Tuesday 28 January 2014

उचित विश्राम व समय पर भोजनादि भी मानवाधिकार हैं

आवेदक राजेंद्र सिंह ने दिनांक 08/09/2010 से 10/09/2010 के बीच अपने आवासीय परिसर में आयकर विभाग के अधिकारियों द्वारा की गयी खोज और जब्ती की कार्यवाही के दौरान अपने मानव अधिकारों के उल्लंघन की शिकायत को लेकर बिहार मानवाधिकार आयोग से निवेदन किया| आवेदक की शिकायत थी कि वह अल्पसंख्यक सिख समुदाय से संबंध रखता है| उसने कहा कि पटना शहर में मीठापुर में आरा मिल व  लकड़ी का व्यापार कर वह अपनी आजीविका अर्जित करता था|  दिनांक  08/09/2010 को  श्री सौरभ कुमार, श्री सुमन झा , श्री कनकजी  और श्री अचुतन नामक आयकर विभाग के अधिकारीगण छह अन्य सहयोगियों के साथ उसके  घर आये और मुख्य गेट बंद कर दिया जोकि प्रवेश और निकास का एक मात्र रास्ता है| उन्होंने आवेदक और उपस्थित दूसरे लोगों के मोबाइल फोन ले लिये और छापे के दौरान उन्हें बाहर के किसी भी व्यक्ति से संपर्क करने की अनुमति नहीं दी| यहाँ तक कि उन्हें खाना पकाने के लिए भी अनुमति नहीं दी गयी| उन्होंने  महिलाओं सहित परिवार के सदस्यों के साथ दुर्व्यवहार किया| उन्होंने निर्भय होकर वहां धूम्रपान किया है, शिकायतकर्ता की  धार्मिक भावनाओं को चोट पहुँचाई है, तथा सिख गुरुओं और स्वर्ण मंदिर की तस्वीरों पर सिगरेट के टुकड़े  और सिगरेट के खाली पैकेट फेंक दिये| उन्हें शौचालय जाने की अनुमति भी नहीं दी गयी| आवेदक ने अपने वकील को बुलवाया किन्तु उसे वह  जगह छोड़ने के लिए विवश किया गया|  उन्होंने छापे के दौरान अन्य दंडात्मक कार्रवाई की धमकियों भी दी|
उक्त के आलोक में आयोग द्वारा मुख्य आयकर आयुक्त बिहार को नोटिस जारी किया गया जो आगे आयकर महानिदेशक (अनुसंधान ) को भेज दिया गया | अंततः विभाग द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट में आवेदक द्वारा किए गए आरोपों का खंडन किया गया| कई बार स्थगन के बाद अंत में आवेदक अपने वकील के साथ उपस्थित हुए और श्री विजय कुमार, अपर आयकर आयुक्त की उपस्थिति में प्रकरण दिनांक को 18/04/2011 को सुना गया| 
आयोग के समक्ष कार्यवाही में आवेदक ने  शिकायत में वर्णित आरोपों  दोहराया| उसने खोज और जब्ती की कार्यवाही की वैधता और औचित्य पर सवाल उठाया|  शिकायतकर्ता ने कहा कि उक्त सम्पूर्ण कार्यवाही मात्र आवेदक को परेशान करने के लिए की गयी है और अधिकारियों के इस  वैमनस्यपूर्ण कार्यवाही से भी संतुष्ट नहीं होने पर यह खोज और जब्ती की कार्यवाही आज तक जारी है| शिकायतकर्ता द्वारा यह जानकारी भी दी गयी कि विभाग ने आवेदक के खिलाफ कार्रवाई के लिए राज्य सरकार के वन विभाग और पंजीकरण विभाग से  भी संपर्क किया है| श्री विजय कुमार , विभागीय प्रतिनिधि ने आवेदक के आरोपों का खंडन किया|
दोनों पक्षों की दलीलों पर विचार के बाद आयोग ने महिला सदस्यों सहित अपीलार्थी की धार्मिक भावनाओं को आहत करने व परिवार के सदस्यों के साथ दुर्व्यवहार के संबंध में आरोप के तथ्यों के निर्धारण हेतु विचारण उचित समझा|   
सुनवाई के अनुक्रम में आयोग ने यह कहा कि खोज और जब्ती की कार्यवाही की वैधता की जांच का मामला आयकर अधिनियम के सुसंगत प्रावधानों के तहत उचित मंच पर उठाया  जा सकता है| आयोग ने माना कि आवेदक के यहाँ 8 से 10 सितंबर 2010 तक जिस ढंग से खोज और जब्ती की कार्रवाई की गयी उसका मूल्यांकन करने में आयोग सक्षम नहीं है| विभाग के प्रतिनिधियों ने कहा कि खोज और जब्ती की कार्यवाही तो इस प्रकरण में लगे समय से भी ज्यादा समय के लिए भी जारी रह सकती है| आयोग मोटे तौर पर इससे सहमत है कि खोज और जब्ती की कार्यवाही के लिए अवधि के रूप में कोई समय सीमा तय नहीं की  जा सकती  लेकिन आयोग की राय में खोज और जब्ती की कार्यवाही संबंधित व्यक्ति के मानवाधिकारों के अनुरूप होनी  चाहिए|
आयोग ने माना कि यह स्वीकृत तथ्य है कि खोज और जब्ती की कार्यवाही दिनांक 08/09/2010 को प्रात: 9:30 बजे  शुरू और दिनांक 10/09/2010 को  रात्रि 9.20 बजे  पर संपन्न हुई  है| आवेदक की शिकायत थी कि इस अवधि के दौरान उससे लगातार 30 घंटे के लिए पूछताछ की गयी| आयकर विभाग द्वारा  धारा 132 के तहत शपथ पर दर्ज आवेदक के बयान के प्रश्न संख्या 15 में अधिकारी  श्री सौरभ कुमार  ने दर्ज किया है कि उससे  खाताबहियाँ  आदि पेश  करने के लिए कहा जा रहा था लेकिन 36 से अधिक घंटे बीतने के बावजूद आवेदक ने एक भी प्रस्तुत नहीं की है| इससे कार्यवाही में लगे समय का अनुमान लगाया जा सकता है| 

