Thursday 29 September 2011

लोकतंत्र में बहुरूपिये

हमारी लोकप्रिय सरकारें वोट की राजनीति के लिए एक ओर बेरोजगारी भत्ता देने, नरेगा जैसी (वस्तुतः अनुत्पादक) योजनाएं प्रारम्भ करने का (खोखला) दम भरती हैं वहीँ दूसरी ओर बेरोजगारी का मात्र उपहास ही नहीं कर रही हैं अपितु बेरोजगार युवा शक्ति का शोषण भी कर रही हैं| कल्याणकारी सरकार को सेवायोजन परीक्षा हेतु कोई शुल्क नहीं लेना चाहिए अपितु समस्त सार्वजनिक सेवायोजन की परीक्षाएं निःशुल्क होनी चाहिए| व्यवहार में देखा गया है कि देश में व्याप्त शिक्षित बेरोजगारी का हमारी सरकारें अनुचित लाभ उठा रही हैं| समाज के विकास से वास्तव में सरोकार रखने वाली कल्याणकारी सरकारें यदि परीक्षा के लिए कोई शुल्क निर्धारित भी करती हैं तो वह न्यूनतम होना चाहिए और यह शुल्क राशि परीक्षा के लिए आवश्यक खर्च की पूर्ति से अधिक नहीं  होनी चाहिए| जबकि इन परीक्षाओं के लिये सरकारों द्वारा भारी शुल्क वसूला जाता है और इस शुल्क में से भारी अपव्यय या बचत की जाती है| हाल ही में राजस्थान राज्य में आयोजित पटवार भर्ती परीक्षा इसका उत्कृष्ट नमूना है जिसमें तीस करोड रुपये से अधिक शुल्क संग्रहित हुआ और इस पर वास्तविक व्यय इस राशि का दस प्रतिशत भी नहीं था| यह और कि इस राशि का संग्रहण छः माह पूर्व प्रारम्भ हुआ था व इस संचित राशि पर ब्याज की गणना की जाये तो वह राशि भी करोड़ों में पहुँच जायेगी|

किन्तु व्यापारी प्रकृति की सरकारों ने भी निजी उद्यमियों की तर्ज पर बेरोजगारी का दोहन प्रारंभ कर रखा है और वे उसका भरपूर लाभ उठा रही हैं व सेवायोजन परीक्षाओं को एक लाभकारी व्यवसाय की तरह संचालित कर रही हैं| उक्त के अतिरिक्त इन सार्वजनिक परीक्षाओं में एक क्रूर व मनमानी शर्त और थोपी जाती है कि परीक्षा फार्म में गलती पाए जाने पर अथवा अन्यथा अपात्र होने पर शुल्क वापस नहीं किया जायेगा| इस प्रसंग में उल्लेखनीय है कि शुल्क की अदायगी  परीक्षा में बैठने के लिए की जाती है न कि कोई दण्ड के रूप में और यदि परीक्षार्थी को परीक्षा में नहीं बैठाया जाता है तो उसका शुल्क सामान्य प्रशासनिक शुल्क, यदि कोई हो तो, काटकर  वापिस लौटाया जाना चाहिए| लोकतान्त्रिक एवं कल्याणकारी सरकार को ऐसा शुल्क जब्त करने का कोई कानूनी अधिकार नहीं है| इस हेतु परीक्षा फार्म में ही यह व्यवस्था होनी चाहिए कि अभ्यर्थी को शुल्क वापिसी की अवस्था में नाम सहित इन्टरनेट सुविधायुक्त बैंक खाता संख्या पूछी जानी चाहिए और आवश्यकता होने पर यह राशि प्रशासनिक शुल्क काटकर इस खाते में जमा कर दी जानी चाहिए|

परीक्षा शुल्क की पर्याप्तता एवं औचित्य के विषय में भी एक उदाहरण स्मरणीय है| हाल ही तक जिला स्तरीय परीक्षा संचालन समिति द्वारा कक्षा आठ के छः विषयों की परीक्षा के लिए छात्रों से पचीस रुपये प्रति छात्र शुल्क वसूला जाता था और कई वर्षों तक इस परीक्षा संचालन का आर्थिक परिणाम यह रहा कि इन समितियों के पास करोड़ों रुपये का अधिशेष बच गया| इससे यह भी स्पष्ट है कि प्रति प्रत्याशी नाममात्र के वास्तविक व्यय पर प्रतियोगी परीक्षाएं ली जा सकती हैं यदि एजेंसी का उद्देश्य मितव्ययता से काम चलाना, और लाभ कमाना नहीं हो| उक्त विवेचन से जनता द्वारा चुनी गयी सरकारों का दोहरा चरित्र उजागर होता है  व यह मत पुष्ट होता है कि तथाकथित लोकतान्त्रिक सरकारें भी नौकरशाही के मजबूत शिकंजे में ही छटपटा रही  हैं और भारत में वास्तविक लोकतंत्र की स्थापना के लिए और सघन प्रयासों की आवश्यकता है|

विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए हाल ही में यद्यपि ऑनलाइन फार्म भरना प्रारम्भ कर दिया गया किन्तु फिर भी पुष्टि में प्रिंट आउट की मांग की जाती  है और इसके साथ समस्त दस्तावेजों की अनुचित मांग भी की जाती  है| वास्तविकता तो यह है कि इन दस्तावेजों की प्रायोजक एजेंसी द्वारा कोई जांच नहीं की जाती है| ऐसी स्थिति  में प्रत्याशियों को दस्तावेजों के व्ययभार से अनावश्यक जेरबार करने और पर्यावरण को असंतुलित करने के अतिरिक्त यह औपचारिकता कोई महत्त्व नहीं रखती है| देश में राष्ट्रीयकृत बैंकों द्वारा भर्ती में ऑनलाइन फार्म भरने और शुल्क जमा करने के अतिरिक्त कोई दस्तावेज नहीं माँगा जाता है व यह प्रक्रिया बैंकिंग उद्योग में सफलता पूर्वक चल रही है| जहाँ रिक्तियां कुछ हजारों या सैंकडों में ही हों वहाँ लाखों परीक्षार्थियों से दस्तावेज लेने का कोई औचित्य नहीं रह जाता है| मात्र लिखित परीक्षा उत्तीर्ण करने वाले परीक्षार्थी से ही साक्षात्कार या नियुक्ति के समय दस्तावेजों की अपेक्षा की जानी चाहिए ताकि कागजों का अनावश्यक ढेर इक्कठा न हो और परीक्षार्थी भी इस अनुचित औपचारिकता की पूर्ति से पीड़ित न हों| परीक्षार्थियों से इस बात की घोषणा ली जा सकती है कि उनके द्वारा दी गयी समस्त सूचनाएँ सही हैं और इसके आधार पर ही अग्रिम कार्यवाही की जा सकती है| कई बार काफी समय बाद पता चलता है कि प्रत्याशी जाली दस्तावेजों के आधार पर नौकरी लग गया| इसकी रोकथाम के लिए प्रत्याशी से प्राप्त दस्तावेजों का जारी करने वाले प्राधिकारी से गुप्त रूप से सत्यापन तुरंत किन्तु परिवीक्षा काल पूर्ण होने से पूर्व करवाया जाना चाहिए|

