Wednesday 31 October 2012

भारतीय न्यायपालिका में भ्रष्टाचार


भारतीय न्यायपालिका में भ्रष्टाचार

अंग्रेजी काल से ही न्यायालय शोषण और भ्रष्टाचार के अड्डे बन गये थे। उसी समय यह धारणा बन गयी थी कि जो अदालत के चक्कर में पड़ा, वह बर्बाद हो जाता है। भारतीय न्यायपालिका में भ्रष्टाचार अब आम बात हो गयी है। सर्वोच्च न्यायालय के कई न्यायधीशों पर महाभियोग की कार्यवाही हो चुकी है। न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार में - भाई भतीजावाद , बेहद धीमी और बहुत लंबी न्याय प्रक्रिया , बहुत ही ज्यादा मंहगा अदालती खर्च , न्यायालयों की भारी कमी , और पारदर्शिता की कमी , कर्मचारियों का भ्रष्ट आचरण आदि जैसे कारकों की प्रमुख भूमिका है ।
वैसे विगत छह दशकों में राज्य के तीन अंगों के परफॉर्मेस पर नजर डाली जाए तो न्यायपालिका को ही बेहतर माना जाएगा। अनेक अवसरों पर उसने पूरी निष्ठा और मुस्तैदी से विधायिका और कार्यपालिका द्वारा संविधान उल्लंघन को रोका है, लेकिन अदालतों में पेंडिंग मुकदमों की तीन करोड़ की संख्या का पिरामिड देशवासियों के लिए चिंता और भय उत्पन्न कर रहा है। अदालती फैसलों में पांच साल लगाना तो सामान्य-सी बात है, लेकिन बीस-तीस साल में भी निपटारा न हो पाना आम लोगों के लिए त्रासदी से कम नहीं है। न्याय का मौलिक सिद्धांत है कि विलंब का मतलब न्याय को नकारना होता है। देश की अदालतों में जब करोड़ों मामलों में न्याय नकारा जा रहा हो तो आम आदमी को न्याय सुलभ हो पाना आकाश के तारे तोड़ना जैसा होगा।
वस्तुत: अदालतों में त्वरित निर्णय न हो पाने के लिए यह कार्यप्रणाली ज्यादा दोषी है जो अंग्रेजी शासन की देन है और उसमें व्यापक परिवर्तन नहीं किया गया है। कई मामलों में तो वादी या प्रतिवादी ही प्रयास करते हैं कि फैसले की नौबत ही नहीं आ पाए। समाचार-पत्रों और टीवी के बावजूद नोटिस तामीली के लिए उनका सहारा नहीं लिया जाता और नोटिस तामील होने में वक्त जाया होता रहता है। आवश्यकता इस बात की है कि कानूनों में सुधार करके जमानत और अपीलों की चेन में कटौती की जाए और पेशियां बढ़ाने पर बंदिश लगाई जाए। हालांकि देश में भ्रष्टाचार इतना सर्वन्यायी हुआ है कि कोई भी कोना उसकी सड़ांध से बचा नहीं है, लेकिन फिर भी उच्चस्तरीय न्यायपालिका कुछ अपवाद छोड़कर निस्तवन साफ-सुथरी है। 2007 की ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की रपट अनुसार नीचे के स्तर की अदालतों में लगभग 2630 करोड़ रूपया बतौर रिश्वत दिया गया। अब तो पश्चिम बंगाल के न्यायमूर्ति सेन और कर्नाटक के दिनकरन जैसे मामले प्रकाश में आने से न्यायपालिका की धवल छवि पर कालिख के छींटे पड़े हैं। मुकदमों के निपटारे में विलंब का एक कारण भ्रष्टाचार भी है। उच्चतम न्यायालय और हाईकोर्ट के जजों को हटाने की सांविधानिक प्रक्रिया इतनी जटिल है कि कार्रवाई की जाना बहुत कठिन होता है। न्यायिक आयोग के गठन का मसला सरकारी झूले में वर्षो से झूल रहा है।