विभागीय प्रतिनिधि द्वारा यह बताया गया कि दिनांक 9.9.10 को रात्रि 10 बजे तक मात्र 15 प्रश्न पूछे गए थे जिससे यह स्पष्ट है कि पूछताछ में लिया गया समय किसी भी प्रकार से उचित नहीं था| आयोग का विचार है कि छापामार दल के सदस्यों को खोज और जब्ती कार्यवाही संपन्न करने में समय लग सकता है लेकिन इस तरह की कार्यवाहियों में व्यक्ति के  बुनियादी मानव अधिकार को ध्यान में रखा जाना चाहिए| उन्हें कार्यवाही करने के लिए शारीरिक और मानसिक यातना देने का कोई अधिकार नहीं है| प्रभारी अधिकारी यदि पूछताछ/बयान की रिकॉर्डिंग की प्रक्रिया जारी रखना चाहता  है तो वह दिन के उचित समय पर ही बंद कर दी जानी चाहिए  और अगली सुबह फिर से शुरू की जानी चाहिए था| लेकिन हस्तगत प्रकरण में किसी भी विश्राम या अंतराल के बिना प्रात: 03:30 बजे तक प्रक्रिया जारी रही है जबकि यह शयन का समय है और आवेदक तथा / या उनके परिवार के सदस्यों को ऐसे अनुचित समय तक जागते रहने के लिए के लिए मजबूर करना एक सभ्य समाज में बर्दाश्त नहीं किया जा सकता| यह व्यक्ति की गरिमा से संबंधित अधिकारों का स्पष्ट उल्लंघन है और इसलिए मानव अधिकारों का उल्लंघन था| यहां तक ​​कि दुर्दांत अपराधियों को भी मानवाधिकारों से वंचित  नहीं किया जा सकता| आवेदक की स्थिति तो इससे बदतर नहीं थी| आयोग की राय में आयकर विभाग को भविष्य में बड़े पैमाने पर खोज और जब्ती कार्यवाही में सुनिश्चित करना चाहिए कि  बुनियादी मानव अधिकारों का उल्लंघन न हो| आयोग ने आगे कहा कि वह प्रथम दृष्टया संतुष्ट है कि खोज और जब्ती कार्यवाही  जारी रखते  हुए आयकर विभाग के संबंधित अधिकारियों द्वारा आवेदक के मानव अधिकारों का उल्लंघन किया गया है जिसके लिए वह आर्थिक  मुआवजा पाने का अधिकारी  है|