एक अन्य पहलू जो बेरोजगारी की  कोढ़ में खाज का काम कर रहा है वह यह है कि बेरोजगारी की बाढ़ को रोकने के लिए सरकारें योग्यता परीक्षण के नाम पर नित नयी प्रवेश परीक्षाओं के बाँध इजाद करती जा रही हैं| राज्य सरकारों में सेवायोजन का सबसे बड़ा स्रोत अध्यापन कार्य है और इस हेतु योग्यता परीक्षण के लिए पहले बी एड प्रवेश परीक्षा देनी पड़ती है व बी एड उत्तीर्ण के पश्चात अध्यापक पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण करनी पड़ती है| इन दोनों परीक्षाओं पर एक परीक्षार्थी को अन्य व्ययों के अतिरिक्त एक हज़ार रुपये अनुचित शुल्क अदा करना पडता है और उत्तीर्ण करने के बाद भर्ती परीक्षा का शुल्क अलग है| इस प्रकार कदम कदम पर प्रवेश एवं भर्ती परीक्षाओं में लिया जाने वाला शुल्क आजकल राज्य राजस्व का अहम स्रोत बनता जा रहा है| प्रत्याशियों को शिक्षा देने एवं उनकी योग्यता का परीक्षण करने के लिए विश्विद्यालय और बोर्ड कार्यरत हैं अतः हर चरण पर परीक्षाओं का जाल बिछाने का चक्रव्यूह प्रश्नास्पद हो जाता है| सरकार का इस प्रसंग में यह (कु)तर्क हो सकता है कि  इन शिक्षण संस्थाओं का कोई मानक स्तर नहीं होता अतः एक समान मानक तक पहुँचने के लिए परीक्षाओं की आवश्यकता रहती है| यह मानक तो मात्र एक भर्ती परीक्षा से ही बनाये रखा जा सकता है क्योंकि जो अभ्यर्थी योग्य नहीं हुआ वह इस परीक्षा या बी एड परीक्षा को उत्तीर्ण नहीं कर सकेगा और परिणामतः अयोग्य व्यक्ति सेवा में नहीं आ सकेगा| किन्तु सरकार के उक्त आचरण से यह लगता है कि या तो उसे इन प्रवेश, शैक्षणिक व भर्ती  परीक्षाओं- किसी  की भी विश्वसनीयता तथा मानक पर भी पूरा भरोसा नहीं है अन्यथा अयोग्य व्यक्ति के प्रविष्ट होने का अंदेशा मात्र एक परीक्षा से ही अपने आप दूर हो जाता| वैकल्पिक रूप से वह लोकतांत्रिक मूल्यों से भटक गयी प्रतीत होती है या इन परीक्षाओं का संचालन राजस्व हित को ध्यान रखकर कर रही है|

Wednesday 28 September 2011

न्यायिक कार्यवाही का अपदूषण

दिल्ली उच्च न्यायालय ने महन्त सुरेन्द्रनाथ बनाम भारत संघ (146 (2008 ( डीएलटी 438) में कहा है कि उपरोक्त विवरण से शपथ भंग के कानून का इतिहास रेखांकित होता है जो कि विवादकों पर आरोप लगाने के अभिप्राय से है जबकि कुछ शातिर मुकदमेंबाज न्यायालय में झूठ को काम में लेकर न्याय प्रदाय निकाय के स्रोत को दूषित करते हुए पाये जाते हैं।

Tuesday 27 September 2011

झूठ का ज्ञान होने पर ही मिथ्या शपथ दंडनीय है

दिल्ली उच्च न्यायालय ने बी.एस.ई.एस. राजधानी पावर लिमिटेड बनाम शिवीलाल के निर्णय दिनांक 20.10.08 में कहा है कि एक व्यक्ति को मिथ्या शपथ के लिए दोष सिद्ध नहीं किया जा सकता कि उसने उतावलेपन से या उपेक्षापूर्वक या तर्कसंगत पूछताछ के बिना तथ्य जिनका कि वह सही होना कहता है कहा यह साबित करना आवश्यक है कि उसने ऐसा कथन किया जिसे कि वह गलत होना जानता था या जिसके सही होने का विश्वास नहीं था। जिसे कि उसे शपथ भंग का दोषी सिद्ध किया जा सके। वर्तमान प्रकरण में अपीलार्थी का झूठा शपथ पत्र देने या ऐसी चीज को रिकॉर्ड पर लाना जो झूठी हो का कोई आशय नहीं था । शपथ पत्र दाखिल करते समय उन्हें पंजीकृत उपभोक्ता की मृत्यु का ज्ञान नहीं था। जैसे कि यह निरीक्षण में रिकॉर्ड की प्रविष्टि पर आधारित था और ऐसे रिकॉर्ड के आधार पर शपथ पत्र फाईल किये गये थे और मुझे एक मृत व्यक्ति के विरूद्ध में अपीलार्थी द्वारा झूठे शपथ पत्र फाईल किये जाने से कोई लाभ भी दिखाई नहीं देता।

Monday 26 September 2011

अमानत में खयानत का व्यापक दायरा

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने केदारनाथ बनाम राज्य (एआईआर 1965 इलाहा 233) में कहा है कि या तो प्रार्थी को ईंट भट्टा चलाने का अच्छा अनुभव था। ऐसी स्थिति में उसने अपनी स्थिति के अनुसार बुद्धिमता पूर्वक कार्य नहीं किया। यदि उसके पास विशेष ज्ञान नहीं था तो उसे अत्यधिक सावधानी और सतर्कता से कार्य करना चाहिए था। उसे देखना चाहिए था कि वह दी गई सलाह पर अतिरिक्त ध्यान दे। राम अध्याय शर्मा की बार-बार निरीक्षण टिप्पणियों से उसे चेतावनी गई थी और हुई हानि को टालने के लिए उपयुक्त सुझाव दिये गये थे। इस प्रकार उसे सही राय दी गई। किन्तु उसने उसकी अवमानना की। इस प्रकार प्रार्थी का आचरण सोचा विचार रहा। यह मात्र सद्विश्वास में निर्णयन में चूक नहीं थी अपितु उसकी अपेक्षा दण्डनीय थी। यदि यह  मान भी लिया जाय कि दुर्विनियोग किसी ओर ने किया तो भी प्रार्थी ने जान बूझकर उसे ऐसे करने दिया।

Sunday 25 September 2011

सिर्फ उचित ढंग की साक्ष्य ही स्वीकार्य

सुप्रीम कोर्ट ने (एआईआर 1998 सु.को. 201) में कहा है कि पदनामित न्यायालय के विद्वान न्यायाधीश  द्वारा कथित पत्रों के  किसी भाग को प्रयोग में लेना विशेष रूप से तब जब कि वे पत्र विधि को ज्ञात किसी भी प्रक्रिया द्वारा मामले में साक्ष्य की तरह प्रस्तुत किये गये थे अवैध था| किसी के द्वारा भी एक शपथ पत्र भी कम से कम औपचारिक रूप से उन पत्रों  को साक्ष्य में साबित करने के लिए प्रस्तुत नहीं किया गया था। यह सुस्थापित है कि अभियुक्त को जो कुछ साक्ष्य में नहीं था के बारे में प्रश्न करके टकराया नहीं जा सकता। संहिता की धारा 313 प्रश्न पूछने के लिए काम में लेने के आशयित  नहीं है। कोई भी अन्वीक्षण न्यायालय साक्ष्य के बाहर से कोई प्रलेख या कागज से अभियुक्त पर थप्पड़ की तरह चस्पा नहीं  सकता और उसे पक्ष या विपक्ष में जवाब देने के लिए बाध्य नहीं कर सकता। विद्वान न्यायाधीश  द्वारा कथित दो पत्रो को काम में लेने के लिए अपनायी गई प्रक्रिया कानून द्वारा अनुमत नहीं है। हम इसलिए उक्त तरीके को नामंजूर करते है और कथित पत्रों को बाहर करते हैं।

