Wednesday 29 February 2012

सशक्त प्रमाण न हो तो डाक्टर को चिकित्सकीय लापरवाही के लिए जिम्मेवार नहीं ठहराया जाना चाहिए

सुप्रीम कोर्ट ने सिविल अपील संख्या ३५४१/२००२ मार्टिन डे सुजा बनाम मोहमद इशफाक के निर्णय में कहा है कि हम पुलिस अधिकारियों को चेतावनी देते हैं जेकोब मैथ्यू के मामले में निर्धारित मानदंड स्पष्टतया पूरे किये बिना वे डाक्टरों को गिरफ्तार अथवा परेशान नहीं करें अन्यथा पुलिस को कानूनी कार्यवाही का सामना करना पड़ेगा| जहां तक प्रतिवादी की श्रवण शक्ति खोने का प्रश्न है यह ध्यान देने योग्य है कि कोई भी एंटीबायोटिक दवा साइड प्रभाव के बिना नहीं है| यह स्मरणीय है कि कई बार सर्वोत्तम उपाय के बावजूद डाक्टर इलाज करने में असफल रहता है | उदाहरणार्थ कई बार शल्य चिकित्सक के बेहतर प्रयास के उपरान्त भी रोगी मर जाता है| इसका यह अभिप्राय नहीं है कि यदि इस बात के लिए सशक्त प्रमाण न हो तो भी  डाक्टर को चिकित्सकीय लापरवाही के लिए जिम्मेवार ठहराया जाना चाहिए |

Monday 27 February 2012

पुलिस अभिरक्षा में मृत्यु, कानून द्वारा शासित सभ्य समाज में एक कलंक है

दाण्डिक अपील संख्या ८५७/ १९९६  शकीला अब्दुल गफार खान बनाम वसंत रघुनाथ ढोबले में निर्णय सुनते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि  सरकार सर्वशक्तिमान और सर्वत्र व्याप्त अध्यापक की तरह लोगों के सामने उदाहरण प्रस्तुत करती है, यदि सरकार ही कानून तोडने वाली हो जाये तो यह कानून के अपमान को जन्म देती है| जमीनी हकीकत को नजरंदाज कर, ऐसे समय में जब स्वयं अभियोजन एजेंसी की भूमिका दांव पर हो तो मामले को प्रत्येक संभावित संदेह से परे साबित करने की अपेक्षा करना, प्रकरण विशेष की परिस्थितियों में जैसा कि वर्तमान मामले में ,न्यायिक स्खलन में परिणित होता है व न्यायप्रणाली को संदेहास्पद बनाता है| अंतिम परिणाम में समाज पीड़ित होता है और अपराधी प्रोत्साहित होता है| पुलिस अभिरक्षा में यातनाओं में हाल ही में हुई वृद्धि से न्यायालयों की  इस अवास्तविक विचारधारा  से प्रोत्साहित होती है इससे लोगों के दिमाग में यह विश्वास मजबूत होता है कि यदि एक व्यक्ति की लोकप में मृत्यु हो जाती है तो भी उनका कुछ भी नहीं बिगडेगा कारण कि उसे यातना के प्रकरण में प्रत्यक्ष रूप से लपेटने के लिए अभियोजन के पास मुश्किल से ही कोई साक्ष्य उपलब्ध  होगा| न्यायालय को इस तथ्य को नजरंदाज नहीं करना चाहिए कि पुलिस अभिरक्षा में मृत्यु, कानून द्वारा शासित सभ्य समाज में एक कलंक है और यह व्यवस्थित सभ्य समाज के लिए गंभीर खतरा है| अभिरक्षा में यातनाएं भारतीय संविधान द्वारा दिए गए अधिकारों का हनन हैं और यह मानवीय गरिमा से टकराव हैं|



बंदी के साथ पुलिस ज्यादतियां और दुर्व्यवहार किसी भी सभ्य राष्ट्र की छवि को कलंकित करते हैं और खाकी वर्दी वालों को अपने आपको कानून से ऊपर  व कई बार तो स्वयं को ही कानून समझने को प्रोत्साहित करते हैं| यदि स्वयं बाड़ द्वारा खेत को खाने की दूषित मनोवृति को कड़े उपाय कर रोकने का यत्न नहीं किया गया तो  आपराधिक न्याय प्रदनागी निकाय की नींव ही हिल जायेगी और सभ्यता का अव्यवस्था की ओर बढकर विनाश होने व जंगली युग में परिणित होने का गंभीर खतरा उत्पन्न हो जायेगा| इसलिए न्यायालयों को चाहिए कि वे ऐसे मामलों में वास्तविक ढंग से और वांछित संवेदना के साथ कार्यवाही करें अन्यथा आम आदमी का न्यायिक निकाय की विश्वसनीयता में से धीरे धीरे विश्वास उठ जायेगा, यदि ऐसा हुआ तो यह बहुत ही दुखद दिन होगा| यदि मात्र तर्क के लिए ही यह मान लिया जाया कि अभियुक्त को दोष सिद्ध करने के लिए पर्याप्त सामग्री नहीं है तो भी सरकार का यह कर्तव्य है कि वह स्पष्ट करे कि व्यक्ति को किन परिस्थितयों में चोटें आयीं व उपयुक्त मामले में इसके कार्यकारियों यह निर्देश दिए जा सकते हैं कि राज्य सरकार द्वारा मामलें में अग्रिम कार्यवाही हेतु ध्यान में लाया जाय| न्यायालय का कर्तव्य है कि वह अनाज में से फूस को अलग करे| किसी साक्ष्य या सामग्री विशेष का मिथ्या होने से मामला प्रारम्भ से अंत तक समाप्त नहीं हो जाता है| भारत में यह सिद्धांत बहुत जोखिमपूर्ण है कि यदि एक साक्षी झूठ कहा रहा है तो उस सम्पूर्ण साक्ष्य को ही नकार दिया जाय किन्तु यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि न्याय प्रशासन प्रभावित लोगों को न्याय देने के लिए ही  अस्तित्व में है| 
विचारण/प्रथम अपील न्यायालय मात्र तकनीकि बारीकियों से प्रभावित नहीं हो सकते और उन तथ्यों को अनदेखा नहीं कर सकते जिनकी सकारात्मक जांच करने और ध्यान देने की आवश्यकता है| न्यायालय विचारण के उद्देश्य अर्थात सत्य प्राप्त करने और उस भूमिका से असावधान रहने जिसके लिए संहिता में पर्याप्त शक्तियाँ हैं, को नजरंदाज कर मात्र एक साक्ष्य दर्ज  करने वाले टेप रिकोर्डेर  की भांति कार्य करने के लिए ही नहीं है| इस पर भारी कर्तव्य और दायित्व अर्थात न्याय देना है, विशेष कर ऐसे मामले में जहां स्वयं अभियोजन एजेंसी की भूमिका ही विवादित हो|  कानून को प्राणहीन रूप से बैठे नहीं देखा जाना चाहिए जिससे कि जो इसकी अवज्ञा करे बच निकले और जो इसका संरक्षण मांगे वह निराश हो बैठे | न्यायालयों को यह सुनिश्चित करना है कि दोषियों को दण्डित किया जाय और यदि अनुसन्धान या अभियोजन में कोई कमी दिखाई देती है या पर्दा उठा कर समझी जा सकती है तो उसके साथ कानूनी ढांचे के भीतर उचित ढंग से व्यवहार किया किया जाय| जैसा कि लोकप्रिय है यद्यपि कानून को अंधा दिखाया जाता है किन्तु यह मात्र एक पर्दा है जो पक्षकारों को नहीं देखने के लिए है और यह अन्याय  को रोकने के लिए अपने कर्तव्य  की उपेक्षा कर न्यायालय के सामने आये तथ्यों को नजरंदाज करने या हेतुक से मुंह मोडने के लिए नहीं है| This e-mail address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it.
जब एक सामान्य नागरिक शक्तिशाली प्रशासन, असहानुभूती, अकर्मण्यता ,या आलस्य के विरुद्ध शिकायत करता है तो न्यायालय स्तर पर कोई भी अकर्मण्यता या सुस्ती से विकलांगता की प्रवृति बढ़ेगी और अंततोगत्वा चरणबद्ध रूप में विश्वास में गिरावट आकर ,देश का न्याय प्रदनागी निकाय ही नष्ट हो जायेगा| न्याय करना अत्यधिक महत्वपूर्ण कार्य है और इस कर्तव्य में लालफीताशाही की अनुमति नहीं दी जा सकती| 


Sunday 26 February 2012

सूचना प्राप्त करने के लिए एक व्यक्ति को यातना देना निश्चित रूप से इसमें शामिल नहीं है


सुप्रीम कोर्ट द्वारा दाण्डिक अपील संख्या ९१९/१९९९ मुंशी सिंह गौतम बनाम मध्यप्रदेश राज्य के निर्णय दिनांक १६.११.२००४ में कहा गया है कि न्यायालयों को, विशेष रूप से हिरासत में अपराधों के सम्बन्ध में,  अपने रुख, प्रवृति और विचारधारा में परिवर्तन लाने और अधिक संवेदनशीलता दिखाने तथा संकीर्ण तकनीकि सोच के स्थान पर वास्तविक विचारधारा अपनानी चाहिए, हिरासती हिंसा के मामलों की प्रक्रिया में यथा संभव अपनी शक्तियों के भीतर, सत्य का पता लगाया जाय व दोषी बच नहीं जाए ताकि अपराध से पीड़ित को संतोष हो सके कि आखिर कानून की श्रेष्ठता जीवित है| एक अपराध की रिपोर्ट प्राप्त होने पर पुलिस का कर्तव्य है कि सत्य का पता लगाने के लिए  साक्ष्यों का संग्रहण करे जिन्हें विचारण के समय प्रस्तुत किया जा सके| सूचना प्राप्त करने के लिए एक व्यक्ति को यातना देना निश्चित रूप से इसमें शामिल नहीं है चाहे वह अभियुक्त हो अथवा साक्षी हो| यह कर्तव्य कानून की चारदीवारी के भीतर होना चाहिए| कानून लागू करने वाले साक्ष्य संग्रहण के नाम पर कानून को अपने हाथ में नहीं ले सकते | यह तर्क कि मृतक पुलिस थाने पर अत्यंत गंभीर हालत में आया था और अपना नाम बताने के बाद मर गया, झूठा लगता है क्योंकि अभियुक्त ने धारा ३१३ के अपने बयानों में स्पष्ट कहा है कि सूचना प्राप्त होने पर जहाँ कि मृतक घायल अवस्था  में बेहोश पड़ा था| इस दृष्टिकोण से जहां तक अभियुक्त गुलाबसिंह पर हिरासती यातना का आरोप है , साबित हो गया है |