लेखक का मत है कि किसी भी व्यक्ति से उसकी परिस्थितियों के विपरीत व्यवहार भी मानवाधिकारों का उल्लंघन है| यथा कश्मीर जैसे शीत प्रदेश के निवासी को भीषण गर्मी वाले मरुस्थल में या इसके विपरीत रखना या रहने के विवश करना मानवाधिकारों का हनन है| ठीक इसी प्रकार अशक्त या अस्वस्थ व्यक्ति को उसकी परिस्थति के अनुसार भोजन न उपलब्ध करवाना भी मानवाधिकारों का उल्लंघन है| पंजाब राज्य मानावाधिकार आयोग ने तो सेवा, न्याय आदि से सम्बंधित मामलों को भी मानवाधिकार हनन  माना है| भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुसार, किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा, अन्यथा नहीं|


हाल ही में सांसद धनञ्जय सिंह को एक अभियोग में पुलिस हिरासत में लिया गया था और हिरासत अवधि के दौरान उन्होंने अपने घर पर बने भोजन के लिए पुलिस से अपेक्षा की किन्तु पुलिस ने कहा कि न्यायालय की अनुमति के बाद ही ऐसा किया जा सकता है| जबकि कानून में ऐसा प्रावधान नहीं है कि एक परीक्षण के अधीन हिरासत में व्यक्ति को घर के भोजन से वंचित किया जाएगा अथवा इसके लिए कोई अनुमति की आवश्यकता है| लेखक स्वयम ने यह प्रकरण राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के समक्ष उठाया और आयोग ने इस प्रकरण में गृह मंत्रालय को आवश्यक कार्यवाही करने के निर्देश जारी किये हैं| ठीक इसी प्रकार तरुण तेजपाल के मामले में भी हाल ही में तहलका की  एक संपादिका को गोवा पुलिस ने गवाही हेतु पूछताछ के लिए उसके निवास से भिन्न स्थान पर बुलाया और रात्रि 2 बजे तक उससे पूछताछ की गयी| जबकि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 160 के अनुसार एक महिला और 15 वर्ष तक के बालक गवाह से मात्र उसके निवास पर ही पूछताछ की जा सकती है| लेखक द्वारा यह मामला भी राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के समक्ष उठाये जाने पर गोवा पुलिस को आवश्यक कार्यवाही करने के निर्देश जारी किये गए हैं| अत: जागरूक पाठकों से आग्रह है कि जहां भी वे मानवाधिकार उल्लंघन का कोई मामला देखें उसकी रिपोर्ट मानवाधिकार आयोग को आवश्यक कार्यवाही हेतु भेजें ताकि मानव गरिमा का रक्षा हो सके|   