Saturday 24 September 2011

संस्वीकृति एवं आशय

सुप्रीम कोर्ट ने श्रवणसिंह बनाम पंजाब राज्य (1957 एआईआर 637) में कहा है कि यदि संस्वीकृति (कबूलियत) स्वैच्छा से की जाती है तो भी यह स्थापित होना चाहिए कि संस्वीकृति सही है और इस उद्देश्य के लिए संस्वीकृति की जांच करना और अभियोजन के शेष साक्ष्यों तथा मामलें की संभावनाओं से तुलना करना आवश्यक है।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने गुरूबक्षसिंह बनाम राज्य (1977 क्रि.ला.ज. 1226) में कहा है कि यह तय करने के लिए कि क्या आपराधिक इरादा अपराध का आवश्यक घटक है, यह पता लगाना आवश्यक है कि क्या अपराध में किसी मना किये गये कार्य को करना समाहित करता है या यदि किसी विशेष दशा में कोई कर्त्तव्य करने में असफल रहने से उठता है यदि कानून में किसी कार्य को करने की पूर्ण मनाही है तो उस अपराध का घटक आपराधिक इरादा नहीं होगा किन्तु जहां यह किसी निश्चित घटना की स्थिति में एक कर्तव्य अधिरोपित करता है तो आपराधिक इरादा साबित करना आवश्यक है।

Friday 23 September 2011

न्यायिक नियुक्तियां व न्याय प्रशासन

फ़्रांस में एक स्वशासी निकाय है जो न्यायिक नियुक्तियों की प्रक्रिया पर नियंत्रण रखती है| इस निकाय में न्यायिक नियुक्तियां के लिए 12 सदस्य हैं- जिनमें चुने गए न्यायाधीश, लोक अभियोजक, राज्यों के सलाहकार,  व अन्य व्यक्ति जिन्हें क्रमशः सीनेट, राष्ट्रीय सभा व राष्ट्रपति नामजद करते हैं| राष्ट्रपति एवं न्याय मंत्री इस निकाय के पदेन सदस्य होते हैं| इटली  में भी न्यायिक नियुक्तियों की प्रक्रिया पर नियंत्रण के लिए स्वशासी निकाय है| इस निकाय में न्यायिक नियुक्तियां के लिए 33 सदस्य हैं| न्यायपालिका द्वारा चुने गए 20 न्यायाधीश, 10 वकील या विश्वविद्यालयों के कानून के प्रोफ़ेसर  संसद नामजद करती हैं| राष्ट्रपति, सर्वोच्च न्यायलय के मुख्य न्यायाधीश  एवं महा अभियोजक इस निकाय के पदेन सदस्य होते हैं| स्पेन  की स्वशासी निकाय न्यायिक नियुक्तियों की प्रक्रिया पर नियंत्रण रखती है | इस निकाय में न्यायिक नियुक्तियां के लिए 21 सदस्य हैं| न्यायपालिका द्वारा चुने गए 12 न्यायाधीश, 8 वकील, जिन्हें 15 वर्ष से अधिक का अनुभव हो को, संसद नामजद करती हैं| सर्वोच्च न्यायलय के  मुख्य न्यायाधीश  निकाय के पदेन सदस्य होते हैं|  पुर्तगाल  में भी  स्वशासी निकाय है जो न्यायिक नियुक्तियों की प्रक्रिया पर नियंत्रण रखती है| इस निकाय में न्यायिक नियुक्तियां के लिए 17 सदस्य हैं| न्यायपालिका द्वारा चुने गए 7 न्यायाधीश व 7 गैर न्यायाधीशों को  संसद नामजद करती हैं| 1 गैर न्यायाधीश व 1  न्यायाधीश को  राष्ट्रपति नामजद करते हैं| सर्वोच्च न्यायलय के मुख्य न्यायाधीश  निकाय के पदेन सदस्य होते हैं|
  तुर्की गणराज्य में संवैधानिक न्यायालय के स्थानापन्न या नियमित न्यायाधीश के पद पर नियुक्त होने के लिए उच्च संस्थान में अध्यापक, वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी और वकील का चालीस वर्ष से अधिक उम्र का होना और उच्च शिक्षा पूर्ण करना  या उच्च  शिक्षण संसथान में न्यूनतम अध्यापन का पन्द्रह वर्ष का अनुभव आवश्यक है या न्यूनतम  पन्द्रह वर्ष वकील के रूप में प्रैक्टिस या लोक सेवा में होना आवश्यक है| न्यायाधीशों और  लोक अभियोजकों द्वारा  कानून के अनुसार कर्तव्य निष्पादन के सम्बन्ध में इस बात का अनुसन्धान कि क्या उन्होंने कर्तव्य निर्वहन में कोई अपराध किया है ,या उनका व्यवहार और प्रवृति उनकि हैसियत और कर्तव्यों के अनुरूप है व यदि आवश्यक हो तो उनसे सम्बंधित जाँच  और अनुसन्धान न्याय मंत्रालय की अनुमति से न्यायिक निरीक्षकों द्वारा की जायेगी| न्याय मंत्री किसी न्यायाधीश या लोक अभियोजक, जो जांच किये जाने वाले न्यायधीश या लोक अभियोजक से वरिष्ठ हो, से  जांच  की अपेक्षा कर सकेगा|



इंग्लैंड में न्यायिक नियुक्ति आयोग अलग से कार्यरत है जिसके सदस्यों में सेवारत न्यायधीशों की संख्या को लगातार घटाया जा रहा है| इस आयोग में सदस्यता के लिए सामुदायिक व लिंग अनुपात का ध्यान रखा जाता है | इंग्लैंड में न्यायपालिका पर नियंत्रण के लिए अलग से न्यायिक निरीक्षणालय है| वहाँ सुप्रीम कोर्ट का प्रशासनिक मुखिया लोर्ड चांसलर होता है जोकि मुख्य न्यायाधीश से भिन्न है और न्यायपालिका के सुचारू एवं दक्ष संचालन के लिए जिम्मेदार भी है| लोर्ड चांसलर के लिए विश्वविद्यालय में कानून का  अध्यापक, सांसद, वकील या प्रशासनिक अनुभव होना आवश्यक है| वहीँ अमेरिका में न्यायिक नियुक्तियां राष्ट्रपति द्वारा की जाती हैं और सीनेट  से उनका अनुमोदन करवाया जाता है| इन सब को देखते हुए भारतीय न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया विचित्र है| यहाँ संवैधानिक न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्तियों के लिए कोई विज्ञप्ति जारी नहीं की जाती है व न ही कोई लिखित परीक्षा ली जाती है अपितु गुप्त रूप से न्यायाधीशों द्वारा ही सरकार के माध्यम से कुछ नामों की सिफारिश की जाती है| सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अनुशंसा राष्ट्रपति पर बाध्यकारी है| व्यवहार में सत्तासीन राजनैतिक दल और न्यायाधीशों द्वारा मिलबांटकर इन पदों का बंटवारा किया जाता है ताकि एक दूसरे के लिए कोई रोड़ा न अटकाए| भारत में मात्र वकील ही न्यायाधीश हो सकते हैं| अतः भारत में बेंच व बार के बीच एक मजबूत किन्तु जनविरोधी गठबंधन कार्यरत है |
विश्व स्तरीय अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि न्यायिक नियुक्तियों के लिए स्वशासी निकाय बनाने से कार्यपालकों की भूमिका कम होकर यह शक्ति विधायिका या स्वयं न्यायपालिका में अंतरित हो जाति है| यह भी देखा गया कि अमेरिका, कनाडा और दक्षिण अफ्रीका में  स्वतंत्र न्यायिक नियुक्ति आयोग होने से आयोगों में जन विश्वास सामान्यतया ऊंचा है और उन्हें नियुक्ति के श्रेष्ठ तरीके के रूप में माना जाता है- उदाहरण के लिए वे चुनाव और कार्यपालकीय नियुक्तियों से ज्यादा उचित हैं| यह तथ्य इस बात से भी प्रमाणित होता है कि यद्यपि हाल ही के वर्षों में अमेरिका के कुछ राज्यों ने इस पद्धति को बदलने का प्रयास किया है किन्तु में जहाँ आयोगों द्वारा नियुक्ति का मार्ग अपनाया गया है  किसी अन्य तरीके की ओर परिवर्तित नहीं किया है|

