Saturday 30 April 2011

न्यायिक आचरण -6


पंजाब हरियाणा उच्च न्यायालय ने बलवन्त राय बनाम छांगीराम (ए.आई.आर. 1963 पंजाब 124) में कहा है कि एक आदेष जो मामले का अंतिम निष्चय करता है अपने आप में समाहित होना चाहिए और बिल्कुल बोलता आदेष होना चाहिए। इसमें संक्षेप में मामले के तथ्य दिये जाने चाहिए और इसमें निर्णय तक पहंुचने के लिए सम्यक् कारण दिये जाने चाहिए। निर्णय इस बात के आरोप के लिए खुला होना चाहिए कि न्यायिक अधिकारी ने तथ्यों पर दिमाग नहीं लगाया या उसका आदेष मनमाना या स्वैच्छाचारी है ताकि उच्चतर न्यायालय में आदेष की षुद्धता या वैधता की समालोचना की जा सके तथा मात्र यही एक तरीका है जिससे सुनिष्चित किया जा सकता है कि आदेष सही एवं कानून के अनुसार है क्योंकि उसमें कारण/तर्क दिये गये है। कारणों के बिना उच्चतर न्यायालय के पास कुछ भी ऐसा ठोस नहीं होगा और वह मात्र अनुमान ही लगा सकेगा कि आदेष के क्या कारण रहे हैं एक ऐसा रास्ता जो कि वांछनीय नहीं है। कारण जो कि एक न्यायालय को निर्णय तक पहंुचने में मदद करते हैं, एक न्यायिक आदेष का आवष्यक अंग है और जिस आदेष में कारण नहीं दिये गये हो उसे आवष्यकीय आवष्यकताओं से विहीन समझा जाना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने कष्मीरी देवी बनाम दिल्ली प्रषासन (ए.आई.आर. 1988 सु.को. 1323) में कहा है कि अन्वीक्षण न्यायालय जिसके समक्ष दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 173 (8) के अन्तर्गत आरोप पत्र दाखिल किया गया है केन्द्रीय अन्वेशण ब्यूरो की मामले को उचित एवं सम्पूर्ण अनुसंधान करने के निर्देष देवे।
सुप्रीम कोर्ट ने इन्द्रजीत सिंह कहलो बनाम पंजाब राज्य के निर्णय दिनांक 03.05.06 में स्पश्ट किया है कि न्यायिक प्रषासन की षुद्धता की रक्षा करना न्यायपालिका की स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए निर्विवादित रूप से मात्र उच्च न्यायालय का कार्य है। हम यह समझने में असमर्थ है कि जो न्यायिक अधिकारी कथित रिपोर्ट को देखने के पात्र है उच्च न्यायालय के विचार में उन्हें उनकी प्रतियां क्यों नहीं दी गयी अथवा उन्हें उनका उचित समय पर निरीक्षण क्यों नहीं करने दिया गया ताकि वे अपना पक्ष रख पाते। संभव है उच्च स्तरीय न्यायपालिका न्यायिक अधिकारियों के साथ वांछित गंभीरता से व्यवहार करती हो किन्तु ऐसा कठोर दण्ड तभी दिया जा सकता है जब पर्याप्त सामग्री रिकॉर्ड पर हो जिससे कि संतुश्ट हो सके कि उचित प्रक्रिया अपनायी गयी थी। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि उच्च न्यायालय ने न्यायिक अधिकारियों के साथ अनुचित बर्ताव किया। यदि प्रार्थना पत्र दिया जाता है उतर पुस्तिका सहित पक्षकारों को किसी भी प्रलेख के निरीक्षण का अवसर दिया जावेगा। राज्य का कर्त्तव्य है कि वह घोटाले को उजागर करे तथा किसी भी अधिकारी चाहे वह कितना ही उच्च क्यों न हो उसे बख्षा नहीं जावे।
लेखकीय टिप्पणी:-
विभागीय दण्डादेषों में पूर्ण अवसर दिये बिना अथवा अत्यधिक भारी दण्ड देना भी दोशी अधिकारी का पक्षपोशण नीति का रूप है। किसी अधिकारी को बिना अवसर दिये अथवा दुराचार से अधिक दण्ड देकर प्रकरण को कूटनीतिक तरीके से पूर्व नियोजित अपील में या न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप के लिए खुला छोड़ दिया जाता है ताकि दोशी अधिकारी उक्त कमियों के कारण दण्डादेष को चुनौति देकर निरस्त करवा सके।