Saturday 25 February 2012

कानून को न्यायालयों द्वारा लागू किया जाता है और पक्षकार इसका अभिकथन करने के दायित्वाधीन नहीं हैं


सुप्रीम कोर्ट ने जीतसिंह मोहरसिंह बनाम मुनिसिपल कमेटी ( १९६१ क्री ला ज २७२) में कहा है कि यह निष्कर्ष निकालना कि अभियुक्त इस आधार पर बरी होने का पात्र था इससे न्याय हेतुक की प्रोन्नति नहीं होती है| इस सन्दर्भ में यह भी सुसंगत है कि कानून को न्यायालयों द्वारा लागू किया जाता है और पक्षकार इसका अभिकथन करने के दायित्वाधीन नहीं हैं| एक विशुद्ध विधि का प्रश्न, पूर्व में वादकरण के किसी भी चरण पर बिना उठाये भी,  को उच्च न्यायालय में और कई बार तो सुप्रीम कोर्ट में भी उठाया जा सकता है व न्यायालय से अपेक्षा है कि वह कानूनी प्रावधान पर ध्यान दे चाहे पक्षकार उस पर निर्भर रहता है अथवा नहीं| इसलिए यदि एक अधिसूचना में भारतीय सीमाक्षेत्र में प्रभावी कोई कानून समाहित  हो तो न्यायालयों से मात्र  अपेक्षा ही नहीं अपितु उसका संज्ञान लेने व लागू करने का कर्तव्य है यदि यह मामले को आवृत करता है|

Friday 24 February 2012

न्यायिक प्राधिकारी द्वारा पारित आदेश की अपील कार्यपालक द्वारा नहीं सुनी जा सकती

सुप्रीम कोर्ट ने अमरीकसिंह लायलपुरी बनाम भारत संघ (मनु/सुको/०४५६/२०११) में कहा है कि  उपरोक्त अधिनयम के अधीन स्थापित सिविल न्यायालय की विशेषताओं युक्त ट्राइब्यूनल और अनुभवी न्यायिक अधिकारियों द्वारा संचालित जिन्हें कि अपने कुछेक कर्तव्यों का निर्वहन सिविल न्यायालय की तरह करना था और ऐसे निकायों के समक्ष कार्यवाहियां न्यायिक कार्यवाही थीं| राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली क्षेत्र के प्रशासक अर्थात लेफ्टिनेंट गवर्नर एक कार्यपालक हैं और न्यायिक प्राधिकारी द्वारा पारित आदेश की अपील कार्यपालक द्वारा नहीं सुनी जा सकती चाहे न्यायिक अधिकारी ने ऐसा आदेश अर्धन्यायिक हैसियत में ही पारित किया हो |ऐसे आदेश के विरुद्ध मात्र न्यायिक अधिकारी के समक्ष ही प्रस्तुत की जा सकती है |अतः दिल्ली नगर निगम अधिनियम ,१९५७ की धारा ३४७ घ के अंतर्गत अपील जिला न्यायाधीश दिल्ली को प्रस्तुत होगी| अपील अनुमत की गयी|  

Thursday 23 February 2012

असामान्य क्षेत्राधिकार का प्रयोग आपवादिक और न्यायहित मात्र में हो

बी आर सुरेन्द्रनाथ सिंह बनाम उपनिदेशक खान एवं भूगर्भ विभाग कर्नाटक (मनु/ सुको /०३७४/२०११) के मामलें सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अपीलार्थी( खनन पट्टाधारी) के विरुद्ध अवैध खनन की शिकायत की गयी| प्रत्यर्थी ने पाया कि लगभग एक लाख टन लोह अयस्क अवैध रूप से निकली गयी है और यह अवैध खनन की गयी सामग्री अपीलार्थी की भूमि पर रखी गयी है | शिकायत के अनुसरण में प्रत्यर्थी विभाग के अधिकारीगण ने खनन पट्टे को देखा और इसे अवैध खनन पानेपर जब्त कर और संगृहीत लिया| प्रत्यर्थी संख्या  १ ने लोह अयस्क को नीलाम करने के लिए अधिसूचना निकली| अधिसूचना को रिट याचिका के माध्यम से अपीलार्थी द्वारा  चुनौती दी गयी| रिट याचिका निरस्त कर दी गयी और उच्च न्यायालय ने धारित किया कि अपीलार्थी को जब्त की गयी लोह यास्क पर कोई अधिकार नहीं है|  पुनरीक्षण याचिका दायर की गयी उसे भी निरस्त कर दिया गया|अतः वर्तमान अपील प्रस्तुत की गयी है |ऑडिट रिपोर्ट में बताया गया है कि अपीलार्थी ने अनुमत सीमा से कई गुना अधिक खनन और उत्पादन किया है | सुप्रीम कोर्ट को वर्तमान प्रकरण में अनुच्छेद १३६ के अंतर्गत अपना  असामान्य क्षेत्राधिकार प्रयोग नहीं करना चाहिए और अपील निरस्त कर दी गयी|

Wednesday 22 February 2012

क्षेत्राधिकार

सुप्रीम कोर्ट ने उत्तराँचल राज्य बनाम गोल्डन फोरेस्ट क. (मनु/सुको/०३९२/२०११) के निर्णय में कहा है कि  अ ने कुछ आछेपित भूमि जो गोल्डन फोरेस्ट इंडिया और उसके सहप्रतिष्ठान के नाम से थीं ली| सहायक कलेक्टर ने पाया कि प्रत्यार्थियों के नाम नाम खरीद उत्तर प्रदेश ज़मींदारी उन्मूलन व भू सुधार अधिनियम की धारा १५४(१) के प्रतिबंधों के उल्लंघन में  है| पुनर्गठन अधिनियम की धारा ९१ में प्रावधान है कि समस्त कार्यवाहियां जो उत्तरप्रदेश राज्य में स्थित किसी न्यायालय, प्राधिकारी, ट्राइब्यूनल या अधिकारी के पास बकाया थीं जोकि ०९.११.२००० कोस्वतः की उत्तराँचल राज्य में संबद्ध   न्यायालय, प्राधिकारी, ट्राइब्यूनल या अधिकारी को स्थानांतरित हो जाएँगी इसलिए जो पुनरीक्षण ९.११.२००० को राजस्व मंडल उत्तरप्रदेश के पास लंबित थीं उत्तराँचल राज्य को अंतरित हो जायेंगी और तदनुसार राजस्व मंडल उत्तरप्रदेश द्वारा निर्णित नहीं की जानी चाहिए थीं| एकल न्यायाधीश ने राजस्व मंडल उत्तरप्रदेश के निर्णय में इस घटक दोष  को नजरंदाज किया है|  राजस्व मंडल उत्तरप्रदेश का आछेपित निर्णय निरस्त किया जाता है और प्रत्यर्थीगण द्वारा प्रस्तुत पुनरीक्षण को उत्तराँचल राज्य के राजस्व मंडल को अंतरित किया जाता है| अपील अनुमत की गयी|

Tuesday 21 February 2012

राज्य इच्छानुसार किसी भी व्यक्ति को खैरात या लाभ नहीं दे सकती


सुप्रीम कोर्ट ने अखिल भारतीय उपभोक्ता कांग्रेस बनाम मध्य प्रदेश राज्य (मनु/सुको /०३४५/२०११) के निर्णय में कहा है कि राज्य या इसकी  एजेंसियां राजनैतिक संस्थानों/या राज्याधिकारियों  की इच्छानुसार किसी भी व्यक्ति को खैरात  या लाभ  नहीं दे सकती| ऐसा लाभ  सशक्त, पारदर्शी , दृष्टव्य और निश्चित नीतिगत सिद्धांतों पर आधारित होना चाहिए |वर्तमान प्रकरण में भूमि के आरक्षण हेतु एक्स द्वारा मेमोरिअल ट्रस्ट के संयोजक की हैसियत में आवेदन किया गया किन्तु प्रत्यार्थिगण ने कोई भी ऐसा दस्तावेज़ प्रस्तुत नहीं किया जिससे यह स्थापित होता हो कि आवेदन की तिथि को यह ट्रस्ट पंजीकृत था| ३० एकड़ भूमि आरक्षित करने और २० एकड़ भूमि आवंटित करने से पूर्व अखबार में या अन्य किसी उपयुक्त माध्यम में उपयुक्त संस्थानों से आवेदनपत्र आमंत्रित करने हेतु कोई विज्ञापन नहीं दिया गया और प्रत्येक अर्थ में  राजनैतिक और राज्य के गैरराजनैतिक कार्यकारियों ने इस प्रकार भूमि को आवंटित किया मानों कि वे मेमोरिअल ट्रस्ट को भूमि आवंटन के कर्ताव्यधीन हों| सभी ट्रस्टी राजनैतिक दल विशेष के सदस्य रहे हैं और भू आरक्षण व आवंटन की समस्त प्रक्रिया और अधिकांश प्रीमियम की छूट इसलिए दी गयी कि राज्य के राजनैतिक कार्यकारी प्रत्यर्थी संख्या का ५ का पक्षपोषण करना चाहते थे| अतः आक्षेपित भूमि का प्रत्यर्थी संख्या ५ को आवंटन संविधान के अनुच्छेद १४ और मध्य प्रदेश नगर तथा ग्राम निवेश अधिनियम ,१९७३ के प्रावधानों के विपरीत है|