Thursday 22 September 2011

सीमा पार के संविधान पर एक विहंगम दृष्टि

तुर्की के संविधान के अनुच्छेद 40 के अनुसार लोक पद धारण करने वाले व्यक्ति के अवैध कृत्यों से होने वाली हानि के लिए राज्य द्वारा पूर्ति की जाएगी| राज्य ऐसे अधिकारी के विरुद्ध अपना अधिकार सुरक्षित रखता है| भारत में ऐसे प्रावधान का नितांत अभाव है|  कानून में स्थापित व्यवस्था के अनुसार नागरिकों को मतदान और चुने जाने, व  राजनैतिक गतिविधियों या राजनैतिक पार्टी  में स्वतंत्रतापूर्वक संलग्न होने तथा रेफ्रेंडम में भाग लेने  का अधिकार है| भारत में ऐसे प्रावधान का नितांत अभाव है तथा मतदान का अधिकार एक सामान्य अधिकार है जिसके लिए कोई प्रभावी  उपचार कानून में उपलब्ध नहीं हैं | राजनैतिक वैमनस्य से या लापरवाही से मतदाताओं के नाम काटे जाना भारत में सामान्य सी घटना है |आस्ट्रेलिया जैसे देशों ने तो मताधिकार को मानवाधिकार के रूप में परिभाषित कर रखा है| तुर्की के संविधान के अनुसार  राजनैतिक पार्टियों की गतिविधियां, आतंरिक विनियम और क्रियाकलाप लोकतान्त्रिक  सिद्धांतों के अनुरूप होंगे| भारत में राजनैतिक पार्टियों के अपने विधान हैं जिनका देश के संविधान से कोई सरोकार नहीं है और उनमें अधिनायक वाद की बू आती है| यहाँ पार्टियां व्हिप जारी करके सदस्य को इच्छानुसार मतदान से रोक देती हैं | पार्टी सदस्य पार्टी के प्रतिनिधि अधिक व जनता के प्रतिनिधि कम होते हैं|
तुर्की के संविधान में नागरिकों और (पारस्परिकता के सिद्धांत पर) विदेशी निवासियों को सक्षम अधिकारी तथा टर्की की महाराष्ट्रीय सभा (संसद) को अपने या जनता से सम्बंधित प्रार्थना और शिकायतें लिखने का अधिकार है| स्वयं  से संबंधित आवेदन का परिणाम बिना विलम्ब के लिखित में सूचित किया जायेगा| भारत में यद्यपि ऐसी प्रक्रिय औपचारिक रूप में तो  विद्यमान है किन्तु सदनों के सचिवालयों ने इसे लगभग निष्क्रिय कर रखा है तथा व्यक्तिगत मामले इसके दायरे में नहीं आते हैं  व उनके निपटान की कोई समय सीमा निर्धारित नहीं होने से मनमानापन के अवसर अनंत रूप से खुले हैं| तुर्की के संविधान में चुनाव न्यायिक अंगों के सामान्य प्रशासन व पर्यवेक्षण में संपन्न होंगे| भारत में चुनावों के पर्यवेक्षण के लिए चुनाव आयोग जैसी संस्था अलग से कार्यरत है|
तुर्की के संविधान के अनुच्छेद 84 के अनुसार जो संसद सदस्य बिना अनुमति या कारण के एक माह में पांच बैठकों में उपस्थित होने में विफल रहता है उस स्थिति पर सदन का ब्यूरो बहुमत से निर्णय कर  सदस्यता निरस्त कर सकेगा|  भारत में ऐसे आवश्यक प्रावधान का नितांत अभाव है| संसद सदस्यों के वेतन, भत्ते और सेवानिवृति व्यवस्थाएं कानून द्वारा विनियमित की जाएँगी | सदस्य का मासिक वेतन वरिष्ठतम सिविल सेवक के वेतन से अधिक नहीं होगा व यात्रा भत्ता उस वेतन के आधे से अधिक नहीं होगा|  भारत में ऐसे स्पष्ट  प्रावधान का नितांत अभाव है और जन प्रतिनिधियों के वेतन भत्ते बढ़ाने के प्रस्ताव निर्बाध रूप से  सर्वसम्मति से ध्वनिमत से पारित किये जाते हैं| आगे अनुच्छेद 137 में कहा गया है कि लोक सेवा में रत कोई भी व्यक्ति, अपने पद और हैसियत पर बिना ध्यान दिए, यदि यह पाता है कि उसके वरिष्ठ द्वारा दिया गया कोई आदेश संविधान, या किन्ही उपनियमों, विनियमों, कानूनों  के प्रावधानों के विपरीत है तो उनकी अनुपालना नहीं करेगा, और ऐसे आदेश देने वाले अधिकारी को विसंगति के विषय में सूचित करेगा| फिर भी यदि उसका वरिष्ठ यदि आदेश पर बल देता है व उसका लिखित में नवीनीकरण  करता है तो उसके आदेश की पालना की जायेगी किन्तु ऐसी स्थिति में आदेश की अनुपालना करने वाला जिम्मेवार नहीं ठहराया जायेगा| भारत में ऐसे प्रावधान का नितांत अभाव है| एक आदेश यदि अपने आप में अपराध का गठन करता है तो किसी भी सूरत में उसकी अनुपालना नहीं की जायेगी, ऐसे आदेश की अनुपालना करने वाला अपने दायित्व से मुक्त नहीं होगा|

तुर्की के संविधान के अनुच्छेद 138 के अनुसार विधायी व कार्यपालक अंग तथा प्रशासन, न्यायालयों के निर्णयों का अनुपालन करेंगे; ये अंग  और प्रशासन उनमें किसी प्रकार का कोई परिवर्तन नहीं करेंगे और न ही उनकी पालना में कोई विलम्ब करेंगे| भारत में ऐसे  प्रावधान का नितांत अभाव है व स्वयं न्यायालय के कार्मिक भी  किसी न किसी बहाने से पालना से परहेज करते रहते हैं और न्याय प्रशासन मूक दर्शक बना रहता है| आगे  के अनुच्छेदों में कहा गया है कि समस्त न्यायलयों के निर्णय औचित्य के विवरण  के साथ लिखित में होंगे| भारत में ऐसे आवश्यक प्रावधान का नितांत अभाव है| न्यायपालिका  दायित्व है कि वह परीक्षण यथा संभव शीघ्र और न्यूनतम लगत पर पूर्ण करेंगे| भारत में ऐसे आवश्यक प्रावधान का नितांत अभाव है| न्यायाधीशों और  लोक अभियोजकों के कानून के अनुसार कर्तव्य निष्पादन के सम्बन्ध में इस बात का अनुसन्धान कि क्या उन्होंने कर्तव्य निर्वहन में कोई अपरध किया है, या उनका व्यवहार और प्रवृति उनकी  हैसियत और कर्तव्यों के अनुरूप है व यदि आवश्यक हो तो उनसे सम्बंधित जाँच  और अनुसन्धान न्याय मंत्रालय की अनुमति से न्यायिक निरीक्षकों द्वारा की जायेगी| न्याय मंत्री किसी न्यायाधीश या लोक अभियोजक, जो जांच किये जाने वाले न्यायधीश या लोक अभियोजक से वरिष्ठ हो, से  जांच की अपेक्षा कर सकेगा| भारत में ऐसे आवश्यक प्रावधान का नितांत अभाव है जिससे न्यायपालिका में भ्रष्टाचार की अमरबेल फलफूल रही है| आगे  के अनुच्छेदों में कहा गया है कि संवैधानिक न्यायालय के स्थानपन्न या नियमित न्यायाधीश के पद पर नियुक्त होने के लिए उच्च संस्थान में अध्यापक, वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी और वकील का चालीस वर्ष से अधिक उम्र का होना आवश्यक होगा और उच्च शिक्षा पूर्ण करना  या उच्च शिक्षण संसथान में न्यूनतम पन्द्रह वर्ष का अध्यापन का अनुभव आवश्यक है या न्यूनतम  पन्द्रह वर्ष वकील के रूप में प्रैक्टिस या लोक सेवा में होना आवश्यक है| भारत में ऐसे आवश्यक प्रावधान का नितांत अभाव है| इंग्लैंड में भी इसी प्रकार की योग्यताएं लोर्ड चांसलर के लिए बताई गयी हैं किन्तु भारत में तो न्यायिक पद मात्र वकीलों के लिए सुरक्षित करके भ्रष्टाचार के लिए मानो एक चरगाह ही सुरक्षित कर लिया गया है|
अब पाठकगण से मेरा सादर अनुरोध है कि वे निर्णय करें कि हमारा संविधान किस प्रकार बेहतर है या हमें अनावश्यक महिमा मंडन करने का  उन्माद है| यदि देश की आतंरिक न्याय व्यवस्था शक्तिहीन और अलोकतांत्रिक रही तो जन विश्वास डगमगा सकता है व हमारा अस्तित्व ही संदिग्ध हो जायेगा| मेरा विचार है कि अब समय आ गया है कि हमें न्यायिक सुधारों के लिए मात्र देशीय चिंतन पर ही निर्भर  नहीं रहना है अपितु सीमा पार के अनुभवों का भी लाभ उठाना है तभी विश्व व्यापार में शामिल भारत अपने सशक्त अस्तित्व को प्रमाणित कर सकेगा|