उच्चतम न्यायालय द्वारा बच्चों के शिक्षा अधिकार, पर्यावरण की सुरक्षा, चिकित्सा, भ्रष्टाचार, राजनेताओं के अपराधीकरण, मायावती का पुतला प्रेम जैसे अनेक मामलों में दिए गए नुमाया फैसले, रिश्वतखोरी के चंद मामलों और विलंबीकरण के असंख्य मामलों की धुंध में छुप-से गए हैं। यह भारत की गर्वोन्नत न्यायपालिका की ही चमचमाती मिसाल है, जहां सुप्रीम कोर्ट और उसके मुख्य न्यायाधीश उन पर सूचना का अधिकार लागू न होने का दावा करते हैं और दिल्ली हाईकोर्ट उनकी राय से असहमत होकर पिटीशन खारिज कर देता है। यह सुप्रीम कोर्ट ही है, जिसने आंध्रप्रदेश सरकार द्वारा मुसलमानों को शैक्षणिक संस्थाओं में आरक्षण पर रोक लगा दी। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश हों, देश के विधि मंत्री हों या अन्य और लंबित मुकदमों के अंबार को देखकर चिंता में डूब जाते हैं, लेकिन किसी को हल नजर नहीं आता है। उधर, सुप्रीम कोर्ट अदालतों में जजों की कमी का रोना रोता है। उनके अनुसार उच्च न्यायालय के लिए 1500 और निचली अदालतों के लिए 23000 जजों की आवश्यकता है। अभी की स्थिति यह है कि उच्च न्यायालयों में ही 280 पद रिक्त पड़े हैं। जजों की कार्य कुशलता के संबंध में हाल में सेवानिवृत्त हुए उड़ीसा हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस बिलाई नाज ने कहा कि मजिस्ट्रेट कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक के लिए कई जज फौजदारी मामले डील करने में अक्षम हैं। 1998 के फौजदारी अपीलें बंबई उच्च न्यायालय में इसलिए पेंडिंग पड़ी हैं, क्योंकि कोई जज प्रकरण का अध्ययन करने में दिलचस्पी नहीं लेता। वैसे भी पूरी सुविधाएं दिए जाने के बावजूद न्यायपालिका में सार्वजनिक अवकाश भी सर्वाधिक होते हैं। पदों की कमी और रिक्त पदों को भरे जाने में विलंब ऎसी समस्याएं हैं, जिनका निराकरण जल्दी हो। हकीकत तो यह है कि न्यायपालिका की शिथिलता और अकुशलता से तो अपराध और आतंकवाद तक को बढ़ावा मिलता है। दस वर्ष पूर्व मुंबई में हुए आतंकी कांड के प्रकरणों का निपटारा आज तक पूरा नहीं हुआ है, जबकि ब्रिटेन में हुई ऎसी घटना के प्रकरण एक-दो साल में निपटाए जा चुके हैं।
सरकार कई वर्षो से न्यायपालिका में सुधार के लिए कानून लाने की बात कर रही है। अब चार मेट्रो नगरों में सुप्रीम कोर्ट और दिल्ली में फेडरल कोर्ट का नया शिगूफा सामने आया है। वस्तुत: न्यायपालिका की स्वतंत्रता के साथ इस अंग की कार्यकुशलता और शुचिता लोकतंत्र के लिए लाजिमी है। मुकदमों का अंबार निपटाने और सुधार करने के लिए केवल कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका ही नहीं वरन् देश के अग्रणी न्यायविदों, समाज शास्त्रियों और आम लोगों को विश्वास में लिए जाने की आवश्यकता है।


