Monday 31 October 2011

वास्तविक न्याय की आयाम

सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र राज्य बनाम दामू गोपीनाथ सिधे (2000 क्रि.ला.ज. 2301) में कहा गया है कि इस बात का कोई स्पष्टीकरण नहीं है कि संस्वीकृति दर्ज करने के लिए निकट के किसी मजिस्ट्रेट के स्थान पर दूर के मजिस्ट्रेट को क्यों प्राथमिकता दी गई।
गुजरात उच्च न्यायालय ने रामभाई बनाम गुजरात राज्य (1991 क्रि.ला.ज. 3169 गुजरात) में कहा है कि प्राकृतिक न्याय की आवश्यकता है कि जिस सुसंगत विषय वस्तु पर प्राधिकारी अपना निष्कर्ष दर्ज करना चाहे उससे प्रभावित व्यक्ति को इसकी सूचना होनी चाहिए।

Sunday 30 October 2011

अपराध की सूचना का स्रोत सुसंगत नहीं

मद्रास उच्च न्यायालय ने पब्लिक प्रोसिक्यूटर बनाम पोकू सयैद इसमाईल (1973 क्रि.ला.ज. 931) में कहा है कि कस्टम अधिकारी ने अभियुक्त के पास प्रतिबन्धित सोने का कब्जा होने की सूचना कैसे प्राप्त की, निचले न्यायालय के सामने जांच के उद्देश्य  के लिए यह महत्वपूर्ण या सुसंगत नहीं है| पुलिस या कस्टम अधिकारी विभिन्न स्रोतों से सूचना प्राप्त कर सकते हैं। अभियुक्त को सिर्फ यह अधिकार है कि वह अभियोजन द्वारा उसकी दोषसिद्धि करवाने के लिए निर्भर रहने वाली सूचना को प्राप्त करें।

Saturday 29 October 2011

कबुलियत स्वतंत्र हो

सुप्रीम कोर्ट ने राज्य बनाम नवजोत संधु उर्फ अफसान गुरू (2005 11 एससीसी 600) में कहा है कि यदि तथ्य और परिस्थितियां यह कहती है कि संस्वीकृति संभवतः धमकी या प्रेरणा या दबाव का परिणाम हो सकती है तो न्यायालय ऐसी संस्वीकृति पर कार्य करने से मना करेगा। चाहे संस्वीकृति मजिस्ट्रेट या पुलिस अधिकारी से भिन्न किसी अन्य व्यक्ति के सामने की गई हो।

Friday 28 October 2011

अवमान में आशय आवश्यक नहीं

सुप्रीम कोर्ट ने ई.एम.शंकरन नंबुरीपाद बनाम टी नारायण नमीबियार (1970 एआईआर 2015) में कहा है कि उसने ऐसा कोई परिणाम का आशय नहीं रखा था यह तथ्य दण्ड में विचारणीय हो सकता है। किन्तु एक न्यायोचितता के रूप में काम नहीं दे सकता है। न्यायाधीश का सद्विश्वास एक मजबूत चट्टान है जिस पर कोई भी प्रशासनिक निकाय मजबूती से टिकता है और लोगों का न्यायालय में विश्वास डगमगाने का प्रयास स्वयं प्रजातान्त्रिक निकाय की जड़ों पर प्रहार है।

Thursday 27 October 2011

समाजवाद से भटकता लोकतंत्र

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 38 में कहा गया है कि राज्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था की, जिसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं को अनुप्राणित करे, भरसक प्रभावी रूप में स्थापना  और संरक्षण करके लोक कल्याण की अभिवृद्धि का प्रयास करेगा| राज्य, विशिष्टतया, आय की असमानताओं को कम करने का प्रयास करेगा और न केवल व्यष्टियों के बीच बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए लोगों के बीच भी प्रतिष्ठा, सुविधाओं और अवसरों की असमानता समाप्त करने का प्रयास करेगा|   

संविधान की इसी भावना के अनुसरण में पिछड़े, कमजोर व वंचित वर्गों, समूहों और क्षेत्रों को विभिन्न  प्रकार के संरक्षण, रियायतें, अनुदान तथा सहायताएँ आदि दी जाती हैं| आयकर की अवरोही दरें, अर्थात अधिक आय पर बढ़ते क्रम में आयकर लगाना इसी योजना का हिस्सा है| यह दर ढांचा आय की असमानता को दूर करने की दिशा में ही एक प्रयास कहा जा सकता है| आयकर की प्रारम्भिक दर 10% है जो ऊपरी आय वर्ग के लिए 30% तक है| न्याय का भी यही सार्वभौम सिद्धांत है कि जिसे जीवन में कम मिला हो उसे कानून में अधिक दिया जाना चाहिए|

किन्तु खेद का विषय है कि अन्य योजनाओं एवं कानूनों में इस सिद्धांत की भावनात्मक अनुपालना नहीं हो रही है| उक्त विवेचन से स्वस्पष्ट है कि कर , शुल्क आदि की वसूली दाता की हैसियत के अनुकूल होनी चाहिए और  राजकोष आदि से नागरिकों को भुगतान इसके विपरीत क्रम में होना चाहिए| हमारे यहाँ स्टाम्प एवं रजिस्ट्री कानून में इस समाजवादी सिद्धांत का ध्यान नहीं रखा गया है और इसमें दरों का ढांचा आयकर से विपरीत है अर्थात कम राशि की रजिस्ट्री कराने वाले (कम साधनों वाले व्यक्ति) की तुलना में अधिक राशि की रजिस्ट्री कराने वाले को प्रतिशत के तौर पर कम शुल्क चुकाना पडता है| एक निश्चित सीमा राशि के बाद रजिस्ट्री शुल्क तो स्थिर है और उससे अधिक रजिस्ट्री करवाने पर कोई अतिरिक्त रजिस्ट्री शुल्क ही नहीं लगता है| इस प्रकार स्टाम्प एवं रजिस्ट्री कानून संविधान के विपरीत किन्तु समाजवादी व्यवस्था के स्थान पर पूंजीवादी व्यवस्था का समर्थन करता है| 

न्याय देना राज्य का कर्त्तव्य है और उसके लिए कोई शुल्क न होकर न्याय निशुल्क होना चाहिए| फिर भी न्याय के लिए यदि राज्य कोई शुल्क लेना चाहे तो यह पोस्टकार्ड की कीमत के समान नाममात्र का होना चाहिए| भारत में कई राज्यों की तो स्थिति यह है कि वहाँ पर सिविल दावों पर प्राप्त न्यायशुल्क में से न्यायालयों का समस्त व्यय घटाने पर भी शुद्ध बचत हो रही है| यद्यपि राज्यों में न्यायशुल्क हेतु अलग अलग कानून हैं फिर भी मूल रूप में व्यवस्था समान ही है| इस प्रकार न्यायप्रदानगी निकाय एक राजकीय सम्प्रभू कृत्य न होकर एक लाभकारी व्यवसाय साबित हो रहा है| न्यायालयों में सिविल मामलों के लिए निर्धारित न्यायशुल्क का ढांचा भी स्टाम्प शुल्क की भांति अवरोही यानी घटते हुए क्रम में है| एक बड़ा दावा करने वाले (संपन्न) पक्षकार को तुलनात्मक रूप से कम प्रतिशत न्यायशुल्क देना पडता है| अर्थात एक कम संसाधनों वाले व्यक्ति को स्वाभाविक रूप से छोटी राशि  के लिए  किये जाने वाले दावे पर तुलनात्मक  अधिक राशि खर्च करनी पड़ेगी और इसके विपरीत बड़े दावे में कम न्याय शुल्क का भुगतान करना पड़ेगा| पूंजीपतियों को मिलने वाले न्याय में विलम्ब से व्यथित होकर अब तो सरकार ने 5 करोड से अधिक के वसूली दावों के लिए उच्च न्यायलयों में विशेष न्यायाधीश लगाने की जनविरोधी योजना भी  बना ली है| सरकार के इन कृत्यों से उसका असली चेहरा अब बेनकाब होता जा रहा है तथा यह और अधिक  स्पष्ट हो गया है कि सरकार जन हितैषी व समाजवादी न होकर पूंजीवादी व्यवस्था की समर्थक बन गयी है|

