Monday 24 December 2012

बलात्कार की सजा क्या और कैसे ?


दिल्ली में चलती बस में सामूहिक बलात्कार की घटना के बाद उबाल खाई और अक्रोशित जनता सडक पर उतर आई है और जगह-जगह जनता भावावेश में आकर बलात्कारियों को मृत्यु दंड देने की मांग कर रही है| ऐसा नहीं है कि बलात्कार के विषय में यह आक्रोश पहली बार उभरा हो| पूर्व में भी इस जघन्य अपराध के विरोध में स्वर उठते रहे हैं किन्तु भावावेश से किसी निर्णायक बिंदु पर नहीं पहुंचा जा सकता है| दिल्ली हमारी राजनीति का केंद्र है और यहाँ हर गली में नेता बसते हैं| उल्लेखनीय है कि जिस दिल्ली की सड़कों पर घटना के बाद लाखों की तादाद में लोग उतरे उसी दिल्ली की सडक पर पीडिता दो घंटे तक खून से लथपथ हालत में पड़ी रही और पुलिस सहित  किसी भी राहगीर ने उसकी कोई सुध तक नहीं ली| समाज सेवा के नाम पर राजनीति करने वालों की संख्या यदि इसमें जोड़ दी जाये तो यह एक बहुत बड़ी जनसँख्या हो जायेगी| स्मरण रहे कि इस प्रकार की घटनाओं पर राजनैतिक रोटियां सेंकने के लिए पहले भी मृत्यु दंड के प्रावधान की मांग उठी थी किन्तु स्वयं महिला संगठनों ने ही इस प्रावधान का विरोध किया था| महिला संगठनों का यह विचार था कि यदि बलात्कारी को मृत्यु दंड दिया जाने लगा तो पर्याप्त संभव है कि वे पीड़ित महिला से दुष्कर्म के बाद उसकी ह्त्या ही कर देंगे| मानवाधिकारों की रक्षा के चलते आज विश्व में मृत्यु दंड को समाप्त करने की मांग उठ रही है और कई देशों ने अपने कानून में से मृत्यु दंड के प्रावधान को ही समाप्त कर दिया है| भारत में भी उच्चतम न्यायालय का यह विचार है कि मृत्यु दंड की सजा आपवादिक तौर पर और बिरले से बिरले मामलों में ही दी जाये| यहाँ तक कि सामूहिक हत्याओं के मामले में भी मृत्यु दंड नहीं दिया जाता बल्कि मृत्यु दंड तो उन बिरले मामलों में ही दिया जाता है जहां मृत्यु अत्यंत नृशंस तरीके से कारित की गयी हो| ऐसी स्थिति में यदि कानून की किताब में सैद्धांतिक तौर पर मृत्यु दंड का प्रावधान कर दिया गया तो भी वह उक्त कसौटी पर खरा नहीं उतरेगा और वास्तव में मृत्यु दंड किसी बलात्कारी को मिल पायेगा यह संदेहास्पद है| जहां पीड़ित महिला की ह्त्या ही कर दी गयी हो वहाँ तो स्पष्ट प्रमाण के अभाव में यह और कठिन हो जाएगा| कारावास का उद्देश्य दोषी में सुधार करना होता है जबकि मृत्यु दंड तब दिया जाता है जब उसमें सुधार की संभावनाएं समाप्त हो गयी हों| सजा देने हेतु न्यायालय के लिए मात्र अपराध की प्रकृति ही पर्याप्त नहीं है अपितु पीड़ित व अभियुक्त दोनों का पूर्ववर्ती चरित्र, अभियुक्त की उम्र, पश्चाताप आदि के साथ साथ साक्ष्य की प्रकृति भी विचारणीय होती है| 

हाल ही के वर्षों में देश के बलात्कार कानून में संशोधन किये गए हैं और आज इस अपराध के लिए अधिकतम सजा आजीवन कठोर कारावास व न्यूनतम सजा सात वर्ष है| मनोवैज्ञानिक और समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से सोचा जाये तो यह प्रावधान अपराध की रोकथाम के लिये पर्याप्त और उचित है यदि देश के पास वास्तव में कठोर कारावास के लिए व्यवस्था हो| क्योंकि कठोर कारावास में दोषी जीवन भर पीड़ित होता जबकि मृत्यु दंड में तो उसे क्षणिक पीड़ा ही होती है और उसकी मृत्यु का दुष्परिणाम, बिना किसी अपराध के, उसका परिवार जीवन भर के लिए भुगतता है| उच्चतम न्यायालय ने भी एडिगा बनाम आंध्र प्रदेश (1974 AIR 799) में कहा है कि देरी से दिए गए मृत्यु दंड की बजाय शीघ्र दिया गया आजीवन कारावास अधिक प्रभावी है|
 दूसरी ओर हम आये दिन सुनते हैं कि सरकारी जेल में प्रभावशाली लोगों को सभी सुविधाएं मुहैय्या करवाई जाती हैं तथा पेशेवर व खूंखार अपराधी जेल से ही अपराध जगत का संचालन करते हैं और चुनावों में जीतकर ये कानून तोडने वाले ही कानून बनाने वाले बन जाते हैं| यह भी सुना जाता है कि देश की जेलों में प्रभावशाली लोगों के स्थान पर अन्य (प्रोक्सी) जेल की सजा काटते हैं और वास्तविक दोषी बाहर स्वतंत्र विचरण करते रहते हैं| देश की सभी जेलों के हालत लगभग एक जैसे ही हैं अलबता जहां जेल प्रशासन अधिक सख्त दिखाई देता है वहाँ इस सख्ती को नरम बनाने के लिए अतिरिक्त कीमत अदा करनी पड़ सकती है| अत: ऐसी स्थिति में देश में प्रभावशाली लोगों के लिए तो कोई सजा है ही नहीं और जो अपने गरिमामयी गुजर बसर की व्यवस्था भी ठीक से करने में असमर्थ हैं उनके लिए सामान्य जीवन भी एक सजा बन जाता है| जबकि आज अमेरिका, इंग्लॅण्ड आदि देशों में प्राइवेट जेलें भी सफलता पूर्वक कार्य कर रही हैं| एक अन्य विचारणीय पहलू यह भी है कि भारत में आजीवन कारावास की प्रभावी अवधि प्राय: 14 वर्ष ही होती है व विभिन्न अपराधों के लिए भी दोषी पाए जाने पर किसी एक अपराध के लिए जो अधिकतम दंड निधारित हो वही दिया जाता है और सभी सजाएं एक साथ चलती हैं| जबकि अमेरिका में आजीवन कारावास की अवधि 30 वर्ष है और भिन्न भिन्न अपराधों की सजाएं अलग अलग चलती हैं व इनकी सम्मिलित अवधि आजीवन कारावास से भी अधिक हो सकती है|
मृत्यु दंड की सजा के पहलू का दूसरा भाग यह है कि निचले स्तर के मजिस्ट्रेट न्यायालयों में तो पैरवी हेतु अभियोजन सञ्चालन के लिए पूर्णकालिक स्थायी सहायक लोक अभियोजक नियुक्त होते हैं किन्तु सत्र न्यायालय, जहां बलात्कार के मामलों की सुनवाई होती है, में अभियोजन के सञ्चालन के लिए मात्र अंशकालिक और अस्थायी लोक अभियोजक नियुक्त किये जाते हैं| इन लोक अभियोजकों को नाम मात्र का पारिश्रमिक देकर उन्हें अपनी आजीविका के लिए अन्य साधनों से गुजारा करने के लिए खुला छोड़ दिया जाता है| वर्तमान में लोक अभियोजकों को लगभग सात हजार रुपये मासिक पारिश्रमिक दिया जा रहा है जबकि सहायक लोक अभियोजकों को पूर्ण वेतन लगभग तीस हजार रुपये दिया जा रहा है| यह अनुमान लगाना सहज है कि बलात्कार के मामलों में पैरवी कितनी ईमानदारी और निष्ठा से होती है| दंड का प्रावधान जितना कड़ा होगा, पुलिस और अभियोजन को अभियुक्त के साथ मोलभाव करने का उतना ही अच्छा अवसर उपलब्ध होगा और दोषी के दण्डित होने के अवसर घटते जायेंगे ऐसी संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता| देश की पुलिस ही वास्तव में सबसे बड़ी राजनेता और मनोवैज्ञानिक है| सरकार के दोनों पक्षों को खुश रखते हुए वह दोहन चालू रखती है| अक्सर संसाधनों की कमी बताने वाली पुलिस पहले पीड़ित पक्ष को सहायता की दिलाशा दिखाकर साक्ष्य जुटाएगी व शोषण करेगी और बाद में अभियुक्त को उन्हीं साक्ष्यों की गंभीरता बताकर अपना काम करेगी, साक्ष्य गायब कर देगी| किन्तु परिवादी के प्रभावशाली होने पर यही पुलिस हवाई जहाज से दौडती हुई अपराधी का पीछा करती है|  चिकित्सकीय प्रमाण का भ्रष्ट दांवपेच अलग रह जाता है|

राजस्थान में कुछ विदेशी महिलाओं के साथ हुए दुष्कर्म के मामलों में दोषी लोगों को कुछ घंटों अथवा कुछ दिनों में ही दण्डित कर दिया गया था| पद ग्रहण करते समय न्यायाधीश शपथ लेते हैं कि वे राग, द्वेष व भयमुक्त होकर कार्य करेंगे| न्यायाधीश ऐसी धातु से बने होने चाहिए जो किसी भी तापमान पर नहीं पिघले| किन्तु आज से लगभग बीस वर्ष पूर्व एक छोटे स्तर की सरकारी कर्मचारी भंवरी देवी ने बाल विवाह की रिपोर्ट की और फिर भी बाल विवाह संपन्न हो गया| बदले की आग से धधकते विरोधी लोगों ने उसके पति के सामने ही भंवरी देवी से सामूहिक बलात्कार किया और सत्र न्यायाधीश ने यह कहते हुए सभी बलात्कारियों को मुक्त कर दिया कि सामान्यतया बलात्कार किशोरों द्वारा किया जाता है और चूँकि अभियुक्त मध्यम उम्र के हैं इसलिए उन्होंने बलात्कार नहीं किया होगा| इतना ही नहीं न्यायाधीश ने आगे लिखा कि एक ऊँची जाति का व्यक्ति नीची जाति की औरत से बलात्कार कर अपने आपको अपवित्र नहीं कर सकता| महिला आई ए एस अधिकारी बजाज के साथ हुए यौन शोषण के मामले में काफी संघर्ष के बाद भी अभियुक्त पुलिस अधिकारी को मात्र अर्थ दंड से ही दण्डित किया गया| न्यायालयों में सामान्यतया समय पर निर्णय नहीं होते और मामले पुराने होने पर ऊपर से दबाव बढ़ने पर आनन फानन में ताबडतोड निर्णय देते हैं जिसमें निर्णय की गुणवता भेंट चढ जाती है| लगभग 15 वर्ष पूर्व बीकानेर में अपने कनिष्ठ पुलिस अधिकारी की पत्नि के साथ अशोभनीय व्यवहार के लिए हाल ही में अभियुक्त पुलिस अधिकारी पर भी जुर्माना ही लगाया गया है, उसे किसी प्रकार के कारावास की सजा नहीं दी गयी है| इसी भारत भूमि पर महाभारत काल में द्रोपदी के शीलहरण पर दुर्योधन की जंघा तोड़ी गयी थी और दुशासन की छाती के लहू से वेणी-संहार किया गया था| जेब कतरने से अपराध जगत में कदम रखने वाला एक अपराधी ही दण्डित नहीं होने पर आगे चलकर क्रमशः निस्संकोच चोर, ठग और डाकू बनता है| जिस व्यक्ति को यौन शोषण के लिए कोई कारावास की सजा नहीं दी जाये वह बलात्कार का दुस्साहसपूर्ण कदम उठा सकता है| उक्त मामलों में न्यायाधीशों ने अपनी शपथ, यदि उसका कोई मूल्य हो तो, किस प्रकार निर्वाह किया है, समझ से परे है| इस प्रकार देश का तथा कथित सम्पूर्ण लोकतान्त्रिक ढांचा पीड़ित व्यक्ति के अनुकूल नहीं है| जैसा कि एक बार पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टी एन शेषन ने कहा था कि प्रजातंत्र के चार स्तंभ होते हैं और भारत में उनमें से साढ़े तीन स्तम्भ क्षतिग्रस्त हो चुके हैं| अत: देश की विद्यमान व्यवस्था में आम आदमी के लिए न्याय पीड़ादायी और कठिन मार्ग है| जब तक पीड़ित को न्याय नहीं मिले न्याय हेतु किया गया सारा सार्वजानिक खर्च राष्ट्रीय अपव्यय है और पीड़ित के दृष्टिकोण से न्यायतंत्र एक भुलावा मात्र है| यदि आम आदमी के लिए न्याय सुनिश्चित करना हो तो देश के संविधान, विधायिका, कानून, न्याय एवं पुलिस सभी औपनिवेशिक प्रणालियों का पूर्ण शुद्धिकरण करना होगा तथा सस्ती लोकप्रियता व तुष्टिकरण मूलक नीतियों का परित्याग करना होगा|
दक्षिण अफ्रिका में न्यायालयों की कार्यवाही का सही और सच्चा रिकार्ड रखने के लिए 1960 से ही ओडियो रिकार्डिंग की जाती है और भारत में न्यायालय अपनी कार्यवाही का सही और सच्चा रिकार्ड रखने से परहेज करना चाहते हैं| यदि कोई पक्षकार किसी इलेक्ट्रोनिक साधन से न्यायिक कार्यवाही का रिकार्ड रखे तो बड़ी ही तत्परता से उसे मानसिक रूप से अस्वस्थ बताकर हिरासत में भेज दिया जाता है और उस पर न्यायिक अवमान का मुकदमा अलग से ठोक दिया जाता है| देश में दर्ज आपराधिक मामलों में सजा दो प्रतिशत से भी कम में ही हो पाती है और बलात्कार के मामलों में भी यह मात्र 26 प्रतिशत है अत: किसी कागजी प्रावधान से कोई उद्देश्य पूर्ति नहीं होगी अपितु न्यायतंत्र से जुड़े सभी जन सेवकों को संवेदनशील व जनता के प्रति जिम्मेदार बनाना पहली आवश्यकता है| भारत में जैसे जैसे सरकारी अधिकारियों का अनुभव और पद की ऊँचाई बढती जाती है उसी अनुपात में उनमें स्वछंदता परिपक्वता होती जाती है|  विद्यमान व्यवस्था में यदि बलात्कारी को मृत्युदंड का प्रावधान कर भी दिया गया तो उसको मृत्यु दंड दिलाने के लिए पर्याप्त साक्ष्य कौन जुटाएगा, कौन कीमत चुकायेगा व कौन मृत्यु दंड देगा एक रहस्यमय प्रश्न है |