हिंदी विकिपीडिया से साभार 

Wednesday 10 October 2012

बोलने की आजादी और देश द्रोह


प्रमोद जोशी, वरिष्ठ पत्रकार


असीम त्रिवेदी के बहाने चली बहस का एक फायदा यह हुआ कि सरकार ने इस 142 साल पुराने देशद्रोह कानून को बदलने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। मीडिया से सम्बद्ध ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स ने गृह मंत्रालय से इस दिशा में काम करने का अनुरोध किया है। कानूनों का अनुपालन कराने वाली एजेंसियाँ अक्सर सरकार-विरोध  को देश-विरोध समझ बैठती हैं। सूचना एवें प्रसारण मंत्री अम्बिका सोनी ने जीओएम के प्रमुख पी चिदम्बरम को पत्र लिखकर अनुरोध किया है कि दंड संहिता की धारा 124 ए का समुचित संशोधन होना चाहिए। चिदम्बरम ने उनसे सहमति व्यक्त की है। विडंबना है कि इसी दौरान तमिलनाडु में कुडानकुलम में नाभिकीय बिजलीघर लगाने के विरोध में आंदोलन चला रहे लोगों के खिलाफ देशद्रोह के आरोप लगा दिए गए हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, शासन के प्रति विरोध और विद्रोह में काफी महीन रेखा है। हम आसानी से यह कहते हैं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमा है। हम सीमा पर ज़ोर देने लगे हैं, जबकि मूल संविधान में यह सीमा नहीं थी। देश के पहले संविधान संशोधन के मार्फत हमारे संविधान में युक्तिसंगत पाबंदियाँ लगाने का प्रावधान शामिल किया गया। विचार-विनिमय की स्वतंत्रता लोकतंत्र का सबसे महत्वपूर्ण कारक है। किसी ने सवाल किया कि गाली देना क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हो सकती है? वस्तुतः हम भूलते हैं कि मौलिक अधिकार राज्य के बरक्स होते हैं। दो व्यक्तियों के बीच की गाली-गलौज के लिए दूसरे कानून हैं। राज्य की आलोचना के आधार दूसरे हैं। इस पोस्ट में मेरी ज्यादातर सामग्री दो साल पहले की एक पोस्ट से ली गई है। कुछ जगह नए संदर्भ जोड़े हैं। इस मामले में जैसे ही बहस आगे बढ़ती है तब यह सवाल आता है कि क्या हमारे देश, राज्य, सरकार, व्यवस्था का गरीब जनता से कोई वास्ता है? राष्ट्रीय चिह्नों की चिंता काफी लोगों को है, पर इनसान के रूप में जो जीवित राष्ट्रीय चिह्न मौज़ूद हैं उनका अपमान होता है तो कैसा लगता है?