Saturday 11 January 2014

भारत में सूचना की आजादी मिलना अभी बाकी है

सूचना का अधिकार अधिनियम,2005 के प्रावधानों के अंतर्गत केंद्र व राज्यों में  आयोगों की स्थापना की गयी है और केन्द्रीय प्रतिष्ठानों में अधिकार की प्रोन्नति का दायित्व केन्द्रीय सूचना आयोग को सौंपा गया है| केन्द्रीय आयोग की स्थापना से अब तक लगभग 170,000 अपीलें व परिवाद याचिकाएं आयोग में दायर हुई हैं और लगभग 140,000 याचिकाएं निस्तारित की जा चुकी हैं| किन्तु विडंबना यह है कि लोक प्राधिकारियों द्वारा 80-90प्रतिशत  मामलों में देय सूचना से अभी भी इन्कार ही किया जाता है और शासन व्यवस्था व लोक प्राधिकारियों के कार्यकरण में अभी भी अपार  अस्वच्छता-भ्रष्टाचार-अपारदर्शिता कायम है| ऐसा नहीं है कि यह कोई नवीन प्रवृति हो अपितु संचार व विचार अभिव्यक्ति पर प्रतिबन्ध के माध्यम से सरकारों के अस्वच्छ कार्यकरण पर पर्दा डालने यह मनोवृति हमें अंग्रेजों से विरासत में मिली थी जिसे हमने संजोकर बरकरार रखा है| वायरलेस का आविष्कार पर्याप्त पहले हो गया था और सरकारी तंत्र के पास यह सुविधा उपलब्ध थी किन्तु आम जनता तक इसकी पहुँच प्रतिबंधित रही है| यहाँ तक कि 1947 में मिली नाम की आजादी के पर्याप्त बाद तक भी जनता को रेडियो सुनने के लिए लाइसेंस लेना पड़ता था| भारत सरकार के दूरसंचार विभाग के पास 1970 से ही इन्टरनेट सेवा उपलब्ध थी जो आम जनता  को 1990 के बाद ही सुलभ हो सकी है|   
जहां प्रथम वर्ष में आयोग में मात्र 7000 याचिकाएं प्राप्त हुई वहीं आठवें वर्ष में 40000 याचिकाएं प्राप्त हुई हैं व औसत याचिका की सुनवाई में एक वर्ष से अधिक का समय लग रहा है जो आयोग के गठन के उद्देश्य को ही मिथ्या साबित कर रहा है| यह स्थिति एक भयावह चित्र प्रस्तुत करती है| सूचना हेतु मना करने पर नागरिक आयोग में याचिका दायर करते हैं और इस संख्या में सुपरसोनिक जेट की गति से वृद्धि हो रही है| यह वृद्धि  इस कारण नहीं है कि नागरिकों में जागरूकता का संचार हो रहा है अपितु आयोग दोषी जन सूचना अधिकारियों के साथ मित्रवत व्यवहार कर रहा  है और आम लोक प्राधिकारी में यह विश्वास गहरा रहा है कि वे चाहे किसी भी सूचना के लिए मना करें उनका कुछ भी बिगड़नेवाला नहीं| अधिक से अधिक यह हो सकता है कि आयोग द्वारा एक आवेदक को दो वर्ष संघर्ष करने के बाद सूचना देने के आदेश हो जाएँ व उसकी अनुपालना तो फिर भी संदिग्ध है| आयोग द्वारा दोषी अधिकारियों का अनुचित बचाव करने से जनतंत्र के इस औजार की धार लगभग कुंद हो चुकी है व जनता की नजर में आयोग स्वामिभक्त रहे सेवानिवृत अधिकारियों को रोज़गार देकर उपकृत करने का एक संस्थान मात्र रह गया है| कुछ आयुक्तों द्वारा किन्हीं अपवित्र कारणों या सस्ती लोकप्रियता के लिए अतिउत्साहित होकर कुछेक जनानुकूल दिखाई देने वाले निर्णय देने मात्र से 125 करोड़ भारतवासियों का हित नहीं सध सकता| यद्यपि, आपवादिक मामलों को छोड़ते हुए, अधिकाँश मामलों में आयोग ने सूचना प्रदानगी  के  आदेश दिये हैं किन्तु फिर भी दिए गये अधिकाँश निर्णय कानून व न्याय की कसौटी पर खरे नहीं हैं| ऐसे भी मामले हैं जहां समाजसेवा के कुछ थोक व्यापारियों पर आयुक्तों ने उपकार किया हो और उनके मामलों को दर्ज होने से पहले ही निर्णित कर दिया हो| मीडिया की सुर्ख़ियों में रहने को लालायित ऐसे स्वामिभक्त लोग आयोग और आयुक्तों का यशोगान करने वालों की अग्रिम पंक्ति में दुधिया प्रकाश में खड़े नजर आते हैं और आयोग को अयोग्य बना रहे हैं|