इतना ही नहीं व्यवहार में हमारे न्यायालय भी जिसे जीवन में कम मिला हो उसे कानून में अधिक दिया जाना चाहिए सिद्धांत की बहुत कम अनुपालना कर रहे हैं| एक सड़क दुर्घटना में एक अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश व वाहन चालक दोनों की मृत्यु हो गयी| चालक निजी टैक्सी से न्यायाधीश महोदय को लेकर आ रहा था| मामला दुर्घटना अधिकरण के विचारार्थ प्रस्तुत हुआ| न्यायाधीश महोदय को चालक की तुलना में पहले  ही 10 गुणा वेतन मिल रहा था और उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी थीं|  दुर्घटना में मृत्यु के पश्चात न्यायाधीश के परिवार को पेंशन, ग्राचुटी, भविष्य निधि, कर्मचारी बीमा आदि के लाभों के अतिरिक्त आश्रित के लिए नौकरी भी सुरक्षित थी और चालक के आश्रितों के लिए इनमें से एक भी आश्रय नहीं था| किन्तु अधिकरण ने न्यायाधीश महोदय के आश्रितों को 30 लाख रुपये और चालक के आश्रितों को मात्र 3 लाख रुपये स्वीकृत कर न्याय के इस सुस्थापित सिद्धांत और संविधान के प्रावधान का मुक्त उपहास किया| अतः अब समय आ गया है कि हमें गहन चिंतन करना है कि संविधान के इन प्रावधानों  की भावनात्मक पालना करें और इन्हें एक थोथी औपचारिकता मात्र नहीं समझें|

Wednesday 26 October 2011

कानून का पुनर्जन्म

सुप्रीम कोर्ट ने सहायक आयुक्त बनाम वेलीअप्पा टेक्सटाईल्स के निर्णय दिनांक 16.09.03 में कहा है कि प्रारम्भ में यह माना जाता था कि निगमों को आपराधिक रूप से दायी नहीं ठहराया जा सकता है जहां कि आशय आवश्यक हो लेकिन वर्तमान न्यायिक विचारधारा यह लगती है कि निगम के प्रभारी अधिकारी उसके अन्तरंग मित्र होते है। वह निगम के लिए उतरदायी हैं। यहां तक कि एक कृत्रिम व्यक्ति को भी ऐसे अपराध के लिए अभियोजन किया जा सकता है। जब तक देश में अभियुक्त की निर्दोषिता की मान्यता है तब तक प्रत्येक कमी का लाभ अभियुक्त को दिया जाना चाहिए। जहां कहीं भी विद्यायिका ने नीतिगत कारणों से विवेकाधिकार को अलग कर दिया तो वहां न्यायालय विधायिका द्वारा निर्धारित दण्ड का एक मात्र भाग लगाने के लिए स्वतन्त्र नहीं है क्योंकि ऐसा करना कानून के उस प्रावधान का पुनर्जन्म होगा।

Tuesday 25 October 2011

लोकहित की मांग- आपराधिक न्याय फुर्तिला एवं सुनिश्चित हो

सुप्रीम कोर्ट ने एम एस शेरिफ बनाम मद्रास राज्य (1954 एआईआर 397) में कहा है कि सिविल और आपराधिक कार्यवाही के मध्य हमारा विचार है कि अपराधिक मामलों को प्राथमिकता देनी चाहिये। दूसरा घटक जो कि हमें कहता है कि सिविल मामले प्रायः वर्षों तक घसीटते रहते है और यह अवांछनीय होगा कि अपराधिक अभियोजन तब तक इन्तजार करे जब तक कि अपराध के विषय में सब भूल चुके हो। लोकहित की मांग है कि आपराधिक न्याय फुर्तिला एवं सुनिश्चित हो कि दोषी को दण्ड दिया जाये जबकि लोगों के दिमाग में घटनाये तरोताजा हो और उचित एवं पक्षपात विहीन अन्वीक्षा के सुसंगत निर्दोष को यथासंभव जल्दी ही छोड़ दिया जावे। दूसरा कारण यह है कि यह अवांछनीय है कि चीजों को तब तक भटकने दिया जावे जब तक कि लोगों की याददाश्त विश्वास करने के लिए धूमिल हो चुकी है। उदाहरण के लिए सिविल मामले और आपराधिक मामलों में प्राथमिकता देने के लिए धारा 476 कहती है।

Monday 24 October 2011

अन्वीक्षण का बकाया रहने का अर्थ है लोगों को न्यायालय की आदेशिका के बन्धक बनाये रखना है

बम्बई उच्च न्यायालय ने आर.एस. केडकर बनाम महाराष्ट्र  राज्य (1980 क्रि.ला.ज. 254) में कहा है एक बार जब आरोपण का आपराधिक प्रकृति के न्यायालय द्वारा प्रसंज्ञान ले लिया जाता है तो अन्वीक्षण त्वरित गति से होना  चाहिए ताकि दोषी को दण्डित किया जा सके तथा निर्दोष को छोड़ जा सके। यह सार्वजनिक न्याय के हित में तेजी से तथा बिना समय गँवाये प्राप्त किया जाना चाहिये। इस प्रकार मामलों को लम्बित रखने से मात्र न्याय के लक्ष्यों को ही गंभीर क्षति नहीं पहुंचती है बल्कि अपराध के अन्वीक्षण का बकाया रहने का अर्थ है लोगों को न्यायालय की आदेशिका के बन्धक बनाये रखना है। अब समय आ गया है जबकि त्वरित अन्वीक्षा के महत्व को समझा जाना चाहिये और आपराधिक न्याय प्रशासन के सिद्धान्तों का प्रभावी अनुसरण किया जाना चाहिए।

Sunday 23 October 2011

अवमान कानून विशेष कानून

सुप्रीम कोर्ट ने हरिदास बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1964 एआईआर 1773) में  कहा है कि मेरे निर्णयन में इस बात में कोई संदेह नहीं है कि यह आपराधिक कार्यवाही का प्रारम्भ है क्योंकि न्यायालय के अवमान में कारावास तथा अर्थदण्ड से दण्डित किया जा सकता है और एक व्यक्ति पर न्यायालय के अवमान का आरोप आपराधिक कार्यवाही के विस्तृत शब्द में समाहित है। धारा 211 के अन्तर्गत अपराध में विशेष कानून के अन्तर्गत दण्डनीय शामिल है और अवमान कानून विशेष कानून है। अतः न्यायालय का अवमान अधिनियम का अपराध 211 के अन्तर्गत भी अपराध है।

Saturday 22 October 2011

अपराधियों को अनुसंधान में कमी या दोष के आधार पर दोषमुक्त नहीं किया जाना चाहिए

सुप्रीम कोर्ट ने मध्यप्रदेश  राज्य बनाम अहमदुलिया (1981 एआईआर 998) में कहा है कि जिस क्षण अभियुक्त ने अपराध किया उस समय वह समझने में समर्थ था कि वह जो कुछ रहा है वह गलत था कानून के विरूद्ध था और इसी कारण वह भा.द.सं. की धारा 84 के अन्तर्गत दोषमुक्ति का पात्र नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट ने पश्चिम बंगाल राज्य बनाम मीर मोहम्मद उम्मर के निर्णय दिनांक 29.08.2000 में कहा है कि यदि अपराधियों को अनुसंधान में कमी या दोष के आधार पर दोषमुक्त किया जाता है तो आपराधिक न्याय का हेतुक आहत होता है| यह प्रयास होना चाहिए कि आपराधिक न्याय बचा रहे। अभियुक्त के घोषित आशय सहित अभियोजन ने जो तथ्य साबित किये है   जब पीड़ित को घातक चोटें पहुंची उसके समय तथा जिस स्थान पर उसकी लाश  पायी गयी उसकी समीपता को देखते हुये यह अर्थ निकालने में पर्याप्त है कि आहत की मृत्यु अपहरणकर्ताओं द्वारा कारित की गयी थी। यदि इससे भिन्न कोई बात कोई सत्य होती तो उसके विषय में  सिर्फ अपहरणकर्ता ही जानते थे क्योंकि ऐसा तथ्य मात्र उन्हीं के विशेष  ज्ञान में हो सकता था। जैसा कि उन्होंने ऐसा तथ्य बताने से इन्कार कर दिया निष्कर्ष  अपरिवर्तित रहेगा।