भोपाल विकास योजना में जो भूमि आरक्षित की गयी एवं प्रत्यर्थी संख्या ५ को आवंटित की गयी को को सार्वजानिक और अर्ध सार्वजानिक ( स्वास्थ्य) उद्देश्यर्थ दर्शाया गया था |राज्य सरकार ने अधिनियम की धारा २३ क १ (क) की शक्तियों के प्रयोग में प्रत्यर्थी संख्या ५ द्वारा संस्थापित संस्था को सुविधा देने के लिए योजना को संशोधित किया और न कि भारत सरकार या राज्य सरकार या उसके उपक्रमों के लिए | भू उपयोग परिवर्तन का अभ्यास जोकि योजना  में संशोधन करता है मात्र एक कोरी औपचारिकता है क्योंकि भूमि का प्रत्यर्थी संख्या ५ को आवंटन  अधिनियम की धारा २३ क १ (क) के अंतर्गत अधिसूचना जारी होने से २ वर्ष पूर्व ही कर दिया गया था| अतः योजना में संशोधन अधिकार क्षेत्र  से बाहर था| खंड पीठ का अछेपित आदेश निरस्त किया जाता है, प्रत्यर्थी संख्या ५ को  २० एकड़ भूमि का आवंटन  अवैध घोषित कर निरस्त किया जाता है | अपील अनुमत की गयी|

Monday 20 February 2012

विशेष परिस्थितियों में मृत्यु दंड का विकल्प पूर्ण आजीवन कारावास


श्री रमेश कुमार अग्रवाल अपने परिवार- पत्नि, तीन पुत्रियों और एक पुत्र मास्टर प्रथम- के साथ दिल्ली में अपने मकान की दूसरी मंजिल पर रहते थे| उन्होंने अपने ड्राइवर जीतू की सिफारिश पर संजय नामक एक नौकर को पांच दिन पूर्व ही काम पर रखा था| संजय (अभियुक्त) उनके निवास की छत पर निर्मित एक कमरे में रहता था| घटना के दिन वे अपनी पत्नि  और बच्चों के साथ टेलीवीजन देख रहे थे| लगभग रात्री के 10 बजे उसके तीनों बच्चे पुत्री एक्स ,वाई और (मृतक) पुत्र मास्टर प्रथम अपने कमरे में चले गए जबकि अभियुक्त उनके कमरे में 11.15  बजे तक रहा| अभियुक्त टेलीवीजन देखते हुए उनके पैर दबाता रहा और तत्पश्चात चला गया| श्री अग्रवाल और उनकी पत्नि सो गए| लगभग रात्रि के 12.45  बजे उनकी पुत्री एक्स खून से सनी हुई और दर्द से कराहती हुई अचानक उनके कमरे में आई |

उसने उनको बताने के बाद  कि अभियुक्त ने उसे चोट पहुंचाई है,  बिस्तर पर गिर पड़ी और बेहोश  हो गयी| इसी बीच वाई जोकि खून से सनी हुई थी वह भी आ गयी और उसने बताया कि अभियुक्त ने उसको व प्रथम को चोट पहुंचाई है जिस पर श्री अग्रवाल व उनकी पत्नि अपने बच्चों के कमरे की ओर दौड़े| वहाँ उन्होंने देखा कि प्रथम खून के तालाब के बीच में पड़ा है और उसकी गर्दन में चाकू फंसा हुआ है| यह देखने के बाद उन्होंने चिल्लाहट की और अपने बच्चों को पड़ौसियों और रिश्तेदारों की मदद से सुन्दरलाल जैन अस्पताल ले गए| मास्टर प्रथम को पूर्व में ही मृतक  घोषित कर दिया गया| दोनों पुत्रियों की हालत भी नाज़ुक बताई गयी| अभियुक्त ने प्रथम को मार दिया था और दोनों पुत्रियों पर प्राण घातक हमला किया था|

तत्पश्चात अभियुक्त घर से गायब हो गया| इस बीच घायल पुत्री एक्स का अस्पताल में ओपरेशन हुआ और डॉ सीमा पाटनी ने  रिपोर्ट तैयार की जिसमें कहा गया कि उसकी छाती पर चाकू की कई चोटें आयीं और उसके शरीर पर 10 घाव पाए गए| डॉ सीमा ने यह भी लिखा कि उसके शरीर पर पाई गयी चोटें खतरनाक प्रकृति की हैं|
आपराधिक  न्याय तंत्र रात्रि को 1.05 पर सक्रिय हो गया जब मोबाइल से सूचना पर पुलिस कट्रोल रूम में इस आशय की प्रविष्टि दर्ज कर ली गयी थी| हैड कानिस्टेबल जय कुमार ने यह सूचना तुरंत ही पुलिस थाना रूप नगर को भेज दी | सम्बंधित अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने अपने निर्णय दिनांक 04.10.08 से भारतीय दंड संहिता की धारा 302(हत्या), 307(हत्या का प्रयास), 376( बलात्कार), 379(चोरी)  के अंतर्गत अभियुक्त को दोषी पाया| यद्यपि संजय पर धारा 392(लूट  ) का आरोप था किन्तु  उसे कम गम्भीर आरोप यानी धारा 379 के अंतर्गत दोषी पाया गया| जहाँ तक दंड का प्रश्न था अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने सख्ततम दंड मृत्यु दंड से दण्डित करने हेतु आदिष्ट किया और मामला राज्य बनाम संजय दास पुष्टि हेतु दिल्ली उच्च न्यायालय भेजा गया| उच्च न्यायालय के सामने अभियुक्त पक्ष की ओर से यह भी तर्क दिया गया कि प्रथम की माँ के बयानों में अंतर है अतः उसे विश्वसनीय नहीं माना जा सकता| किन्तु न्यायालय ने कहा कि  एक साक्षी यद्यपि पूर्णत सत्य बोल  सकता है किन्तु न्यायालय के वातावरण से घबरा सकता है और प्रति परीक्षा से घबराने पर हतास हो सकता है जिस कारण वह घटनाओं की क्रमिकता के सम्बन्ध में भ्रमित हो सकता है और उस समय अपनी कल्पना के आधार पर पूर्ति करना संभव है|
उच्च न्यायालय के सामने अपील एवं मृत्यु दंड पुष्टि रेफरेंस दोनों पहुंचे और उस पर सुनवाई की गयी| उच्च न्यायालय ने मास्टर  प्रथम की हत्या, कुमारी एक्स की हत्या के प्रयास और उसके साथ बलात्कार के अभियोग का दोषी पाया| कुमारी वाई की हत्या के प्रयास के अभियोग को संशोधित कर गंभीर चोट पहुँचाने का दोषी पाया| उसे धारा 379 के आरोप के दोष से मुक्त कर दिया गया| दंड के विषय में उच्च न्यायालय का विचार था कि अभियुक्त की उम्र अपराध के समय 20 वर्ष के लगभग रही है और वह एक बच्ची का पिता भी है| बच्ची के संरक्षण के लिए पिता के साये की आवश्यकता है| इन परिस्थितियों को देखते हुए मास्टर प्रथम की हत्या के अभियोग में आदेश दिनांक 27.10.09 से मृत्युदंड के स्थान  पर इस निर्देश सहित आजीवन कारावास से दण्डित किया गया की उसे 25 वर्ष की अवधि से पूर्व रिहा नहीं किया जायेगा| अन्य अभियोगों के सम्बन्ध में उपरोक्तानुसार अधिकतम दंड रखा गया और मृत्यु दंड की पुष्टि से मना कर दिया गया|


Sunday 19 February 2012

उचित शिक्षा सुनिश्चित करना राज्य का यह संवैधानिक दायित्व

सुप्रीम कोर्ट ने चंडीगढ़ प्रशासन बनाम रजनी वली (ए आई आर २००० सु को ६३४) के निर्णय में कहा है कि राज्य का यह संवैधानिक दायित्व है कि छात्रों, जिन पर समाज का भविष्य निर्भर करता है, को उचित शिक्षा सुनिश्चित करे| इसी सिद्धांत के अनुसरण में राज्य ने निजी विद्यालयों के संचालन एवं स्थापना को नियंत्रित और विनियमित करने के लिए कानून अधिनियमित किये, नियम और विनियम बनाए हैं| संस्थाओं के सुचारू संचालनार्थ सरकार आर्थिक सहायता देती है और यह सुनिश्चित करती है कि अर्थाभाव में विद्यालयों में अध्यापन के स्तर पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े| इस बात पर बल देने की आवश्यकता नहीं है कि योग्य एवं दक्ष अध्यापकों की नियुक्ति शिक्षण संस्थानों में अध्यापन का उच्च स्तर बनाये रखने के लिए आवश्यक है| 

Saturday 18 February 2012

आपराधिक न्याय प्रशासन का मखौल उडाता लोक अभियोजन



न्यायालय के साथसाथ, पुलिस और लोक अभियोजक आपराधिक न्याय प्रशासन के आधार स्तंभ हैं| पुलिस किसी मामले में तथ्यान्वेषण करती है और लोक अभियोजक उसे प्रस्तुत कर अभियुक्त को दण्डित करवाने हेतु पैरवी करते हैं| सामान्य अपराधों का परीक्षण मजिस्ट्रेट न्यायालयों द्वारा होता है और गंभीर (जिन्हें जघन्य अपराध कहा जाता है) अपराधों का परीक्षण सामान्यतया सत्र न्यायलयों द्वारा किया जाता है| वैसे अपराधों के इस वर्गीकरण में राज्यवार थोडा बहुत अंतर भी पाया जाता है किन्तु समग्र रूप में भारत  में लगभग स्थिति एक जैसी ही है|