Tuesday 11 December 2012

नागरिक अधिकारों की रक्षापंक्ति में चीन


नागरिक अधिकारों की रक्षापंक्ति में चीन

हमारे पडौसी राष्ट्र चीन ने अपने देश के नागरिकों के लिए प्रशासनिक प्रक्रिया कानून बनाया है जो दिनांक 01.10.90 से लागू है| उक्त कानून के अनुच्छेद 1 में प्रावधान है कि प्रशासनिक मामलों के समयबद्ध और सही परीक्षण और  नागरिकों, कानूनी व्यक्तियों व अन्य संगठनों  के वैधपूर्ण अधिकारों व हितों की रक्षा के लिए और यह सुनिश्चित करने के लिए कि प्रशासनिक अंगों द्वारा प्रशासनिक शक्तियों का प्रयोग कानून के अनुसार किया जाता है यह कानून अधिनियमित किया जता है| किसी ठोस प्रशासनिक आदेश, जिससे नागरिकों के हित या अधिकार का उल्लंघन हुआ हो, के विरुद्ध वे न्यायालय में कार्यवाही कर सकते हैं| प्रशासनिक मामलों पर न्यायालय स्वतंत्र शक्तियों का प्रयोग करेंगे जिनमें किसी का कोई हस्तक्षेप नहीं होगा| न्यायालय प्रशासनिक मामलों के लिए प्रशासनिक खंड बनायेंगे| न्यायालय के समक्ष पक्षकार एक समान होंगे| सभी राष्ट्रीयताओं के लोगों को प्रशासनिक कार्यवाही में अपनी देशी भाषा का प्रयोग करने का अधिकार होगा| जो लोग स्थानीय लोगों द्वारा प्रयुक्त भाषा को नहीं समझते हों उन्हें अनुवाद सुविधा उपलब्ध करवाई जायेगी| जबकि तथा कथित गणतांत्रिक भारत में तो इसके विपरीत न्यायालय की भाषा में कार्यवाही संस्थित करनी पड़ती है और प्रलेख न्यायालय की भाषा में  अनुवाद कर प्रस्तुत करने पड़ते हैं| प्रशासनिक अत्याचारों के मामलों में भारत में सामान्य उपाय रिट याचिका में ही उपलब्ध हैं जोकि समय, व्यय  व श्रम साध्य प्रक्रिया है| यद्यपि संविधान के अनुच्छेद 32(3) में जिला न्यायालयों को रिट क्षेत्राधिकार देने का प्रावधान है किन्तु देश की शिथिल व संवेदनहीन संसद खुले व आक्रामक जन-आंदोलन द्वारा विवस नहीं किये जाने तक किसी भी न्यायोचित मांग पर ध्यान देने की कोई आवश्यकता नहीं समझती है|
चीनी न्यायालय लोगों से निम्न मामलों में कार्यवाहियों को स्वीकार करेगा:
प्रशासनिक बंदी बनाया जाना, जुर्माना, व्यापार लाइसेंस निरस्त करना, उत्पादन या व्यापार बंद करने या सम्पति जब्ती के आदेश को आवेदक द्वारा  अस्वीकार करना, व्यक्ति की स्वतंत्रता को अनिवार्य प्रशासनिक कार्यवाही द्वारा प्रतिबंधित करना, या सम्पति को कब्जे में लेने के आदेश को अस्वीकार करना, यह समझते हुए कि किसी व्यापारिक लाइसेंस का आवेदन कानून सम्मत है किन्तु प्रशासन ने मना कर दिया है अथवा जवाब देने से मना कर दिया है| नागरिकों की सम्पति और शरीर की रक्षा के लिए कानून सम्मत आवेदन के बाद भी अपने कर्तव्यों का प्रशासनिक अंग ने निर्वाह नहीं किया हो या जवाब नहीं दिया हो| जब प्रशासनिक अंग ने कानून के अनुसार पेंशन नहीं दी हो| प्रशासनिक अंग ने किसी कर्तव्य निर्वाह की उपेक्षा की हो| प्रशासनिक अंग ने जब व्यक्ति और सम्पति के अन्य अधिकारों का अतिक्रमण किया हो|
चीन में साक्ष्य में प्रलेखीय, भौतिक, ऑडियो-वीडियो, गवाहों का परीक्षण, पक्षकारों के कथन, विशेषज्ञ की राय, घटना स्थल का दृश्य और मौक़ा रिपोर्ट शामिल हैं| जबकि भारत में साक्ष्य अधिनियम की धारा 3 में दी गयी साक्ष्य की परिभाषा इतनी व्यापक नहीं होने से नागरिकों को हमेशा न्यायालय के विवेक व दया पर निर्भर रहना पड़ता है| चीन में प्रशासनिक कार्यवाही के प्रमाण का भार बचाव पक्ष पर होगा और वह वे सब साक्ष्य व प्रलेख उपलब्ध करवाएगा जिन पर कार्यवाही आधारित है| जबकि अनुच्छेद 33 के अनुसार वह  कानूनी कार्यवाही में प्रार्थी पक्ष और गवाहों से अपनी प्रेरणा पर साक्ष्य संग्रहित नहीं कर सकेगा| दूसरी ओर भारत में तो अपना दावा साबित करने का सम्पूर्ण भार आवेदक पर रहता है और यह अस्वस्थ परिपाटी बन चुका है| सूचना का अधिकार अधिनियम की धारा 19 (5) में यद्यपि सूचना न प्रदानगी के औचित्य को स्थापित करने का भार सरकारी पक्ष पर डाला गया है किन्तु व्यवहार में ऐसा नहीं हो रहा है|
यदि आवेदक किसी प्रशासनिक अंग को किसी प्रकरण में पुनर्विचार करने का निवेदन करता है तो प्रशासनिक अंग आवेदन प्राप्ति के दो माह के भीतर निर्णय लेगा| यदि आवेदक ऐसे निर्णय से संतुष्ट नहीं हो या निर्धारित अवधि में निर्णय प्राप्त न हो तो न्यायालय में वाद कर सकता है| यदि आवेदक सीधे ही न्यायालय में कार्यवाही करना चाहे तो वह तीन माह के भीतर कर सकता है| अनुच्छेद 43 के अनुसार न्यायालय को शिकायत प्राप्त होने पर सात दिन के भीतर मामला दर्ज करेगा या अस्वीकार करने का निर्णय करेगा| भारत में किसी भी स्तर के न्यायालयों द्वारा मामला दर्ज करने के लिए कोई समय सीमा निर्धारित नहीं है और संयोग से यदि ऐसी कोई सीमा कहीं निर्धारित हो तो उसका निर्भय और निस्संकोच होकर उपहास किया जाता है| राजस्थान में सामान्य दाण्डिक नियमों में प्रावधान है कि आपराधिक प्रकरण में रिपोर्टिंग बिना समय गंवाए तुरंत की जायेगी किन्तु व्यवहार में यह महीने तक का समय लेती देखी जा सकती है व न्याय-प्रशासन इसे मूक-दर्शक बने देख रहा है| भारत में प्रणाली व प्रक्रिया सम्बंधित कानून तो सामन्तवादी विचारधारा वाले अड़ियल व हठधर्मी तथा वास्तव में नियंत्रणहीन लोक सेवकों द्वारा और अपनी सुविधा, संरक्षण, पोषण  व सहायता और मनमानेपन, तथा जनता का दोहन-शोषण संभव बनाने के लिए ही बनाए जाते हैं| इन नियमों के निर्माण में जन सुविधा कोई स्थान नहीं रखती| भारत में अधिकाँश प्रक्रियागत कानून जनविरोधी हैं अत: ये मौलिक कानून के प्रयोग होने से पहले ही पक्षकारों को थकाकर न्याय से वंचित करने के लिए पर्याप्त हैं| प्रक्रियागत नियमों के माध्यम से न्याय के रास्ते में इतने गढे और अवरोध बना दिए जाते हैं कि एक न्यायार्थी इनमें लडखडाकर गिर जाता है और अंतत: अन्याय के आगे घुटने टेकने को विवश हो जाता है| भारत के मौलिक कानून भी खोखले ही हैं| सूचना के अधिकार अधिनियम की उद्देशिका में यद्यपि जवाबदेही जैसा लुभावना उद्देश्य बताया गया है किन्तु मूल कानून में जवाबदेही निर्धारित करने का कोई उल्लेख तक नहीं है| अत: अन्य कानूनों की तरह उक्त कानून भी एक परिणामहीन व मनोरंजक  कानून मात्र रह गया है|     

चीनी कानून के अनुसार आवेदक ऐसे निर्णय से असंतुष्ट होने पर उच्च स्तरीय न्यायालय में अपील कर सकेगा| मामला दर्ज करने पर न्यायालय बचाव पक्ष को पांच दिन में शिकायत की प्रति भेजेगा| प्रतिपक्षी शिकायत की प्रति प्राप्त होने के दस दिन के भीतर न्यायालय को अपना बचाव कथन मय प्रलेखों के उपलब्ध करवाएगा| न्यायालय पांच दिन के भीतर शिकायत के जवाब की प्रति  आवेदक को भेजेगा| भारत में न्यायालय किसी पक्षकार को कोई प्रति उपलब्ध नहीं करवाते हैं वे लोक सेवक न्यायालय की बजाय राजा की श्रेष्ठ भूमिका निभाना अधिक पसंद करते हैं| यहाँ तक कि उच्चतम न्यायालय भी वादी से अपेक्षा करता है कि वह प्रतिवादी को समन स्वयम ही भेजे| समय सीमा और उसकी अनुपालना तो भारतवर्ष में एक दिवा स्वप्न मात्र कहा जा सकता है| उपभोक्ता संरक्षण कानून में 90 दिन में निर्णय घोषित करने का प्रावधान है किन्तु वास्तव में इनमें वर्षों लगते देखे जा सकते हैं| भारत में नागरिकों के लिए तो याचिका प्रस्तुत करने की समय सीमा है किन्तु न्यायालयों के लिए निपटान हेतु कोई समय सीमा नहीं है|चीन में प्रारंभिक स्तर से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक सभी जन न्यायालय( People’s Court) हैं और वे सभी गर्व से अपने नाम के साथ जन न्यायालय शब्द लिखते हैं जबकि भारत में तो न्यायाधीश निर्णय देते समय न्यायालय श्री ... न्यायाधीश ... जैसे शब्दों का प्रयोग करते हैं| जाहिर है भारतीय न्यायालय न्यायाधीशों, वकीलों और पुलिस के न्यायालय हैं और व्यक्तिश: उपस्थित होने वाले पक्षकारों को यहाँ प्रतिकूल दृष्टि से देखा जाता है| 
चीन में बचाव पक्ष द्वारा बचाव कथन न प्रस्तुत करने से मामले की सुनवाई पर कोई प्रभाव नहीं पडेगा| न्यायालयों में प्रशासनिक कार्यवाही की सुनवाई के लिए न्यायाधीशों का विषम संख्या में समूह होगा| असंतुष्ट पक्षकार मामले के पुनर्विचारण हेतु निवेदन कर सकेगा| अनुच्छेद 50 के अनुसार न्यायालय प्रशासनिक मामले की सुनवाई करते समय सुलह करवाने का प्रयास नहीं करेगा जबकि भारत में सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 27 नियम 5 ख में  न्यायाधीशों पर यह दबाव और दायित्व भी डाला गया कि वे ऐसे मुकदमे में जिनमें सरकार पक्षकार हो सुलह का प्रयास करेंगे| ऐसा प्रावधान न्यायालयों की निष्पक्षता पर अपने आप में एक प्रश्न चिन्ह है| अनुच्छेद 54 के अनुसार जो प्रशासनिक कार्य सही कानून को लागू कर व कानूनी प्रक्रिया को अपनाकर किया गया हो और अकाट्य साक्ष्य पक्ष में हों तो उसे न्यायालय उचित ठहरा सकता है| पर्याप्त साक्ष्यों के अभाव, गलत कानून लागू किये जाने, कानूनी प्रक्रिया का उल्लंघन करने, अधिकार क्षेत्र से बाहर कार्य करने या शक्ति का दुरूपयोग करने पर प्रशासनिक कार्य को न्यायालय द्वारा पूर्णतः या अंशत: निरस्त किया जा सकता है| यदि बचाव पक्ष अपने कानूनी कर्तव्यों के निर्वहन में विलम्ब करता है या असफल रहता है तो उसे संपन्न करने के लिए समय निश्चित किया जायेगा| यदि कोई प्रशासनिक जुर्माना अनुचित हो तो उसे संशोधित करने के लिए आदेश  दिया जा सकता है| अनुच्छेद 56 के अनुसार यदि किसी प्रशासनिक कार्य से न्यायालय यह समझता है कि इससे प्रशासनिक अनुशासन का उल्लंघन किया गया है तो न्यायालय आपराधिक कार्य पाए जाने पर सम्बंधित मामला अभियोजन के लिए भेजेगा| किन्तु भारत में तो सभी मामले पक्षकार स्वयम को ही लड़ने पड़ते हैं और न्यायालय, विशेषकर राज्याधिकारियों के मामले में, पक्षकार के निवेदन पर भी आपराधिक कार्यवाही से परहेज करते हैं| एक ही समान प्रकृति के मामलों में बारबार सरकार के विरुद्ध होने वाले मामले एवं रिट याचिकाएं इसे प्रमाणित करती हैं| भारत में पुलिस द्वारा निराधार आरोप-पत्र प्रस्तुत करने और अभियुक्त के दोषमुक्त होने, तथा इसके विपरीत पुलिस द्वारा अंतिम (बंद) रिपोर्ट देने व अभियुक्त के आरोपित होने पर भी पुलिस के विरुद्ध कोई कार्यवाही प्रारम्भ तक नहीं होती है| यद्यपि कानून के संरक्षण की आवश्यकता कमजोर पक्षकार को होती है किन्तु भारत में शक्तिसंपन्न लोक सेवकों को अभियोजन स्वीकृति की आवश्यकता का अतिरिक्त सुरक्षा कवच उपलब्ध करवाया गया है|