Friday 21 October 2011

सूचना का अधिकार मात्र फोटोकोपी अधिनियम नहीं अपितु सतर्कता व पारदर्शिता को बढ़ावा देने के लिए है

केंद्रीय सतर्कता आयोग के परिपत्र संख्या 40/11/06 दिनांक 22.11.06 में कहा गया है कि विभिन्न सरकारी संगठनों द्वारा कार्यवाहियों और लाइसेंस, अनुमति, मान्यता, अनापति जारी करने में असामान्य विलम्ब और मनमानेपन की आयोग में पर्याप्त संख्या में शिकायतें प्राप्त हो रही हैं| इनमें से अधिकांश शिकायतें विलम्ब, एवं पहले आओ पहले पाओ के सिद्धांत की अवहेलना से सम्बंधित हैं| बहुत से मामलों में इन कार्यवाहियों के सन्दर्भ में मांगे गए प्रलेखों और सूचनाओं के सम्बन्ध में अस्पष्टता होना है| यह भी प्रवृति पाई गयी है कि आवेदनों पर टुकड़ों में/आपतिजनक प्रश्न पूछने के कारण भ्रष्टाचार सम्बंधित आरोप लगते हैं| भ्रष्टाचार के लिए गुंजाईस घटाने के लिए सरकारी संगठनों की नियामक, लागू करने और अन्य लोक क्रियाकलापों में अधिक पारदर्शिता व जवाबदेयता लाने की आवश्यकता है|

वांछित पारदर्शिता लाने और अस्वस्थ परमपराओं पर अंकुश लगाने के लिए केन्द्रीय सतर्कता आयोग अधिनियम की धारा 8 की शक्तियों के प्रयोजन में निम्नांकित दिशानिर्देश जारी किये जाते हैं:-
समस्त सेवाप्रदाता सरकारी संगठन अपनी वेबसाइट पर कानूनों, नियमों, और प्रक्रियाओं के सम्बन्ध में सम्पूर्ण सूचना देंगे| समस्त प्रार्थना पत्रों के प्रपत्र/प्रारूप डाऊनलोड योग्य रूप में वेबसाइट पर उपलब्ध कराएँगे| यदि कोई संगठन प्रार्थना पत्र डाऊनलोड के लिए कोई प्रभार लेना चाहे तो वह प्रार्थना पत्र प्रस्तुत करते समय लिया जायेगा| प्रार्थना पत्र के साथ संलग्न किये जाने वाले प्रलेखों की सूचना  वेबसाइट पर स्पष्ट रूप से दी जानी चाहिए और यह प्रार्थना पत्र का भाग होना चाहिए| यथा संभव यह व्यवस्था की जानी चाहिए कि प्रत्याशी को प्रलेखों/सूचनाओं  में रही किसी भी कमी के बारें में प्राप्त होते ही तुरंत सूचित किया जाना चाहिए| बारबार टुकड़ों में  पूछताछ  को सतर्कता  के दृष्टिकोण से दुराचरण माना जाना चाहिए| द्वितीय चरण में प्रार्थना पत्रों की स्थिति वेबसाइट पर उपलब्ध करवाई जानी चाहिए और उसे समय समय पर अद्यतन किया जाना चाहिए|
 जागरूक और जुझारू नागरिकों से अपेक्षा है कि वे अपने क्षेत्र के समस्त लोक कार्यालयों के सम्बन्ध में उक्त निर्देशों की अनुपालना की जांच  करें और यदि आवश्यक हो तो उचित मंच पर मामला उठाएं|

Thursday 20 October 2011

साक्ष्य में नवीन तकनीक का प्रयोग

वर्ष 1981 में जूलियस रफीन को वर्जीनिया (अमेरिका) के न्यायालय ने बलात्कार और अप्राकृतिक अपराध का दोषी पाया था| एक श्वेत प्रशिक्षु स्त्री नर्स इसकी शिकार हुई, और  रफीन एक अफ़्रीकी-अमरीकी, पीड़ित की तरह ही, इसी अस्पताल में कार्य करता था| मामले  के विचारण में पीड़िता ने पुष्टि की कि उसे विश्वास है कि यह कार्य रफीन ने ही किया| रफीन की महिला मित्र ने मामले के विचारण में यह कहा कि उस कथित रात को रफीन उसके साथ था किन्तु वीर्य के नमूने की वैज्ञानिक जांच में रफीन से मेल खाने की उच्च संभावना बताई गयी| रफीन द्वारा अपनी निर्दोषिता की घोषणा करने व घटना स्थल पर अनुपस्थिति के एक गवाह के बावजूद  उसे आजीवन (30 वर्ष) कारावास का दण्ड दिया गया| वर्ष 2003 में डी एन ए जांच में रफीन को दोषमुक्त कर दिया गया| इस प्रकार एक निर्दोष ने मात्र चश्मदीद गवाह द्वारा लगभग गलत पहचान के कारण 21 वर्ष करागार में बिताए| इस परीक्षण से मात्र रफीन को छोड़ा ही नहीं गया अपितु कारागार में बंदी एक अन्य व्यक्ति को इस बलात्कार के साथ  जोड़ दिया गया|
संघीय साक्ष्य नियम 403 के अनुसार एक सुसंगत साक्ष्य को भी छोड़ा जा सकता है यदि यह प्रबल संभावना है कि इससे अनुचित ख़तरा, मुद्दे पर  संदिग्धता या गुमराह होने, या  अनावश्यक लंबे साक्ष्य, या विलम्ब या समय की बर्बादी होना संभाव्य हो| चश्मदीद गवाहों द्वारा गलत पहचान अमेरिका में गलत दोषसिद्धि का प्रमुख कारण है| कई अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि लगभग 80000 अर्थात 40% संदिग्ध व्यक्ति गलत पहचान के शिकार होते हैं| ठीक इसी प्रकार नियम 702 में प्रावधान है कि यदि वैज्ञानिक, तकनीकि, या अन्य विशेष ज्ञान से विचारण के तथ्य के साक्ष्य को समझने या विवदित मुद्दे का  निर्धारण करने में मदद मिले तो ऐसे विशेषज्ञ साक्षी की जांच की जा सकती है|
रफीन जैसे अनेकों मामले होते हैं किन्तु रफीन भाग्यशाली रहा कि उसका डी एन ए जांच करवाए जाने से अंततोगत्वा दोषमुक्त हो गया| दुर्भाग्य से  आज भी अधिकांश संघीय सर्किट न्यायालय विशेषज्ञ साक्षी की स्वीकार्यता के पक्ष में नहीं हैं| इस प्रकार अमेरिका में भी विद्यमान कानून में परिवर्तन की आवश्यकता है ताकि नियम 403 के अंतर्गत न्यायाधीशों को उपलब्ध विवेकाधिकार को सीमित किया जा सके| इस प्रकार अल्पमत अभी सही रास्ते पर है और प्रस्तावित परिवर्तन से दूषित और क्षीण न्यायप्रणाली का समाधान हो सकेगा| इस परिवर्तन से सम्पूर्ण विश्व में न्यायप्रणाली की नींव की मरम्मत हो सकेगी| अमेरिका में चश्मदीद साक्ष्य की स्थिति को देखते हुए अन्य राष्ट्रों को भी चाहिए कि वे साक्ष्य के परंपरागत तरीकों के स्थान पर आधुनिक एवं उन्नत तरीके अपनाने पर सक्रियता से विचार करें व न्यायदर्शन को नए आयाम प्रदान करें|

Wednesday 19 October 2011

हम और हमारा लोकतंत्र किधर जा रहे हैं .....