नवम्बर 2010 में साल का नोबेल शांति पुरस्कार चीन के मानवाधिकारवादी ल्यू श्याओबो को देने की घोषणा की गई। इसे लेकर चीन सरकार ने गहरी नाराज़गी ज़ाहिर की थी। चीन के साथ अपनी मैत्री को साबित करने के लिए पाकिस्तान ने भी इस पुरस्कार पर हैरत और परेशानी का इज़हार किया है। नोबेल शांति पुरस्कार पर आमतौर पर राजनीति का मुलम्मा चढ़ा रहता है, पर वह पश्चिम का सम्मानित पुरस्कार है। यह भी सच है कि मानवाधिकारों को लेकर जो दिलचस्पी पश्चिमी देशों में है, वह हमारे जैसे पूर्वी देशों में नहीं है। चीन में साम्यवादी व्यवस्था से असहमति देशद्रोह के दायरे में आती है। इन दिनों विकीलीक्स के संस्थापक जूलियन असांज और उन्हें इक्वेडोर द्वारा दी गई शरण विचार का विषय है। असांज को अपने देश से नहीं अमेरिका से शिकायत है। 
एमनेस्टी इंटरनेशनल और ह्यूमन राइट्स वॉच जैसी संस्थाओं की जो रपटें पाकिस्तान, चीन या अफ्रीकी देशों के खिलाफ जाती हैं हम उनपर विस्तार से चर्चा करते हैं, पर जब हमारी व्यवस्था का जिक्र होता है तो हम उसे पश्चिमी भेदभाव के रूप में देखते हैं। विडंबना है कि इन दिनों मानवाधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की ज़रूरत एक ओर धुर वामपंथी कार्यकर्ता महसूस कर रहे हैं वहीं कश्मीर के गिलानी जैसे नेता महसूस करते हैं, जिनकी लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के बारे में एक जैसी धारणा नहीं है। पर हम इस अधिकार की उपेक्षा नहीं कर सकते हैं। यह अधिकार है तो इसे व्यावहारिक रूप से लागू भी होना चाहिए।
दो साल पहले अरुंधती रॉय ने कहा कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग कभी नहीं रहा। ऐसा उन्होंने पहली बार नहीं कहा। वे इसके पहले भी यह बात कह चुकी हैं। महत्वपूर्ण था उनका दिल्ली की एक सभा में ऐसा कहना। उस सभा में सैयद अली शाह गिलानी भी बोले थे। उनके अलावा पूर्वोत्तर के कुछ राजनैतिक कार्यकर्ता इस सभा में थे। देश की राजधानी में भारतीय राष्ट्र राज्य के बारे में खुलकर ऐसी चर्चा ने बड़ी संख्या में लोगों को मर्माहत किया, सदमा पहुँचाया। पहले रोज़ मीडिया में जब इसकी खबरें छपीं तब तक यह सनसनीखेज़ खबर भर थी। इसके बाद भारतीय जनता पार्टी ने इस सभा में विचार व्यक्त करने वालों पर देशद्रोह का मुकदमा चलाने की माँग की तब अचानक लोगों को लगा कि यह तो देशद्रोह हो गया है।
अरुंधती रॉय के वक्तव्य से जुड़े अनेक मसले हैं, जिनपर मीडियाकर्मी होने के नाते हमें ध्यान देना चाहिए। उन्होंने जो कहा वह देशद्रोह था या नहीं? दूसरे इस प्रकार के संवेदनशील मसलों को किस तरह रिपोर्ट किया जाय? तीसरे कभी ऐसा मौका आ पड़े जब हमें इंसानियत और राष्ट्रप्रेम के बीच चुनाव करना हो तो क्या करें? मीडिया के मार्फत हमारा समाज विचार-विमर्श भी करता है और जानकारी भी हासिल करता है, इसलिए हमारा फर्ज़ होता है कि इसके मार्फत हम पूरी कोशिश करें कि दोनों काम वस्तुगत(ऑब्जेक्टिवली) पूरे हों। हमारा कोई भी दृष्टिकोण हो दूसरे सभी दृष्टिकोणों को सामने रखें। यह बेहद मुश्किल काम है।
हमारे संविधान का अनुच्छेद 19(1) ए नागरिकों को अपनी बात कहने का अधिकार देता है। इस अधिकार पर कुछ पाबंदियाँ भी हैं। अनुच्छेद19(2) ए में कहा गया है कि अनुच्छेद 19(1)ए के होते हुए भी भारत की एकता और अखंडता, देश की सुरक्षा, वैदेशिक रिश्तों, लोक व्यवस्था,  मानहानि, अश्लीलता आदि के मद्देनज़र इस अधिकार को नियंत्रित तथा सीमित किया जा सकता है। भारतीय दंड संहिता की धारा 121ए तथा124ए के अंतर्गत देशद्रोह दंडनीय अपराध हैं। 124ए में उन गतिविधियों के तीन स्पष्टीकरण हैं, जिन्हें देशद्रोह माना जा सकता है। इन स्पष्टीकरणों के बाद भी केदारनाथ बनाम बिहार राज्य के मामले में 1962 में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि जब तक सशस्त्र विद्रोह या हिंसा के इस्तेमाल की अपील न हो तब तक कुछ भी राजद्रोह नहीं है। मोटे तौर पर राष्ट्र-राज्य से असहमति को देशद्रोह नहीं मानना चाहिए।