चीनी न्यायालय मामला दर्ज होने के तीन माह के भीतर निर्णय देगा| यदि मामले में विशेष परिस्थितियों में समय सीमा बढ़ाया जाना अवश्यक समझा जाये तो ऐसा उच्च स्तरीय न्यायालय से अनुमोदित किया जाएगा| जबकि भारत में तो न्यायालय के मंत्रालयिक कर्मचारियों की कृपा से ही बारबार स्थगन लेकर मामले को द्रोपदी के चीर की भांति अंतहीन किया जा सकता है| चीन में निर्णय से असंतुष्ट पक्षकार निर्णय प्राप्त होने के 15 दिन के भीतर अगले उच्च स्तर पर अपील कर सकेगा| अनुच्छेद 60 के अनुसार अपील पर अंतिम निर्णय दो माह के भीतर देगा और यदि मामले में विशेष परिस्थितियों में समय सीमा बढ़ाया जाना अवश्यक समझा जाये तो ऐसा अगले उच्च स्तरीय न्यायालय से अनुमोदित किया जाएगा| भारत में तो अनुचित रूप से समय अनुमत करने की असीमित शक्तियां न्यायालयों के पास न होते हुए भी प्रयुक्त की जाती हैं| भारत में मूल वाद जिसमें साक्ष्य होना हो व अन्य मामले (रिट, अपील, निगरानी आदि सारांशिक कार्यवाहियां), जिनमें साक्ष्य नहीं होना हो, में समान विलंब होता है और मामले के परीक्षण में न्यायालय का लगने वाला वास्तविक समय व श्रम गौण है| वस्तुत: भारतीय न्यायिक प्रक्रिया एक मनमानी, उत्पीडनकारी व अतर्कसंगत प्रक्रिया है जिसमें पक्षकार की नियति न्यायालय की दया पर निर्भर रहती है और अंतत: उसे हानि ही होती है चाहे वह मामले में वह जीत ही क्यों न जाये|
चीन में यदि प्रशासनिक अंग निर्णय की अनुपालना करने से मना करता है तो न्यायालय प्रशासनिक अंग के बैंक खाते से रकम पीड़ित पक्षकार के खाते में ट्रांसफर के लिए आदेश दे सकता है, प्रति दिन के लिए 50 से 100 यान जुर्माना लगाने और यदि प्रशासनिक अंग द्वारा निर्णय की अनुपालना न करना अपराध कारित  करता हो तो जिम्मेदार अधिकारी के विरुद्ध कानून के अनुसार आपराधिक कार्यवाही की जायेगी| प्रचलित प्रथा के अनुसार भारत में तो डिक्री की इजराय लगाई जायेगी और प्रतिपक्षी से उसका पक्ष व आपतियाँ सुनी जायेगी तथा लंबा समय लेने के बाद ही आम आदमी के विरुद्ध किसी न्यायिक निर्णय की अनुपालना संभव है और सरकारी अधिकारी के विरुद्ध किसी निर्णय की अनुपालना तो एक टेढ़ी खीर है जिसमें कई दांवपेंच हैं|   

कानून के अनुच्छेद 67 के अनुसार आवेदक के अधिकारों के अतिक्रमण से हुई हानि के लिए क्षतिपूर्ति पाने का अधिकारी होगा| ऐसा आवेदन प्रथमत: विभाग के समक्ष प्रस्तुत किया जायेगा और विभाग द्वारा मनाही पर न्यायालय में कार्यवाही की जा सकेगी| ऐसी क्षतिपूर्ति का दायित्व सम्बंधित विभाग का होगा और विभाग ऐसे दायित्व के लिए दोषी कार्मिकों से पूर्णतः या अंशत: वसूली के आदेश देगा| अनुच्छेद 69 के अनुसार क्षतिपूर्ति की लागत विभिन्न स्तर पर सरकारी बजट में शामिल की जायेगी| भारत में विभाग ऐसे दावों से बजट की कमी के बहाने से प्राय: मना करते रहते हैं|

प्रशासनिक मामलों की सुनवाई करने वाला न्यायालय मुक़दमे की फीस लेगा और यह फीस हारनेवाले पक्षकार द्वारा या दोनों पक्षकार जिम्मेदार हों तो दोनों द्वारा वहन की जायेगी| भारत में अधिकांश मामलों में वादी को मुकदमे का खर्चा नहीं दिलवाया जाता और अपवादस्वरूप यदि दिलवाया जाये तो यह नाम मात्र का होता है| सरकारी विभाग से तो यह और भी कठिन है| चीन के कानून में न्यायालयों को बहुत कम विवेकाधिकार दिया गया है और न्यायालय के साथ  कर सकेगा की बजाय अधिकाँश जगह करेगा शब्द का प्रयोग किया गया है व कानूनों को निदेशात्मक की बजाय आदेशात्मक रूप दिया गया है | उक्त से यह बड़ा स्पष्ट है कि हमारे यहाँ कानून निर्माण और लागू करने की स्थिति दोनों ही कमजोर हैं और यह नागरिकों की सहिष्णुता और धैर्य की परीक्षा लेती है व अमेरिका, इंग्लॅण्ड ही नहीं बल्कि हमारे पडौसी राष्ट्रों से भी कमजोर दिखाई देती है| मात्र इतना ही नहीं राज्य के अनुचित कृत्यों से हुई हानि के लिए चीन के संविधान के अनुच्छेद 41 के अंतर्गत क्षतिपूर्ति पाना संवैधानिक अधिकार है| भारतीय  न्यायप्रणाली में एक रूपता, सुसंगतता, समानता, निष्पक्षता व जन विश्वास की कमी के कारण ही खाप या स्थानीय पंचायतें और कब्जा खाली करवाने वाले दल पनपते हैं| जहां बम्बई उच्च न्यायालय ने एक दिन की अवैध हिरासत के लिए वीणा सिप्पी को, स्वयं पैरवी करने पर, 275000 रूपये क्षतिपूर्ति दिलवाई वहीं उस न्यायालय के उसी न्यायाधीश वाली बेंच ने कादर सत्तार सोलंकी को एक दिन की अवैध हिरासत के लिए, वकील नियुक्त करने पर भी, मात्र 15000 रुपये की क्षतिपूर्ति दिलवाई है|  समानांतर न्यायालयों की कार्य प्रणाली में विश्वास ही लोगों को उनकी ओर आकर्षित करता है और लोग न्यायप्रणाली की बजाय इस समानांतर प्रणाली का सहारा लेते हैं| न्याय न होने का एक अर्थ यह भी निकलता है कि न्याय करने वाले लोग विद्वान तो हो सकते हैं किन्तु हृदय से सज्जन व्यक्ति नहीं हैं| एक विद्वान के पास शब्द भण्डार और शब्द कोष बड़ा होता है जिसके उपयोग से वह शब्द जाल के माध्यम से सही को गलत और गलत को सही ठहराने का प्रयास कर सकता है किन्तु वास्तव में सही व न्यायोचित क्या है यह तो एक सामान्य बुद्धिवाला व्यक्ति भी जानता है, विद्वान के लिए तो यह मुश्किल नहीं है| वैसे भी भारत में न्यायाधीश पद के लिए आयोजित होने परीक्षाओं में बुद्धिमता परीक्षण का कोई प्रश्न-पत्र नहीं होता है मात्र कानूनी ज्ञान के ही प्रश्नपत्र होते हैं अर्थात हमें न्यायाधीश पद हेतु बुद्धिमान लोगों की आवश्यकता नहीं है| दूसरी ओर अमेरिका में न्यायाधीशों के लिए मात्र ज्ञान की ही नहीं चरित्र और मनोवृति की भी सार्वजनिक जांच की जाती है जबकि भारत के न्यायालय न्यायाधीश नियुक्ति प्रक्रिया को गोपनीय एवं अपना विशेषाधिकार मानते हैं और सूचना के अधिकार में ऐसी कोई सूचना नहीं देते हैं| जब लगभग हमारे ही समान आबादी वाला चीन ऐसे कानून बनाकर राज्य मशीनरी की लगाम कस सकता है तो भारत के जन प्रतिनिधि अपने कानूनों के सरलीकरण कर न्यायपालिका सहित नौकरशाही के मनमानेपन, दांव पेंचों और पैंतरों से जनता को मुक्ति देने में क्यों घबराते हैं, समझ से बाहर है|


Friday 7 December 2012

लोक सेवक की परिधि


सुप्रीम कोर्ट ने षेरसिंह बनाम सुरेन्द्र कुमार (ए.आई.आर. 1998 सु.को. 2289) के मामले में कहा है कि इस प्रकार का गैर सहयोगी व्यवहार विषेशतः एक सार्वजनिक निकाय द्वारा एक आदर्ष नियोक्ता के रूप में अखरता है जो कि न्यायालय के सामने उसने मुद्दे निर्णय हेतु उठाये है। एक विवादक पक्षकार जब सरकार या सार्वजनिक निकाय हो तो उसे कुछ भी छुपाना नहीं चाहिए और नाम मात्र का भी कोई विरोधाभास हो तो बिन्दुओं के निर्धारण हेतु न्यायालय के सामने सारा रिकॉर्ड रख देना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने हिमाचल राज्य बनाम् निषान्त सरीन के मामले के निर्णय दि. 9.12.10 में स्पश्ट किया है कि यदि जांच एजेन्सी को कोई उचित षिकायत हो तो यदि कोई नई विशय वस्तु आवष्यक नहीं हो तो स्वीकृति से मना करने के आदेष को चुनौति देनी चाहिए थी और लेकिन ऐसा नहीं किया गया। स्वीकृतिदाता अधिकारी की षक्तियां लगातार प्रकृति की नहीं होने से उसी विशय सामग्री पर केवल एक बार ही प्रयोग की जा सकती है।
सुप्रीम कोर्ट ने पंजाब राज्य बनाम चरणसिंह (1981 एआईआर सु0को0 1007) में कहा है कि नियम 16.38 एक आपराधिक न्यायालय द्वारा अभियोजन प्रारम्भ करने के लिए पूर्ववर्ती षर्त नहीं है अपितु यह विभाग को निर्देष की प्रकृति की है और यह अभियोजन के लिए अनुमति या स्वीकृति के लिए नहीं है। न ही यह दण्ड प्रक्रिया संहिता और भ्रश्टाचार निवारण अधिनियम के प्रावधानों पर अभिभावी है। जांच जिला मजिस्ट्रेट द्वारा प्रथम दृश्टया मामले के निर्धारण कर   यह देखने के लिए निर्दिश्ट है कि दोशी पक्षकार के विरूद्ध विभागीय कार्यवाही की जाए अथवा नहीं और इस नियम द्वारा मात्र विभागीय कार्यवाही में प्रक्रिया और दण्ड विनियमित होते है जो कि पुलिस अधीक्षक के विचार से अनियंत्रित है। ।
यद्यपि राज्य स्वीकृति देने या मना करने में कानूनी क्षेत्राधिकार प्रयुक्त करता है। किन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं है कि यह षक्ति दोबारा प्रयोग नहीं की जा सकती। बाद के चरण में यद्यपि पुनर्विचार करने का राज्य को स्पश्ट अधिकार नहीं है फिर भी यह प्रषासनिक प्रकृति की है। स्वीकृति देने का आदेष की वैधता आपराधिक न्यायालय द्वारा पुनरीक्षा के अधीन है। स्वीकृत देने से मना करने का आदेष बड़े न्यायालयों द्वारा न्यायिक पुनरीक्षा के अधीन है।
राजस्थान उच्च न्यायालय ने सत्यदेव षर्मा बनाम राजस्थान राज्य (1998 डब्ल्यू एल एन 438) में कहा है कि यदि विद्यायिका का यह उद्देष्य होता कि पुलिस को कम्पनी मामलों में संज्ञेय अपराधों की स्थिति में कानूनी अधिकार नहीं है तो दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 (1) में ऐसा प्रावधान करने से कुछ भी रोकने वाला नहीं था। कम्पनी अधिनियम 1956 के प्रावधानों का उद्देष्य दण्ड कानूनों के लागू होने में कम्पनी के पदधारियों और कार्यकर्ताओं के लिए सुरक्षा चाहने का उद्देष्य नहीं था।
नृपति घोशाल बनाम प्रेमावती कप्पू (एआईआर 1996 सु0को0 2586) में कहा है कि यद्यपि कब्जा नहीं देने के लिए अवमान कार्यवाही की गई किन्तु निर्धारित समयावधि में इस न्यायालय में अपील दायर करने के लिए कोई कदम नहीं उठाये गये। इससे यह जाहिर होता है कि सम्बन्धित कार्यवाहियों में उदासीनता बरती गई । जिम्मेवारी अधिकारी को देरी के लिए उत्तरदायी ठहराया जाना चाहिए । संबन्धित सरकारों द्वारा उच्च न्यायालय या इस न्यायालय में अपील दायर करने में यही प्रक्रिया अपनायी जानी चाहिए। रजिस्ट्री को निर्देष दिया जाता है कि वे इस आदेष की प्रति मंत्रीमण्डल सचिव, राज्यों के मुख्य सचिव, अटॉर्नी जनरल और राज्यों के महाधिवक्ता को आवष्यक कार्यवाही हेतु भेजी जावे।