जापान के संविधान के अनुच्छेद 35 में आगे प्रावधान है कि समस्त लोगों का अपने घरों में, कागजात और सामान का प्रवेश, तलाशी और जब्ती के प्रति  सुरक्षित रहने के अधिकार का पर्याप्त कारण और विशेष रूप से तलाशी के स्थान और तलाशी की वस्तुओं का उल्लेख  सहित जारी वारंट या अनुच्छेद 33 में प्रावधान  के अतिरिक्त  अतिक्रमण नहीं किया जायेगा| प्रत्येक तलाशी या  जब्ती सक्षम न्यायिक अधिकारी द्वारा अलग अलग जारी वारंट से की जायेगी| किसी भी लोक अधिकारी द्वारा यातना और निर्दयी दण्ड पूर्णतया मना  है|[ भारत में पुलिस यातनाएं एक सामान्य बात है और यातनाओं  से अपराधी से जुर्म आदि कबुलाना भारतीय आपराधिक न्यायतंत्र का अभिन्न अंग है|] प्रत्येक आपराधिक मामले में अभियुक्त को निष्पक्ष ट्राइब्यूनल द्वारा त्वरित व सार्वजानिक विचारण का अधिकार है| [भारत में तो ऐसे प्रावधान का नितांत अभाव है और अपराध के लिए निर्धारित दण्ड से अधिक अवधि तक कारागार में रहने के बावजूद विचारण पूर्ण नहीं होता|] उसे समस्त गवाहों की परीक्षा हेतु पूर्ण अवसर दिया जायेगा और उसे सार्वजनिक व्यय पर अनिवार्य प्रक्रिया से समस्त गवाहों को आहूत करने का अधिकार होगा| अभियुक्त हमेशा सक्षम परामर्शी की सहायता ले सकेगा , यदि अभियुक्त अपने प्रयासों से यह प्राप्त नहीं कर सके तो राज्य द्वारा उपलब्ध करवाया जायेगा|
किसी भी व्यक्ति को स्वयं के विरुद्ध गवाही देने के लिए विवश नहीं किया जायेगा| यातना, धमकी, लंबी गिरफ़्तारी या बंदीकरण, विवशता से प्राप्त  दोष संस्वीकृति  साक्ष्य में ग्राह्य नहीं होगी| मात्र स्वयं की संस्वीकृति के प्रमाण के आधार पर किसी भी व्यक्ति को दोषसिद्ध या दण्डित नहीं किया जायेगा| अनुच्छेद 40 में आगे प्रावधान है कि कोई भी व्यक्ति जिसे गिरफ्तार करने या निरुद्ध करने के पश्चात दोषमुक्त कर दिया गया हो विधि के प्रावधानों के अनुसार प्रतितोष के लिए राज्य पर वाद ला सकेगा| [भारत में ऐसे प्रावधानों का नितांत अभाव है जिससे पुलिस का आचरण स्वछन्द है|]

अनुच्छेद 41 में आगे प्रावधान है कि डाईट (संसद) राज्य शक्ति का सर्वोच्च अंग होगी, और राज्य का विधि बनाने वाला एकमात्र अंग होगी| जब प्रतिनिधि (लोक) सभा भंग की जाये तो भंग किये जाने के 40 दिन के भीतर उसके सदस्यों के लिए आम चुनाव होंगे, और संसद की सभा चुनाव के 30 दिवस के भीतर संपन्न होगी| संसद, दोनों सदनों के सदस्यों में से, एक महाभियोग न्यायालय स्थापित करेगी जो उन न्यायाधीशों का विचारण करेगी जिन्हें हटाने के लिए प्रक्रिया प्रारंभ की गयी है| [भारत में न्यायपालिका नियंत्रणहीन  घोड़े के समान कार्य करती है| स्वतंत्र भारत के 64 वर्ष के इतिहास में न्यायिक भ्रष्टाचार के कई मामले गुंजायमान होने पर भी आज तक एक न्यायाधीश पर भी महाभियोग की प्रक्रिया पूर्ण नहीं हो सकी है जबकि जापान में महाभियोग न्यायालय सदन का एक स्थायी अंग है|] अनुच्छेद 76  में आगे कहा गया है कि  समस्त न्यायिक शक्तियाँ एक सर्वोच्च  न्यायालय और विधि द्वारा स्थापित अधीनस्थ न्यायालयों में निहित होंगी| न तो कोई विशेष ट्राइब्यूनल बनाया जायेगा और न ही किसी कार्यपालक एजेंसी या अंग को अंतिम न्यायिक शक्ति दी जायेगी| [भारत में न्यायिक न्यायालयों से ज्यादा संख्या में ट्राइब्यूनल्स कार्यरत हैं और इस प्रकार न्यायिक क्षेत्र में राज्य कार्यपालकों का हस्तक्षेप दिनों दिन बढ़ रहा है जिसे न्यायालयों का भी मूक समर्थन प्राप्त है|] समस्त न्यायाधीश अपनी अंतरात्मा के प्रयोग में स्वतंत्र होंगे और मात्र इस संविधान व कानूनों से बाध्य होंगे| अनुच्छेद 79 के अनुसार सुप्रीम कोर्ट (सर्वोच्च न्यायालय) में एक मुख्य न्यायाधीश और विधि द्वारा निर्धारित संख्या में न्यायाधीश होंगे, मुख्य न्यायाधीश को छोड़कर  ऐसे समस्त न्यायाधीश मंत्रिमंडल द्वारा नियुक्त किये जायेंगे| सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीशों की नियुक्ति उनकी नियुक्ति के बाद प्रथम आम चुनाव में लोगों द्वरा समीक्षा की जायेगी, और दस वर्ष के बाद संपन्न प्रथम चुनाव में पुनः समीक्षा की जायेगी और इसी प्रकार उसके बाद भी| इस पुनरीक्षा में यदि मतदाताओं का बहुमत, पूर्वोक्त पैरा में उल्लेखित मामले में, यदि एक न्यायाधीश की बर्खास्तगी के पक्ष में है तो उसे बर्खास्त कर दिया जायेगा|[इतिहास साक्षी है कि भारत में सरकार को तो अपदस्थ किया जा सकता है किन्तु न्यायाधीश को नहीं|]

निचले न्यायालयों के न्यायाधीश सुप्रीम कोर्ट द्वारा नामित न्यायाधीशों की सूची में से मंत्री मंडल द्वरा नियुक्त किये जायेंगे| ऐसे समस्त न्यायाधीश पुनः  नियुक्त के विशेषाधिकार सहित 10 वर्ष के लिए पद धारण करेंगे| [भारत में न्यायाधीशों की नियुक्ति में मुख्य न्यायाधीश की राय बाध्यकारी है| न्यायाधीश पद पर नियुक्ति होने बाद सेवानिवृति की आयु पूर्ण करने तक की लगभग गारंटी है| भारतीय लोक(?)तंत्र के पास अवांछनीय न्यायाधीशों को सहन करने अतिरिक्त व्यवहार में कोई विकल्प नहीं है|] सुप्रीम कोर्ट कानून, आदेश, विनियम  या शासकीय कृत्य की संवैधानिकता के निर्धारण की अंतिम शक्ति रखेगा| अनुच्छेद 82 में यह विशेष प्रावधान है कि  राजनैतिक अपराधों, प्रेस से सम्बंधित अपराधों या लोगों को गारंटीकृत अधिकारों से सम्बंधित मामलों की अन्वीक्षा हमेशा सार्वजानिक रूप में होगी|