केन्द्रीय आयोग ने अपनी स्थापना से लेकर अब तक 1000 से भी कम प्रकरणों में अर्थदंड लगाया गया है और उसका भी लगभग 40प्रतिशत  भाग वसूली होना शेष है| इतना ही नहीं अर्थदंड के कुल मामलों में से 60% तो दिल्ली सरकार के विभाग और स्थानीय निकाय के हैं| अन्य प्रमुख मामले बैंकों व बीमा कंपनियों के हैं| इनमें से भारत सरकार के विभागों या मंत्रालयों पर अर्थदंड के मामले तो 5% से भी कम हैं| देश की नौकरशाही जिम्मेदारी व पारदर्शिता से कार्य नहीं कर रही थी और इस पवित्र उद्देश्य को ध्यान में रखकर अधिनियम बनाया गया| किन्तु आयोगों में उन्हीं सेवानिवृत नौकरशाहों को नियुक्त कर दिया गया है जो इस अंग्रेजी शासन से चली आ रही गैर-जिम्मेदार, अस्वच्छ, हठधर्मी, राजतान्त्रिक, निरंकुश व अपारदर्शी व्यवस्था का कल तक अंग रहे हैं और इसी के लिए उपयुक्त रहे हैं| तभी तो वे अपना सेवाकाल सहर्ष पूर्ण कर पाए अन्यथा ये लोग यदि अंत:करण, विचारों, कार्यशैली  व मन से इस मलिन व्यवस्था को अंगीकार नहीं करते तो निश्चित रूप से अपना सेवाकाल सहर्ष पूर्ण नहीं कर पाते| इनसे कुछ सुधार की आशा करना दिन में स्वप्न देखने से अधिक कुछ भी नहीं है| अर्थात सरकारों ने बिल्ली को दूध की रखवाली की जिम्मेदारी देने की कहावत चरितारार्थ कर दी है| सेवा निवृति के बाद पुन:नियुक्त ये नौकरशाह अपनी बिरादरी के विरुद्ध कोई दंडात्मक कार्यवाही नहीं कर सके हैं यह तथ्य आंकड़ों से साबित है| केन्द्रीय आयोग में अब तक लगभग 20 आयुक्त नियुक्त हो चुके हैं जिसमें से आपवादिक तौर पर मात्र एक ही गैर-नौकरशाह रहे हैं| ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि केन्द्रीय आयोग द्वारा अर्थदंड लगाने के कुल 1000 मामलों में से आधे से ज्यादा तो अकेले इस गैर-नौकरशाह आयुक्त के हैं अर्थात शेष 19 आयुक्तों ने मिलकर अपने सम्पूर्ण कार्यकाल में मात्र 300 मामलों में अर्थदंड लगाया है जोकि प्रति आयुक्त 15 मामले आते हैं| उक्त विश्लेष्ण से यह भी निष्कर्ष निकलता है कि आयोग में एक औसत नौकरशाह आयुक्त ने एक वर्ष में मात्र 3 मामलों में अर्थदंड लगाया है और दोषी अधिकारियों का पर्याप्त पक्षपोषण व बचाव कर जनतंत्र के इस प्रभावी उपकरण को भी नकारा साबित कर दिया है| व्यथित नागरिकों को हर्जाना दिलाने के मामले तो ढूंढने से भी मिलना कठिन है|  
अधिनियम की धारा 19(5) व 20(1) में समय पर सूचना नहीं देने का औचित्य स्थापित करने का भार सूचना अधिकारी पर है और इसमें विफल रहने पर सूचना अधिकारी पर कानून के अनुसार अर्थदंड निरपवाद स्वरूप लगाया जाना चाहिए| अधिनियम में आयुक्तों को कोई विवेकाधिकार नहीं दिया गया है| यहाँ तक कि  सम्पूर्ण अधिनियम में विवेकाधिकार शब्द तक का प्रयोग नहीं किया गया है जिससे विधायिका का मंतव्य स्पष्ट है| समाज में व्यवस्था बनाये रखने के लिए कानून में दंड का प्रावधान रखा जाता है किन्तु प्राय:आयोग के निर्णयों में न ही तो सूचना नहीं देने का औचित्य स्थापित माना जाता है और न ही दोषी पर अर्थदंड लगाया जाता जिससे सूचना अधिकारियों को यह सन्देश जाता है कि आयोग एक दंतविहीन, रस्मी व दोषियों का मैत्रीपूर्ण संस्थान है और आयोग की कार्यवाहियां मैत्रीपूर्ण मैच हैं| दोषी लोगों को दंड नहीं देने से अन्य बचेखुचे अधिकारी भी कानून का उल्लंघन करने को लालायित व प्रेरित होते हैं जिससे सम्पूर्ण वातावरण अपदूषित होता है| इस मनोविज्ञान को ध्यान में रखते हुए आयोग को न्यूनतम 10 प्रतिशत मामलों में अर्थदंड लगाना चाहिए था| आयोग ने शक्तिसंपन्न विभागों के विरुद्ध यद्यपि कई मामले निर्णित किये हैं किन्तु आश्चर्य का विषय है कि आज तक उनमें से एक भी मामले में अर्थदंड नहीं लगाया है इससे आयोग की निष्पक्षता पर बड़ा प्रश्न चिन्ह लगता| आयोग ने गृह मंत्रालय व न्याय विभाग के विरुद्ध कई हजार मामले निर्णित किये हैं जहां आवेदकों को अनुचित रूप से सूचना हेतु मना किया गया किन्तु आयोग ने इन विभागों के अधिकारियों पर किसी मामले में मुश्किल से ही कोई अर्थदंड लगाया हो| न्यायालय, सतर्कता, पुलिस  आदि ऐसे ही अन्य सशक्त विभाग हैं जिन पर स्वयम आयोग ने अर्थदंड लगाने से परहेज़ कर अपनी कर्तव्य विमुखता का परिचय दिया है और अपनी विश्वसनीयता व निष्पक्षता पर बड़ा प्रश्न चिन्ह लगा दिया है| एक मामले में तो आयोग ने न्यायालय द्वारा सुनवाई में समय मांगने पर न्यायालय की बजाय स्वयम अपने खजाने से याची को क्षतिपूर्ति दी है| आयोग द्वारा अर्थदंड लगाए जाने के मामलों का विश्लेष्ण करने पर ज्ञात होता है कि मात्र स्थानीय निकाय, शिक्षा विभाग, बिजली, पानी, परिवहन, निर्माण विभाग जैसे निरीह व शक्तिहीन लोक प्राधिकारी ही अर्थदंड चुकाने के लिए विवश किये गए हैं