विडम्बना यह है कि निचले स्तर के मजिस्ट्रेट न्यायालयों में तो पैरवी हेतु अभियोजन सञ्चालन के लिए पूर्णकालिक स्थायी सहायक लोक अभियोजक नियुक्त होते हैं किन्तु ऊपरी न्यायालयों सत्र न्यायालय, उच्च न्यायालय और सुप्रीम कोर्ट में अभियोजन के सञ्चालन के लिए मात्र अंशकालिक और अस्थायी लोक अभियोजक नियुक्त किये जाते हैं| इन लोक अभियोजकों को नाम मात्र का पारिश्रमिक देकर उन्हें अपनी आजीविका के लिए अन्य साधनों से गुजारा करने के लिए खुला छोड़ दिया जाता है| वर्तमान में लोक अभियोजकों को लगभग सात हजार रुपये मासिक पारिश्रमिक दिया जा रहा है जबकि सहायक लोक अभियोजकों को  पूर्ण वेतन लगभग तीस हजार रुपये दिया जा रहा है| यह भी एक विरोधाभाषी तथ्य है कि सामान्य अपराधों के लिए निचले न्यायालयों में स्थायी सहायक लोक अभियोजक नियुक्त हैं जबकि ऊपरी न्यायलयों में संगीन अपराधों के परीक्षण और अपील की पैरवी को अल्पवेतनभोगी अस्थायी लोक अभियोजकों के भरोसे छोड़ दिया गया है| यह स्थिति आपराधिक न्याय प्रशासन का उपहास करती है और अपराधों के रोकथाम व अपराधियों को दण्डित करने के प्रति सरकारों  की संजीदगी का एक नमूना पेश करती है |

लोक अभियोजकों की नियुक्तियां सत्तासीन राजनैतिक दल द्वारा अपनी लाभ हानि का समीकरण देखकर की जाती हैं और लोक अभियोजक भी अपने नियोक्ता के प्रसाद ( प्रसन्नता) का पूरा ध्यान रखते हैं अन्यथा उन्हें सरकारी कोपन भाजन का किसी भी समय शिकार होने पर पद गंवाना पड़ सकता है| कहने का तात्पर्य यह है कि संगीन जुर्मों के अपराधियों को यदि सरकारी संरक्षण प्राप्त हो तो उस प्रकरण में लोक अभियोजक के माध्यम से पैरवी में ढील देकर दण्डित होने से बचा जा सकता है| भारत में राजनीति के अपराधीकरण के लिए यह भी एक प्रमुख करक है| सरकार जिसे दण्डित नहीं करवाना चाहे उसके विरुद्ध पैरवी में ढील के निर्देश दे सकती है|

न्यायप्रशासन की स्वतंत्रता के लिए प्रायः देश के न्यायविद और उनके समर्थक तर्क देते हैं कि न्याय प्रशासन की पवित्रता के लिए न्यायपालिका की स्वतन्त्रता एवं न्यायाधीशों का निर्भय, एवं उनकी नौकरी का स्थायित्व  होना आवश्यक है| यक्ष प्रश्न यह है कि जब न्यायप्रशासन के अहम स्तंभ लोक अभियोजक की सेवा की अनिश्चितता जनित न्यायप्रशासन पर संभावित प्रतिकूल प्रभाव को देश वहन कर सकता है तो  न्यायाधीशों की सेवा की अनिश्चितता से देश वास्तव में किस प्रकार कुप्रभावित होगा| अर्थात न्यायाधीशों की सेवा को भी स्थायी रखने की कोई आवश्यकता नहीं है|
वैसे भी लोक अभियोजक इतने अल्प पारिश्रमिक के लिए पैरवी में न तो कोई रूचि लेते हैं और न ही न्यायालयों द्वारा सामान्यतया अभियुक्तों को दण्डित किया जाता है| राजस्थान के एक जिले के आंकड़ों के अनुसार वर्ष में दोषसिद्धि का मामले दर्ज होने से मात्र 1.5% का अनुपात है| यह तथ्य भी उक्त स्थिति की पुष्टि करता है| लोक अभियोजक भी अपनी आजीविका के लिए अनैतिक साधनों पर आश्रित रहते हैं| यह तो सपष्ट है ही कि भारतीय न्यायालयों से दण्डित होने की बहुत कम संभावनाएं हैं  किन्तु अभियोजन पूर्व की यातनाओं से मुक्ति पाना एक बड़ा कार्य है जिसके लिए न्यायालयों की स्थापना अपना आंशिक औचित्य साबित करती है| भारत के राष्ट्रीय पुलिस आयोग का कहना भी है कि देश में 60% गिरफ्तारियां अनावश्यक होती है जिन पर जेलों का 43.2% खर्चा होता है| माननीय सुप्रीम कोर्ट भी जोगिन्दर कुमार के मामले में कह चुका है कि जघन्य अपराध के अतिरिक्त गिरफ्तारी को टाला जाना चाहिए और मजिस्ट्रेटों पर यह दायित्व डाला गया है कि वे इन निर्देशों की अनुपालना सुनिश्चित करें| किन्तु मजिस्ट्रेटों के निष्क्रिय सहयोग से स्वार्थवश पुलिस अनावश्यक  गिरफ्तारियां करती रहती है और वकील न तो इनका विरोध करते और न ही मजिस्ट्रेट से इन अनुचित गिरफ्तारियों में दंड प्रक्रिया संहिता की  धारा 59 के अंतर्गत बिना जमानत रिहाई की मांग करते हैं| उलटे इन अनावश्यक गिरफ्तारियों में भी जमानत से इन्कार कर गिरफ्तार व्यक्ति को मजिस्ट्रेटों और न्यायाधीशों द्वारा जेल भेज दिया जाता है|

चूँकि न्यायालयों द्वारा दोषियों के दण्डित होने की संभावनाएं अत्यंत क्षीण हैं अतः लोक अभियोजकों की भूमिका अग्रिम एवं पश्चातवर्ती जमानत तक ही प्रमुखत: सीमित हो जाती है| प्रचलित परम्परानुसार एक गिरफ्तार व्यक्ति की जमानत (चाहे उसकी गिरफ्तारी अनावश्यक या  अवैध ही क्यों न हो) के लिए भी लोक अभोयोजक के निष्क्रिय सहयोग की आवश्यकता है अर्थात जमानत आसानी से हो जाये इसके लिए आवश्यक है कि लोक अभियोजक की ओर से जमानत का विरोध नहीं हो| वकील समुदाय में आम चर्चा  होती रहती है कि वकील को बोलने के लिए जनता से फीस मिलती है जबकि सरकारी वकील को चुप रहने के लिए जनता फीस (नजराना) देती है| ऐसा नहीं है कि यह तथ्य सरकार की जानकारी में नहीं हो| क्योंकि सरकार को भी स्पष्ट ज्ञान है कि जिस प्रकार राशन डीलर, स्टम्प विक्रेता आदि सरकार से मिलने वाले नाममात्र के कमीशन पर जीवन यापन नहीं कर सकते और वे अपने जीवन यापन के लिए अन्य अवैध कार्य भी करते हैं ठीक उसी प्रकार अधिकांश लोक अभियोजक और सरकारी वकील भी अनैतिक कार्य करते हैं यह तथ्य बड़ा स्पष्ट है|  



Friday 17 February 2012

खाद्य पदार्थ की जांच


सुप्रीम कोर्ट ने सौमिन्द्र भट्टाचार्य बनाम बिहार राज्य (२०१० (१) क्री को केसेज ४२१) में कहा है कि एक निजी क्रेता भी लोक विश्लेषक से खाद्य वस्तु की जांच करवा सकता है|

Wednesday 15 February 2012

द्वितीयक साक्ष्य का साक्ष्य मूल्य और वजन साक्ष्य देने के बाद निर्धारित किया जा सकता है

दिल्ली उच्च न्यायालय ने मंगतराम बनाम अशोक कुमार के निर्णय दिनांक २२.०३.२०१० में स्पष्ट  किया है कि  यदि दस्तावेज विपक्षी के कब्जे में हों और  मात्र विपक्षी द्वारा इस बात की इन्कारी कि दस्तावेज उसके कब्जे में नहीं हैं तो इससे याची को अपना अधिकार  द्वितीयक साक्ष्य से साबित करने से नहीं रोका जा सकता| द्वितीयक साक्ष्य का साक्ष्य मूल्य और वजन साक्ष्य देने के बाद निर्धारित किया जा सकता है|

Tuesday 14 February 2012

न्यायालय की चूक से किसी भी पक्षकार को हानि नहीं होनी चाहिए

सुप्रीम कोर्ट ने शैख़ सलीम हाजी अब्दुल बनाम कुमार  [२००६(१) सिविल कोर्ट केसेज २९० ( सुको)] के निर्णय में कहा है कि यदि न्यायालय ने लिखित अभिकथन दाखिल करने के लिए ९० दिन से अधिक का समय अनुमत किया था और दुर्भाग्य से ऐसा दिन यदि छुट्टी पडती हो तो पक्षकार को इससे हानि नहीं पहुंचनी चाहिए| क्योंकि न्याय का यह   सिद्धांत है कि न्यायालय की चूक से किसी भी पक्षकार को हानि नहीं होनी चाहिए|

Sunday 12 February 2012

न्यायालय किसी भी चरण पर साक्षी को आहूत करने का आदेश दे सकता है

मद्रास उच्च न्यायालय ने के के वेलुसमी बनाम एन पलानीसामी ( २०११ (३) सी टी सी ४२२) में कहा है कि  न्यायालय व्यवहार प्रक्रिया संहिता आदेश १८ नियम १७ के अंतर्गत किसी भी चरण पर साक्षी को आहूत करने का आदेश दे सकता है और ऐसी शक्ति स्वप्रेरणा से अथवा मामले के पक्षकारों के निवेदन पर प्रयोग की जा सकती है | ऐसी शक्ति विवेकाधीन है  और यदा कदा ही प्रयोग की जानी चाहिए| किन्तु इस शक्ति का उपयोग किसी साक्षी, जिसकी पहले परीक्षा हो चुकी हो, की चूक की पूर्ति करने के लिए नहीं होनी चाहिए|