सन 1922 में अंग्रेज सरकार ने महात्मा गांधी और शंकरलाल घेलाभाई बैंकर पर ‘यंग इंडिया’ में प्रकाशित तीन लेखों को लेकर आईपीसी की धारा124 ए के तहत मुकदमा चलाया। हालांकि महात्मा गांधी और बैंकर ने शुरू में ही आरोप को स्वीकार कर लिया, इसलिए मुकदमे को आगे बढ़ाने की ज़रूरत नहीं थी, पर सरकारी एडवोकेट जनरल सर स्ट्रैंगमैन का आग्रह था कि कार्यवाही पूरी की जाय।
बीसवीं सदी में अभिव्यक्ति के अधिकार को लेकर काफी विचार-विमर्श हुआ। खासतौर से अमेरिका के वियतनाम,अफगानिस्तान और इराक अभियानों के मद्देनज़र। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान देश-द्रोह और देश-भक्ति जैसे जुम्ले ज्यादा ज़ोरदार ढंग से उछले। बीबीसी तक पर कई बार संदेह किया गया। वियतनाम और इराक में कार्रवाई के दौरान अमेरिका में सरकार-विरोधी रैलियाँ निकलतीं रहीं। अच्छा हुआ कि अरुंधती रॉय के खिलाफ कार्रवाई नहीं की गई। इससे हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था मजबूत ही हुई है। कमज़ोर नहीं हुई। 
अरुंधती रॉय के विचार-व्यक्त करने के अधिकार का समर्थन एक बात है और उनके विचारों का समर्थन दूसरी बात है। कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है या नहीं इस बारे में कम से कम उन्हें विशेषज्ञ नहीं माना जा सकता। कश्मीर पर कोई भी दृष्टिकोण तब तक अधूरा है, जब तक उसके सारे पहलू साफ न हों। कश्मीरी पंडित डोगरे और लद्दाख के बौद्ध गिलानी साहब के इस्लामी एजेंडा में फिट नहीं होते। कश्मीर की स्वतंत्रता एक अलग मसला है और उसे पाकिस्तान में शामिल कराने की कामना दूसरा मसला है। अरुंधती रॉय की भारतीय राष्ट्र-राज्य के बारे में तमाम धारणाओं से सहमति और असहमति व्यक्त की जा सकती है। कश्मीर पर वे क्या चाहतीं हैं, यह बात साफ नहीं है। इस मामले में गिलानी और कश्मीर के दूसरे अलगाववादियों के बीच भी मतभेद हैं।
मुम्बई की आदर्श हाउसिंग सोसायटी के घपले, कॉमनवेल्थ गेम्स के घोटालों और उसके पहले शेयर बाज़ार से लेकर हवाला तक के घोटालों को देखें तो हमें इस व्यवस्था में तमाम खोट नज़र आएंगे। हैरत इस बात पर है कि हमारा मीडिया इन मामलों की तह तक नहीं जाता। इसकी एक वज़ह यह है कि मीडिया का लक्ष्य बिजनेस है जन-कल्याण नहीं। राष्ट्रवाद के भावनात्मक पहलू का फायदा तो वह उठाना चाहता है, पर राष्ट्रीय कल्याण के व्यावहारिक मसलों की तफतीश नहीं करना चाहता। भ्रष्टाचार के मसलों पर हमारा मीडिया सरकारी भ्रष्टाचार पर नज़र रखता है, पर कॉरपोरेट भ्रष्टाचार पर चर्चा से बचता है, जहाँ उसके व्यावसायिक हित जुड़े होते हैं।
शुरुआत में मैने चीन के मानवाधिकार कार्यकर्ता ल्यू श्याओबो का ज़िक्र किया था। चीन के संविधान के अनुच्छेद 35 के तहत वहाँ के नागरिकों को अभिव्यक्ति, अखबार निकालने, सभा करने, संगठन बनाने और आंदोलन करने तक की आज़ादी है। यह आज़ादी काग़ज़ी है। हमारे संविधान की आज़ादियाँ अपेक्षाकृत कम काग़ज़ी हैं, पर पूरी वे भी नहीं हैं। हमारा आदर्श वाक्य सत्यमेव जयते पूरी तरह लागू होना चाहिए। इसके लिए कम से कम अपनी बात कहने का हक तो होना चाहिए। अपने देश से प्रेम इसलिए होना चाहिए कि हम इसमें रहने वाले लोगों को न्यायपूर्ण व्यवस्था देना चाहते हैं, उनकी खुशहाली चाहते हैं। देश-प्रेम और मनुष्य-मात्र से प्रेम के बीच कोई टकराव नहीं होता।   
इस पूरे मामले में व्यक्ति के अधिकार का मसला मेरे विचार से महत्वपूर्ण है। अरुंधती रॉय के समग्र राजनैतिक विचारों में कुछ बातें आकर्षित करती हैं और बहुत सी नहीं करतीं।