Friday 29 April 2011

न्यायिक आचरण -5


सामाजिक न्याय को रेखांकित करते हुए न्यायाधिपति कृश्णा अयर ने आजाद रिक्षा चालक संघ बनाम पंजाब राज्य (1981 ए.आई.आर. 14) में कहा है कि हमारे संवैधानिक निकाय के अन्तर्गत न्यायालय परिश्रमियों, पसीना बहाने वालों के लिए षरण स्थल है न कि षोशकों के लिए क्योंकि सामाजिक न्याय के दावेदार न कि षक्तिसम्पन्न मौलिक अधिकारों की रिट द्वारा यथा स्थिति की याचना करते हैं। इस न्यायालय का कर्त्तव्य या दायित्व प्रत्येक की रक्षा करना है। ‘षक्ति के बिना न्याय अदक्ष है, न्याय के बिना षक्ति परेषानी कारक है, अतः न्याय और षक्ति को साथ लाया जाना चाहिए ताकि जो कुछ हो वह न्यायोचित हो। भला वह है जिसका अन्त भला हो और न्यायिक सक्रियता का उच्चतम बोनस तब प्राप्त होगा जब वह कुछ आंखों से आंसू पोंछ सके।
सुप्रीम कोर्ट ने रामदयाल मरकढा बनाम म.प्र. राज्य (ए.आई.आर. 1978 सु.को.922) में आगे कहा है कि न्याय का रास्ता फूलों से ढका नहीं है और न्याय कोई सुगम गुण भी नहीं है, इसे जांच, यहां तक कि आम व्यक्ति के स्वतन्त्र भाशण, का सामना करने देना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने आर.सी. षर्मा बनाम भारत संघ (1976 (3) एस.सी.सी. 574) के प्रकरण में कहा है कि यदि लिखित बहस भी दी गई हो तो बिना आपवादिक या स्पश्ट कारणों के बहस तथा न्यायदान में अतर्कसंगत विलम्ब अत्यधिक अवांछनीय है। यह संभव है कि कुछ बिन्दु जिन्हें पक्षकार विचारण करना आवष्यक समझते हों ध्यान देने से वंचित हो जायें। लेकिन यह महत्वपूर्ण है कि वादकरण के परिणाम पर पक्षकारों का पूर्ण विष्वास हो। निर्णय प्रदानगी तथा बहस की सुनवाई में यदि अत्यधिक विलम्ब हो तो विष्वास उठ जाता है।
राजस्थान उच्च न्यायालय ने अर्जुनराम बनाम राजस्थान राज्य (आर.एल. डब्ल्यू. 2007 (3) राज 2081) में कहा है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 483 प्रत्येक उच्च न्यायालय पर यह दायित्व डालती है कि वह अपना न्यायिक मजिस्ट्रेट न्यायालयों पर लगातार अधीक्षण इस प्रकार सुनिष्चित करे कि मामलों का मजिस्ट्रेटों द्वारा त्वरित और उचित निपटान हो। अतः उच्च न्यायालय द्वारा सतत पर्यवेक्षण कर सुनिष्चित करना अत्यधिक महत्वपूर्ण है कि वह अधिनस्थ न्यायालयों के निर्णयों, आदेषों या दण्डादेषों की षुद्धता या वैधता की जांच करें।
राजस्थान उच्च न्यायालय ने राजेन्द्र कुमार जैन बनाम राजस्थान राज्य (2002 क्रि.ला.ज. 4243) में कहा है कि यह देखा गया है कि उच्च न्यायालय को धारा 401 के अन्तर्गत स्वप्रेरणा से एवं धारा 483 के अन्तर्गत लगातार पर्यवेक्षण का क्षेत्राधिकार है। इसलिए जब रिकॉर्ड की जांच करने पर उच्च न्यायालय यह पाता है कि न्याय का गंभीर स्खलन या न्यायिक प्रक्रिया का दुरूपयोग अथवा का कानूनी प्रक्रिया की अनुपालना में खामी से न्यायिक विफलता या आदेष या दण्डादेष में मजिस्ट्रेट द्वारा कमी रही है जिसे सुधारने की आवष्यकता है ऐसी स्थिति में उच्च न्यायालय का कर्त्तव्य है कि वह इसे प्रारम्भ ही सुधार दे ताकि न्यायिक स्खलन न हो। याची के परीक्षण का अर्थ आवष्यक रूप से परेषान करना नहीं है और यदि ऐसी स्थिति में अभियोजन चालू रखना अनुमत किया जाता है, तो भी नकली न्याय या अनावष्यक पूर्वाग्रह नहीं होगा क्योकि यदि आरोप सिद्ध नहीं होता है, और विमुक्त कर दिया जाता तो भी यह नहीं कहा जा सकता कि यह स्पश्ट अन्याय या न्यायालय की प्रक्रिया का दुरूपयोग नहीं होगा यदि दं.प्र.सं. की धारा 482 के अधीन प्रदत षक्तियों का प्रयोग नहीं किया जाता है।
निरंजन नोडल बनाम राज्य (1978 क्रि.ला.ज. 636) में कहा गया है कि यह निर्णय ऐसे निर्णय का उदाहरण है जो कि नहीं दिया जाना चाहिए था। यह अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण है कि विद्वान मजिस्ट्रेट ने निर्णय देते समय प्रारम्भिक सिद्धान्तों का पालन नहीं किया। दं.प्र.सं.  की धारा 354 बाध्यकारी बनाती है कि निर्णय में विनिष्चय के बिन्दु होंगे और उन पर निर्णय  व निर्णय के लिए कारण दिये जायेंगे।   