Tuesday 4 December 2012

कमजोर कानूनों से जूझता भारतीय गणतंत्र


अंग्रेजों की शासन नीति का मूलमंत्र फूट डालो और राज करो रहा है| इस नीति के अनुसरण में उन्होंने भारत के देशी राजाओं को आपस में लड़वाकर सम्पूर्ण देश पर शासन स्थापित कर लिया था| इतना ही नहीं जब व्यापारिक क. ईस्ट इंडिया क. देश में सता की बागडोर संभालने में असमर्थ रही तो ब्रिटिश संसद ने भारत सरकार अधिनियम 1858 पारितकर भारत पर शासन की बागडोर अपने हाथ में  ले ली और फूट की राजनीति को आगे बढ़ाया| अपने इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने कानून निर्माण की प्रक्रिया को इस प्रकार के सांचे में ढाला कि किसी भी कृत्य, अकृत्य या अपकृत्य से सरकार और उसके सेवक किसी भी प्रकार की जिम्मेदारी सिविल व आपराधिक से मुक्त रहें और जनता आपस में लड़ती रहे ताकि उनके लिए शासन का मार्ग आसान रहे| इन सभी लक्ष्यों को ध्यान में रखकर सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 का निर्माण किया गया और इसके माध्यम से अपील, निगरानी आदि विभिन्न प्रकार के विलम्बकारी साधनों की एक लंबी श्रृंखला खड़ी कर दी गयी| वकीलों के तकनीकी दांवपेच और रंग दिखाते हैं| इन्हें देखते हुए यद्यपि श्रम सम्बंधित कुछ मामलों में और परिवार न्यायालयों में वकीलों के पैरवी की मनाही है| सुप्रीम कोर्ट ने मालिक मजहर (JT2007(3)SC352) के मामले में यह कहा है कि भर्ती में विलम्ब के कारण जनता न्याय से वंचित रहती है अत: सीधी भर्ती के मामले में 12 माह में और पदोन्नति के मामले में 6 माह में न्यायाधीशों की भर्ती पूर्ण कर ली जानी चाहिए| किन्तु व्यवहार में इन आदेशों की अवहेलना ही हो रही है|
आज भी यदि न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार को छोड़ भी दिया जाये तो न्यायाधीशों और वकीलों की गलतियों व इस श्रृंखला के उपयोग से न्यायिक प्रक्रिया को एक लंबे, अँधेरे और अंतहीन मार्ग पर धकेल दिया जाता है जिससे आम व्यक्ति के लिए न्याय प्राप्ति एक दिवा स्वप्न बन कर रह जाता है| वकीलों और न्यायाधीशों की गलतियों व लापरवाहियों के लिए उन्हें कोई दंड नहीं दिया जाता परिणामस्वरूप ये निर्बाध गति से जारी हैं| अंतर्राष्ट्रीय मिलटरी ट्राइब्यूनल ने  संयुक्त राज्य बनाम अल्स्तोटर मामले में जर्मन न्यायाधीश ओसवाल्ड रोह्थाग द्वारा दिनांक 23.03.1942 को दिए गए अनुचित निर्णय के लिए आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी| न्यायाधीशों के अनुचित फैसलों से समाज पर गंभीर प्रभाव पड़ता है और ये समाज में अस्थिरता उत्पना करते हैं| यह भी प्रासंगिक है कि जब गैर-इरादतन हत्या के लिए सजा हो सकती है तो फिर अनुचित फैसले, चाहे गैर-इरादतन ही हों, उनके लिए सजा क्यों नहीं होनी चाहिए| संहिता में सरकार अथवा उसके अधिकारी को विशेष दर्जा दिया गया और धारा 80 में यह प्रावधान किया गया कि इनके विरुद्ध मुकदमा करने से पूर्व कम से कम 60 दिन का नोटिस देना आवश्यक है| इसी प्रकार संहिता के आदेश 27 नियम 5 ख में  न्यायाधीशों पर यह दायित्व भी डाला गया कि वे ऐसे मुकदमे में जिनमें सरकार पक्षकार हो सुलह का प्रयास करेंगे| इन प्रावधानों के माध्यम से सरकार के विरुद्ध नागरिकों के जायज दावों में भी सुलह के नाम पर विलम्ब करने का एक और नया हथियार बनाया गया ताकि मुकदमेबाजी द्रोपदी के चीर की भांति अनंत बनी रहे| ये सभी कानून हमारे सामाजिक ताने बाने से नहीं निकले हैं| कानून समाज के लिए बनाए जाते हैं न कि समाज कानून के लिए बना है| अफ़सोस कि इन औपनिवेशक कानूनों को हम पिछले  65 वर्षों में भी बदल नहीं पाए हैं जबकि देश का सुप्रीम कोर्ट और विधि आयोग धारा 80 के औचित्य पर कई बार सवाल उठा चुके हैं|  

स्वतंत्रता के पश्चात देश की बदली परिस्थितयों के मद्देनजर देश के कानून की पुनरीक्षा करने और उसमें संशोधन के लिए एक आदेश द्वारा विधि आयोग का गठन किया गया| किन्तु आज तक विधि आयोग के गठन, उसकी रिपोर्टों पर कार्यवाही, कार्यक्षेत्र आदि को परिभाषित करने के लिए कोई सुपरिभाषित कानून अधिनियमित नहीं किया गया और देश का विधि आयोग आज भी एक गैर-सांविधिक उत्पति की तरह कार्य कर रहा है| परिणामत: विधि आयोग की रिपोर्टों पर क्या कार्यवाही हुई अथवा उनको स्वीकार करने व अस्वीकार करने के क्या कारण रहे इस तथ्य से स्वतंत्र भारत की जनता अनभिज्ञ ही रहती है| दूसरी ओर मात्र इंग्लॅण्ड ही नहीं अपितु हमारे पडौसी देश नेपाल, बंगलादेश, श्रीलंका और पाकिस्तान ने भी विधि आयोग का गठन एक अधिनियम के माध्यम से कर रखा है| भारत को भी चाहिए की वह विधि आयोग के गठन, उसकी उपयोगिता और रिपोर्टों पर कार्यवाही को अधिनियम के माधयम से सुपरिभाषित करे और यह सुनिश्चित करे कि  विधि आयोग की रिपोर्टें विधि मंत्रालय में मात्र धूल की भेंट न चढें| इन  रिपोर्टों को स्वीकार अथवा अस्वीकार करने के कारण जनता को सूचित किये जाएँ|   

सरकारी सेवकों के अपकृत्य स्वतंत्रता के तुरंत बाद न्यायविदों के चिंतन के केंद्र बिंदु रहे और  विधि आयोग ने अपनी पहली रिपोर्ट दुष्कृत्यों में राज्य दायित्व विषय पर विधि मंत्रालय को दिनांक 11.05.1956  को सौंपी| इस रिपोर्ट में राज्य के दायित्व के संबंध में कानून बनाने की अभिशंसा के साथ यह भी बल दिया गया कि राज्य के दायित्व के लिए लापरवाही के प्रमाण की आवश्यकता न समझी जाये| रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि जनता कानून के बारे में स्पष्ट जान सके अत: इस विषय पर विधायिका का स्पष्ट और सुपरिभाषित कानून होना चाहिए न कि न्यायाधीशों के दृष्टिकोण के अनुसार कानून का विकास किये जाने के लिए इसे उनकी दया पर खुला छोड़ दिया जाय| किन्तु अत्यंत खेद जनक है कि देश की विधायिका और विधि मंत्रालय ने इस रिपोर्ट पर विचार कर आज तक किसी कानून का निर्माण नहीं किया है और न ही इन सिफारिशों को अस्वीकार करने के कारणों से जनता को अवगत करवाया गया है| फलत: राज्य और उसके सेवकों के दुष्कृत्यों के विरुद्ध नागरिकों को आज भी किसी विशिष्ट कानून में कोई उपचार उपलब्ध नहीं हैं और जनता उपचारहीन स्थिति का सामना कर रही है| किसी स्पष्ट कानून के अभाव में न्यायालय अपने विवेक से कानून की व्याख्या करते हैं और यह स्थिति नागरिकों के लिए सुखद नहीं है|    जहां बम्बई उच्च न्यायालय ने एक दिन की अवैध हिरासत के लिए वीणा सिप्पी को 275000 रूपये क्षतिपूर्ति दिलवाई वहीं उस न्यायालय के उसी न्यायाधीश वाली बेंच ने कादर सत्तार सोलंकी को मात्र 15000 रुपये की क्षतिपूर्ति दिलवाई है| यहाँ तक कि देश में विधि स्नातक के पाठ्यक्रम में दुष्कृति विधि शामिल है किन्तु उसमें भी विदेशी दृष्टांत ही पढाए जाते हैं व मुश्किल से ही कोई भारतीय उदाहरण मिल पाता है| ठीक इसी प्रकार पुलिस थानों में एफ आई आर लिखना या न लिखना पुलिस अपना विशेषाधिकार मानती है और यह स्थिति जनता को लंबे समय से परेशान कर रही है| दिनांक 25.04.1980  को विधि मंत्रालय को सौंपी गयी विधि आयोग की 84 वीं रिपोर्ट के पृष्ठ 20 पैरा 3.32 में विधि आयोग ने स्पष्ट सिफारिश की थी कि संज्ञेय अपराध की सूचना मिलने पर पुलिस द्वारा एफ आई आर नहीं लिखने को भारतीय दंड संहिता की नई धारा 167क के अंतर्गत संज्ञेय और जमानतीय अपराध माना जाय व प्रसंज्ञान लेने के लिए किसी दोषी अधिकारी विशेष के नाम की आवश्यकता नहीं समझी जाए| विधि आयोग न्यायविदों का बहु-सदस्यीय संस्थान है जिसके अध्यक्ष सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत न्यायाधीश होते हैं| अत: आयोग की सिफारिशें महत्वपूर्ण होती हैं न कि किसी कूड़ेदान में फैंकने के योग्य| किन्तु भारत सरकार ने इतनी लंबी अवधि बीतने के बावजूद भी इस अनुशंसा पर कोई सार्थक कार्यवाही नहीं की है| इससे यह संकेत मिलता है कि हमारे चुने गए जन प्रतिनिधियों पर पुलिस बल हावी है या दोनों के मध्य अपवित्र गठबंधन है, देश की शासन-प्रणाली में लोकतंत्र के तत्वों का अभाव है व आज भी पुलिस राज कायम है|  देश की विधायिका सार्थक बहस के साथ किसी दूरगामी और टिकाऊ परिणाम वाले ठोस कानून निर्माण के स्थान पर राजनैतिक लाभ के लिए तात्कालिक व सस्ती-लोकप्रियता वाले कानून और योजनाएं बनाने, और आरोप-प्रत्यारोप व शोर-शराबे में जनता का समय और धन बर्बाद कर रही है| ऐसे मामले जिनमें नोट या वोट का प्रश्न नहीं हो सामान्यतया बिना बहस के ही पारित कर दिए जाते हैं किन्तु जिन मामलों में वोट बैंक का प्रश्न हो उसमें आवश्यकतानुसार सभी चुप्पी साध लेते हैं या सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित हो जाता है| बांग्लादेशी विस्थापितों की समस्या इसका ज्वलंत उदाहरण है| हमारी विधायिका ने पशु क्रूरता निवारण (1960)  और घरेलू हिंसा के विषय में तो कानून बना दिये हैं लेकिन आज तक पुलिस हिंसा से निपटने के लिए किसी कानून का निर्माण में असमर्थ रहना इसका ज्वलंत उदाहरण है| फलत: अपराधों पर नियंत्रण पाने के लिए पुलिस आज भी प्रतिहिंसात्मक तरीकों से कानून को अपने हाथ में लेती रहती है और पुलिस के हाथों में जनता की स्थिति आज स्वतंत्र भारत में भी पशुओं से बदतर है| देश के कानून में पुलिस क्रूरता से बचाव के लिए जनता को पशुओं के समान भी अधिकार उपलब्ध नहीं हैं|

