Friday 10 March 2017

भारत में आयकर अपवंचना ---

भारत में आयकर अपवंचना ---
अमेरिका में 55 प्रतिशत लोग आयकर देते हैं और वहां प्रतिव्यक्ति औसत आय 50000 डॉलर प्रतिवर्ष है जबकि आयकर की न्यूनतम सीमा 9750 डॉलर | यद्यपि अमेरिका में आयकर सीमा परिवार के आकार और पालन पोषण की जिम्मेदारी के हिसाब से  अलग अलग है | भारत में प्रति व्यक्ति औसत आय 100000 रूपये प्रतिवर्ष है और आयकर की न्यूनतम सीमा 250000 रूपये है  व  मात्र 3  प्रतिशत लोग ही आयकर देते हैं | सरकार के अनुसार 75 प्रतिशत लोग देश में ऐसे हैं जिन्हें भोजन के लिए सब्सिडी की जरूरत है | शेष में से सम्भवतया 10 प्रतिशत लोग मध्य श्रेणी का जीवन यापन करते हैं व आत्मनिर्भर हैं और उनसे कोई विशेष आयकर वसूलने की गुंजाईश नहीं है| यह बात अलग है कि इनमें से भी जो संगठित क्षेत्र से हैं उन्हें सरकार को आयकर देना पड़ता है|  इस दृष्टिकोण से देश में आयकर दाताओं की संख्या कम से कम 15 प्रतिशत होनी चाहिए किन्तु वे कर जाल से निकल जाते हैं |
कृषि आय आयकर मुक्त होने से देश में कर अपवंचना के लिए एक बड़ा रास्ता खुला है |धनिक लोग शहरों के पास कृषि भूमि क्रय कर लेते हैं उससे काफी आय बनावटी तौर पर दिखाकर बच निकलते हैं | यक्ष प्रश्न यह है कि यदि कृषि से ही इतनी आय हो पाती तो क्या देश के किसान आत्म ह्त्या करते या दूसरे धंधों की ओर पलायन करते, कृषि बीमा व सब्सिडी की आवश्यकता होती ? किन्तु इस प्रसंग में राजस्व प्रशासन न केवल मौन है बल्कि ऐसे कर चोरों को प्रोत्साहित भी कर रहा है|

दूसरा, आयकर कानून के अनुसार केवल वही भूमि कृषि भूमि की परिभाषा में आती है जोकि नगर निकाय की सीमा से कमसे कम 8 किलोमीटर की दूरी पर हो जबकि इन धनिकों की ये संपतियां इसी परिधि में आती हैं| 

न्याय में विलम्ब एक सुनियोजित षड्यंत्र है

न्याय में विलम्ब एक सुनियोजित षड्यंत्र है | दीवानी में मामलों में प्रावधान है कि किसी भी मामले में एक पक्षकार को कुल 3 से अधिक अवसर नहीं दिये जांयेंगे| दिए जानेवाले अवसर भी किसी पक्षकार, साक्षी या वकील की अस्वस्थता या मृत्यु जैसे अपरिहार्य कारणों से  ही स्थगन स्वीकार किया जाएगा|  किन्तु वकील और न्यायाधिशों  की  मिलीभगत से यह खेल चलता रहता है- कानून किताबों में बंद पडा सर धुनता रहता है| अपराधिक कानून में  यह भी प्रावधान है कि किसी मामले में सुनवाई प्रारम्भ होने के बाद जारी रहेगी जब तक कि उचित कारण  से उसे स्थगित  नहीं कर दिया जाए | किन्तु भारत के इतिहास में शायद उदाहरण ही मिलने मुश्किल हैं जब किसी मामले में सुनवाई प्रारंभ की गयी हो और उसे बिना स्थगन जारी रखा गया हो |
स्थगन देते समय आदेशिका इस प्रकार अस्पष्ट ढंग से लिखी जाती है कि उससे कोई निश्चित अर्थ नहीं लगाया जा सकता और स्थगन पर स्थगन दिए जाते रहते हैं | स्थगन देते समय अक्सर लिखा जाता है – पक्षकार समय चाहते हैं , प्रकरण दिनांक ..को पेश हो |जबकि आदेशिका में यह स्पष्ट लिखा जाना चाहिए कि किस पक्षकार ने और कितने दिन का समय मांगा और कितना समय अनुमत किया गया ताकि भविष्य में वह और समय मांगे तो उसे ध्यान  रखा जा सके | इसके साथ ही यह भी लिखा जाना चाहिए कि यह कौनसा या कितनी बार का अवसर है | किन्तु भारतीय न्यायालय तो मिलीभगत की नुरा कुश्तियां लड़ने के रंगमंच मात्र रह गए  हैं |आदेशिका पर पक्षकारों या प्रतिनिधियों के कोई हस्ताक्षर नहीं करवाए जाते और करवाए भी जाएँ तो कोरी शीट पर ताकि उसमें बाद में अपनी सहूलियत के अनुसार आदेश लिख सकें |


भारतीय सीमा क्षेत्र में शायद ही कोई ऐसा न्यायालय हो जो कानून और संविधान के अनुसार संचालित है |

ऑस्ट्रेलिया में उच्च न्यायालयों के लिए निर्णय लिखने का एक प्रारूप निर्धारित है किन्तु भारत में ऐसा कुछ नहीं है और यह न्यायाधीशों को मनमाने ढंग से निर्णय लिखने का निरंकुश अवसर प्रदान करता है| मैंने विभिन्न देशी और विदेशी न्यायालयों के निर्णयों का अध्ययन किया है और पाया है कि अधिकांश भारतीय निर्णय निर्णय की  बजाय निपटान की  परिधि में आते हैं| दोनों पक्षों द्वारा प्रस्तुत तथ्यों, साक्ष्यों , न्यायिक दृष्टान्तों और तर्कों में से चुनकर मात्र वही सामग्री  निर्णयों में समाविष्ट होती है जिसके पक्ष में निर्णय दिया जाना है |शेष सामग्री का इन निर्णयों में कोई उल्लेख तक नहीं किया जता और अपूर्ण व अधूरे निर्णय दिए जाते हैं जिससे आगे अपील दर अपील होती रहती हैं और मुकदमेबाजी रक्त बीज की  तरह बढती देखी जा सकती है| कानून, न्याय जैसे शब्दों का  बड़े गर्व से प्रयोग कर देश के न्यायाधीश और वकील बड़ी बड़ी डींगें हांकते  हैं किन्तु वास्तव में भारतीय सीमा क्षेत्र में शायद ही कोई ऐसा न्यायालय हो जो कानून और संविधान के अनुसार संचालित है |

एक अच्छे निर्णय के लिए आवश्यक है कि उसमें मामले के तथ्य, दोनों पक्षकारों द्वारा प्रस्तुत साक्ष्यों, तर्कों, न्यायिक दृष्टान्तों और उन्हें स्वीकार करने या अस्वीकार करने के स्पष्ट कारणों का उल्लेख किया जाना चाहिए | इसके साथ साथ ही प्रार्थी पक्ष द्वारा चाहे गए प्रत्येक  अनुतोष को स्वीकार या अस्वीकार करने के कारण भी स्पष्ट किये जा चाहिए| किसी न्यायिक दृष्टांत को अस्वीकार या स्वीकार करने के लिए मात्र यह लिखना पर्याप्त नहीं है कि वह हस्तगत प्रकरण में लागू होता है या लागू नहीं होता है बल्कि यह स्पष्ट किया जाना परमावश्यक है कि न्यायिक दृष्टांत की कौनसी  परिस्थितियाँ समान या असमान  हैं |