संहिता का आदेश १८ नियम १७ किसी भी साक्षी की पुनः मुख्य परीक्षा या पुनः प्रतिपरीक्षा के लिए आशयित नहीं है| उक्त प्रावधान प्रथामिकतः किसी साक्षी को स्वप्रेरणा या पक्षकार के आवेदन पर किसी संदेह या मुद्दे पर स्पष्टीकरण के लिए है ताकि न्यायालय स्वयं प्रश्न कर सके और उत्तर उगलवा सके| एक बार जब साक्षी को बुला लिया जाय तो पक्षकारों को भी प्रश्न रखने में सहायता के लिए अनुमत करता है|

संहिता की धारा १५१ रोजमर्रा के तौर पर प्रयोग नहीं की जानी चाहिए| यह कोई सारभूत कानून नहीं है जोकि न्यायालय को कोई शक्ति या क्षेत्राधिकार देते हो| इसे मात्र उन उद्देश्यों के लिए प्रयोग किया जा सकता है जिनके लिए संहिता में गर्भित या स्पष्ट प्रावधान नहीं हो| जब संहिता में उपचार उपलब्ध हो तो धारा १५१ प्रयोग नहीं की जा सकती| यह न्यायालय का विवेकी अधिकार है|


Saturday 11 February 2012


लंका वेंकतेस्वरालू (मृत) प्रतिनिधियों के माध्यम से बनाम आंध्र प्रदेश राज्य ( २०११ (४) सु को केसेज ३६३) में सुप्रीम कोर्ट ने पाया  है कि जब सरकारी वकील को विलम्ब की माफ़ी के लिए आवेदन पत्र प्रस्तुत करने के निर्देश दे दिए फिर भी उसने समय पर वांछित आवेदन प्रस्तुत नहीं किया|  इस देश के न्यायालय , सुप्रीम कोर्ट सहित, पर्याप्त करणों से विलम्ब माफ़ी के लिए आवेदन पत्र को उदारता पूर्वक ग्रहण करते हैं| किन्तु उदार विचार ,न्यायोंमुख विचार , सारभूत न्याय को मर्यादा के सारभूत न्याय को फैंकने के लिए प्रयोग नहीं किया जा सकता| विशेष रूप से जहां न्यायालय यह निष्कर्ष निकालते हैं विलम्ब का कोई औचित्य नहीं है| मर्यादा  अधिनियम की धारा ५ के अंतर्गत आवेदन पर विचार करते समय न्यायालय को असीमित या अनियंत्रित विवेकाधिकार नहीं है| समस्त विवेकाधिकार विशेष रूप से न्यायिक विवेकाधिकार कानून को ज्ञात तर्कसंगत सीमाओं के भीतर प्रयोग की जानी चाहिए | विवेकाधिकार एक प्रणालीगत ढंग से सकारण प्रयुक्त  की जानी चाहिए|
किसी सनक या कल्पना , पूर्वाग्रह या पसंद के आधार पर विवेकाधिकार का प्रयोग नहीं होना चाहिए| एक बार जब एक पक्षकार को अन्य पक्षकार की विलम्ब के लिए पर्याप्त कारण को स्पष्ट करने में विफलता व उसके आचरण से मूल्यवान अधिकार अर्जित हो गया हो तो आवेदक से मात्र पूछकर अधिकार से वंचित करना तर्कसंगत होगा जब विलम्ब प्रत्यक्षतः उपेक्षा, चूक या अकर्मण्यता  का परिणाम हो| दोनों पक्षकारों के साथ समान रूप से न्याय होना चाहिए|

Friday 10 February 2012

गारंटर का दायित्व मूल ऋणी के सहविस्तृत है

इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समक्ष निर्मल जैन बनाम प्रदेशीय इंडस्ट्रियल अंड इन्वेस्टमेंट कॉर्प ऑफ उप्र (मनु/सुको/०४६३/२०११ ) में विचारणीय प्रश्न था कि क्या बैंक एवं वितीय संस्था अधिनियम की धारा ३४ के मद्देनजर कॉर्प . उप्र लोक धन (बकाया वसूली) अधिनयम के अंतर्गत ऋण की वसूली हेतु कार्यवाही कर सकती है| धारित किया गया कि ऋण वसूली अधिनियम  की  धारा ३४(२) में  उप्र लोक धन (बकाया वसूली) अधिनियम का नाम नहीं होने से इस अधिनियम के अंतर्गत कार्यवाही नहीं की जा सकती| न्यायालय के समक्ष अन्य विचारणीय मुद्दा यह भी था कि गारंटर  का मामला  भी मूल ऋणी से भिन्न नहीं है, एक गारंटर ऋणी भी है | गारंटर का दायित्व मूल ऋणी के सहविस्तृत  है| राज्य वित निगम इस बात के लिए स्वतंत्र है कि वह मूल ऋणी के साथसाथ गारंटर  या संयुक्त रूप से वसूली के लिए कार्यवाही करे| भूराजस्व की तरह वसूली का नोटिस निरस्त कर याचिका अनुमत की गयी|

Thursday 9 February 2012

जीवन के अधिकार में चिकित्सा का अधिकार भी शामिल है

बम्बई उच्च न्यायालय ने हिरासत में मौत के प्रकरण सोनाबाई बनाम महाराष्ट्र राज्य (2006  क्री ला ज 3423) में कहा है कि जीवन के अधिकार में चिकित्सा का अधिकार भी शामिल है |चूँकि हृदय सम्बन्धी गडबडी में राज्य का उपचार करवाने का कर्तव्य था और राज्य अपने इस कर्तव्य के निर्वहन में असफल रहा है अतः रूपये 150000हर्जाने के आदेश दिए जाते हैं | राज्य का यह अधिकार होगा कि वह दोषी से इस राशि की वसूली  करे|

Wednesday 8 February 2012

ढांचा मरम्मत के अभाव में गिरता है तो परिसर का मालिक क्षति के लिए जिम्मेदार है

मद्रास उच्च न्यायालय ने भारत संघ बनाम एम् रवि(2011 (3) सी टी सी 200)  के निर्णय में कहा है कि निचले अपीलीय न्यायालय  का निष्कर्ष कि बचाव पक्ष द्वारा चार दीवारी के भीतर पानी ठहरना अनुमत करना उपेक्षापूर्ण कार्य है , मामले की दी गई परिस्थितियों और तथ्यों में सही व उचित  है  और हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है| सरकारी पैरोकार का  यह तर्क कि उन्होंने अनधिकृत रूप से झोंपडियां बना ली  और वे चारदीवारी गिरने के लिए क्षतिपूर्ति का दावा नहीं कर सकते| यह तर्क गुणहीन है|परिसर के मालिक का कर्तव्य है कि वह ढांचे की  सुरक्षा करे  और यदि मरम्मत के अभाव में यह गिरता है तो जो कोई इससे क्षतिग्रस्त होता है उसके प्रति मरम्मत न करवाने के कारण वह जिम्मेदार है | यह सुनिश्चित कानून है |

Tuesday 7 February 2012

केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित से कम गुजारा भत्ता नहीं दिया जा सकता

सुप्रीम कोर्ट ने मनोज यादव बनाम पुष्पा  यादव (2011-1 एल डब्यू (क्री) 520) के निर्णय में कहा है कि जब केंद्र सरकार ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 में संशोधन कर अधिकतम गुजारा भत्ता की सीमा हटा दी तो राज्य सरकार को इस पर अधिकतम की सीमा लगाने को कोई औचित्य नहीं रह जाता और वे समस्त संशोधन अवैध हैं| मध्यप्रदेश उच्च न्यायलय का निर्णय निरस्त कर दिया गया | 

Monday 6 February 2012

क्षतिपूर्ति की सूक्ष्म गणना

दिल्ली उच्च न्यायलय ने  राम देवी बनाम राजकुमार ( मनु/दिल्ली/3590/2011) के निर्णय में कहा है कि यद्यपि मृतक की आय रिकोर्ड पर साबित नहीं हुई है किन्तु साक्ष्यों के बयानों से यह प्रकट होता है कि वह सोफा मरम्मत का कार्य करता था इसलिए कुशल श्रमिक को देय न्यूनतम पारिश्रमिक यदि अपीलार्थी को दिया जाय तो यह उचित एवं न्यायपूर्ण होगा| दिनांक 16.03.19881.5.1989 को कुशल श्रमिक को देय न्यूनतम पारिश्रमिक क्रमशः 749 और 1000 रुपये था (दुर्घटना दिनांक 31.10.1988 को हुई), से मृतक का मासिक वेतन 875 रुपये बनता है | उक्त के मद्देनजर अपीलार्थी को देय क्षतिपूर्ति की पुनर्गणना समीचीन  है| यदि मृतक की आय को महंगाई में वृद्धि को ध्यान रखते हुए  दुगुना कर उसका औसत ले लिया जाय तो मासिक आय 1312.50रुपये प्रतिमाह या 15750 रुपये वार्षिक आती है| उसमें से 1/3 स्वयं के व्यक्तिगत एवं जीवन निर्वाह व्यय को घटा दिया जाय तो आश्रितों के प्रति योगदान 10500 रुपये वार्षिक आता है| मृतक की उम्र 37 वर्ष होने से 15 का गुणक लागू करने पर आश्रितता की हानि 157500रुपये आती है| उक्त के अतिरिक्त अपीलार्थी आर्थिक और गैर आर्थिक क्षति, प्रेम व सहवास से वंचित होने के लिए प्रत्येक हेतु 5000 रुपये, दाह संस्कार आदि के लिए कुल 20000 रुपये क्षतिपूर्ति के लिए हकदार हैं| इस प्रकार कुल क्षतिपूर्ति 177500 रुपये बैठती है|अतः अपीलार्थी बढ़ी हुई रकम के लिए हकदार हैं|

Saturday 4 February 2012

पुलिस एवं न्यायालयों को नागरिक सहयोग क्यों नहीं करते ....?