Monday 8 October 2012

दवा के लुटेरे कारोबारी


भगवान के बाद किसी पर आम लोगों का सबसे ज्यादा भरोसा है तो वे हैं दवा, डॉक्टर और दुकानदार। दवा, डॉक्टर और दुकानदार के इस त्रयी के प्रति हमारी भोली-भाली जनता इतनी अंधभक्त है कि डॉक्टर साहब जितनी फीस मांगते हैं, दुकानदार महोदय जितने का बिल बनाते हैं, उसको बिना लाग-लपेट के अपनी घर-गृहस्थी को गिरवी रखकर भी चुकता करती है। इसी परिप्रेक्ष्य में  एक छोटी-सी घटना से अपनी बात  कहना चाहूंगा। पिछले दिनों  मालाड, मुम्बई स्थित एक अस्पताल में मेरे मित्र की पत्नी अपना ईलाज कराने गई। डॉक्टर ने उन्हें स्लाइन (पानी बोतल) चढ़ाने की बात कही। अस्पताल परिसर में स्थित दवा दुकानदार के पास डाक्टर द्वारा लिखी गई दवाइयों को खरीदने मैं खुद गया। डॉक्टर ने जो मुख्य दवाइयां लिखी थी उसमें मुख्य निम्न हैं-

डेक्सट्रोज 5%
आर.एल
आई.वी.सेट
निडिल
डिस्पोजल सीरिंज
और कुछ टैबलेट्स।

डेक्सट्रोज 5% का एम.आर.पी-24 रूपये, आर.एल का-76 रूपये, आई.वी.सेट का-117 रूपये, निडिल का-90 रूपये और डिस्पोजल सीरिंज का 8 रूपये था।

मेरे लाख समझाने के बावजूद दवा दुकानदार एम.आर.पी. (मैक्सिमम् रिटेल प्राइस) से कम मूल्य पर दवा देने को राजी नहीं हुआ। वह कहते रहा  कि मुम्बई दवा दुकानदार एसोसिएशन ने ऐसा नियम बनाया है जिसके  तहत वह एम.आर.पी. से कम पर दवा  नहीं दे सकता। मजबूरी में  मुझे वे दवाइयां एम.आर.पी. पर खरीदनी ही पड़ी।

गौरतलब है कि  डेक्सट्रोज 5% का होलसेल प्राइस 8-12 रूपये, आर.एल का 10-17 रुपये, निडिल का 4-8 रुपये, डिस्पोजल सिरिंज का-1.80-2.10 रूपये तक है। वहीं आई.वी.सेट का होलसेल प्राइस 4-10 रूपये है।

ऐसे में सबकुछ जानते हुए मुझे 117 (आई.वी.सेट) + 90 (निडिल) + 76 (आर.एल) + 24 (डेक्सट्रोज) + 8 (डिस्पोजल सिरिंज) का देना पड़ा। यानी कुल- 117 + 90 + 76 + 24 + 8 = 315 रुपये देने ही पड़े। ध्यान देने वाली बात यह है कि इन दवाइयों का औसत  होलसेल प्राइस 10 + 14 + 6 + 2 + 8 = 40 रुपये बैठता है। यानी मुझे 40 रूपये की कुल दवाइयों के लिए 315 रूपये वह भी बिना किसी मोल-भाव के देने पड़े। इस मुनाफे को अगर प्रतिशत में काउंट किया जाए तो 900 फीसद से भी ज्यादा का बैठता है।

ऐसे में यह वाजिब-सा सवाल है कि इस देश की गरीब जनता असली दवाइयों की इस काली छाया से कब मुक्त होगी।  एम.आर.पी. के भूत का कोई तो ईलाज होना चाहिए।

दवाओं ने तो लूट लिया है!!!