Wednesday 21 September 2011

बेहतर संविधान की तलाश में

हमारे नेतृत्व द्वारा भारतीय संविधान की भूरी भूरी प्रशंसा की जाती है और कहा जाता है कि हमारा संविधान विश्व के श्रेष्ठ संविधानों में से एक है| वास्तविकता क्या  है यह निर्णय पाठकों के विवेक पर छोडते हुए लेख है कि हमारा संविधान ब्रिटिश संसद के भारत सरकार अधिनयम,1935 के प्रावधानों से  काफी कुछ मेल खाता है| विश्व में तुर्की गणराज्य जैसे ऐसे छोटे देश भी हैं जिनके संविधान में वास्तव में जनतांत्रिक, सुन्दर और स्पष्ट  प्रावधानों का समावेश है जो हमारे संविधान में मौजूद नहीं हैं| यह भी स्मरणीय है कि तुर्की की प्रति व्यक्ति आय भारत से आठ गुणा है व विश्व में इस दृष्टि से तुर्की का स्थान 57 वां और भारत का स्थान 138 वां है|

तुर्की के संविधान की प्रस्तावना में कहा गया है कि यह संविधान अमर तुर्की राष्ट्र और मातृभूमि व तुर्की राज्य की  अविभाज्य एकता की पुष्टि करता है| इसमें तुर्की गणराज्य के अनंत अस्तित्व, समृद्धि और भौतिक व आध्यात्मिक कुशलता  की रक्षा करने, और विश्व राष्ट्र परिवार के समानता आधारित  सम्माननीय सदस्य के रूप में सभ्यता के समसामयिक मानक प्राप्त करने के लिए दृढ संकल्प समाविष्ट है |

समस्त तुर्की नागरिक राष्ट्रीय सम्मान और गौरव, राष्ट्रीय खुशी एवं दुखः में, राष्ट्रीय अस्तित्व के प्रति अपने अधिकारों व कर्तव्यों में, और प्रत्येक राष्ट्रीय जीवन में संगठित हों और उन्हें एक दूसरे के अधिकारों व स्वतंत्रता, आपसी प्रेम व साह्चर्यता  पर आधारित शांतिमय जीवन की मांग करने का अधिकार है और घर में शांति, विश्व में शांति में विश्वास करते और  चाहते हैं| एतदद्वारा तुर्की देश द्वारा यह संविधान उसके  जनतंत्र प्रेमी बेटों और बेटियों की  देशभक्ति और राष्ट्रीयता  को समर्पित किया जाता है| तुर्की  गणराज्य के संविधान के अनुच्छेद 10 में कहा गया है कि समस्त व्यक्ति कानून के समक्ष भाषा, जाति, रंग, लिंग, राजनैतिक विचार, दार्शनिक आस्था, धर्म, समुदाय या अन्य किसी आधार पर बिना भेदभाव के समान हैं| जबकि भारत में निवास स्थान के आधार पर नौकरियों में भेदभाव किया जाताहै और समानता का दायरा  भी व्यापक न होकर अत्यंत सीमित है|
तुर्की के संविधान में पुरुष और नारी के समान अधिकार हैं| राज्य का यह दायित्व है कि वह यह सुनिश्चित करे कि यह समानता व्यवहार में विद्यमान रहती है| किसी भी व्यक्ति, परिवार, समूह या वर्ग को कोई विशेषाधिकार नहीं दिया जायेगा| राज्य अंग और प्रशासनिक प्राधिकारी अपनी समस्त कार्यवाहियों में समानता के सिद्धांत का अनुसरण करेंगे| जबकि भारत में समानता  का ऐसा स्पष्ट  और व्यापक प्रावधान नहीं है| अनुच्छेद 11 में आगे कहा गया है कि इस संविधान के प्रावधान विधायिका, कार्यपालिका, और न्यायिक अंग तथा प्रशासनिक और अन्य संस्थाओं व व्यक्तियों पर बाध्यकारी मौलिक कानूनी नियम हैं| कानून संविधान के टकराव में नहीं होंगे| जबकि भारत में संवैधानिक कानून का ऐसा स्पष्ट  और व्यापक प्रावधान नहीं है|
तुर्की  के संविधान के अनुच्छेद 17 के अनुसार प्रत्येक को जीवन और सुरक्षा का अधिकार है व अपने  भौतिक और आध्यात्मिक विकास का अधिकार है| जबकि भारत में सुरक्षा के विषय में ऐसे  स्पष्ट  और व्यापक प्रावधान का अभाव है और आवश्यक होने पर पुलिस सुरक्षा भुगतान करने पर उपलब्ध करवाई जाती है| किसी को भी यातना या दुर्व्यवहार के अध्यधीन नहीं किया जायेगा , किसी को भी मानवोचित गरिमा से भिन्न दण्ड या व्यवहार से बर्ताव नहीं किया जायेगा| जबकि भारत में यातना  के विषय में किसी भी  प्रावधान का अभाव है और पुलिस द्वारा यातानाओं को भारतीय जीवन का आज एक सामान्य भाग कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगा|
तुर्की के संविधान के अनुच्छेद 19 में कहा गया है कि मात्र वे व्यक्ति जिनके विरुद्ध अपराध करने के पुख्ता प्रमाण हों को सिर्फ पलायन, या प्रमाणों का विनाश  रोकने, या प्रमाण के साथ छेड़छाड रोकने  मात्र  के उद्देश्य जैसी परिस्थितियों जो बंदी बनाना आवश्यक बनाती हैं और कानून द्वारा निर्धारित हैं, में न्यायधीश के निर्णय से ही गिरफ्तार किया जा सकेगा| जबकि भारत में गिरफ़्तारी  के विषय में किसी भी  अलग कानून  का अभाव है और पुलिस द्वारा किसी को कहीं भी कोई (मनगढंत) आरोप लगाकर गिरफ्तार किया जा सकता है| भारत में तो पुलिस ने नडीयाड में मजिस्ट्रेट को भी गिरफ्तार कर उसे जबरदस्ती शराब पिलाकर उसका सार्वजानिक जूलुस भी निकाल दिया था तो आम आदमी कि तो यहाँ औकात ही क्या है| तुर्की में न्यायाधीश के आदेश के बिना गिरफ़्तारी मात्र ऐसी परिस्थिति में ही की जायेगी जब किसी व्यक्ति को अपराध करते पकड़ा जाता है या विलम्ब करने से न्याय मार्ग में व्यवधान पहुंचना संभावित हो, ऐसी परिस्थितियां कानून द्वारा परिभाषित  जाएँगी| जबकि भारत में गिरफ़्तारी की आवश्यकता के विषय में संवैधानिक प्रावधान तो दूर किसी भी  अलग कानून में ऐसी परिस्थितियां के वर्णन का अभाव है|
तुर्की के संविधान के अनुच्छेद 26 के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपने विचारों व मत को भाषण द्वारा, लिखित में या चित्रों से या अन्य संचार माध्यमों से, व्यक्तिगत या सामूहिक रूप में  व्यक्त करने और प्रसारित करने का अधिकार है |इस अधिकार में बिना शासकीय हस्तक्षेप के सूचना व विचार  प्राप्त करना और देने का अधिकार समाहित है| तुर्की के संविधान में व्यक्तियों और राजनैतिक पार्टियों को, सार्वजानिक निगमों द्वारा रखी जाने वाली प्रेस को छोड़कर, संचार माध्यमों और संचार के साधनों को प्रयोग करने का अधिकार है| प्रत्येक व्यक्ति को बिना पूर्वानुमति के निशस्त्र और शांतिमय सभा व प्रदर्शन जुलूस अधिकार है| भारत में सभा, प्रदर्शन, जुलूस आदि के लिए पूर्वानुमति आवश्यक है पुलिस को उसके बावजूद भी रामलीला मैदान में रावणलीला खेलने का निर्बाध अधिकार है| मृत्युदण्ड  और सामान्य जब्ती को दण्ड  के रूप में लागू नहीं किया जायेगा| भारत में ऐसे प्रावधान का अभाव है|