65 वर्षों के स्वतंत्रता काल के बावजूद देश में वास्तविक कानून का राज स्थापित नहीं हो पाया है और आंशिक न्याय की अवधारण पर आधारित विधि आयोग की रिपोर्टें इस स्थिति में न ही कोई मौलिक परिवर्तन कर पायी हैं| स्वतंत्रता के बाद भी देश में पुलिस और नौकरशाही के हाथ मजबूत ही हुए हैं| देश के कर्णधार जनता को नैतिकता का पाठ पढाने में विफल रहे हैं| दूसरी ओर युद्ध जर्जरित जापान का पुनर्निर्माण और हमारी स्वतंत्रता प्राप्ति लगभग समकालीन ही है किन्तु आज जापान और हमारी परिस्थितियों में भारी अंतर है, बावजूद इसके कि जापान में प्राकृतिक संसाधनों का अभाव है और हमारे यहाँ प्राकृतिक संसाधन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं| स्मरण रहे कि जापान में मात्र 1/6 भूमि ही समतल और कृषि योग्य है|
किसी विषय पर स्पष्ट नीति होने से उस विषय में मनमानी करने के अवसर न्यूनतम होते हैं किन्तु देश की स्वतंत्रता को 65 वर्ष होने पर भी आज तक न्यायालय खोलने या न्यायाधीश का पद सृजित करने के लिए कोई नीति नहीं बन पाई है| यह स्थिति न्यायाधीशों और राजनेताओं दोनों को मिलकर मनमानी व राजनीति करने के लिए खुला अवसर मुहैया करवाती है अत: किसी भी पक्षकार ने इस स्थति में परिवर्तन की पहल नहीं की है| वैसे भी राजनीतिक पृष्ठ भूमि वाले वकील ही संवैधानिक न्यायालयों में न्यायाधीश नियुक्त हो पाते हैं| एक बार सेवानिवृत न्यायाधिपति इसरानी के लिए कांग्रेस पार्टी से उन्हें राज्य सभा सदस्यता दिलाने की मांग करते हुए राजस्थान के सिंधी समाज ने कहा था कि उन्होंने पार्टी की बड़ी सेवा की है| जब किसी विषय विशेष के लिए  न्याय निकाय की आवश्यकता अनुभव होती है तो उसके लिए अलग से ट्राइब्यूनल का गठन कर दिया जाता है और यह तर्क दिया जाता है कि इससे जल्दी न्याय मिलेगा| उपभोक्ता, सूचना के अधिकार , सेवा आदि से सम्बंधित मामलों की सुनवाई इन ट्राइब्यूनल में हो रही है जो कि समान रूप से विलम्बकारी हैं| वास्तव में इन ट्राइब्यूनलों के गठन के पीछे कई छुपे हुए उद्देश्य हैं यथा राजनैतिक दलों द्वारा अपने स्वामिभक्त लोगों को महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त कर जनाधार मजबूत करना, ट्राइब्यूनलों के माध्यम से न्यायिक क्षेत्र पर नियंत्रण रखना क्योंकि ये  ट्राइब्यूनल संबद्ध मंत्रालय के नियंत्रण में कार्य करते हैं न कि उच्च न्यायालय के नियंत्रण में| सेवा निवृत लोगों को नियुक्त कर उन्हें, सेवा काल के कुकृत्यों के लिए, ब्लैकमेल करते रहना ताकि वे अधिकाधिक निर्णय सरकार के पक्ष में करते रहें| पारदर्शी सार्वजानिक जांच या लिखित परीक्षा के बिना लोकतंत्र में नियुक्त प्रत्येक (न्यायिक या गैर न्यायिक) लोक अधिकारी जनता पर जबरदस्ती थोपा गया सामन्तशाह है जिसकी स्वस्थ लोकतंत्र मे अनुमति नहीं दी जा सकती| सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 37 में सारांशिक कार्यवाही का प्रावधान पहले से ही है और सरकार इस सूची में संशोधन और परिवर्द्धन करके किसी भी मामले को सिविल न्यायालयों द्वारा ही सारांशिक कार्यवाही प्रक्रिया से शीघ्र निर्णित करने की व्यवस्था कर सकती है| आवश्यकतानुसार शुल्क में रियायत या मुक्ति की व्यवस्था भी की जा सकती है| इस प्रकार किसी भी प्रकरण के लिए अलग से किसी  ट्राइब्यूनल की कोई आवश्यकता नहीं है बल्कि ट्राइब्यूनलों के गठन के पीछे तो छुपे हुए अपवित्र उद्देश्य होते हैं|    
 हमारी सवा अरब की आबादी में हमें आज क्रिकेट और हाकी तक के लिए देश में योग्य व (पक्षपात से दूर रहने वाले) विश्वसनीय कोच नहीं मिले फलत: हमें विदेशी कोचों की सेवाएं लेनी पडी हैं तो संवेदनशील न्यायिक क्षेत्र में हमें विश्वसनीय व्यक्ति मिलने की आशा किस प्रकार करनी चाहिए| आज अंतर्राष्ट्रीयकरण के दौर में न्यायिक क्षेत्र में भी विदेशी सेवाओं की सख्त आवश्यकता है| विधि आयोग में नियुक्तियों के लिए अमेरिका, इंग्लॅण्ड जैसे देशों के उन प्रतिष्ठित न्यायविदों को वरीयता दी जाये जो मूलत: जनतांत्रिक विचार रखते हों| अन्य सदस्य नियुक्त करते समय भी ध्यान रखा जाये कि उनमें से पेशेवर वकील या न्यायाधीश कम से कम हों अन्यथा ये लोग अपनी बिरादरी के हितों को प्रभावित करने वाली कोई बात मुश्किल से ही कहेंगे| संभव हो तो विधि मंत्री भी किसी सुलझे हुए गैर-राजनैतिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्ति को ही बनाया जाय जब देश में राजनीति अस्वच्छता का दूसरा नाम बन चुकी है| देश की विधायिका इस पर शीघ्र ध्यान दे अन्यथा इस लोकतंत्र की लुटिया डूब जायेगी|