न्यायालयों एवं पुलिस को को अक्सर शिकायत रहती है कि जनता उन्हें सहयोग नहीं करती फलत अपराधी बिना दण्डित हुए छूट जाते हैं| किन्तु इस प्रक्रम  में शायद ये दोनों एजेंसियां स्वयं अपनी भूमिका का मूल्यांकन नहीं करती हैं| माननीय सुप्रीम कोर्ट ने इन्द्रमोहन गोस्वामी के मामले में यह सिद्धांत प्रतिपादित कर रखा है कि एक अभियुक्त को आहूत करने के लिए प्रथमत तो समन जारी किया जाना चाहिए, समन की उचित  तामिल होने के बाद भी वह उपस्थित न हो तो जमानती वारंट जारी किया जाना चाहिए और गिरफ्तारी वारंट का सहारा तो अंतिम चरण के रूप में जमानती वारंट की तामिल के उपरान्त भी उपस्थित नहीं होने पर ही लिया जाना चाहिए| संभव है आहूत व्यक्ति अपनी स्वयम या किसी प्रियजन की अस्वस्थता या दुर्घटना जैसे किसी विवशकारी कारण से समय पर उपस्थित नहीं हो सका हो अतः जमानती या गिरफ्तारी वारंट जारी करने से पूर्व न्यायहित में उसे एक अवसर और दिया जाना चाहिए |
हितबद्ध पक्षकारों द्वारा भेंट चढ़ाये बिना पुलिस प्रायः समन तामिल नहीं करवाती है| ऐसा देखा गया है कि  प्रायः मामलों में गवाहों के लिए समन हेतु बीस से भी अधिक बार आदेश हो जाते हैं किन्तु पुलिस समन तामिल नहीं करवाती और कुछ अपवित्र कारणों से, मजिस्ट्रेट ऐसी अवज्ञा  के लिए पुलिस पर दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 91349 के अंतर्गत कोई कार्यवाही नहीं करते हैं व पुलिस के वरिष्ठ अधिकारीयों को बार बार  डी ओ लेटर लिखते हैं| दंड प्रक्रिया संहिता में ऐसे डी ओ लेटर लिखने का कोई प्रावधान नहीं है और यह  न्यायपालिका की शक्तियों के कार्यपालिका से अलग होने सिद्धांत के ठीक विपरीत है| |जहां कहीं भी आपवादिक तौर पर यह कार्यवाही होती है वह मात्र दिखावटी और नाक बचाने के लिए ही की जाती है| दूसरी ओर समन की उचित तामिल के बिना ही शक्ति के अनुचित प्रयोग से गवाहों पर पहली बार में ही जमानती वारंट जारी कर दिए जाते हैं और जनता को संविधान से प्राप्त व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मूल्यवान अधिकार से न्यायालयों द्वारा निस्संकोच वंचित कर दिया जाता है| इस प्रकार गवाहों के प्रति न्यायालयों और पुलिस का सामूहिक रवैया प्रतिकूल रहता है और उनके साथ अभियुक्तों से भी निम्नतर श्रेणी का व्यवहार किया जाता है| ये न्यायालय जनता को न्यायालय कम और यातना केंद्र अधिक दिखाई देते हैं| चूँकि न्यायालयों पर किसी अन्य बाहरी ऐजेंसी का नियंत्रण नहीं है और निचले न्यायालयों को स्वयं उच्च न्यायालय का संरक्षण प्राप्त है अतः उन्हें कोई  भी अनुचित कार्य करते समय  भय शेष नहीं रह गया है| न्यायपालिका से जुड़े लोगों का कहना होता है कि न्यायपालिका का भयमुक्त व स्वतंत्र होना आवश्यक है किन्तु वे यह भूल जाते हैं कि न्यायाधीश नियुक्त होते समय ही यह शपथ लेते हैं कि वे रागद्वेष और भयमुक्त होकर कार्य करेंगे और जहां तक स्वतंत्र और निष्पक्ष होकर कार्य करने का प्रश्न है स्वच्छ शासन के लिए यह मात्र न्यायाधीशों के लिए ही नहीं अपितु  प्रत्येक लोक सेवक के लिए आवश्यक है| इस प्रकार न्यायाधीश भी लोकसेवक होते हुए किसी भी प्रकार से सुरक्षा की विशेष श्रेणी की पात्रता नहीं रखते हैं|
न्यायालयों एवं पुलिस द्वारा एक ओर संसाधनों की कमी का बहाना बनाया जाता है तो दूसरी ओर दंड प्रक्रिया संहिता के अनुसार रजिस्टर्ड डाक से 25/= रुपये  के खर्चे से समन भेजने के स्थान पर पुलिस के माध्यम से व्यक्तिगत तामिल करवाई जाती है जिस पर लगभग 1000/=रुपये  खर्चा आता है|दूसरी ओर न्यायालय के चपरासी और पुलिसवाले न्यायाधीशों के घर बेगार करते देखे जा सकते हैं| इस प्रकार उपलब्ध सीमित साधनों-संसाधनों का भ्रष्टतापूर्वक  दुरुपयोग किया जाता है| सिविल प्रक्रिया संहिता में विपक्षी को जवाब देने के लिए न्यूनतम 30 दिन का समय न्यायालय द्वारा दिया जाता है जबकि पुलिस समन या वारंट की तामिल प्रायः ऍन वक्त पर करवाती है| न्यायालयों को गवाहों की असुविधा और सम्मान का ध्यान रखना चाहिए और उन्हें मात्र समन की न्यूनतम 7 दिन पूर्व तामिल के लिए पुलिस को आदिष्ट करना चाहिए न की अपराधियों की भांति सम्माननीय और जिम्मेदार नागरिकों को भी वारंट भेजने चाहिए| स्वतंत्र गवाहों को आहूत करते समय उन्हें खर्चे भी अग्रिम तौर पर दिए जाने चाहिए|    
मात्र इतना ही नहीं, सुनवाई के लिए जारी होने वाले सभी नोटिसों में प्रातः प्रथम घंटे का ही समय दिया जाता है जिससे गवाहों  का समय अनावश्यक रूप से बर्बाद होता है| नोटिस जारी करते समय गवाहों के कार्य व जीविकोपार्जन में व्यवधान का न्यायाधीशों द्वारा कोई ध्यान नहीं रखा जाता है मानो कि नागरिकों का पेशा  एक मात्र गवाही देना ही हो| यही नहीं सुनवाई के लिए बनाई गयी हेतुक सूचि के क्रम का भी प्रायः कोई ध्यान नहीं रखा जाता है और सुप्रीम कोर्ट तक में भी मनमाने क्रम में सुनवाई की जाती है|
 
निचले न्यायालयों द्वारा जमानत नहीं लेने के पीछे यह जन चर्चा का विषय होना स्वाभाविक है कि जिन कानूनों और परिस्थितियों में शीर्ष न्यायालय जमानत ले सकता है उन्हीं परिस्थितियों में निचले न्यायालय जमानत क्यों नहीं लेते| देश का पुलिस आयोग भी कह चुका है कि 60 % गिरफ्तारियां अनावश्यक होती हैं तो आखिर ये गिरफ्तारियां होती क्यों हैं और जमानत क्यों नहीं मिलती| इस प्रकार अनावश्यक रूप से गिरफ्तार किये गए व्यक्ति को मजिस्ट्रेट द्वारा दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 59 के अंतर्गत बिना जमानत छोड़ दिया जाना चाहिए व पुलिस आचरण की भर्त्सना की जानी चाहिए  किन्तु न तो वकीलों द्वारा ऐसी प्रार्थना की जाती है और न ही मजिस्ट्रेटों द्वारा ऐसा किया जाता है| ये यक्ष प्रश्न आम नागरिक को रात दिन कुरेदते हैं| वैसे विश्लेषण से ज्ञात होगा कि न्याय तंत्र से जुड़े सभी लोगों का गिरफ्तारी में हित है अतेव अनावश्यक  होते हुए भी अंग्रेजी शासन से लेकर स्वतंत्र भारत में भी गिफ्तारियाँ बदस्तूर जारी हैं| यह भी विडम्बना है कि भारतीय कानून एक तरफ तो कहते हैं कि जब तक दोषी प्रमाणित न हो प्रत्येक व्यक्ति निर्दोष है और दोष सिद्ध व्यक्ति को भी प्रोबेसन पर छोड़ा जा सकता है जबकि दूसरी और मात्र संदिग्ध (अभियुक्त) को जमानत नहीं दी जाती है|इंग्लैंड में पुलिस एवं आपराधिक साक्ष्य अधिनियम की  धारा 44  के अंतर्गत  पुलिस द्वारा रिमांड की मांग करने पर उसे शपथपत्र देना पडता है| कहने के लिए भारत में कानून का राज है और देश का कानून सबके लिए समान है किन्तु अभियुक्त को तो जमानत के लिए विभिन्न प्रकार के वचन देने पड़ते हैं और न्यायालय भी जमानत देते समय कई अनुचित शर्तें थोपते हैं और दूसरी ओर पुलिस को रिमांड माँगते समय किसी प्रकार के वचन देने की कोई आवश्यकता नहीं है मात्र जबानी तौर मांगने पर ही रिमान्ड दे दिया जाता है| जब पुलिस द्वारा दर्ज किये गए बयान को न्यायालय विश्वसनीय नहीं मानते तो फिर पुलिस द्वारा बिना किसी लिखित अंडरटेकिंग के मौखिक रूप से रिमांड मांगने को किस  प्रकार स्वीकार्य माना जा सकता है| पुलिस द्वारा रिमांड मांगते समय न्यायालयों को पुलिस से अंडरटेकिंग लेनी चाहिए कि वे रिमांड के समय देश के संवैधानिक न्यायालयों द्वारा जारी समस्त निर्देशों और मानवाधिकार पर अंतर्राष्ट्रीय संधि की समस्त बातों की अनुपालना करेंगे|