Monday 19 September 2011

आपराधिक न्याय में मील का पत्थर

सुप्रीम कोर्ट ने शिवनन्दन पासवां बनाम बिहार राज्य के चर्चित प्रकरण (एआईआर 1987 सु.को. 787) में कहा है कि यह सुनिश्चित कानून है कि आपराधिक कार्यवाही किसी व्यक्तिगत शिकायत -कोई बदले की भावना से की गयी कार्यवाही नहीं है बल्कि यह अपराधी को समाज हित में दण्ड देने के लिए की गई कार्यवाही है। यह स्थिरता एवं समाज में व्यवस्था बनाये रखने के लिए की जाती है कि कुछ कृत्यों को अपराध माना जाता है और किसी भी नागरिक को आपराधिक कानून की मशीनरी को अपराधी को बुक करने के उद्देश्य से गतिमान करने का अधिकार दिया गया है। इसीलिए इस न्यायालय ने अब्दुल रहमान अंतुले के प्रकरण में कहा है कि समाज की भलाई के लिए अधिनियमित दण्ड कानून के पीछे उद्देश्य यह है कि अपराधी को समाज हित में दण्ड दिया जा सके ।कार्यवाही प्रारम्भ करने के अधिकार को मान्य स्थिति के किसी भी सूत्र में बांधा नहीं जा सकता। यह वह एक कार्यवाही को प्रारम्भ करने के लिए परिवादी हो सकता है वह समान रूप से आपराधिक अभियोजन जो कि उसके कथन पर प्रारम्भ किया गया है, के वापिस लिया जाने का विरोध करने का अधिकार है यदि अपराध जिसके लिए अभियोजन प्रारम्भ किया गया है। वह समाज के विरूद्ध है तथा किसी व्यक्ति विषेश के प्रति अनुचित नहीं है तो समाज का कोई भी सदस्य अभियोजन प्रारम्भ करने का अधिकारी है, ठीक इसी प्रकार अभियोजन वापिस लेने का विरोध करने का भी अधिकारी है।
ऐसे समय में जबकि नैतिक मूल्य तेजी से गिर रहे हों और सार्वजनिक जीवन में चरित्र का संकट दिखाई देता हो वर्तमान जैसे प्रकरण में जब लोक प्रशासन में स्वच्छता का प्रश्न हो तो इस न्यायालय को समाज के प्रति अपना कर्तव्य समझना चाहिए कि एक उच्च पदाधिकारी पर आपराधिक न्यास भंग या भ्रष्टाचार के आरोपण का अपराध संलिप्त हो अभियोजन गलत ढंग से वापिस की परीक्षा करे और यह ध्यान नहीं दिया जाना चाहिए की उच्च न्यायालय या निचले न्यायालय के कितने न्यायाधीश  इस प्रकार की वापिस लेने की सहमति के पक्षकार रहे हैं। यह न्याय का सुस्थापित सिद्धान्त है कि यदि अन्यथा न्यायोचित हो तथा पर्याप्त साक्ष्य पर आधारित हो तो आपराधिक अभियोजन मात्र दुर्भावना या राजनैतिक बदले की भावना - प्रथम सूचितकर्ता या परिवादी की- से आपराधिक कार्यवाही दूषित नहीं हो जाती है।
भारत में आपराधिक प्रक्रिया बिल्कुल मन्द एवं धीमी प्रवाही है और एक अभियोजन को अन्त तक पहुँचाने में ज्यादा समय लेती है और यदि यह आवश्यकता अधिरोपित कर दी जाय कि पूर्ववर्ती उच्च राजनैतिक पदाधिकारी के विरूद्ध पहले जांच आयोग स्थापित करने से पूर्व कोई अभियोजन प्रारम्भ नहीं किया जायेगा जो कि प्रथम दृष्टया  इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि अमुक व्यक्ति ने अमुक कृत्य किया है जो कि अपराध बनता है तो सम्पूर्ण आपराधिक प्रक्रिया उपहास बनकर रह जायेगी क्योंकि जांच आयोग वर्षों तक जारी रह सकते हैं और अभियोजन जांच रिपोर्ट के बाद प्रारम्भ होगा और पुनः साक्ष्य होगा तथा लम्बी बहस द्वारा प्रतिपरीक्षा के अधीन होगा।
जब एक संज्ञेय अपराध के होने की एफआईआर पुलिस में धारा 154 के तहत दर्ज की जाती है या मजिस्ट्रेट द्वारा धारा 155 में असंज्ञेय मामले में पुलिस को अनुसंधान का निर्देश  दिया जाता है तो पुलिस आरोपित अपराध के अन्वेषण के लिए बाध्य है। पुलिस अनुसंधान के विषय में शक्तियां तथा प्रक्रिया जो कि ऐसे अनुसंधान में प्रयुक्त की जानी है धारा 157 से 172 में दी गई है। धारा 173 (1) पुलिस पर अनुसंधान को अनावश्यक विलम्ब के बिना पूर्ण करने का दायित्व डालती है। इसलिए मजिस्ट्रेट को पुलिस के विवेकाधिकार पर नियंत्रण एवं निर्माण के लिए शक्ति दी गई है। इस प्रकार पुलिस द्वारा अभियोजन के विवेकाधिकार को सीमित एवं परिमित कर दिया गया है तथा अपील या पुनरीक्षण के अधीन मजिस्ट्रेट को इस प्रश्न का अंतिम विनिश्चायक है। आपराधिक न्याय का सामान्य पथ, किसी कार्यपालक द्वारा चाहे सरकार उस मामले को झूठा समझती हो अभियोजन शक्ति को अस्वीकार हो जो कि न्यायालयी न्याय को डूबाना चाहे, अन्य श्रेष्ठ या अश्रेष्ठ विचारण, अतिविश्वास से एक बार अभियोजन प्रारम्भ हो जाये सिवाय सार्वजनिक न्याय के उद्भूत मजबूत कारणों के इसका अनवरत पथ नहीं रूक सकता । लोक अभियोजक विस्तृत अर्थ में, न्यायालय का भी एक अधिकारी है और वह अपने उचित रूप से विचारित दृष्टिकोण से न्यायालय को लाभान्वित करने को बाध्य है और उसके उचित कार्याभ्यास का लाभ पाने का न्यायालय को अधिकार है। यह भी मूल्यांकित किया जाना चाहिए कि देश  में न्याय प्रशासन की योजना यह है कि गंभीर अपराधों जिन्हें संज्ञेय अपराध के रूप में वर्गीकृत किया गया है के अभियोजन का दायित्व कार्यपालक प्राधिकारियों पर है। एक बार जब किसी अपराध की सूचना नामित अधिकारी के पास पहुंचती है तो आवश्यक   साक्ष्य का संग्रहण सहित अनुसंधान और ऐसे साक्ष्य के संदर्भ में अपराध का अभियोजन कार्यपालक का कर्त्तव्य है। जब पूर्ण विचारण के पश्चात् न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुंचता  है और आरोप विरचित कर लेता है कि यह समझना कठिन है कि उसी विषय वस्तु के आधार पर उसी न्यायालय को किस प्रकार फुसलाया जा सकता है कि अभियोजन टिकने के लिए पर्याप्त साक्ष्य नहीं है। लोक अभियोजक को उसी विषय वस्तु के आधार पर परावर्तन की अनुमति कैसे दी जा सकती है। ऐसा करना न्याय का उपहास होगा और यह न्यायालय के न्याय प्रशासन की सत्यनिष्ठा एवं शुद्धता में विश्वास को डगमगा देगा। यह सार्वजनिक न्याय के हित में होगा कि उच्च राजनैतिक व्यक्ति अपराध के आरोपी न्यायिक प्रक्रिया का सामना  करें तथा बजाय कि न्यायिक निकाय का कोई जुगाड़ बनायें और इस प्रकार राजनैतिक के साथ-साथ न्यायिक प्रक्रिया को भी क्षति पहुंचाये और  दोषमुक्त हों 
न्यायालय आपराधिक न्याय प्रशासन में भागीदार तथा दायी है और इसी प्रकार लोक अभियोजक न्याय का मंत्री है। दोनों का कर्त्तव्य धारा 321 का कार्यपालकों द्वारा प्रयोग कर संभावित दुरूपयोग के विरूद्ध आपराधिक न्याय प्रशासन की रक्षा करना है ।
इस प्रकार वह (अभियोजक) एक विशेष तथा सुनिश्चित अर्थ में देश का दो उद्देश्य का सेवक है - दोषी  बच न पाये तथा निर्दोष पीड़ित न हो। वह वास्तव में लग्न तथा जोश से अभियोजन कर सकता है और उसे ऐसा करना चाहिए। लेकिन वह करारी चोट मार सकता है किन्तु वह गलत चोट नहीं मार सकता। अनुचित दोषसिद्धि अर्जित करने वाले दूषित तरीकों से परहेज करना उसका कर्त्तव्य है चूंकि न्यायपूर्ण के लिए प्रत्येक विधिपूर्ण तरीके को प्रयोग करना।