Monday 19 November 2012

भारत और अन्य देशों में अवमान कानून

भारत के न्यायालय अवमान अधिनियम की धारा 10 के परंतुक में कहा गया है कि कोई भी उच्च न्यायालय अपने अधीनस्थ न्यायालयों के संबंध में ऐसे अवमान का संज्ञान नहीं लेगा जो भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत दंडनीय हैं| न्यायाधीशों के साथ अभद्र व्यवहार, गाली गलोज, हाथापाई आदि ऐसे अपराध हैं जो स्वयं भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत  दंडनीय हैं और उच्च न्यायालयों को ऐसे प्रकरणों में संज्ञान नहीं लेना चाहिए| किन्तु उच्च न्यायालय अपनी प्रतिष्ठा और  अहम् का प्रश्न समझकर ऐसे तुच्छ मामलों में भी कार्यवाही करते हैं| इंग्लॅण्ड के अवमान कानून में तो मात्र उसी कार्य को अवमान माना गया है जो किसी मामले विशेष में प्रत्यक्षत: हस्तक्षेप करता हो जबकि भारत में तो ऐसे मामलों में कार्यवाही ही नहीं की जाती अर्थात झूठी गवाहे देने, झूठा कथन करने या झूठे दस्तावेज प्रस्तुत करने के मामले में भारत में सामान्यतया कोई कार्यवाही नहीं होती और परिणामत: न्यायिक कार्यवाहियां उलझती जाती हैं,जटिल से जटिलतर होती जाती हैं और न्याय पक्षकारों से दूर भागता रहता है| बारबार आदेशों के उपरान्त पुलिस अधिकारियों के उपस्थित नहीं होने पर भी न्यायालय उनके विरुद्ध कोई कार्यवाही संस्थित नहीं करते जबकि एक सामान्य साक्षी के किसी दिन विलम्ब से पहुँचने पर भी उसे दण्डित कर दिया जाता है जिससे ऐसा लगता है कि एक म्यान में दो तलवारें हैं और भारत के न्यायाधीश अर्द्धपुलिस अधिकारी हैं|
भारत में कई उदाहरण यह गवाही देते हैं कि देश की न्यायपालिका स्वतंत्र एवं निष्पक्ष नहीं होकर स्वछन्द है| कुछ समय पूर्व माननीय कृषि मंत्री शरद पंवार के थप्पड़ मारने पर हरविन्द्र सिंह को पुलिस ने तत्काल गिरफ्तार कर लिया और उन पर कई अभियोग लगाकर मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया| मजिस्ट्रेट ने भी हरविंदर सिंह को 14 दिन के लिए हिरासत में भेज दिया| देश की पुलिस एवं न्यायपालिका से यह यक्ष प्रश्न है कि क्या, संविधान के अनुच्छेद 14 की अनुपालना  में, वे एक सामान्य नागरिक के थप्पड़ मारने पर भी यही अभियोग लगाते, इतनी तत्परता दिखाते और इतनी ही अवधि के लिए हिरासत में भेज देते|
सुप्रीम कोर्ट ने ई.एम.शंकरन नंबुरीपाद बनाम टी नारायण नमीबियार (1970 एआईआर 2015) के अवमान प्रकरण में अपराध के आशय के विषय में कहा है कि उसने ऐसे किसी परिणाम का आशय नहीं रखा था यह तथ्य दण्ड देने  में विचारणीय हो सकता है किन्तु अवमान में दोष सिद्धि के लिए आशय साबित करना आवश्यक नहीं है। जबकि सामान्यतया आशय को अपराध का एक आवश्यक तत्व माना जाता है| एक अन्य प्रकरण सी के दफतरी बनाम ओ पी गुप्ता (1971 एआईआर 1132) के निर्णय में भी सुप्रीम कोर्ट ने निर्धारित किया है कि अवमान के अभियुक्त को मात्र शपथ-पत्र दायर करने की अनुमति है किन्तु वह कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं कर सकता| वह अवमान का औचित्य स्थापित नहीं कर सकता| यदि अवमानकारी को आरोपों का औचित्य स्थापित करने की अनुमति दी जाने लगी तो हताश और हारे हुए पक्षकार या एक न एक पक्षकार बदला लेने के लिए न्यायाधीशों को गालियाँ देने लगेंगे| भारत का यह कानून मूलभूत मानव अधिकारों के विरूद्ध है जो एक अभियुक्त को बचाव का पूर्ण अवसर नहीं देता है|
न्यायालय ने एक अन्य निर्णित वाद का सन्दर्भ देते हुए आगे कहा कि अवमान के मामले में दंड प्रक्रिया संहिता के प्रावधान लागू नहीं होते और इसे अपनी स्वयं की प्रक्रिया निर्धारित कर सारांशिक कार्यवाही कर निपटाया जा सकता है,मात्र ऐसी प्रक्रिया उचित होनी चाहिए| यह नियम प्रिवी कोंसिल ने पोलार्ड के मामले में निर्धारित किया था और भारत व बर्मा में इसका अनुसरण किया जाता रहा है और यह आज भी कानून है| प्रतिवादी ने वकील नियुक्त करने हेतु समय मांगते हुए निवेदन किया कि वे लोग वर्तमान में चुनाव लडने में व्यस्त हैं किन्तु न्यायालय ने समय देने से मना कर दिया| इस प्रकार अवमान के अभियुक्त को देश के सर्वोच्च न्यायिक संस्थान ने बचाव का उचित अवसर दिए बिना ही दण्डित कर दिया| प्रश्न यह उठता है कि यदि दंड प्रक्रिया संहिता को छोड़कर भी अन्य प्रक्रिया उचित हो सकती है तो फिर ऐसी उचित प्रक्रिया अन्य आपराधिक कार्यवाहियों में क्यों नहीं अपनाई जाती| देश के संवैधानिक न्यायालयों को भ्रान्ति है कि वे अपनी प्रकिया के नियम स्वयं स्वतंत्र रूप से बना सकते हैं और इस भ्रान्ति के चलते वे प्रेक्टिस डायरेक्शन, सर्कुलर, हैण्ड बुक आदि बनाकर अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण का रहे हैं| जबकि देश का संविधान उन्हें ऐसा करने की कोई अनुमति नहीं देता है| संविधान के अनुच्छेद 227(3) के परंतुक के अनुसार उच्च न्यायालयों को राज्यपाल की पूर्वानुमति और अनुच्छेद 145 के अनुसार सुप्रीम कोर्ट को राष्ट्रपति की पूर्वानुमति से ही प्रक्रिया के नियम बनाने का अधिकार है| वैसे भी अवमान कोई गंभीर और जघन्य अपराध नहीं है जिसके लिए तुरंत दंड देना आवश्यक हो| गंभीर और जघन्य अपराधों के मामलों में विधायिका ने अधिकतम सजा मृत्यु दंड या आजीवन कारावास निर्धारित कर रखी है जबकि अवमान कानून में अधिकतम सजा छ: मास का कारावास मात्र है| 
पुराने समय से यह अवधारणा प्रचलित रही है कि राजा ईश्वरीय शक्तियों का प्रयोग करता है और न्यायाधीश उसका प्रतिनिधित्व करते हैं अत: वे संप्रभु हैं| किन्तु लोकतंत्र के नए युग के सूत्रपात से न्यायपालिका व इसकी प्रक्रियाओं को आलोचना से संरक्षण देना एक समस्या को आमंत्रित करना है| यद्यपि भारतीय अवमान कानून में वर्ष 2006 में किये गए संशोधन से तथ्य को एक बचाव के रूप में मान्य किया जा सकता है यदि ऐसा करना जनहित में हो किन्तु भारतीय न्यायपालिका इतनी उदार नहीं है और उसमें  अपनी आलोचना सुनने का साहस व संयम नहीं है चाहे यह एक तथ्य ही क्यों न हो| हाल ही में मिड-डे न्यूजपेपर के मामले में भारतीय न्यायपालिका की निष्पक्षता और बचाव पक्ष के असहायपन पर पुनः प्रश्न चिन्ह लगा जब अभियुक्तों को तथ्य को एक बचाव के रूप में अनुमत नहीं किया गया| समाचार पत्र ने एक सेवानिवृत न्यायाधीश के कृत्यों पर तथ्यों पर आधारित एक लेख और कार्टून प्रकाशित किया था जिसे न्यायालय ने अवमान माना कि इससे न्यायपालिका की छवि धूमिल हुई है| यक्ष प्रश्न यह है कि न्यायपालिका की छवि को वास्तव में नुक्सान उन न्यायाधीश महोदय के कृत्य से हुआ अथवा उस कृत्य के प्रकाशन से| न्यायालय में विचाराधीन कार्यवाही के विषय में समाचार प्रकाशित करने को भी भारत के न्यायालय अवमान मानते हैं और कहते हैं कि इससे निर्णय प्रभावित हो सकता है अत: यह न्यायिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप है| जबकि न्यायाधीश यह भूल रहे हैं कि उन्होंने सेवा ग्रहण करते समय शपथ लेकर जनता को वचन दिया था कि वे बिना राग-द्वेष  और बिना पक्षपात-भय के कार्य करेंगे| यदि मिडिया रिपोर्ट से उनके निर्णय प्रभावित होने की आशंका हो तो उन्हें मिडिया रिपोर्टें नहीं देखनी चाहिए| मात्र एक न्यायाधीश के ऐसे अंदेशे के आधार पर सम्पूर्ण देश को जानने से वंचित नहीं किया जा सकता| 
यद्यपि अवमान कानून में कहीं पर भी यह प्रावधान नहीं है कि संचार जगत में प्रकाशित किसी विवरण के आधार पर न्यायालय स्वप्रेरणा से संज्ञान ले सकेंगे किन्तु फिर भी ऐसा होता है| वहीँ दूसरी ओर दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 190(1)(ग) में यह स्पष्ट प्रावधान है कि एक मजिस्ट्रेट अन्य व्यक्ति से सूचना प्राप्त होने या स्वयं की जानकारी से किसी अपराध का प्रसंज्ञान ले सकता है| आज संचार जगत में बहुत सी अपराध की ख़बरें छपती हैं और मजिस्ट्रेटों की जानकारी में भी आती हैं किन्तु मुश्किल से ही भारत में कोई मजिस्ट्रेट इनका प्रसंज्ञान लेता है जिससे यह लगता है मानों न्यायालय जनता की रक्षा के स्थान पर स्वयं अपनी रक्षा के लिए बनाये गए हों|    
दूसरी ओर आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि वकीलों की हड़ताल, धरने, कार्य स्थगन, पक्षकारों के न्यायालय में प्रवेश को रोकने और यहाँ तक कि न्यायालय के प्रवेश द्वार के ताला लगाने तक को न्याय प्रशासन में बाधा मानकर संविधान के रक्षक न्यायालय कोई संज्ञान नहीं लेते हैं| न्यायालय को वकील हड़ताल का नोटिस दी देते हैं और न्यायालय उसका अनुपालन करते हैं| क्या यही न्यायपालिका की स्वतंत्रता की निशानी है? वैसे जो प्रशंसा या आलोचना का हकदार हो उसे वह अवश्य मिलना चाहिए किन्तु कई बार मीडिया द्वारा निहित स्वार्थवश अतिशयोक्तिपूर्ण कथनों से न्यायालयों की अनावश्यक प्रशंसा भी की जाती है जिससे जन मानस में भ्रान्ति फैलती है और समान रूप से जन हित की हानि होती है| क्या न्यायालय ऐसी स्थिति में भी स्वप्रेरणा से मीडिया के विरुद्ध कोई कार्यवाही करते हैं?
इंग्लॅण्ड का एक रोचक मामला इस प्रकार है कि एक भूतपूर्व जासूस पीटर राइट ने अपने अनुभवों पर आधारित पुस्तक लिखी| ब्रिटिश सरकार  ने इसके प्रकाशन को प्रतिबंधित करने के लिए याचिका दायर की कि पुस्तक गोपनीय है और इसका  प्रकाशन राष्ट्र हित के प्रतिकूल है| हॉउस ऑफ लोर्ड्स ने 3-2  के बहुमत से पुस्तक के प्रकाशन पर रोक लगा दी| प्रेस इससे क्रुद्ध हुई और डेली मिरर ने न्यायाधीशों के उलटे चित्र प्रकाशित करते हुए ये मूर्खशीर्षक दिया| किन्तु इंग्लॅण्ड में न्यायाधीश व्यक्तिगत अपमान पर ध्यान नहीं देते हैं| न्यायाधीशों का विचार था कि उन्हें विश्वास है वे मूर्ख नहीं हैं किन्तु अन्य लोगों को अपने विचार व्यक्त करने का अधिकार है|ठीक इसी प्रकार यदि न्यायाधीश वास्तव में ईमानदार हैं तो उनकी ईमानदारी पर लांछन मात्र से तथ्य मिट नहीं जायेगा और यदि ऐसा प्रकाशन तथ्यों से परे हो तो एक आम नागरिक की भांति न्यायालय या न्यायाधीश भी समाचारपत्र से ऐसी सामग्री का खंडन प्रकाशित करने की अपेक्षा कर सकता है| न्यायपालिका का गठन नागरिकों के अधिकारों और प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए किया जाता है न कि स्वयं न्यायपालिका की प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए| न्यायपालिका की संस्थागत छवि तो निश्चित रूप से एक लेख मात्र से धूमिल नहीं हो सकती और यदि छवि ही इतनी नाज़ुक या क्षणभंगुर हो तो स्थिति अलग हो सकती है| जहां तक न्यायाधीश की व्यक्तिगत बदनामी का प्रश्न है उसके लिए वे स्वयम कार्यवाही करने को स्वतंत्र हैं| इस प्रकार अनुदार भारतीय न्यायपालिका द्वारा अवमान कानून का अनावश्यक प्रयोग समय समय पर जन चर्चा का विषय रहा है जो मजबूत लोकतंत्र की स्थापना के मार्ग में अपने आप में एक गंभीर चुनौती है|

सुप्रीम कोर्ट का एम.आर.पाराशर बनाम डॉ. फारूक अब्दुल्ला- {1984 क्रि.s aaला. रि. (सु. को.)} में  कहना है कि किसी भी संस्थान या तंत्र की सद्भावनापूर्ण आलोचना उस संस्थान या तंत्र के प्रशासन को अन्दर झांकने और अपनी लोक-छवि में निखार हेतु उत्प्रेरित करती है। न्यायालय इस स्थिति की अवधारणा पसंद नहीं करते कि उनकी कार्यप्रणाली में किसी सुधार की आवश्यकता नहीं है। दिल्ली उ. न्या. ने सांसदों द्वारा प्रश्न पूछने के बदले धन लिए जाने  के प्रमुख प्रकरण अनिरूद्ध बहल बनाम राज्य में निर्णय दि. 24.09.10 में कहा है कि सजग एवं सतर्क रहते हुए राष्ट्र की आवश्यकताओं एवं अपेक्षाओं के अनुसार दिन-रात रक्षा की जानी चाहिए और उच्च स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार को उजागर करना चाहिए। अनुच्छेद 51 क (छ) के अन्तर्गत जांच-पड़ताल एवं सुधार की भावना विकसित करना नागरिक का कर्तव्य है। अनुच्छेद 51 क (झ) के अन्तर्गत समस्त क्षेत्रों में उत्कृष्टता के लिए अथक प्रयास करना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है ताकि राष्ट्र आगे बढे। जीन्यूज के रिपोटर ने जब अहमदाबाद के एक न्यायालय से चालीस हजार रूपये में तत्कालीन राष्ट्रपति, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधिपति, सुप्रीम कोर्ट के एक अन्य न्यायाधीश और एक वकील के विरुद्ध अनुचित रूप से जमानती वारंट हासिल कर लिए हों तो आम नागरिक के लिए न्यायपालिका की कार्यशैली व छवि के विषय में कितना चिंतन करना शेष रह जाता है| यह उदाहरण तो समुद्र में तैरते हिमखंड के दिखाई देने वाले भाग के समान है जानकार लोग ही इसकी वास्तविक गहराई का अनुमान लगा सकते हैं| हाल ही के सिंघवी सीडी प्रकरण ने तो उच्च न्यायालयों में नियुक्तियों में अस्वच्छ राजनीतिक हस्तक्षेप प्रकट किया है| अवमान का उपयोग अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमले के लिए कदाचित नहीं किया जाना चाहिए| यदि अवमान के ब्रह्माश्त्र का प्रयोग कर न्यायपालिका में व्याप्त अस्वच्छता को उजागर करने पर ही प्रतिबन्ध लगा दिया जाय तो फिर न्यायपालिका का शुद्धिकरण किस प्रकार संभव है जबकि देश में न्यायपालिका के विरुद्ध शिकायतों के लिए कोई अन्य मंच ही नहीं है|
गौहाटी उ.न्या. के कुछ न्यायाधीशों के प्रति असम्मानजनक भाषा में समाचार प्रकाशित करने पर स्वप्रेरणा से अवमान हेतु संज्ञान लिया गया। प्रत्यार्थियों ने बाद में असम्मानजनक शब्दों के लिए क्षमा याचना करते हुए तथ्यों की पुष्टि कायम रखी। गौहाटी उ.न्या. ने इस ललित कलिता के मामले में दिनांक 04.03.08 को दिए निर्णय में कहा कि निर्णय समालोचना हेतु असंदिग्ध रूप से खुले हैं। एक निर्णय की कोई भी समालोचना चाहे कितनी ही सशक्त हो, न्यायालय की अवमान नहीं हो सकती बशर्ते कि यह सद्भाविक एवं तर्क संगत शालीनता की सीमाओं के भीतर हो। एक निर्णय, जो लोक दस्तावेज है या न्याय-प्रशासक न्यायाधीश का लोक कृत्य है, की उचित एवं तर्क संगत आलोचना अवमान नहीं बनती है। स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने करतार सिंह बनाम पंजाब राज्य (1956 AIR  541) के मामले में कहा है कि जो कोई लोक पद धारण करता हो उसे उस पद से जुड़े आलोचना के हमले को, यद्यपि दुखदायी है, स्वीकार करना चाहिए|  

उधर दिनांक 01.01.1995 से लागू चीन के राज्य क्षतिपूर्ति कानून में तो राज्य के अन्य अंगों के समान ही अनुचित न्यायिक कृत्यों से व्यथित नागरिकों को क्षति पूर्ति का भी अधिकार है व सरकार को यह अधिकार है कि वह इस राशि की वसूली दोषी अधिकारी से करे| वहाँ न्यायपालिका भी राज्य के अन्य अंगों के समान ही अपने कार्यों के लिए जनता के प्रति दायीं है, और भारत की तरह किसी प्रकार भिन्न अथवा श्रेष्ठ नहीं मानी गयी है|


दूसरी ओर हमारे पडौसी देश श्रीलंका में अवमान कानून की बड़ी उदार व्याख्या की जाती है| श्रीलंका के अपीलीय न्यायालय ने सोमिन्द्र बनाम सुरेसना के अवमान प्रकरण में न्यायाधिपति गुणवर्धने ने दिनांक 29.05.98  को निर्णय देते हुए कहा कि दोष सिद्ध करने के लिए आवश्यक है कि प्रमाण का स्तर समस्त युक्तियुक्त और तर्कसंगत संदेह के दायरे से बाहर होना चाहिए| प्रकरण में न्यायालय के आदेश से सरकारी सर्वेयर अपना कार्य कर रहा था और उसने प्रकरण प्रस्तुत किया कि उसे कार्य नहीं करने दिया गया और बाधा डाली गयी| न्यायालय ने यह भी  कहा कि यदि सर्वेयर निष्पक्ष ढंग से कार्य नहीं कर रहा हो तो उससे पक्षकारों की भावनाओं को उत्तेजना मिलती है व किसी के साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार किया जाए तो गुस्सा और ऊँची आवाज स्वाभाविक परिणति है| दुर्भाग्य से स्वतंत्र भारत के इतिहास में अवमान के मामलों में शायद ही कभी इस वास्तविकता को स्वीकार किया गया है| मर्यादा की अपेक्षा कदापि  एक तरफा नहीं हो सकती| न्यायालय ने आगे कहा कि यद्यपि सर्वेयर के कार्य में बाधा डालना आपराधिक अवमान है| सिविल और आपराधिक अवमान दोनों का उद्देश्य सारत: एक ही है कि न्याय प्रशासन की प्रभावशीलता को कायम रखना और दोनों  ही स्थितियों में तर्कसंगत संदेह से परे प्रमाण की आवश्यकता है |