Thursday 28 April 2011

न्यायिक आचरण -4


सामान्यतया दोशी न्यायिक अधिकारियों को स्वल्प दण्ड दिया जाता है। रमेष चन्द्र बनाम इलाहाबाद उच्च न्यायालय प्रकरण में निर्णय दिनांक 25.11.05 में दोशी को दिए गए दण्ड को अपर्याप्त समझते हुए दोशी की अपील में दण्ड में वृद्धि की गयी तथा कहा गया कि यदि दिया गया दण्ड न्यायालय की अन्तरात्मा को हिला दे तो न्यायालय इस पर पुनर्विचार कर आपवादिक मामलों में सकारण उपयुक्त दण्ड लगा सकता है। लगातार पाया गया है कि याची एक वकीलों के एक खास समूह को संरक्षण दे रहा था और फिर भी वार्शिक गोपनीय प्रतिवेदन यथावत रही। एक न्यायिक अधिकारी अत्यधिक विष्वास वाला पद धारित करता है। जिस तरह से याची ने व्यवहार किया उससे जन विष्वास छिन्न-भिन्न हो जाता है। विधि के षासन को बनाये रखने के लिए हमारे पूर्वजों ने जो संवैधानिक अवधारणायें व्यक्त की हैं याची का आचरण उनकी जड़ो पर प्रहार करता है। याची का आचरण कोई सामान्य चूक नहीं है अपितु गंभीर दुराचरण है। इस कमी को कम करके नहीं आंका जा सकता कि याची को मात्र दो वेतनवृद्धि रोककर मुक्त छोड़ दिया गया। याची को दण्ड देने में अत्यधिक उदारता दिखायी गयी। एक न्यायिक अधिकारी हमारे लोकतन्त्र के संतरी मात्र नहीं है अपितु सामाजिक अन्याय के हमलों के विरूद्ध विष्वास स्तम्भ है। ऐसे अधिकारियों द्वारा अधिकतम समर्पण युक्त कर्त्तव्य पालन में विफलता कड़ी जांच के अधीन होनी चाहिए। ऐसे प्रकरणों से व्यवहार करते समय न केवल दोशी अधिकारी बल्कि सम्पूर्ण जनता को यह संदेष जाना चाहिए कि जहां न्यायालय की अन्तरात्मा को गंभीर आघात लगे वहां यह न्यायालय समझौता नहीं करेगा।
यह एक दुर्लभ मामला है जहां दिया गया दण्ड अत्यन्त उदार है और दुराचरण की गंभीरता तो देखते हुए अर्थहीन है। रिकॉर्ड पर स्थापित आरोपों की गंभीरता को देखते हुए दण्ड किसी भी प्रकार से आनुपातिक नहीं है। हम जांचकर्ता न्यायाधीष की रिपोर्ट से सहमत हैं तथा मामला पुनर्विचारार्थ भेजने से अनावष्यक विलम्ब होगा। याची द्वारा उठाये गये समस्त मुद्दों को हमने सुन लिया है और प्रत्येक तर्क पर विचारण किया है व इस न्यायालय के लिए उपयुक्त होगा कि दण्ड को बढ़ाने के लिए षक्ति प्रयोग करे। आखिरकार यह न्यायालय अधिनस्थ न्यायपालिका सहित स्वयं के कार्य करने से चिन्तित है और मुकदमेंबाजी का अन्त करना आवष्यक है। तदनुसार याची को ठीक निचले स्तर अर्थात् सिविल न्यायाधीष (वरिश्ठ खण्ड) के पद पर पदावनत किया जाकर दण्ड संषोधित किया जाता और प्रत्यर्थी को तुरन्त प्रभाव से आदेष की पालना के निर्देष दिये जाते है।
कलकता उच्च न्यायालय ने मोहनलाल बनाम मोहिनी मोहन (ए.आई.आर. 1948 कल 194) में धारित किया है कि जब सुनवाई की तिथि को अभियुक्त अनुपथित है तो न्यायालय स्थगन के लिए बाध्य है और चूंकि संहिता में अभियुक्त से खर्चे दिलवाने का कोई प्रावधान नहीं है। अतः उससे खर्चे नहीं दिलवाये जा सकते यद्यपि धारा 334 में अभियुक्त को खर्चे दिलवाने का प्रावधान है।
सुप्रीम कोर्ट ने सत्यपाल सिंह बनाम भारत संघ के मामले के निर्णय दिनांक 23.11.09 में कहा है कि विधिक सेवा प्राधिकरण को खर्चे तभी दिलाये जाने चाहिए जहां दूसरा पक्षकार प्रतिनिधित हो या  उस पर तामिल हो गयी हो और याची की चूक, भूल या विलम्ब -उदाहरणार्थ जहां याची दोश दूर नहीं करता, कार्यालय आक्षेप दूर नहीं करता या पुनः फाईल करने में विलम्ब करता है। एक बार जब सामने वाला पक्षकार उपस्थित हो जाता है तो पक्षकार द्वारा विलम्ब की कुचेश्टा से होने वाली हानि की पूर्ति के लिए खर्चे लगाये जाते हैं। मात्र जहां दोनों पक्षकार चूककर्ता हों वही खर्चे विधिक सेवा प्राधिकरण में जमा कराये जाने चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने बलदेवदास षिविलाल बनाम फिल्मीस्तान डिस्ट्रीब्यूटर्स ( 1970 ए.आई.आर. 406) में कहा है कि न्यायालय को जहां तक संभव हो सभी मुद्दे साथ-साथ विनिष्चित करने चाहिए ताकि मुकदमेबाजी लम्बी ना खिंचे। यह पाया गया कि वे मुद्दे कानूनी नहीं  अपितु मामले के मूल से सम्बन्धित थे अतः साक्ष्य रिकॉर्ड किये बिना निर्धारण योग्य नहीं थे।