उक्त विवरण से सपष्ट है कि जापानी लोगों का देश के प्रति समर्पण है और वे उच्च नैतिकता वाले हैं अतः वे शर्मनाक कार्य को सहन नहीं कर सकते| यही कारण है कि विश्व में जनसँख्या के अनुपात में सर्वाधिक आत्महत्याएं जापान में ही होती हैं| दूसरी और देखें तो यह भी सपष्ट है कि भारतीय एवं जापानी संविधान लगभग समकालीन ही हैं किन्तु हमारा संविधान तो एक स्थिर और जीवित मात्र दस्तावेज है और जापानी संविधान विकासशील राष्ट्र का दर्पण है| आज हमारी प्रतिव्यक्ति आय मात्र 35000 रुपये प्रतिवर्ष है जबकि हमारे पास विस्तृत कृषि योग्य भूभाग और समृद्ध वन, जल स्रोत  व खनिज सम्पदा है किन्तु जापान में प्रति व्यक्ति आय रुपये 2200000 प्रतिवर्ष है| उनके पास मात्र 1/6 भाग ही कृषि योग्य है शेष भाग पठारी और पहाड़ी है जिसमें भी लगातार भूकंप एवं ज्वालमुखी जैसी प्राकृतिक आपदाओं का खतरा मंडराता रहता है| उचित नियोजन के अभाव में भारत आज बाढ़ व अकाल दोनों से एकसाथ पीड़ित है|
हमारे नेतृत्व द्वारा भारतीय संविधान की भूरी भूरी प्रशंसा की जाती है और कहा जाता है कि हमारा संविधान विश्व के श्रेष्ठ संविधानों में से एक है| वास्तविकता क्या  है यह निर्णय विद्वान पाठकों के विवेक पर छोडते हुए लेख है कि मेरी सम्मति में तो हमारा संविधान कोई मौलिक कृति न होकर भारत सरकार अधिनयम,1935 का प्रतिरूप मात्र है| अब हमें  जागना है, अन्य प्रगतशील राष्ट्रों के संविधानों  से हमारे संविधान की तुलना करनी है और हमारे संविधान का सामन्तशाही कलेवर बदलकर इसे समसामयिक और जनतांत्रिक रूप देना है| 

जय भारत ,

Tuesday 18 October 2011

राष्ट्र-भक्त जापानियों का सुन्दर संविधान

जापान के संविधान की प्रस्तावना में कहा गया है कि हम जापानी जो कि हमारी संसद के लिए विधिवत चुने गए प्रतिनिधियों  के माध्यम से हमारे तथा भावी पीढ़ियों के लिए समस्त देशों के साथ शांतिपूर्ण सहयोग से फलीभूत होने का निश्चय करते हैं और सम्पूर्ण राष्ट्र में स्वतंत्रता,  और हम पुनः कभी भी युद्ध के आतंक के भुगत भोगी न हों का शुभवचन, और यह घोषणा करते हैं कि संप्रभुता की समस्त शक्तियाँ लोगों में निहित हैं तथा दृढतापूर्वक इस संविधान की स्थापना करते हैं| सरकार लोगों का पवित्र विश्वास है, जिसके लिए लोगों से अधिकृति प्राप्त की गयी है, जिसकी शक्तियाँ जन प्रतिनिधियों द्वारा प्रयुक्त की गयी हैं और जिसके लाभों का लोग उपभोग कर रहे हैं| यह विश्व मानवजाति का सार्वभौम सिद्धांत है जिस पर यह संविधान आधारित है| हम उन समस्त संविधानों, कानूनों, अध्यादेशों, और उल्लेखों को अस्वीकार और खंडित करते हैं जो संविधान के विपरीत हों|

हम जापानी लोग सदैव के लिए शांति चाहते हैं और मानव संबंधों से व्यवहार करने वाले समस्त आदर्शों के प्रति गहनता से सजग हैं, और विश्व के शांतिप्रिय लोगों में विश्वास व न्याय में आस्था के साथ हमारे अस्तित्व व सुरक्षा को सुनिश्चित करने के प्रति कृत संकल्प हैं| हम विश्व में शांति की स्थापना के लिए प्रयासशील विश्व समुदाय में सम्मानजनक स्थान धारण करना चाहते हैं और उत्पीडन और दासता, असहिष्णुता व शोषण को पृथ्वी पर से हमेशा के लिए प्रतिबंधित करना चाहते हैं| हमारी मान्यता है कि विश्व में सभी लोगों को भय और अभाव से मुक्त  शांतिपूर्ण जीवन जीने का अधिकार है| हमारा विश्वास है कि कोई भी अकेला राष्ट्र इसके लिए जिम्मेदार नहीं है अपितु राजनैतिकता के कानून सार्वभौमिक हैं, और ऐसे कानूनों का अनुपालन, जो अपनी संप्रभुता को रखना चाहते हैं व अन्य राष्ट्रों के साथ अपने सम्प्रभुत्वयुक्त संबंधों को न्यायोचित ठहराते हैं, ऐसे समस्त राष्ट्रों का दायित्व है| हम जापानी लोग इन उच्च आदर्शों और उद्देश्यों की पूर्ति में हमारा रष्ट्रीय गौरव  समझते हैं|