न्यायालय ने धारित किया कि  सर्वेयर के साक्ष्य के आधार पर दोषी को दंड कैसे दिया जा सकता है जबकि सर्वेयर ने अपनी रिपोर्ट में, यदि यह सत्य हो तो,  बाधा डालने का उल्लेख नहीं किया है| इस कारण उसका साक्ष्य अविश्वसनीय है व संदेह से परे न होने कारण अग्राह्य  है और दोषी को मुक्त कर दिया गया| उक्त विवेचन से बड़ा स्पष्ट है कि श्रीलंका में न्यायपालिका का अवमान के प्रति बड़ा उदार रुख है और वह भारतीय न्यायपालिका के विपरीत जनतांत्रिक अधिकारों को महत्व देती है व अपने अहम को गौण समझती है| यह भी उल्लेखनीय है कि श्रीलंका में अवमान नाम का अलग से कोई कानून नहीं है अपितु अवमान सम्बंधित प्रावधान सिविल प्रक्रिया संहिता और न्याय प्रशासन कानून में समाहित करना ही पर्याप्त समझा गया  है और वे सभी न्यायिक कार्यवाहियों के लिए समान हैं| लगता है भारत में तो न्यायपालिका को तुष्ट करने के लिए अलग से अवमान कानून बना रखा है और श्रीलंका की विधायिका ने अवमान सम्बंधित प्रावधान न्याय प्रशासन के उद्देश्य से बनाये हैं|
लोकतंत्र का मूलमन्त्र न्यायपालिका सहित शासन के समस्त अंगों का जनता के प्रति जवाबदेय होना है| चीन के संविधान के अनुच्छेद 128 के अनुसार सुप्रीम कोर्ट संसद  के प्रति जवाबदेय है| इंग्लॅण्ड के कोर्ट अधिनियम, 2003 की धारा 1(1) के अनुसार सुप्रीम कोर्ट का मुखिया लोर्ड चांसलर देश के समस्त न्यायालयों के दक्ष व प्रभावी संचालन के लिए जिम्मेदार है| दूसरी ओर स्वतंत्र होने का अर्थ गैर-जिम्मेदार या बेलगाम घोड़े की भांति     नियंत्रणहीन होना नहीं है| भारत में न्यायालयों व न्यायाधीशों को जन-नियंत्रण से मुक्त रखा गया है और वे कानूनन किसी के प्रति भी जिम्मेदार नहीं हैं|




Saturday 17 November 2012

भ्रष्टाचार अनुकूल परिस्थितियों में पनपता है


भ्रष्टाचार के प्रसंग में जन लोकपाल बिल पर भारत  में यह गर्मागर्म बहस का विषय रहा कि इसके दायरे से किसे बाहर रखा जाये| वैसे भी भ्रष्टाचार पर अंतर्राष्ट्रीय संधि -2003 की भारत ने काफी विलम्ब से वर्ष 2011 में पुष्टि की है जिससे भ्रष्टाचार के विषय में भारत की संजीदगी, गंभीरता  और प्रतिबद्धता का सहज अनुमान लगाया जा सकता है| दूसरी ओर हमारे पडौसी देश पाकिस्तान की स्थिति की ओर देखें तो वहाँ भ्रष्टाचार सम्बंधित मामलों के लिए राष्ट्रीय जवाबदेही ब्यूरो अध्यादेश, 1999 लागू है| यह अध्यादेश सम्पूर्ण पकिस्तान में राष्ट्रपति सहित पाकिस्तान में सेवारत सभी लोक पदधारियों पर लागू है और अभियोजन के लिए किसी पूर्व स्वीकृति की आवश्यकता नहीं है| ऐसी परिस्थितियों में भारत में भी भ्रष्टाचार सम्बंधित किसी भी कानून के दायरे से किसी भी पदाधिकारी को बाहर रखने की क्या आवश्यकता हो सकती है|

अध्यादेश की धारा 16 (ए) के अनुसार ऐसे अपराधों की सुनवाई दिनप्रतिदिन के आधार पर होगी और 30 दिन के भीतर निपटा दी जायेगी| धारा 18 (एफ) के अनुसार कोई भी जांच या अनुसंधान शीघ्रतम किन्तु 75 दिन के भीतर पूर्ण कर लिया जावेगा| धारा 32 के अंतर्गत अंतिम निर्णय के विरुद्ध उच्च न्यायालय में 10 दिन में अपील दाखिल की जा सकेगी और जिसे न्यूनतम दो न्यायाधीशों की बेंच द्वारा सुना जायेगा व अपील दाखिल करने से 30 दिन के भीतर निर्णित कर दिया जायेगा| उक्त के अतिरिक्त पकिस्तान के भ्रष्टाचार  सम्बंधित कानून का दयारा भी बड़ा व्यापक है और उसमें किसी वितीय संस्था, बैंक, सरकारी विभाग  के प्रति दायित्व या ऋण का जानबूझकर चुकारा न करना भी उक्त अध्यादेश  की परिधि में अपराध है| बड़े पैमाने पर आम जनता से धोखाधड़ी और अमानत में खयानत को भी इस कानून के दायरे में लेकर त्वरित कार्यवाही का प्रावधान किया गया है| जबकि भारत में आम जनता के साथ संगठित तौर पर व्यावसायिक धोखाधडियाँ होती रहती हैं और पुलिस व देश के न्यायालय बड़े पैमाने पर पीड़ित देश की जनता के ऐसे मामलों को सिविल प्रकृति का मानकर ख़ारिज करते रहते हैं| उक्त से स्पष्ट है कि जोंक की तरह जनता का रक्तपान करने वाले अपराधियों और भ्रष्टाचारियों के फलने फूलने के लिए भारत भूमि बड़ी अनुकूल है| जिस प्रकार कोई भी वनस्पति या प्राणी अनुकूल वातावरण में आसानी से फलता फूलता है उसी प्रकार विद्यमान परिस्थितियों में भारत में भ्रष्टाचार अच्छी तरह से फलफूल सकता है- नित नए उजागर होने वाले घोटाले इसे प्रमाणित करते हैं| 

दुर्भाग्य से हमारी कमजोर विधायिका द्वारा कोई प्रभावी व सख्त कानून नहीं बनाया जाता और यदि संयोग से हमारी विधायिका कोई जनानुकूल कानूनी प्रावधान कर दे तो हमारी न्यायपालिका उसकी मनमानी व्याख्याकर उसे भी विफल कर देती है| कहने को तो हमारे यहाँ भी भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 19 में यह प्रावधान है कि कोई भी न्यायालय इस अधिनियम के अंतर्गत कार्यवाही के विरुद्ध किसी भी आधार पर रोक नहीं लगायेगा और देश का सुप्रीम कोर्ट भी सत्यनारायण शर्मा बनाम राजस्थान राज्य (AIR 2001 SC 2856) में इस आशय की सैद्धांतिक पुष्टि कर चुका है किन्तु इसके बावजूद देश के विभन्न संवैधानिक न्यायालयों ने भ्रष्टाचार के बहुत से मामलों में आज भी रोक लगा रखी है और इस कारण उनमें परीक्षण रुके हुए हैं| इससे भ्रष्टाचारियों का मनोबल बढता है और पीड़ित व्यक्ति हताश होता है व न्यायप्रणाली में विश्वास कमजोर होता है| किन्तु व्यवहार में भ्रष्टाचार के प्रमाणित मामले में भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो, राजस्थान  द्वारा कार्यवाही नहीं करने की शिकायत पर घोषित नीति के अनुसार उसका कोई न्यायिक संज्ञान लेकर आदेश पारित करने की बजाय भारत का सुप्रीम कोर्ट भी उसे अन्य राजकीय विभाग या फारवर्डिंग एजेन्ट की तरह मात्र फारवर्ड कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता है| यह स्थिति न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर व निष्पक्षता पर प्रश्नचिन्ह लगाती है|
भारत के सामने यह यक्ष प्रश्न है कि पाश्चात्य विकसित लोकतांत्रिक देशों की मजबूत स्थिति को छोड़ भी दिया जाये तो क्या हम हमारे पडौसी देश पाकिस्तान से भी कमजोर हैं अथवा हम भ्रष्टाचार के प्रति गंभीर और प्रतिबद्ध नहीं हैं- इस गंभीर अपराध को रोकने के लिए इच्छशक्ति का अभाव है| यदि हम 65 वर्ष के स्वतंत्रता काल में प्रतिवर्ष 1.5% भी परिवर्तन करते तो आज तक सम्पूर्ण व्यवस्था को जनोन्मुखी बना सकते थे किन्तु हमारी अपनी चुनी गयी सरकारें सुधार के नाम पर गत 65 वर्षों से नाटक मात्र कर रही हैं| सुधार के किसी भी सुझाव के विरुद्ध देश के कर्णधार और नौकरशाह एक स्वर में रटारटाया बहाना बनाते हैं कि क्षेत्र बड़ा होने के कारण यह करना कठिन है जबकि इसी अवधारणा पर क्रमश: पंजाब, उत्तरप्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश को विभाजित कर नए राज्यों का निर्माण किया गया था| किन्तु विद्यमान स्थिति गवाह है कि इन नवनिर्मित राज्यों में भी सार्वजनिक धन की लूट, अराजकता, आम नागरिक की असुरक्षा  और  अव्यवस्था में बढ़ोतरी ही हुई है, किसी प्रकार की कमी नहीं| हमें यह स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि जिस प्रकार एक महावत विशालकाय हाथी पर नियंत्रण स्थापित कर लेता है उसी प्रकार सुधार के लिए आकार की बजाय प्रबल इच्छाशक्ति व युक्ति महत्वपूर्ण है| 