Sunday 18 September 2011

अपराध के प्रसंज्ञान के तरीके

सुप्रीम कोर्ट ने आर.आर. चारी बनाम उत्तर प्रदेश  राज्य (1951 एआईआर सु.को. 207) में स्पष्ट  किया है कि द.प्र.सं. की धारा 190 के शब्दों से स्पष्ट  है कि एक व्यक्ति के विरूद्ध कार्यवाही मजिस्टेªट द्वारा अपराध के प्रसंज्ञान से प्रारम्भ होती है, धारा में उल्लेखित तीन में से एक संभावना से प्रथम संभाव्यता व्यथित पक्षकार द्वारा दं.प्र.सं. में परिभाषित असंज्ञेय अपराध के सम्बन्ध में परिवाद से है।

Saturday 17 September 2011

अवमान कानून के प्राचीन मानक

प्रिवी कॉन्सिल ने एड्रूपाल बनाम एट्रोनी जनरल ऑफ ट्रिनीडाड (193638 बीओएमएलआर 681) में कहा है कि जहां तक कि एक न्यायाधीश  की व्यक्तिगत स्थिति तथा प्राधिकृति था न्याय के सम्यक प्रशासन  का प्रश्न  है। किसी न्याय के आसन द्वारा किये गये सार्वजनिक कार्य की जनता के सदस्यों द्वारा व्यक्तिगत या सार्वजनिक रूप से सद्विश्वास  में आलोचना करने का सामान्य अधिकार का प्रयोग करने पर कुछ भी गलत नहीं है। आलोचना का मार्ग जन रास्ता है, गलत मानस वाले वहां गलती करते हैं परन्तु जनता को न्याय प्रशासन में अनुचित उद्देश्यों  से दूर रहना चाहिए और उन्हें वास्तविक अर्थों में समालोचना के अधिकार का प्रयोग करना चाहिए और किसी दुर्भावना में या न्याय प्रशासन को अवरूद्ध करने के प्रयास में कार्य नहीं करना चाहिए। वे सुरक्षित हैं, न्यायिक कार्य कोई पवित्र वस्तु  नहीं है इसे समीक्षा का सामना करना चाहिए और यहां तक कि आम आदमी के बड़बोली टिप्पणियों को  भी न्यायाधीश  और न्यायालय समान रूप से आलोचना के लिए खुले हैं और यदि कोई तर्कसंगत बहस या प्रक्षेपण किसी न्यायिक कार्य के विरूद्ध प्रस्तुत किया जाता है कि यह विधि या जनहित विरूद्ध है तो कोई भी न्यायालय इसे न्यायालय का अवमान नहीं मान सकेगा।

Friday 16 September 2011

अवमान में मियाद बाधक नहीं है

सुप्रीम कोर्ट ने पल्लव सेठ बनाम कस्टोडियन के निर्णय दिनांक 10.08.01 में कहा है कि शब्द और शब्द समूह मानसिक संदर्भ को प्रेरित करने के प्रतीक हैं। एक कानून की व्याख्या करने का उद्देश्य उसे बनाने वाली विद्यायिका का आशय जानना है। विधायिका का प्राथमिक उद्देश्य  प्रयुक्त भाषा से लेना है जिसका अर्थ है कि जो कुछ कहा गया है वही नहीं अपितु जो कुछ नहीं कहा गया उसकी ओर भी ध्यान देना। हम विशेष  न्यायालय के निष्कर्षों की परीक्षा करना आवश्यक नहीं समझते कि यह सतत् गलती है या अवमान। इसलिए धारा 20 अवमान की कार्यवाही में अवरोध नहीं है। धारा 20 की व्याख्या जैसे कि अपीलार्थी ने की है जिससे कि न्यायालय की संवैधानिक शक्ति सकल अवमान के प्रकरण में कार्यवाही करने के लिए शून्य हो जायेगी और अवमानकारी द्वारा जालसाजी करके एक वर्ष तक छुपा कर धारा 20 को अनुच्छेद 129 तथा 215 के साथ टकराव में ठहराये जाने का दायी बना दिया गया। इस प्रकार की कठोर व्याख्या टाली जानी चाहिए। ये प्रावधान न्याय तथा समता के मौलिक प्रावधान रखते हैं अर्थात् एक पक्षकार को इस बात के लिए दण्डित नहीं किया जाना चाहिये कि वह कार्यवाही प्रारम्भ करने में असफल रहा क्योंकि आवश्यक तथ्यों को उससे छुपाया गया और एक पक्षकार जिसने जालसाजीपूर्वक कार्य किया हो उसके पक्ष में इस प्रकार की जालसाजी का मियाद  बीतने के कारण लाभ नहीं दिया जाना चाहिये।