जापानी संविधान के अनुच्छेद 11 के अनुसार लोगों को किसी मौलिक मानवाधिकार का भोग करने से नहीं रोका जायेगा| इस संविधान द्वारा गारंटीकृत ये मौलिक मानवाधिकार इस व भावी पीढ़ियों को शाश्वत और न छिनने योग्य रूप में प्रदत किये जाते हैं| इस संविधान द्वारा गारंटीकृत स्वतंत्रताएँ और अधिकार लोगों के अथक प्रयासों से अक्षुण्ण बनाये रखे जायेंगे जोकि इन स्वतन्त्रताओं व अधिकारों का दुरुपयोग करने से परहेज करेंगे और सदैव जन कल्याण के लिए इनका प्रयोग करने के लिए  जिम्मेदार होंगे| आगे अनुच्छेद 13 में कहा गया है कि सभी लोगों का व्यक्ति के तौर पर सम्मान किया जायेगा| उनके  जीवन, स्वतंत्रता के  अधिकार, खुशहाली  का अनुसरण जहाँ तक सार्वजनिक कल्याण में हस्तक्षेप नहीं करेंगे कानून निर्माण व  अन्य राजकीय मामलात में सर्वोच्च होंगे|
कानून के अधीन सभी लोग समान हैं और उनमें राजनैतिक, आर्थिक या जाति, वंश, लिंग, सामाजिक हैसियत, या परिवार के उद्भव के सामाजिक संबंधों के आधार पर भेदभाव नहीं किया जायेगा| किसी सम्मान, अलंकरण या अन्य भेदभाव का कोई विशेषाधिकार नहीं होगा और न ही ऐसा पारितोषिक जिसे दिया जाता है या इसके बाद प्राप्त किया जाता है ऐसे व्यक्ति के जीवन के पश्चात वैध होगा| लोगों को अपने लोक पदाधिकारी  चुनने और निरस्त करने का अहस्तांतरणीय अधिकार देते हैं| समस्त लोक पदाधिकारी सम्पूर्ण समाज के लोक सेवक होंगे और किसी समूह के नहीं| [जबकि भारत में प्रतिनिधि का चुनाव निरस्त करने का जनता को अधिकार नहीं है|]
लोक पदाधिकारियों के चयन में सार्वभौमिक वयस्कता की गारंटी होगी| समस्त चुनावों में मतपत्र की गोपनीयता का उल्लंघन नहीं होगा| एक मतदाता अपने द्वारा दी गयी पसंद के लिए, व्यक्तिगत या सार्वजनिक रूप से, जवाबदेय नहीं   होगा|
आगे अनुच्छेद 16 में कहा गया है कि प्रत्येक नागरिक को हानि के निवारण, लोक पदाधिकारी को हटाने, कानून, अध्यादेश या विनियमों तथा  अन्य मामलों  में परिवर्तन, बनाने या निरस्त करने  के लिए शांतिपूर्ण तरीके से मांग करने का अधिकार होगा, ऐसी याचिका के प्रयोजन, में किसी भी व्यक्ति के साथ भेदभाव नहीं किया जायेगा| [भारत में रामदेव बाबा और अन्ना के साथ एक ही मुद्दे के लिए हुए भिन्न भिन्न व्यवहार जनता के सामने हैं|] यदि किसी लोक पदाधिकारी के अवैध कृत्य से किसी नागरिक को हानि पहुंची हो तो वह राज्य या लोक अधिकारी के विरुद्ध प्रतितोष के लिए दवा कर सकेगा| [भारतीय संविधान में ऐसे सुन्दर प्रावधान का अभाव खलता है|] किसी भी व्यक्ति को किसी प्रकार से बंधुआ नहीं रखा जायेगा| अपराध के लिए दण्ड के अतिरिक्त किसी से भी बेगार नहीं ली जायेगी|
विचार एवं अंतरात्मा की स्वतंत्रता का उल्लंघन नहीं होगा| धर्म की स्वतंत्रता की सभी को गारंटी दी जाती है| कोई भी धार्मिक संगठन राज्य से कोई विशेषाधिकार प्राप्त नहीं करेगा और न ही कोई राजनैतिक प्राधिकार का प्रयोग करेगा| [हमारी कायर व कथित धर्म निरपेक्ष सरकारें तो धार्मिक यात्राओं के लिए राजकीय अनुदान तक देती हैं|] किसी भी व्यक्ति को  किसी धार्मिक कार्य, उत्सव, संस्कार, या रिवाज़ में भाग लेने के लिए विवश नहीं किया जायेगा| राज्य और उसके अंग धार्मिक शिक्षा देने या अन्य धार्मिक गतिविधि से दूर रहेंगे| भाषण के साथ साथ सभा तथा संगठन बनाने, प्रेस और अभिव्यक्ति के अन्य प्रारूपों की गारंटी होगी| न तो कोई सेंसरशिप लगायी जायेगी और न ही संचार के किसी साधन में गोपनीयता का अतिक्रमण होगा| [सेंसरशिप और पुलिस बल की कर्कश आवाज़ और  क्रूरता का उपयोग तो हमारी सरकारों की आधारसिला है, भला इन सबके बिना सरकारें चल ही कैसे सकती हैं|]
प्रत्येक व्यक्ति को अपना निवास चुनने और परिवर्तित करने का तथा इस सीमा तक व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता होगी जहाँ तक यह सार्वजनिक कल्याण में हस्तक्षेप नहीं करता है| समस्त लोगों की विदेश जाने और अपनी राष्ट्रीयता छोडने  की स्वतंत्रता का अतिक्रमण नहीं किया जायेगा| शिक्षा की स्वतंत्रता की गारंटी है| विवाह दोनों लिंगों की सहमति पर आधारित होगा तथा यह पति-पत्नी के समान अधिकारों पर पारस्परिक सहयोग पर बनाये रखा जायेगा| जीवन साथी का चयन, सम्पति सम्बंधित अधिकार, विरासत, अधिवास का चयन, तलाक तथा विवाह व परिवार सम्बन्धित अन्य मामलों में दोनों लिंगों की समानता तथा गरिमा को दृष्टिगत रखते हुए कानून बनाये जायेंगे| 
आगे अनुच्छेद 25 में कहा गया है कि सभी लोगों को न्यूनतम हितकर स्तर और सांस्कृतिक जीवन धारित करने का अधिकार है| राज्य जीवन के सभी क्षेत्रों में समाज कल्याण व सुरक्षा तथा जन स्वास्थ्य का विस्तार और प्रोन्नति करने का  हर संभव प्रयास करेगा| विधि के प्रावधानों के अनुसार सभी लोगों को अपनी क्षमता के अनुसार समान शिक्षा का अधिकार होगा| सभी लोगों का यह दायित्व होगा कि उनके संरक्षण के अधीन सभी लडकियों और लड़कों को कानून के अनुसार सामान्य शिक्षा दिलवाएं| ऐसी अनिवार्य शिक्षा निःशुल्क होगी| सभी लोगों का कार्य करना दायित्व व अधिकार है| मजदूरी का स्तर, घंटे, और अन्य कार्य दशाएं, कानून द्वारा निर्धारित की जाएँगी| बच्चों का शोषण नहीं होगा|
आगे अनुच्छेद 28 में कहा गया है कि श्रमिकों के संगठित होने और सौदेबाजी करने व सामूहिक कार्य करने के अधिकार की गारंटी है| सम्पति धारण करने या रखने के अधिकार का अतिक्रमण नहीं होगा| [सम्पति सम्बंधित अधिकार अब भारतीय संविधान में समाहित मूल अधिकारों की सूची में से हटा दिया गया है|] सम्पति की परिभाषा समाज कल्याण के अनुरूप विधि द्वरा परिभाषित होगी| [भारत में सार्वजनिक सम्पति टू जी जैसे घोटालों के माध्यम से लुटा दी जाती है और हमारे माननीय प्रधान मंत्री इसे गठबंधन की विवशता कहकर पल्ला झाड लेते हैं| हमारे नेतृत्व के लिए देश और संविधान से बड़ी सरकार है|] किसी भी व्यक्ति को न्यायालय तक पहुँच मना नहीं की जायेगी| [भारत में तो न्यायालय के लिपिक ही न्यायालय तक पहुँच को बाधित करने के लिए  सशक्त हैं| कई मामलों में राजीनामा करते समय या अन्यथा सरकारें या उनकी एजेंसियां न्यायालय में नहीं जाने के लिए नागरिकों से लिखित अंडरटेकिंग ले लेती हैं और सरकार का पक्षपोषण करने वाले माननीय न्यायालय उन विधि विरुद्ध अंडरटेकिंग दस्तावेजों को मान्यता भी दे देते हैं|] किसी भी व्यक्ति को सक्षम न्यायिक अधिकारी द्वारा वारंट जारी किये बिना जिसमें कि आरोपित व्यक्ति पर अपराध को बताया गया हो, व यदि उसे पकड़ा नहीं जाता, तो अपराध हो जाता, गिरफ्तार नहीं किया जायेगा| [भारत में तो पुलिस सर्वशक्तिमान है वह जब, जहां चाहे, जिसे किसी भी बनावटी आरोप में गिरफ्तार कर सकती है और न्यायालय में जाने पर भी ऐसे पुलिस अधिकारी का कुछ नहीं बिगडता है|]

Monday 17 October 2011

प्राकृतिक साक्षी

सुप्रीम कोर्ट ने रामगोपाल बनाम राजस्थान राज्य (एआईआर 1998 सुको 2598) में कहा है कि परिस्थिति एवं समय ऐसा था कि स्वतन्त्र साक्षी की उपस्थिति की अपेक्षा नहीं की जा सकती। घटना स्थल मृतक के निवास गृह के भीतर था तथा समय लगभग आधी रात्रि था। ऐसी परिस्थिति में घर के साथी ही घटना के सबसे प्राथमिक गवाह होंगे। इसलिए ऐसी स्थिति में वे ही प्राकृतिक साक्षी है। ऐसी साक्ष्य को मात्र इसलिए नहीं नकारा जा सकता कि वे मृतक के सम्बन्धी है। दूसरा बिन्दु उठाया गया है कि चश्दीद गवाहों द्वारा साक्ष्य में दिये गये विवरण एफ.आई.आर. की मुख्य बातों से सुसंगत है। परीक्षण न्यायालय तथा उच्च न्यायालय ने ठीक ही इंगित किया है कि घटना के विवरणों का एफ.आई.आर. में उल्लेख न होना इस महत्वपूर्ण प्रलेख को नकारने के लिए पर्याप्त नहीं है।

Sunday 16 October 2011

क्या आपको मालूम है बिजली कहाँ से आती है?