भारत में कानून के राज का अभिप्राय

देश में जब तक अनियंत्रित भ्रष्टाचार और विलम्बकारी तन्त्र की गहरी जड़ों वाली उत्पीड़नकारी आपराधिक न्याय प्रणाली जारी रहेगी, तब तक यह  अपराध और क्रूरता से पीड़ित लोगों को न्याय प्रदान से मना करती रहेगी। आज भारत के प्रत्येक उच्च और शक्ति-संपन्न अपराधी को न्यायपालिका पर पूरा विश्‍वास है और वह पूरी तरह से आश्‍वस्त है कि शिकायतकर्ता को वह एक लंबे और शरारतपूर्ण मार्ग पर धकेलने में समर्थ है और इसमें अंतिम विजय उस अपराधी की ही होगी। जहां लगातार देरी से व्यथित व्यक्ति के साथ गंभीर अन्याय होगा। जिसमें औपनिवेशिक व्यवस्था द्वारा देरी से किया न्याय, न्याय हेतु मनाही में बदल जायेगा। जो लोग इस सुस्थापित व्यवस्था को चलाने के लिये प्रशिक्षित और सिद्धहस्त हैं, उनसे न्यायपालिका में कोई चमत्कारिक या क्रांतिकारी बदलाव की अपेक्षा नहीं की जा सकती-ऐसे परिवर्तन, जिनसे बिलकुल विपरीत परिणाम प्राप्त हो सकें।
लोकतंत्र की अपेक्षा है कि ब्रिटिश शासन से बाद भारत के लोगों को सुरक्षा और न्याय मिले। न्यायपालिका को यह भ्रम हो सकता है कि उसकी जनता में बड़ी इज्जत है, जबकि आम भारतीय बहुत लंबे समय से न्यायपालिका और पुलिस दोनों से बुरी तरह से हताश और निराश है, क्योंकि दोनों ही संस्थान अभी भी औपनिवेशिक शासन व्यवस्था की रीति-नीतियों, कानूनों और सिद्धान्तों से संचालित हैं। पुलिस से तो लोग बुरी तरह से आतंकित भी हैं, जबकि न्यायपालिका में बढते भ्रष्टाचार और बड़े लोगों के प्रति न्यायपालिका के उदार नजरियों को लेकर लोगों में गुस्सा है। सभ्य समाज की संवेदनहीनता के कारण आज दुर्घटना और हिंसक अपराधों के पीड़ित दम तोड़ते रहते हैं, किन्तु इस कारण नहीं कि हम अमानवीय हैं, अपितु इस उत्पीड़नकारी आपराधिक न्याय संस्थान  न्यायपालिका व पुलिस  के खोप के कारण कानून में विश्‍वास करने वाले भारत के आम नागरिक न्यायपालिका और पुलिस की उस कार्य संस्द्भति से पूरी तरह से भयभीत हैं जो उसे औपनिवेशिक युग से विरासत में प्राप्त हुई है। आज भी देश की न्यायपालिका लोकतान्त्रिक मूल्यों को नए ढंग से परिभाषित करने के स्थान पर औपनिवेशिक संस्था की तरह तात्कालीन प्रोटोकोल और परम्पराओं को  ही आगे बढ़ा रही है और करोड़ों भारतीयों को शासन का बड़प्पन और शक्ति अति भयभीत कर रहे हैं व आम आदमी को विवश कर संस्थागत न्यायिक विलम्ब के निर्बाध कुचक्र के माध्यम से उसका आर्थिक शोषण कर गंभीर अन्याय के वश में कर रही है तथा एक मात्र हानिकारक भ्रष्टाचार के कारण यह जारी है। औपनिवेशिक काले कानूनों और उनकी भाषा का जारी रहना करोड़ों भारतीयों के लिए आज भी एक पहेली बना हुआ है और भारतीय समाज और समुदाय लोकतान्त्रिक मूल्यों के साथ टकराव जारी रखे हुए है। इन औपनिवेशिक काले कानूनों के माध्यम से किया जाने वाला तथाकथित न्याय हमारे सामाजिक तानेबाने से नहीं निकला है, अपितु वह सत्रहवीं और अठारवीं सदी के यूरोप की उपज है, जो कि कानून और न्याय के नाम पर बड़ी संख्या में मानवजाति को गुलाम बनाने की पश्‍चिमी सामाजिक तकनीक रही है। ये समस्त कानून देशी भारतीयों पर, अंग्रेजों द्वारा थोपे गए एक तरफा अनुबंध मात्र हैं जो जिम्मेदार लोगों को सुरक्षा प्रदान करने के सिद्धांत पर राज्य की स्थापना करते हों। भूत की तरह पुलिस की ओर से आनेवाली गोलियों को आज भी विशेष संरक्षण प्राप्त है। लोगों को ऐसी भाषा में न्याय नहीं दिया जा सकता, जिसे वे जानते ही नहीं हों इंग्लैण्ड में इतालवी या हिंदी भाषा में न्याय देने का दुस्साहस नहीं किया जा सकता, किन्तु भारत में 65 वर्षों से यह सब कुछ जारी है, क्योंकि 2 फरवरी 1835 को थोमस बैबंगटन मैकाले ने इसे इजाद किया था कि हमें एक ऐसा वर्ग तैयार करने का भरसक प्रयास करना है जो हमारे और जिन करोड़ों भारतीयों पर हम शासन करें के बीच अनुवादक का कार्य कर सके। एक ऐसा वर्ग जो रक्त और रंग से तो भारतीय हो, परन्तु विचारों, नैतिकता और रूचि से अंग्रेज हो। आज की भारतीय न्याय व्यवस्था ने मैकाले के स्वप्नों को साकार करने के अतिरिक्त शायद ही कुछ किया होगा? आज की भारतीय न्याय प्रणाली भी काले उपनिवेशवादी कानूनों, प्रोटोकोल और परम्पराओं को जारी रखे हुए है, जिनमें एक गरीब न्यायार्थी की स्थिति मात्र गुलाम जैसी होकर रह जाती है और अत्याचारी पुलिस, जो चाहे अत्याचार कर सकती हैं और निर्भीक  होकर हत्याएं कर सकती है, उसको एक सुरक्षा के आवरण में ढांक दिया जाता है। ऐसे मामलों में स्वतंत्र न्यायिक जांच के लिए मना करने वाली न्यायपालिका इन आपराधिक द्भत्यों का उत्साहपूर्वक संरक्षण करती है। अफसोस कि फिर भी इसे न्याय, कानून के समक्ष समानता और लोकतंत्र कहा जाता है? अब समय आ गया है, जबकि आम भारतीय को सत्य की पहचान करनी चाहिए और इस उपनिवेशवादी मुकदमेबाजी उद्योग की चक्की में नहीं पीसना चाहिए और बदनामीयुक्त जीवन में नहीं रहना चाहिए। स्वतंत्र भारत के सम्पूर्ण काल का जिक्र ही क्या करना, जब मात्र 1990 से लेकर 2007 तक के बीच करीब 17000 हजार आरोपी व्यक्ति अर्थात् पुलिस की अन्य ज्यादतियों और यातनाओं को छोड़कर भी प्रतिदिन औसतन 3 व्यक्ति पुलिस हिरासत में मर चुके हैं और शायद ही इनमें से किसी पुलिसवाले का बाल भी बांका हुआ हो यहॉं तक की प्रमाण स्वरूप घटना का वीडियो उपलब्ध हो तो भी पुलिस का कुछ नहीं बिगड़ता! आखिर पुलिस अंग्रेजी शासनकाल से सर्वोच्च जो है। आज हमारी इस विद्भत, और लोकतांत्रिक सिद्धांतों के विपरीत और अनुपयुक्त प्रणाली में तुरंत निम्न परिवर्तन करने की महती आवश्यकता है :-
उन समस्त उपनिवेशवादी काले कानूनों और परम्पराओं की पहचान कर निरस्त किया जाये जो  वर्ग भेद करते हैं और कानून में विश्‍वास करने वालों में भय उत्पन्न करने वाली शक्ति और छवि का प्रदर्शन करते हों और साथ ही जो अपराधियों को अपराध करने को प्रेरित करते हों।
आज राष्ट्रद्रोह कानून को चंद लोगों की मर्जी पर नहीं छोड़ा जा सकता जो जनविरोधी उपनिवेशवादी कानून को अन्याय और भ्रष्टाचार के विरुद्ध उठने वाले स्वरों को दबाने कुचलने लिए चुनिन्दा तौर पर इसका उपयोग करते हों।
उन सभी उपनिवेशवादी कानूनों के अंतर्गत प्रसंज्ञान लिया जाना बंद होना चाहिए, जिनका निर्माण मात्र शासक वर्ग द्वारा शोषण और अत्याचारों के विरुद्ध उठने वाले विरोधी स्वरों को दबाने के लिए किया गया हो। विशेषतया दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 46, 129, 144, 197 आदि और वे सब विशेष कानून जो मुठीभर अपराधियों ने लोगों की स्वतन्त्रता और कानून के समक्ष समानता छीनने के लिए बनाये हों एक लोकतान्त्रिक शासन प्रणाली में राज्य के आपराधिक कानून से किसी को भी विशेष सुरक्षा नहीं दी जा सकती और इससे समानांतर संवैधानिक व्यवस्था का जन्म होता है।
जिन बलों का गठन बाहरी आक्रमणों से रक्षा के लिए किया गया है, उनका देश में प्रयोग नहीं होना चाहिए, क्योंकि उन्हें मात्र बाहरी आक्रमणों से निपटने का प्रशिक्षण होता और उनका देश के नागरिकों के विरुद्ध उपयोग लोकतांत्रिक सिद्धांतों के सर्वथा विपरीत है।
हमारे चुने गए जन प्रतिनिधियों को चाहिए कि वे अपने क्षेत्र की जनता से इन प्रस्तावित विधेयकों पर परामर्श लें। क्योंकि जनता ने उहें अपना प्रतिनिधि चुनकर कोई गुनाह नहीं किया है। अपने सभी लोकतान्त्रिक अधिकार गिरवी नहीं रखे हैं। हमारी मान्यता है कि लोकतंत्र कोई मूकदर्शी खेल नहीं है, बल्कि सतत रूप से कानून का राज है। ऐसे कानून का राज जो जमीनी स्तर के लोगों की सहभागिता वाले हमारे सामाजिक ताने बाने से बुना गया हो।

Sunday 11 November 2012

न्यायपालिका पर नए सवाल


11 नवंबर से भारत में अब तक के सबसे बड़े घोटाले 2जी स्पेक्ट्रम मामले की अदालत में सुनवाई शुरू हो गई है। आरोपियों में पूर्व संचारमंत्री ए. राजा और द्रमुक की ही अन्य दिग्गज सांसद कनीमोरी शामिल हैं। कनीमोरी तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री और द्रमुक सुप्रीमो करुणानिधि की पुत्री हैं। इनके अलावा 12 अन्य लोगों के खिलाफ भी मामला दर्ज किया गया है, जिनमें वरिष्ठ नौकरशाह और उद्योगजगत के बड़े खिलाड़ी शामिल हैं। इस प्रकरण में सरकारी खजाने को अनुमानित दो लाख करोड़ की चपत लगी है। अब सवाल उठता है कि क्या इस मामले में न्याय हो पाएगा और वह भी जल्द? इसका जवाब नकारात्मक नजर आ रहा है। जिस उच्च न्यायपालिका को अब तक संस्थागत ईमानदारी का आखिरी रखवाला माना जाता था, वह भी विधायिका, कार्यपालिका और मीडिया की तरह दागी हो गई है। पथभ्रष्टता अब भारत में आम बात हो गई है।

इस हताशा का तात्कालिक कारण है उच्चतम न्यायालय की पूर्व जज रूमा पाल का व्याख्यान। 10 नवंबर को वीएम तारकुंडे मेमोरियल व्याख्यान में उन्होंने उच्च न्यायपालिका के सात पाप गिनवाए हैं। पापों की यह सूची इस प्रकार है-अपने साथी के अन्यायपूर्ण आचरण पर आंखें मूंदना; पाखंड-न्यायिक स्वतंत्रता के मानकों को विकृत करना; गोपनीयता-न्यायिक आचरण का कोई भी पहलू, यहां तक कि उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति में कोई पारदर्शिता न होना; चोरी और उबाऊ विद्वता- अकसर उच्चतम न्यायालय के जज अपने पूर्ववर्तियों के फैसलों के अंश उठाकर अपने फैसले में लिख देते हैं और उनके नाम का उल्लेख करना भी उचित नहीं समझते। साथ ही वे जटिल भाषा और शब्दाडंबर से भरी भाषा में फैसला देते हैं; व्यक्तिगत अहंकार-उच्च न्यायपालिका अपनी श्रेष्ठता को जजों की अनुशासनहीनता व प्रक्रियाओं के उल्लंघन को छुपाने की ढाल बनाती है; पेशेवर अहंकार-जज पूरी तैयारी किए बिना ही फैसला लिख देते हैं। आखिरी अपराध है भाईभतीजावाद व पक्षपात-अन्य जजों के साथ मिलीभगत करके जज विभिन्न मामलों व नियुक्तियों में एक-दूसरे को फायदा पहुंचाते हैं।

न्यायपालिका की खामियां उजागर करने के लिए तारकुंडे मेमोरियल व्याख्यान जस्टिस रूमा पाल के लिए बिल्कुल सही मंच था, जो खुद भी ईमानदारी और साख के उच्चतम मानकों पर खरे उतरते हैं। जस्टिस तारकुंडे को कभी सुप्रीम कोर्ट में प्रोन्नत नहीं किया गया। विडंबना यह है कि उनकी साख और साहस ही उनके रास्ते में बाधा बन गए। उन्हें भारत में सिविल लिबर्टी आंदोलन के पिता के रूप में याद किया जाता है। वह जाने-माने मानवाधिकार कार्यकर्ता थे। अफसोस की बात है कि भारत में चागला, तारकुंडे और खन्ना के कद के बहुत कम जज हुए हैं, जिन्हें रोल मॉडल के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। यही लोकतंत्र की खामियों का संकेतक है, जहां कानून के शासन की श्रेष्ठता और वैधानिकता व्यवहार रूप में सामने आने चाहिए, न कि अपवाद रूप में। रूमा पाल ने न्यायपालिका में भ्रष्टाचार की गहरी पैठ को भी रेखांकित किया।

भारत की उच्च न्यायपालिका पर भ्रष्टाचार के अनेक दाग लगे हैं। वर्तमान में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष और उच्चतम न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन पर उनके दो पूर्व साथी जजों-जस्टिस शमसुद्दीन और जस्टिस सुकुमारन ने पक्षपात के आरोप लगाए थे। अभी इस आरोप को गलत सिद्ध करना भी शेष है कि बालाकृष्णन के परिवार ने उनके पद के आधार पर भारी संपत्ति अर्जित की। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश वाईके सब्बरवाल पर भी ऐसे ही आरोप लगाए गए थे। जून 2010 में पूर्व कानून मंत्री और टीम अन्ना के सदस्य शांति भूषण ने कुछ पूर्व मुख्य न्यायाधीशों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर कर सुनामी ला दी थी। शांतिभूषण पर भरोसा करें तो देश में अब तक मुख्य न्यायाधीश के पद पर रहे जजों में से आधे भ्रष्ट थे।

दरअसल इस मामले में विवाद का मुद्दा यह है कि क्या भारत की न्यायपालिका को अकुशलता और भ्रष्टाचार के दलदल से बाहर निकाला जा सकता है। जस्टिस पाल ने बिल्कुल सही फरमाया है कि प्रत्येक न्यायाधीश की व्यक्तिगत ईमानदारी और साख ही न्यायिक प्रक्रिया की स्वतंत्रता और विश्वसनीयता कायम रख सकती है। खेद की बात यह है कि भ्रष्ट आचरण को लेकर जिन जजों-पीडी दिनकरन, सौमित्र सेन और वी. रामास्वामी के खिलाफ जिस तरह से महाभियोग की प्रक्रिया चलाई गई उसने न्यायपालिका को लेकर आम भारतीय की निराशा को घटाने के बजाय बढ़ाया ही है। इन सभी मामलों में विधायिका और कार्यपालिका ने तार्किक परिणति पर पहुंचने से पूर्व ही मामले खत्म कर दिए और दागी जजों में से किसी को भी दंडित नहीं किया जा सका। उच्च न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार का समग्र भारतीय ढांचे पर बड़ा घातक प्रभाव पड़ रहा है। इससे लोकतांत्रिक विधान और संविधान की शुचिता का मखौल उड़ रहा है। देश को इस कैंसर से ईमानदारी और प्रतिबद्धता के साथ निपटना होगा अन्यथा भारत भ्रष्टाचार के दलदल में इतना गहरे डूब जाएगा कि उसका उबरना संभव नहीं होगा। सत्यमेव जयते।

लेखक सी. उदयभाष्कर 

http://celebritywriters.jagranjunction.com/2011/11/14/indian-judicial-system-2g-spectrum-scam-case-corruption-in-india/