एक ओर पुलिस द्वारा जमानतीय अपराधों में भी जमानत से मना कर दिया जाता है दूसरी ओर पेशेवर, प्रभावशाली और खूंखार अपराधी स्वतंत्र विचरण करते रहते हैं| भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के अपराधों के विषय में कानून में जमानतियता के विषय में कुछ भी स्पष्ट नहीं है अतः सी बी आई तो रंगे हाथों पकडे जाने पर भी अभियुक्त को स्वयं जमानत पर छोड़ देती है जबकि राज्य पुलिस जमानत पर नहीं छोडती है| स्थिति तब और विकट हो जाती है जब न्यायालय द्वारा भी जमानत से मना कर दिया जाता है| इस प्रकार भारत में पुलिस और न्यायालयों द्वारा कानून की मनमानी व्याख्याएं कर नागरिकों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जाता है|जमानत के लिए मना करते समय प्रायः यह कुतर्क दिया जाता है कि बाहर आने पर अभियुक्त गवाहों को प्रभावित कर सकता है जबकि स्थिति यह है कि गवाहों को तो उसके रिश्तेदार, मित्र और हितबद्ध लोग उसकी अनुपस्थिति में ही प्रभावित कर सकते हैं| प्रभावशाली लोगों के मामलों में तो स्वयं पुलिस तक गवाहों पर दबाव बनाती है कि वे वास्तविकता बयान न करें| यदि गवाहों पर प्रभाव जमानत हेतु मनाही का उचित आधार हो तो क्या अभियुक्त के रिश्तदारों, मित्रों आदि को भी हिरासत में ले लिया जाये? गवाहों को प्रभावित करने से बचने के लिए धारा 164 दंड प्रक्रिया संहिता के तहत उनके  कलमबंद बयान करवाए जा सकते हैं| किन्तु देश के न्यायतंत्र का वास्तविक न्याय से कोई लेनादेना नहीं है| आज सर्वविदित है कि भारत में प्रभावशाली लोगों को तो भ्रष्ट सरकारी व्यवस्था में हिरासत में भी समस्त सुविधाएं निर्बाध रूप से मिलती रहती हैं किन्तु इन सुविधाओं का मूल्य चुकाना पडता है जबकि अन्य देशों में ये सुविधाएं प्राइवेट जेल व्यवस्था में भी उपलब्ध नहीं हो पाती हैं|

भारत के न्यायालयों पर किसी अन्य एजंसी का नियंत्रण नहीं है अतः कनिष्ठ न्यायाधीश को वरिष्ठ का संरक्षण प्राप्त हो तो उसका बाल भी बांका नहीं हो सकता| यहाँ न्यायालयों में मामलों का अंतिम निस्तारण तो  आपवादिक बात है बाकि इन न्यायालयों को जमानत और स्टे के न्यायालय कहा जाय तो अधिक उपयुक्त होगा| जमानत ही हमारी वर्तमान न्याय प्रणाली की जान है| यह भी चर्चा है कि न्यायाधीशों के मध्य एक गुप्त समझाइश कार्य करती है कि निचले स्तर के न्यायालय न्यूनतम जमानतें देंगे ताकि ऊपरी न्यायालयों में जमानत के अधिकतम प्रकरण पहुंचें और इसके बदले कनिष्ठ न्यायाधीशों को अभयदान दे दिया जाता है कि उनके विरुद्ध आने वाली शिकायतों पर ध्यान नहीं दिया जायेगा अन्यथा परिणाम के लिए वे तैयार रहें| राजस्थान उच्च न्यायालय में एक वर्ष में लगभग 18000 जमानत आवेदन आते हैं जिससे इस रहस्य को समझने में और आसानी होगी|

 उच्च न्यायालय स्तर पर जमानत होने में मात्र न्यायाधीशों का ही भला नहीं है अपितु वहाँ प्रक्टिस करनेवाले वकीलों का भी भला है क्योंकि एक पूर्ण परीक्षण वाले मामले में मिलने वाली फीस के मुकाबले 4-5 पृष्ठ की याचिका और 10 मिनट की बहस के लिए भारी भरकम फीस तुरंत मिल जाती है| वकील समुदाय में इस चर्चा को आसानी सुना जा सकता है  कि जमानत मिल जाने पर प्रायः न्यायाधीश, उनके स्टाफ, वकील के मुंशी , पुलिस, सरकारी वकील आदि सभी  को बख्शीस मिलती जो है| जिस दिन न्यायालयों में जमानत का कोई प्रकरण नहीं आये उस दिन न्यायतंत्र से जुड़े सभी उदास दिखाई देते हैं|

अग्रिम जमानत के आवेदन में भी न्यायाधीशों द्वारा पुलिस डायरी का अवलोकन किया जाता है और बिना भेंट के पुलिस यह डायरी भी समय पर प्रस्तुत नहीं करती है| कई बार तो इन अग्रिम जमानत के आवेदनों के निपटान में आश्चर्यजनक रूप से महीनों तक का समय लगा दिया जाता है जिससे आवेदन प्रस्तुत करने का उद्देश्य ही निष्फल हो जाता है| जमानत के आवेदन  का निपटान प्रार्थी की प्रस्तुति के आधार पर होना चाहिए यदि पुलिस समय पर डायरी पेश नहीं करती है तो इस दोष के लिए सम्बंधित व्यक्ति दण्डित नहीं होना चाहिए|  

समाचार है कि दिनांक 01.12.12 को जांच अधिकारी के निर्धारित समय पर अदालत न पहुंचने से जी ग्रुप के संपादक सुधीर चौधरी व समीर अहलूवालिया की जमानत अर्जी पर सुनवाई शनिवार को टल गई। अब इस पर तीन दिसंबर को सुनवाई होगी। दोनों संपादकों पर कोल आवंटन मामले में जिंदल ग्रुप के मालिक व कांग्रेस सांसद नवीन जिंदल के खिलाफ खबर न दिखाने की एवज में सौ करोड़ रुपये मांगने का आरोप है। साकेत कोर्ट के महानगर दंडाधिकारी गौरव राव ने आइओ के समय पर नहीं पहुंचने पर नाराजगी जाहिर करते हुए पूरे मामले में उपायुक्त क्राइम ब्रांच से लिखित स्पष्टीकरण मांगा है।
यद्यपि देश का कानून गिरफ्तारी के पक्ष में नहीं है फिर भी  गिरफ्तारियां महज  इसलिए  की जाती हैं कि पुलिस एवं जेल अधिकारी गिरफ्तार व्यक्ति को यातना न देने और सुविधा देने, दोनों के लिए वसूली करते हैं तथा अभिरक्षा के दौरान व्यक्ति पर होने वाले भोजनादि व्यय में  कटौती का लाभ भी जेल एवं पुलिस अधिकारियों को मिलता है| इस प्रकार गिरफ्तारी में समाज का कम किन्तु न्याय तंत्र से जुड़े सभी लोगों का हित अधिक निहित है| वैसे सुप्रीम कोर्ट ने जोगिन्द्र कुमार  के मामले में कहा है कि जघन्य अपराध के अतिरिक्त गिरफ्तारी को टाला जाना चाहिए और मजिस्ट्रेट को यह सुनिश्चित करना चाहिए फिर भी पुलिस इस नियम के विरुद्ध गिरफ्तारियां कर रही है और सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का मजिस्ट्रेट कितना ध्यान रख रहे हैं यह जनता के सामने है| न्यायाधीश और पुलिस एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, दोनों के हित समानांतर हैं| पुलिस द्वारा सुप्रीम कोर्ट के कानूनों का मजिस्ट्रेट के निष्क्रिय सहयोग से उल्लंघन किया जाता रहता है और किसी भी पुलिस अधिकारी के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं किया जाना इस बात का सशक्त प्रमाण है |