आयोगों को यह चाहिए कि जहां सूचना हेतु याची के पक्ष में आदिष्ट करे उस प्रत्येक निर्णय में या तो धारा 19(5) व 20(1) के अंतर्गत दोषी अधिकारी द्वारा स्थापित औचित्य को अपने निर्णय में साबित समझे अन्यथा दोषी अधिकारी पर अर्थदंड अवश्य लगाए ताकि अधिनियम कारगर साबित हो सके और यह एक कागजी व कोरी औचारिकता नहीं रह जाए|  
राज्य आयोगों की स्थिति भी लगभग समान ही है क्योंकि वहां पर भी किसी न किसी स्वामिभक्त सेवानिवृत नौकरशाह को देव मूर्ति की तरह स्थापित कर उपकृत किया गया है और दोषी अधिकारियों का भरपूर बचाव किया जा रहा है| सरकार का यह कुतर्क हो सकता है कि सेवानिवृत लोगों को नियुक्त करने पर उन्हें आधा ही वेतन (आधा भाग तो वे पेंशन के रूप में पहले से ही प्राप्त कर रहे होते हैं) देना पड़ता है अत: यह सस्ता है किन्तु इस सस्तेपन की जनता को वास्तव में कितनी कीमत चुकानी पडती है इसका आकलन नहीं किया जा रहा है| इससे भी अधिक आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि कई बार तो पुलिस विभाग के अधिकारियों को आयुक्त नियुक्त कर दिया जाता है जिनके सम्पूर्ण सेवाकाल में मूल अधिकारों का तो क्या मानव-अधिकारों की रक्षा करने का कोई वातावरण आसपास तक नहीं रहा हो| स्वयम पुलिस अधिकारी जानते हैं कि सेवानिवृति के बाद उनका जनता में कितना सम्मान होता है| इस डर से कई पुलिस अधिकारी तो फेसबुक जैसे  सामाजिक माध्यमों पर अपना खाता तो खोल लेते हैं किन्तु अपना पूर्व सेवाकाल तक प्रकट नहीं करते हैं| देश की जनता को सूचना की स्वतंत्रता के लिए अभी मीलों का सफर व काफी संघर्ष करना बाकी है क्योंकि अधिनियम अभी तक तो एक कोरी औपचारिकता है– जनता को भुलावे व सस्ती लोकप्रियता का एक साधन मात्र है|
केंद्र सरकार व राज्य सरकारों को यह नीति बनानी चाहिए कि किसी भी आयोग या बोर्ड में 20 प्रतिशत से अधिक सेवानिवृत नौकरशाह नियुक्त नहीं किये जाएंगे तभी इस देश की जनता का हित सध सकता है- वास्तविक लोकतंत्र की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हो सकेगा| प्रजातंत्र, प्रजा के सशक्तिकरण व सता के विकेन्द्रीकरण का का दूसरा नाम है जिसके संचालन में आम जनता की सक्रिय सहभागिता होती है और जनता किसी भी जनप्रतिनिधि के बंधक नहीं होती है| समस्त कार्यपालक, न्यायपालक व जनप्रतिनिधि लोकतंत्र के सेवक तथा जनता के ट्रस्टी होते हैं और जनता ही लोकतंत्र की वास्तविक स्वामी होती है| प्रजातंत्र में नौकरशाहों की नियुक्ति मात्र परामर्श के लिए ही उचित है किसी भी निर्णय करने के लिए नहीं| सरकार में भी किसी भी स्तर के सचिव को नीतिगत निर्णय लेने का कोई अधिकार नहीं है अपितु वे मंत्री के मात्र सलाहकार हैं| इसी सिद्धांत का यहाँ भी अनुसरण किया जाना चाहिए क्योंकि जिन्होंने अपने सम्पूर्ण सेवाकाल में मात्र परामर्श दिया हो और वे निर्णय लेने में अनुभवहीन हों उन्हें निर्णय करने का पद आखिर क्योंकर दिया जाए|     

जय भारत !