Wednesday 27 April 2011

न्यायिक आचरण -3


राजस्थान उच्च न्यायालय ने डी.के. परिहार बनाम भारत संघ (ए.आई.आर. 2005 राज. 171) में कहा है कि यह है कि एक मौलिक आवष्यकता है कि एक न्यायाधीष का षासकीय व व्यक्तिगत आचरण अनौचित्य से मुक्त हो, यह औचित्य एवं जांच के उच्चतम मानकों के समान होना चाहिए। न्यायाधीष के आचरण का स्तर एक आम आदमी और एक वकील के स्तर से ऊँचा होने की अपेक्षा की जाती है। यहां तक कि उसका व्यक्तिगत जीवन अन्य लोगों के लिए स्वीकार्य स्तर से उच्च होना चाहिए। इसलिए एक न्यायाधीष समाज के गिरते स्तर से षरण नहीं मांग सकता। न्यायाधीष मात्र मिट्टी के माधों नहीं होने चाहिए जिनमें मानवीय असफलताएंे एवं कमजोर चरित्र हो। वे ऐसे संघर्शी व्यक्तित्व के धनी होने चाहिए जो आर्थिक, राजनैतिक अथवा अन्य किसी प्रकार के दबाव से अप्रभावित रहें। न्यायपालिका की वास्तविक एवं दिखाई देने वाले स्वतन्त्रता पारदर्षिता तभी होगी जब पदाधिकारीगण एक अभेद्य किले की तरह कार्य करेंगे कि कोई भी अनुचित प्रयास न्यायपालिका की स्वतन्त्रता में विष्वास न डगमगा सके।
इसी बात को सुप्रीम कोर्ट ने कृश्णा स्वामी बनाम भारत संघ (ए.आई.आर. 1993 सु.को. 1407) में कहा और पुनरावृति की है कि अधिनियम में प्रयुक्त अनुसंधान या जांच षब्द समानार्थी एवं आपस में रद्दोबदल योग्य है। किसी भी सांविधिक प्राधिकारी या लोक प्राधिकारी का कोई कार्य, निर्णय या आदेष जिसमें तर्क का अभाव है मनमाना, अनुचित एवं अन्यायपूर्ण होने के कारण संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है या अनुच्छेद 21 के अतिक्रमण में अनुचित प्रक्रिया का अनुसरण करते हुए लिया गया है।
सुप्रीम कोर्ट ने गोविन्द षरण अग्रवाल बनाम पंडित हरदेव षर्मा त्रिवेदी (1983 क्रि.ला.रि. सु.को. 558) में यह रेखांकित किया है कि हमारे सम्मुख यह आया है कि इसी न्यायाधीष ने रूपये 5000/- एक सिविल वाद में तथा अंतरिम आदेष में रूपये 1500/- जब खर्चा दिलाया। यदि अपीलार्थी को इस कारण अंदेषा हो तो यह नहीं कहा जा सकता कि अंदेषा निराधार है।
न्यायाधीष के दुराचरण के प्रकरण षिवकान्त त्रिपाठी बनाम उत्तर प्रदेष राज्य में निर्णय दिनांक 22.01.08 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा है कि अनिवार्य सेवानिवृति का उद्देष्य सूखी लकड़ी को उखाड़ना है ताकि न्यायिक सेवाएं अप्रदूशित बनी रहकर दक्षता एवं ईमानदारी के उच्च मानक बनाये रख सके। यह प्राधिकारी को इस बात के लिए सषक्त करती है कि संदिग्ध निश्ठा