं यहाँ पर यह भी निवेदन करना प्रासंगिक समझता हूँ कि प्रत्येक विवेकी शक्ति के प्रयोग का आधार जनहित प्रोन्नति होना चाहिए विशेषतः जब यह अहम प्रश्न संविधान के संरक्षक उच्च न्यायालय के सामने हो| माननीय न्यायालय के उक्त निर्णय के विरुद्ध अपील भी दायर की जा सकती है किन्तु वह भी एक अंतहीन, खर्चीली और जटिल व थकाने वाली प्रक्रिया होगी| यद्यपि माननीय न्यायालय स्वप्रेरणा से इस प्रकरण में पुनरीक्षा कर पूर्ण और वास्तविक न्याय देने के लिए सशक्त है| भारतीय गणतंत्र को मज़बूत बनाने की ईश्वर आप द्वय को सदैव सद्प्रेरणा देते रहें| इसी आशा और विश्वास के साथ ,

आपका शुभेच्छु

मनीराम शर्मा
(राष्ट्रीय अध्यक्ष के राज्य सलाहकार )                   दिनांक :13.03.2012
ईमेल :maniramsharma@gmail.com