Thursday 15 September 2011

स्टाफ की कमी के कारण न्याय में विलम्ब नहीं होना चाहिए

सुप्रीम कोर्ट ने एच. श्यामसुन्दर राव बनाम भारत संघ के निर्णय दिनांक 14.11.2006 में कहा है कि यहां तक कि यह मानते हुए भी कि प्रत्यर्थी द्वारा जबाब में मिथ्या कथन किये गये थे, याची को बहस के दौरान न्यायालय का ऐसे बिन्दुओं की ओर ध्यान आकृष्ट  करने की स्वतन्त्रता है या उपयुक्त कार्यवाही करने तथा न्यायालय यदि उचित एवं आवश्यक समझे तो उसे कार्यवाही करनी चाहिए।
राजस्थान उच्च न्यायालय ने ताहीर खान उर्फ शकील बनाम राजस्थान राज्य (आरएलडब्ल्यू 2009(4)राज. 2773) में कहा है कि उच्च न्यायालय में मामलों के निपटान में पर्याप्त विलम्ब के कई कारण हो सकते हैं किन्तु स्टाफ की कमी इसके लिए योगदान देने वाला कारण नहीं होना चाहिए।

Wednesday 14 September 2011

इतिहास के झरोखे से भारतीय न्याय तंत्र

हिंदी अपनाएँ राष्ट्र का मान बढ़ाएं ...!
भारतीय न्याय प्रणाली के विकास में  आदि काल से मनुस्मृति, मृछ्कटीकम का उल्लेख किया जा सकता है यद्यपि विधि व्यवसाय की वर्तमान शिक्षा में इनका कोई अध्ययन शामिल नहीं है| ये ग्रन्थ मात्र विधि के प्रामाणिक ग्रन्थ ही नहीं हैं अपितु नीति पर व्याख्याएं भी हैं| महाभारत को भी आदर्श नीति ग्रन्थ मना गया है और कहा गया है कि महाभारत पांचवां वेद है| कालांतर में मुस्लिम शासकों ने कुरान व हिदाया आदि पर आधारित मुस्लिम विधि को भारत में लागू किया| मुगलों के बाद देश में ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन स्थापित हो गया और उसने भारत के संसाधनों का अधिकाधिक दोहन  करने के अनुकूल कानून बनाये औए उनको इस देश की जनता पर थोपा गया| हमारी न्यायप्रणाली पर आज भी उर्दू व अंग्रेजी  भाषाओं का प्रभाव है| जिन न्यायालयों की भाषा अंग्रेजी नहीं है उनमें परिपाटी के आधार पर प्रायः उर्दू शब्दावली का प्रयोग होता है| यद्यपि इन न्यायालयों के कार्मिकों, न्यायाधीशों अथवा वकीलों किसी- ने भी उर्दू भाषा की शिक्षा नहीं ले रखी है|

सन 1857 में हुई क्रांति ने इस दिशा में परिवर्तन किया और देश के शासन की बागडोर को ब्रिटिश सरकार ने अपने हाथ में ले लिया व अब कानून बनाने का अधिकार ब्रिटिश संसद के पास था| भारत के लिए कानून बनाते समय विद्रोह की उठाने वाली आग  या स्वतंत्रता के पक्ष में उठने वाले प्रत्येक स्वर को दबाना लक्ष्य समक्ष रहता था| इन्हीं परिस्थितियों को ध्यान में रखकर लोर्ड मैकाले ने भारतीय दण्ड संहिता, 1860 का निर्माण किया जिसमें लोक सेवकों के अधिकारों की रक्षा के लिए कई विशेष प्रावधान शामिल किये गए| लोक सेवकों के विरुद्ध अपराध आदि विशेष अध्याय इसी कड़ी का एक भाग हैं| लोक सेवकों पर हमला आदि को अलग से परिभाषित किया गया और इन अधिकांश अपराधों को संज्ञेय घोषित किया गया| इसी प्रकार राज कार्य में बाधा जैसे अस्पष्ट किन्तु संज्ञेय अपराध भी इसमें शमिल कर पुलिस सहित समस्त लोक सेवकों की सुरक्षा की सुनिश्चित व्यवस्था की गयी| यही नहीं इन राजपुरुष-लोक सेवकों के अभियोजन से पूर्व स्वीकृति का प्रावधान जोड़कर उन्हें पूर्ण अभय दान दे दिया गया जो आज लोकतान्त्रिक व्यवस्था में भी बदस्तूर जारी है| आज विकसित राष्ट्रों में इस प्रकार के मनमाने कानूनों को कोई स्थान नहीं हैं और वहाँ लोक सेवकों के अधिकारों के बजाय उनके कर्तव्यों पर बल दिया जाताहै | हमारी शासन और न्याय व्यवस्था में आज भी राजतन्त्र की बू आती है और नागरिकों को आहूत करने के लिए पुलिस और अन्य राज्याधिकारी सुनिश्चित करने के स्थान पर पाबंद करें जैसे अनधिकृत शब्दों का प्रयोग करते हैं| वे सम्भवतया  भूल जाते हैं कि वे इस लोकतान्त्रिक  व्यवस्था के स्वामी न होकर सेवक ही हैं|

कालांतर में ब्रिटिश संसद ने भारत सरकार अधिनियम, 1935 पारित किया था जो कि मूलतः हमारे वर्तमान संविधान से मिलता जुलता ही है चाहे हम हमारे संविधान पर गर्व करते हों किन्तु वास्तिविक स्थिति यही है| यह अधिनयम भी हमारी सरकारी वेबसाइट पर उपलब्ध नहीं है| अब ब्रिटिश संसद ने भारत सरकार अधिनियम, 1935 को हाल ही दिनांक 19.11.1998 को निरस्त कर दिया है| इस प्रकार भारतीय स्वतंत्रता को मात्र एक सत्ता हस्तांतरण ही कहा जाय तो ज्यादा सही व उपयुक्त है| वर्तमान में देश में पांच शक्तिशाली तत्वों धनाढ्य वर्ग, बाहुबलियों, राजनेताओं, पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों तथा न्यायिक अधिकारियों का वर्चस्व है और इस लोक तंत्र में इन पांच समानांतर सरकारों के मध्य लोक का कोई स्वर सुनाई नहीं देता| आधी रात रामलीला  मैदान में आज भी प्रशासन के इशारे पर पुलिस रावणलीला खेल सकती है और न्यायालय भी उन खिलाडियों का अंततोगत्वा कुछ भी नहीं बिगाडेंगे| यद्यपि लोकप्रदर्शन के लिए यह न्यायिक अभ्यास कुछ समय के लिए जारी रह सकता है किन्तु इतिहास साक्षी है कि स्वतंत्र भारत में यद्यपि शक्तिसम्पन्न लोगों द्वारा अपराध के कई मामले प्रकाश में आये किन्तु मुश्किल से ही  किसी को कोई सजा हुई है| न्यायतंत्र से जुड़े लोग इस स्थिति के लिए विद्यमान  प्रक्रिया को व एक दूसरे को इसके लिए दोषी ठहराते रहते हैं और मिलीभगत की कुश्तियां इन दंगलों में चलती रहती हैं|

कालांतर में राजशाही के कारण आई इन विकृतियों को दूर करने के लिए आवश्यक है कि हम हमारी सांस्कृतिक विरासत को संभालें और मनुस्मृति, मृछ्कटीकम, महाभारत जैसे नीतिग्रंथों के  चुनिदां अंशों को विधि शिक्षा में शामिल करें| जो कानून एक नागरिक पर हमले पर लागू होता है वही कानून एक लोक सेवक पर हमले का भी उपचार प्रदान कर सकता है| देश में वास्तविक लोकतंत्र की स्थापना के लिए आवश्यक है कि राजतान्त्रिक शब्दावली और कानूनों का पूर्ण सफाया कर जनता के लिए अनुकूल कानूनों का निर्माण करें तथा समस्त  राजशाही कानूनों को (तुर्की की तरह) निरस्त कर उनके अवशेषों को समाप्त करें| हमारी आने वाली पीढ़ियों को यह सन्देश नहीं मिलना चाहिए कि हम 500 वर्षों तक मुगलों और अंग्रेजों के गुलाम रहे थे| लोकतंत्र मात्र तभी मजबूत बन सकेगा|

जय भारत !

जय भारत !