वाले अधिकारियों के विशय में अर्जित प्रभाव के आधार पर उन्हें सेवा निवृति दी जा सके। क्योंकि एक अधिकारी विषेश बेईमान है ऐसा सकारात्मक साक्ष्य से साबित करना असंभव है। यह कटु सत्य है कि भ्रश्टाचार कैंसर की भांति राजनीतिक षरीर की षिराओं को खा रहा है। लोक सेवाओं में दक्ष और ईमानदार अधिकारियों का मनोबल गिरा रहा है। लोक सेवाओं में दक्षता केवल तभी बढे़गी जब लोक सेवक अपना निश्ठायुक्त ध्यान देंगे और कर्त्तव्यों का निर्वहन बुद्धिमतापूर्वक, सत्यनिश्ठापूर्वक, ईमानदारी से करते हैं तथा अपने पद से जुड़े कर्त्तव्यों के निर्वहन में लगनपूर्वक समर्पित होते हैं। भ्रश्ट की प्रतिश्ठा दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती जायेगी तथा धूंए से भी तेज गति से प्रसारित होगी। कई बार रिकॉर्ड का हिस्सा बनाने के लिए कोई ठोस या सषक्त प्रमाण नहीं होते। अतः पुलिस अधीक्षक की भांति रिपोर्ट करने वाले अधिकारी के लिए गोपनीय रिपोर्ट लिखते समय कोई विषेश उदाहरण प्रमाण सहित देना अव्यावहारिक हो जाता है। प्रायः भ्रश्ट अधिकारी इस प्रकार तोड़ मरोड़ करते हैं और विषिश्ठ दृश्टान्त के रूप में उल्लेख के लिए पाये जाने योग्य कोई प्रमाण नहीं छोड़ते हैं।
न्यायाधीषगण प्रायः मुकदमों को सुनवाई हेतु स्थगित करते रहते हैं तथा गवाहों के बार-बार उपस्थित होने की परेषानी का आकलन नहीं करते। ऐसे ही प्रकरण उत्तर प्रदेष राज्य बनाम षम्भूनाथ सिंह (ए.आई.आर. 2001 सु.को.1403) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि यदि एक गवाह मौजूद हो तो उसकी गवाही उसी दिन ली जानी चाहिए। न्यायालय को यह जानना चाहिए कि अधिकांष गवाह भारी खर्चे पर अपने व्यवसाय से वंचित रहकर न्यायालय पहुंचते है। सामान्यतः गवाह को दिया जाना वाला लगभग नगण्य भत्ता उसे हुए आर्थिक नुकसान की नाम मात्र की पूर्ति करने की सांत्वना देता है। यह दुखद है कि जिन गवाहों को बुलाया जाता है वे प्रातः से लेकर संध्या तक न्यायालय के द्वार पर खड़े रहते हैं और दिन के अंत में उन्हें अन्य दिन के लिए स्थगन सूचित किया जाता है। इस आदिकालीन प्रथा में पीठासीन अधिकारियों द्वारा सुधार किया जाना चाहिए और इसमें प्रत्येक सुधार कर सकता है बषर्ते कि सम्बन्धित पीठासीन अधिकारी की अपने कर्त्तव्यों के प्रति प्रतिबद्धता हो। इस प्रकार अनावष्यक स्थगन देकर गवाहों को आहूत कर पीठासीन अधिकारियों को अपनी न्यायिक षक्तियों के आयामों के कारण कतारबद्ध खड़े देखने में दुखद प्रसन्नता महसूस नहीं करनी चाहिए।