क्या आप बता सकते हैं कि कोई ऐसा घर जहाँ पर कोई बीमार नहीं पड़ता, जहाँ दवाइयों की जरूरत नहीं पड़ती। नहीं न! यानी जिना है तो दवा तो खानी ही पड़ेगी। यानी दवा उपभोग करने वालों की संख्या सबसे ज्यादा है। किसी न किसी रूप में लगभग सभी लोगों को दवा का सेवन करना ही पड़ता है। कभी बदन दर्द के नाम पर तो कभी सिर दर्द के नाम पर।

भारत एक लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा वाला विकासशील राष्ट्र है। जहाँ आज भी 70 प्रतिशत जनता 30 रूपये प्रति दिन भी नहीं कमा  पाती। ऐसी आर्थिक परिस्थिति  वाले देश में दवा कारोबार की कलाबाजारी अपने चरम  पर है। मुनाफा कमाने की होड़ लगी हुयी है। मैं  कुछ तथ्य को सामने रखकर बात करना चाहता हूं।

सबसे कॉमन बीमारी है सिर दर्द/बदन दर्द।  इसके लिए दो प्रकार की दवाएं  बाजार में बहुत कॉमन है।  एक है डाक्लोफेनेक सोडियम+पैरासेटामल नामक सॉल्ट से निर्मित  दवाएं, जिसमें डाइक्लोविन प्लस, आक्सालजीन डी.पी जैसी ब्रान्ड नेम वाली दवाएं उपलब्ध हैं। रोचक तथ्य यह है कि डाइक्लोविन प्लस टैबलेट का होलसेल प्राइस 30-40 पैसा प्रति टैबलेट है और यह रिटेल काउंटर पर 2 रूपये प्रति टैबलेट की दर से यानी 500 प्रतिशत से भी ज्यादा मुनाफा लेकर बेची जा रही है। ठीक इसी तरह बहुत ही पॉपुलर सॉल्ट है निमेसुलाइड। यह भी एंटी इन्फ्लामेट्री टैबलेट है। दर्द निवारक गोली के रुप में इसकी भी पहचान बन चुकी है। इस सॉल्ट से सिपला जैसी ब्रान्डेड कंपनी निसिप नामक उत्पाद बनाती है। जिसमें 100 मि.ग्रा. निमेसुलाइड की मात्रा रहती है। इस दवा की होलसेल प्राइस 4 रूपये से 4.5 रूपये ( हो सकता है कि कही-कही इससे भी कम हो) प्रति 10 टैबलेट यानी प्रति स्ट्रीप है। मार्केट में इस दवा को धड़ल्ले से 2 से ढ़ाई रूपये प्रति टैबलेट बेचा जा रहा है। यानी प्रति स्ट्रीप 20 रूपये का मुनाफा। लगभग 500 प्रतिशत का शुद्ध लाभ।

इसी तरह दैनिक जीवन में उपभोग में लाइ जाने वाली कुछ दवाएं हैं, जिनमें कॉटन, बैंडेज, स्पिरिट, डिस्पोजल सीरिंज है। इन दवाओं पर भी लगभग 300 प्रतिशत से लेकर 700 प्रतिशत तक मुनाफा कमाया जाता है।

यह तो कुछ बानगी भर है। अंदर तो अभी और कितनी  परत है। जिसे धीरे-धीरे खोलने का प्रयास करूंगा। फिलहाल सोचनीय यह है कि आखिर में ये दवा कंपनियां अपने उत्पाद का विक्रय मूल्य  इतना बढ़ा कर किसके कहने पर रखती है? क्या सरकार को मालुम नहीं है कि इन दवाओं को बनाने में वास्तविक कॉस्ट कितना आता है? अगर सरकार को नहीं मालुम हैं तो यह शर्म की बात है। और अगर जानते हुए सरकार अंधी बनी हुयी है तो यह और भी शर्म की बात है!!

अब तो अन्हेर नगरी के चौपट राजाओं को लखेदने का समय आ गया है। नहीं तो दवा के लुटेरे कारोबारी गरीब भारतीयों को और गरीब करते जायेंगे। धन्य देश हमारा, धन्य है हमारी सरकार!!