मुझे तो नहीं मालूम बिजली कहाँ  से आती है| शायद इंजिनीयरों को भी नहीं! चलो अपने मंत्रीजी  से चलकर पूछते हैं| हमें प्रायः बिजली संकट से जूझना पडता है, चाहे हम गांव, ढाणी या महानगर में रह  रहे हों बिजली संकट सामान्य सी बात है और अब तो रोजमर्रा की बात हो गयी है, इसमें कुछ भी नया नहीं| बिजली न होने के लिए बहानों की एक लंबी सूची है जैसे किसी वर्ष बरसात कम हुई हो तो  बांधों में पानी नहीं है और संयोग से बरसात अच्छी हो गयी हो तो कोयला खानों में पानी भरने से कोयले की आपूर्ति बाधित है| राज्य में बिजली उत्पादन कम होना, अन्य राज्यों से महँगी बिजली खरीदने में असमर्थता आदि कुछेक बहाने और..... हैं| मैं ज्यादा बहाने नहीं जानता, आपको ज्यादा  जानकारी लेनी हो तो बिजली के किसी इंजिनीयर से जानकारी करें| शायद वे आपके ज्ञान कोष में वृद्धि कर आपको उपकृत कर सकें|

आपने ध्यान दिया होगा कि इसी  संकट काल में जब मंत्री जी का दौरा हो, चुनावों की मतगणना चल रही हो तो बिजली का उत्पादन अचानक बढ़ जाता है और आखिर बिजली आप तक पहुँच ही जाती है| इसी प्रकार गणतंत्र दिवस, स्वतंत्रता दिवस के दिन भी नेताजी के भाषण सुनाने बिजली अवश्य पहुँच जाती है, चाहे उपरोक्त संकट के सभी कारक एक साथ मौजूद हों| क्रिकेट मैच, दीपावली पर तो मंत्रीजी की विशेष कृपा होती ही है| बजट के दिन भी बिजली आपकी सेवा में उपस्थित रहती है| अब आपको ज्ञात हो गया होगा कि बिजली संकट के विषय में आपका नेतृत्व आपको कितना गुमराह करता है और जब स्वयं नेतृत्व को आवश्यकता हो अथवा क्रिकेट मैच के दिनों में होहल्ला व धरने प्रदर्शन  होने का भय हो तो आपूर्ति सुचारू रहती है| दर असल हमने यह गुण अंग्रेजों से विरासत में लिया है| वे लोग विरोध प्रदर्शन के बिना समझते नहीं थे| हमारा वर्तमान नेतृत्व भी शायद ज्यादा नहीं तो उतना ही संवेदनहीन है और जब तक उसे शांति भंग का अंदेशा नहीं हो तब तक वह जागृत नहीं होता चाहे आप उसके लिए धरने प्रदर्शन की चेतावनी देते रहें या ज्ञापन देते रहें| शांतिपूर्ण प्रदर्शन से हमारे नेतृत्व की कुम्भकर्णी नींद नहीं उड़ती है| आज भी हमारी अपनी चुनी गयी लोकप्रिय सरकारें  शांतिपूर्ण प्रदर्शन पर ध्यान देने की बजाय हम पर ही आधी रात  लाठियां बरसाकर या प्रदर्शनकारियों का अपहरण कर आंदोलन को कुचलने में अंग्रेजी हुकूमत से किसी भी तरह पीछे नहीं रहना चाहती है| जी हाँ यह एक मात्र क्षेत्र  अंग्रेजी हुकूमत से सदैव आगे रहने के लिए हमने चुना है! आप देखते जायं हम कितनी प्रगति करते हैं  और कितना आगे निकलते हैं| बाद में मिलेंगे, जय रामजी की ! अजी आप इसे कहीं सांप्रदायिक तो नहीं समझ बैठे! हमें तो इस देश में सिर्फ धर्म निरपेक्ष नागरिकों  की आवश्यकता है|

Saturday 15 October 2011

शक्ति न्यायिकतः प्रयोग की जानी चाहिए

सुप्रीम कोर्ट ने ऐशोसियेट सीमेन्ट कं. बनाम केशवानन्द (1998 एआईआर 596) में स्पष्ट किया है कि यदि परिवादी उपस्थित न हो तो न्यायालय अभियुक्त को दोषमुक्त कर सकता है किन्तु यह शक्ति न्यायिकतः प्रयोग की जानी चाहिए। अर्थात् न्याय प्रशासन को प्रभावित किये बिना और यदि परिवादी की उपस्थिति उसी दिन आवश्यक न हो तो मात्र इसी आधार पर परिवाद को निरस्त करना ठीक नहीं है।

Friday 14 October 2011

न्यायालयों की बाध्यता

सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र राज्य बनाम जुगमन्दर लाल (एआईआर 1966 सुको 940) में कहा है कि कारावास तथा अर्थदण्ड से दण्डनीय होगाका अर्थ है कि न्यायालय दोनो दण्ड कारावास तथा अर्थदण्ड देने के लिए बाध्य है और दण्डनीय का अर्थ दण्डित किया जावेगा से भिन्न नहीं है जो कि दोनों  स्थितियों  में बाध्यकारी है।

Thursday 13 October 2011

नृशंसता और दण्ड

सुप्रीम कोर्ट ने रामसिंह बनाम सोनिया के निर्णय दिनांक 15.02.07 में कहा है कि कृत्य की नृशंसता इतनी क्रूर है कि असहाय लोगों की किस प्रकार दुष्टतापूर्वक हत्या की गई यह तथ्य इस बात का द्योतक है कि यह सबसे क्रूरतम कृत्य था और दोनों अभियुक्तों में भी मौलिक मानवता का अभाव था तथा मानस इस प्रकार सैट था कि उसमें सुधार की कोई गुंजाईश नहीं रह गयी। यदि यह कृत्य भी झकझोरने वाला या हृदय विदारक नहीं था तो यह समझ से बाहर है कि फिर कौन सा दूसरा कृत्य ऐसा माना जा सकता है।

Wednesday 12 October 2011

परिस्थितिजन्य साक्ष्य

परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर आधारित मामले की स्थिति में  यह सुनिश्चित कानून है कि परिस्थितियां जिन पर दोषी होने का निष्कर्ष आधारित है पूर्णतया साबित होना चाहिए और ऐसी परिस्थितियां अंतिम प्रकृति की होनी चाहिए। सभी परिस्थितियां पूर्ण होनी चाहिए तथा साक्ष्यों की श्रृंखला में अन्तराल नहीं होना चाहिए। आगे यह कि साबित परिस्थितियां दोषी होने की कल्पना से सुसंगत होनी चाहिए तथा निर्दोषिता से पूर्णतया असंगत होनी चाहिए।

Tuesday 11 October 2011

न्याय की अपेक्षा : अपराधियों के साथ सख्ती हो – एक अमेरिकी दृष्टान्त

संयुक्त राज्य अमेरिका के (आठवें सर्किट) अपील न्यायालय ने संयुक्त राज्य अमेरिका बनाम माईकल एंजिलो बर्मियो द्वारा दिनांक 16.06.11 को दायर अपील के निर्णय दिनांक 30.09.11 में कहा है कि  फरवरी 2009 में एक 15 वर्षीय बालिका जे. ने  स्कूल के अधिकारियों को सूचित किया कि उसके साथ माईकल बर्मियो, जो कि स्काउट टुकड़ी का नेता होते हुए वर्ष 2007 की गर्मियों में उसके परिवार के साथ रहा था, द्वारा ब्लात्संग किया गया है| अनुसंधान में बर्मियो के मोबाइल व कंप्यूटर  पर जे. व उसकी 13 वर्षीय बहिन के कामुक चित्र और एक वयस्क पुरुष के साथ जे. के अश्लील चित्रों का विडियो पाए गए|
 {यहाँ उल्लेखनीय है कि एक बालिका द्वारा अपने स्कूल प्रशासन को सूचित करने मात्र से मामला शुरू हो गया और आजीवन कारावास की सजा मिल गयी जबकि भारत में तो स्थिति यह है कि ऐसी सूचना देने पर  पुलिस तो दूर मजिस्ट्रेट भी कार्यवाही में आनाकानी करते हैं| अन्य विशेषता यह प्रकट होती है कि वहाँ के न्यायालय मामला दायर एवं निर्णय होने दोनों की तिथियाँ शीर्षक पर ही दे देते हैं जिससे प्रथम दृष्टया ही मामले में लगा समय ज्ञात हो जाता है व पारदर्शिता बनी रहती है जबकि भारत में तो पारदर्शिता से सर्वाधिक परहेज तो न्यायपालिका को ही है| उपभोक्ता संरक्षण कानून में स्पष्ट प्रावधान है कि मामले के निर्णय में दायर एवं निर्णय की तिथि सूचित की जायेगी किन्तु व्यवहार में ऐसा नहीं किया जा रहा है| अमेरिकन मामले का अन्य सुखद पहलू यह है कि इतने गंभीर मामले में भी अपील में निर्णय लगभग मात्र 105 दिन में हो गया जिसकी भारत में कल्पना ही नहीं की जा सकती क्योंकि यहाँ तो नोटिस की तामील के लिए प्रथम पेशी में ही 90 दिन से भी अधिक समय देने में भारत की न्यायपालिका को कोई संकोच नहीं होता है|}
 मामले में आगे अनुसंधानकर्ताओं को ज्ञात हुआ कि बर्मियो ने जे. के साथ वर्ष 2007 के अंत से कामुक दुर्व्यवहार व प्रकृति  विरुद्ध अपराध किया|  बर्मियो ने आरोप स्वीकार कर लिए और उस पर बाल अश्लील चित्रण के सात अभियोग लगाये गए थे| बर्मियो की गिरफ़्तारी के बाद उसकी स्वयं की 12 वर्षीय पुत्री ओ. ने भी सूचित किया कि उसने उसका (पुत्री का) भी छः वर्षों से नियमित रूप से, कामुक व प्रकृति  विरुद्ध अपराध सहित, शोषण किया और जब बर्मियो ने जे. के साथ संसर्ग किया तब वह उपस्थित थीं|