Friday 3 February 2012

भारत में न्यायिक सुधार की संभावनाएं और चुनौतियाँ


हमारे न्यायालयों और वकीलों के मध्य बहुत सी बातें अस्वस्थ परंपरा के रूप में प्रचलित हैं| किन्तु इन सबका एक ही मूल कारण है, वह  यह है  कि न्यायिक निकाय स्वविनियमित है| स्वविनियमन वास्तव में कार्य नहीं करता है| इसका समाधान वकीलों एवं न्यायाधीशों का मात्र बाहरी विनियमन है| प्रत्येक  अन्य पेशे, जैसे चिकित्सा,  का विनियमन प्रशासनिक एजेंसी जोकि सरकार  के कार्यपालकीय शाखा के अधीन हो द्वारा किया जाता है | मात्र वकील ही स्व निर्मित बार कौंसिल द्वारा विनियमित होते हैं| चूँकि वे अपने आप विनियमित होते हैं अतः वास्तव में वहाँ कोई विनियमन नहीं है| न्यायपालिका से जुड़े लोगों का कहना होता है कि न्यायपालिका का भयमुक्त व स्वतंत्र होना आवश्यक है किन्तु वे यह भूल जाते हैं कि न्यायाधीश नियुक्त होते समय ही यह शपथ लेते हैं कि वे रागद्वेष और भयमुक्त होकर कार्य करेंगे और जहां तक स्वतंत्र और निष्पक्ष होकर कार्य करने का प्रश्न है स्वच्छ शासन के लिए यह मात्र न्यायाधीशों के लिए ही नहीं अपितु  प्रत्येक लोक सेवक के लिए यह आवश्यक है| इस प्रकार न्यायाधीश किसी भी प्रकार से सुरक्षा की विशेष श्रेणी की पात्रता नहीं रखते हैं|
न्यायालयों के स्वविनियमन के सशक्त कुचक्र को तोडने के लिए भरसक प्रयत्न की आवश्यकता है| बहुत से ऐसे वकील हैं जो कानून तोडकर बिना किसी भय के भारी धन कमा रहे हैं| बहुत से ऐसे न्यायाधीश हैं जो राजा की शक्तियों का सानंद उपभोग कर रहे हैं और जो चाहे कर रहे हैं क्योंकि उन्हें कानूनन और नैतिक रूप से जिम्मेदार ठहराये जाने का कोई भय नहीं है| ये लोग शक्तिसंपन्न और निरापद  हैं| हमें न्यायालयों के किसी स्वतंत्र निकाय द्वारा बाहरी विनियमन के विषय पर गहन चिंतन की आवश्यकता है| हम ऐसे समाज में रह रहे हैं जहाँ पथभ्रष्ट वकील समृद्ध हो रहे हैं और इस पर विराम लगाने की आवश्यकता है| माननीय सुप्रीम कोर्ट भी राजा खान के मामले में इस स्थिति पर गंभीर चिंता व्यक्त कर चुका है| वकीलों के पेशेवर आचरण के नियम और न्यायाधीशों के आचरण के नियम उच्च नैतिक मानकों की औपचारिक  आवश्यकता अभिव्यक्त करते हैं| दुर्भाग्य से ये उच्च नैतिक मानक लागू नहीं किये जा रहे हैं| इसका अभिप्राय यह नहीं है कि समस्त नियमों को ही बदलने की आवश्यकता है अपितु आवश्यक यह है कि जो भी नियम विद्यमान हैं उन्हें बलपूर्वक और निष्ठा से प्रभाव में लाया जाय|
इन नियमों के प्रवर्तन में समस्या यह है कि सरकारी न्यायिक निकाय स्वविनियमित है| इस कारण न्यायाधीश एवं वकील एक विषम स्थिति में हैं और वे परस्पर प्रतिदिन साथ साथ कार्य करते हैं | एक वकील जो किसी न्यायाधीश या साथी वकील के विरुद्ध शिकायत करे वह आगे उसी समुदाय में प्रभावी रूप से  कार्य नहीं कर सकेगा | ईमानदार वकील को अपना मुंह बंद रखना पडता है और अनुचित व्यवहार को चुपचाप सहन करना पडता है|
यदि स्वविनियमन हटा लिया जाय और वकील व न्यायाधीशों का विनियमन कार्यपालिका के अधीन किसी स्वतंत्र एजेंसी से करवाया जाय तो न्यायधीश और वकील अपने मित्रों और साथियों पर नैतिकता के उच्च मानक लागू करने के दायित्व भार से मुक्त हो सकेंगे| इससे ईमानदार वकीलों को इस बात की स्वतंत्रता मिलेगी कि प्रत्येक पर लागू कानून समान है और कानून वास्तव में  लागू किये जा रहे हैं| निष्ठावान वकीलों को यह भय नहीं रहेगा कि किसी साथी वकील के विरुद्ध शिकायत करने पर उन्हें कालीसूची में शामिल कर उनका बहिष्कार कर दिया जायेगा| एक संवेदनशील मामले में इलाहाबाद उच्च  न्यायालय ने कहा भी है कि प्रत्येक को यह भलीभांति  समझ लेना चाहिए कि न्यायपालिका जनता की  सेवा के लिए है न कि न्यायाधीशों और वकीलों की सेवा के लिए|
न्यायालयों का स्वविनियमन असंवैधानिक भी है| हमारे पूर्वजों ने नियंत्रण और संतुलन की अवधारणा में विश्वास किया था जिससे शासन के तीनों  स्तंभों को इस आशय से शक्ति और दायित्व दिया गया था कि यह सुनिश्चित किया जा सके कि  अन्य दो शाखाएं ईमानदार व जवाबदेह बनी रहें| इस प्रणाली से यह सुनिश्चित होता है कि कोई शाखा राजा की शक्तियों को छीन न ले| किन्तु न्यायिक शाखा स्वविनियमन के बहाने से  इस नियंत्रण एवं संतुलन की प्रणाली से बाहर खिसक गयी| स्वविनियमन असंवैधानिक है  और विधायिका का संविधान के प्रति यह  कर्त्तव्य है कि वह न्यायालयों पर बाहरी नियंत्रण स्थापित करे| यद्यपि संघीय सरकार ने उच्च न्यायालयों और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों के आचरण पर नियंत्रण के लिए न्यायिक दायित्व अधिनियम बनाने की पहल की है किन्तु राज्य सेवा के न्यायाधीशों के अनुशासन हेतु राज्य सरकारों को अपना दायित्व निभाना चाहिए|
जिस तरह से सर टॉमस ग्रेशम ने कटेफटे नोटों और अच्छे नोटों के लिए कहा है कि बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है ठीक उसी प्रकार यह स्मरण रखना चाहिए कि यदि बेईमान वकील समृद्ध होते रहे तो ईमानदार वकील कभी भी मामले जीत नहीं पाएंगे| यह नैतिकता के धरातल पर एक स्पर्धा दौड़ है| जनता का अधिकार है कि उसे ईमानदार वकील, ईमानदार न्यायालय और न्यायाधीश मिलें | जनता  का अधिकार वकीलों के लाभ से पहले आता है| न्यायालय लोगों की सेवा के लिये  हैं न कि उन पर शासन करने के लिए|

दुर्भावपूर्ण याचिका में खर्चा लगाया गया


उत्तराँचल उच्च न्यायालय ने जगपाल सिंह बनाम उत्तराँचल राज्य (मनु/उत्त/0374/2011) के निर्णय में कहा है कि  1951 के सेवा नियमों में तदर्थ आधार पर अपीलार्थियों  की नियुक्ति को अधिकृत नहीं करता है| अपीलार्थियों को मात्र सेवा आयोग द्वरा चयन प्रक्रिया संपन्न करने के बाद ही नियुक्त किया जा सकता है चूँकि इस हेतु व्यक्ति उपलब्ध नहीं थे अतः चयनित मात्र 12 महीने के लिए नियुक्त किये गए| इन परिस्थितियों में जिन दो अभ्यर्थियों की नियुक्ति का आयोग ने अनुमोदन किया वे अपनी प्रारम्भिक नियुक्ति तिथि से वरिष्ठता के पात्र नहीं हैं| जबकि दूसरे अभ्यर्थी 1979 के नियमों के अनुसरण में अपनी नियमितीकरण की तिथि से वरिष्ठता के पात्र  हैं|
वरिष्ठता सूची 2001 में बनायीं गयी और उसके तुरंत बाद ही इसे अपीलार्थियों ने यह कहते हुए चुनौती दे दी कि वे तदर्थ आधार पर प्रारंभिक नियुक्ति तिथि से ही वरिष्ठता की गणना के पात्र हैं और उस मामले में हस्तक्षेप चाहा जो 1986 में निपट चुका था| इस याचिका का सम्पूर्ण उद्देश्य और लक्ष्य दुर्भावपूर्ण था| इस कारण से , अन्य बातों के साथसाथ, रिट ख़ारिज की जाती है और उदाहरणात्मक क्षतिपूर्ति के तौर पर प्रत्येक याची पर 300000 रुपये खर्चा लगाया जाता है ताकि अन्य लोगों को ऐसा कदम उठाने से रोकने के लिए उदाहारण बन सके|

Wednesday 1 February 2012

दोयम श्रेणी के सेवकों को सर्वोच्च वेतनमान ........


गत वर्ष  मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा अपर सत्र न्यायाधीश के पद के लिए लगभग सम्पूर्ण भारत के 3000 वकीलों ने परीक्षा दी थी और परिणाम बड़े ही दुखद रहे| प्रारंभिक परीक्षा में मात्र 226 परीक्षार्थी  ही उत्तीर्ण हुए| मुख्य परीक्षा में 22 परीक्षार्थियों के अलग अलग पेपरों में शून्य अंक था व उत्तीर्ण होने हेतु आवश्यक (आरक्षित श्रेणी 33% व सामान्य श्रेणी 40%) अंक एक भी परीक्षार्थी  प्राप्त नहीं कर सका| मात्र 6 परीक्षार्थी ही 35% अंक प्राप्त कर पाए| यही नहीं गत वर्ष राजस्थान उच्च न्यायालय ने विधिक शोध सहायक के लिए परीक्षा ली थी जिसमें भी एक भी परीक्षार्थी उत्तीर्ण नहीं हुआ और अब यह परीक्षा पुनः अन्य आधार पर करवाई गयी है| अनुभव में भी यही सामने आया है कि देश के अधिकाँश वकीलों, न्यायाधीशों और उनके मंत्रालयिक स्टाफ को शायद ही कानून का कोई सम्यक ज्ञान हो व मुश्किल से ही वे कानून का अध्ययन करने में कोई रूचि रखते हों अपितु वे परिपाटियों और परम्पराओं का निर्वाह मात्र कर रहे हैं| वे कार्य किसी ढंग से इसलिए कर रहे होते हैं कि उनका पूर्ववर्ती या साथी उस ढंग से कार्य रहा है| उनकी कार्यशैली में तर्क का लगभग अभाव पाया जाता है|    
 हाल ही में राजस्थान राज्य के दौरे पर आये माननीय न्यायाधिपति अल्तमस कबीर ने भी न्यायाधीश पद के लिए योग्य आदमियों के अभाव की पुष्टि की है| अन्य भारतीय राज्यों की स्थिति भी कोई ज्यादा अच्छी नहीं लगती है| उक्त विवेचन से यह अर्थ नहीं लगाया जा सकता कि देश में प्रतिभा का अभाव है किन्तु दुखद विषय यह है कि प्रतिभा के लिए भारत में विधि-व्यवसाय आकर्षण का केंद्र नहीं हैं अर्थात न्यायालयों में सफल होने के लिए प्रतिभा या विधि का ज्ञान नहीं बल्कि न्यायालयों की परम्परा के अनुरूप अन्य प्रबंध-कौशल, व्यवहार कुशलता आदि की आवश्यकता है|

प्रतिभाशाली व गरिमामयी लोग विधि-व्यवसाय के वातावरण को अपने अनुकूल व सम्माननीय नहीं पाते हैं| यद्यपि देश में सरकारी क्षेत्र में सर्वाधिक ऊँचा वेतनमान न्यायिक अधिकारियों को ही दिया गया है और फिर भी इस सेवा में देश की श्रेष्ठ प्रतिभा की कोई रूचि नहीं है अर्थात नागरिकों की जेब से सर्वोच्च वेतनमान ऐसे लोक सेवकों को देना पड़ रहा है जो प्रतिभा की दृष्टि से सर्वोत्कृष्ट नहीं हैं| और इससे भी अधिक चिंता का विषय है कि कालांतर में इस दोयम श्रेणी की प्रतिभा के भरोसे देश के संवैधानिक न्यायालय सौंप दिए जाते हैं|