प्रकरण में निचले विचारण (जिला) न्यायालय ने अवयस्कों के साथ बारम्बार और खतरनाक कामुक अपराधों के लिए आजीवान कारावास से दण्डित किया था| बर्मियो ने अपराध स्वीकार कर लिया किन्तु उसका तर्क था कि उसने अश्लील चित्रों को आगे प्रसारित नहीं किया अतः उसने परामर्शी दिशानिर्देशों (जो कि न्यायालय पर बाध्यकारी नहीं हैं) में इस अपराध के लिए विहित न्यूनतम 262 माह के कारावास की प्रार्थना की और दूसरी ओर सरकार ने अधिकतम 327 माह के कारावास की प्रार्थना की किन्तु अनुसंधान पक्ष ने एकाधिक पीड़ित व्यक्तियों का फार्मूला सुझाया और आजीवन कारावास की अनुशंसा की|
{भारत में न्यायपालिका के लिए विवेकाधिकार का स्वछन्द मैदान उपलब्ध है| यहाँ अधिकांश अपराधों में अधिकतम दण्ड की सीमाएं दी गयी हैं और न्यूनतम दण्ड निर्धारित न होने से, अपवित्र करणों से कानून की व्याख्याएं प्रायः अभियुक्तों के पक्ष में ही की जाती हैं| जहाँ कहीं न्यूनतम और अधिकतम सीमाएं हैं उनके मध्य अंतर भी काफी लंबा है अतः वे सीमाएं ही बेमानी हो जाती हैं| उक्त प्रकरण में  न्यूनतम और अधिकतम दण्ड अवधि के बीच अंतर कम यानि 20% ही है जबकि भारत में यह अंतर 90% तक पाया जाता है|
भारतीय दण्ड संहिता की धारा 55 के  अनुसार  भारत में आजीवन कारावास की प्रभावी अवधि 14 वर्ष मात्र है जबकि अमेरिका में यह अवधि 30 वर्ष निर्धारित है| अमेरिका में अभियोजन पक्ष -सरकार के अतिरिक्त अनुसन्धान एजेंसी एवं पीड़ित पक्षकार की स्वतंत्र भूमिकाएं हैं व न्यायालय अभियोजन की मांग से भी अधिक दण्ड दे सकता है| भारत में परम्परा यह है कि एक से अधिक अपराधों की स्थिति में अधिकतम दण्ड वाले अपराध की सीमा तक दण्ड देकर न्यायालय अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं और आदेश में यह उल्लेख कर दिया जाता है कि  सभी सजाएं साथ-साथ चलेंगी जबकि उक्त अमेरिकी मामले में ऐसा नहीं करके बलात्संग के लिए निर्दिष्ट अधिकतम 327 माह के दण्ड से भी कठोर किन्तु अधिकतम 360 माह का दण्ड  दिया गया है| अन्य उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि अमेरिका में (यु एस कोड धारा 920) कामुकता से संबंधित दुराचार व यौन हिंसा की सूची पर्याप्त लंबी व व्यापक है और अभद्र प्रदर्शन भी इस श्रेणी के अपराधों में आता है| इस प्रकार हमारी विधायिकाएं एवं न्यायपालिका दोनों ही अपराधियों के लिए ज्यादा अनुकूल हैं|

अमेरिकी व्यवस्था के संबंध में अन्य महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि भारत में अधिकांश मामलों में न्यूनतम दण्ड सीमा न होने, कुछेक मामलों में न्यूनतम व अधिकतम सीमाओं में भारी अंतर होने और दण्ड के लिए स्पष्ट दिशानिर्देशों के अभाव  में मनमानेपन को बढ़ावा मिलता है| इसके ठीक विपरीत अमेरिका एवं इंग्लैंड में दण्ड परिषद कार्यरत हैं जो कि  दण्ड के लिए दिशानिर्देश निर्धारित करती हैं यद्यपि ये निर्देश न्यायालयों पर बाध्यकारी नहीं हैं किन्तु सामान्यतया  इनका अनुसरण किया जाता है और विशेष परिस्थितियों व कारणों से ही न्यायालय इन दिशानिर्देशों से भिन्न सजा देते हैं|}
अपराध की गंभीरता को देखते हुए पीडिता जे. और उसका परिवार आजीवन कारावास के पक्ष में थे क्योंकि अन्य बच्चों को बोर्मियो से बचाने का यही एक मात्र रास्ता था| तदनुसार जिला न्यायालय ने उसे 360 माह के कारावास से दण्डित किया था| अपील में बोर्मियो की आपति यह रही कि जिला न्यायालय ने दण्डित करने में विवेकाधिकार का दुरूपयोग किया है|
अपीलीय न्यायालय ने आगे विवेचना करते हुए कहा  कि एक न्यायाधीश द्वारा विवेकाधिकार का दुरूपयोग तब कहा जाता है जब वह ऐसे सम्बंधित तथ्य का विचारण नहीं करता जो महत्वपूर्ण हो, अथवा  असंबंधित या अनुचित तथ्य को महत्त्व दिया हो या महत्त्वपूर्ण तथ्यों को उचित महत्त्व देने में स्पष्ट गलती की हो| दण्ड देते समय विचारण न्यायालय ने दोनों पक्षों द्वारा प्रस्तुत समस्त सामग्री एवं तर्कों पर ध्यान दिया है| न्यायालय ने यह भी पाया कि उसने बोर्मियो के अपराध की गंभीरता और उससे समाज को उत्पन्न भयंकर खतरे का भी मूल्यांकन किया है| न्यायालय ने कहा कि आखिर हिंसा का चक्र कहीं रुकना चाहिए था किन्तु बोर्मियो तुमने तो तीन शिकार/पीडितों का शोषण किया है| बोर्मियो का यह तर्क था कि उसने अश्लील चित्रों का आगे वितरण नहीं किया अतः उसके साथ नरमी बरती जानी चाहिए किन्तु न्यायालय का यह दृष्टिकोण था कि इस बात की पूर्ति तो इस अपराध की गंभीरता व इस अति ने कर दी है कि पीडितों को हुई  क्षति की कभी भी पूर्ति नहीं हो सकेगी| यह एक उपयुक्त मामला है जहाँ अधिकतम दण्ड देना बोर्मियो जैसे अपराधी के लिए उपयुक्त है| न्यायालय नहीं समझता कि इससे कम दण्ड देने से जनता सुरक्षित रह सकेगी अथवा वास्तव में इस असाधारण र्रोप से गंभीर अपराध के लिए कोई अन्य दण्ड पर्याप्त हो सकेगा| पीडितों  के साथ संबंधों का जिस प्रकार बोर्मियो ने नाजायज लाभ उठाया वह समाज के सामने भयावह दृश्य प्रस्तुत करता है और उसी अपराध की बारम्बरता को देखते हुए दण्ड पूर्णतः न्यायोचित और न्यायालय की शक्ति के भीतर है| इस प्रकार न्यायालय द्वारा विवेकाधिकार का कोई दुरूपयोग नहीं हुआ है और तदनुसार अपील ख़ारिज कर अधीनस्थ न्यायालय के दण्ड आदेश की पुष्टि कर दी गयी|