Tuesday 26 April 2011

न्यायिक आचरण के आयाम -2


वकीलों के आग्रह पर एक न्यायाधीष पर प्रतिकूल टिप्पणियांें के मामले षेलेष्वर नाथ सिंह बनाम इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय दिनांक 11.08.99 में कहा गया है कि चूंकि एक न्यायाधीष के सम्बन्ध वकीलों के साथ अच्छे नहीं है इस आधार पर प्रतिकूल प्रविश्टि करना न्यायोचित नहीं है। न्यायाधीष का यह मुख्य कार्य नहीं है कि वह वकीलों (बार) के साथ अच्छे सम्बन्ध बनाये रखे। उसका कर्त्तव्य न्याय करना है जिससे चाहे वकीलों का एक समुदाय प्रसन्न या अप्रसन्न हो। एक न्यायाधीष को प्रायः ऐसे आदेष पारित करने पड़ते हैं जिनसे बार (या इसका एक भाग) अप्रसन्न होता है एवं वह स्वयं अलोकप्रिय होता है किन्तु उसे इसकी परवाह नहीं करनी चाहिए चाहे परिणाम कुछ भी हो उसे न्याय करना चाहिए। यह स्मरण रखना चाहिए कि निचले स्तर पर न्यायाधीषों को तनावपूर्ण व दबावपूर्ण वातावरण में कार्य करना पड़ता है जहां कि पक्षकार एवं उनके पैरोकार अपने नथूने फूलाए हुए गर्म सांसे ले रहे होते हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने राजेष कुमार सिंह बनाम मध्य प्रदेष उच्च न्यायालय मामले के निर्णय दिनांक 31.05.2007 में कहा है कि न्यायाधीषों को अन्य लोगों की ही भांति प्रतिश्ठा अर्जित करनी होती है। वे षक्ति के प्रदर्षन के माध्यम से प्रतिश्ठा की मांग नहीं कर सकते। लगभग दो षताब्दि पूर्व अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीष जॉन मार्षल ने कहा है कि न्यायपालिका की षक्ति न तो मामलों के निर्णयों में, न ही दण्ड देने में और न ही अवमान के लिए दण्ड देने में निहित है अपितु आम आदमी का विष्वास जीतने में निहित है।
सुखदेव स्टील कटर्स एवं वेल्डर्स बनाम ललता प्रसाद (न्यायिक अधिकारी) मामले के निर्णय दिनांक 05.05.2005 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने टिप्पणी की है कि न्यायिक षक्तियों के दुरूपयोग पर कार्यकारी पक्ष में उपचार उपलब्ध है जिनके द्वारा ऐसी षक्तियों के प्रयोग करने से रोका जा सकता है। यदि एक व्यक्ति न्यायिक सेवा के क्षेत्र से बाहर कार्य करता है तो उसके परिणामों के लिए वह जिम्मेवार है।
राज्य बनाम पी.के.जैन (2007 क्रि.ला.ज. 4137) के मामले में यह टिप्पणी की गई कि विद्वान सत्र न्यायाधीष के एक षिकायतकर्ता स्वयं को सह अभियुक्त मानने के निर्णय से आपराधिक न्याय प्रषासन निकाय की साख गिरी है तथा यह तस्वीर प्रस्तुत हुई है कि जहां एक ओर राश्ट्र भ्रश्टाचार में असामान्य वृद्धि का सामना कर रहा है न्याय प्रषासन गवाहों का सम्मान नहीं कर सकता ।

Monday 25 April 2011

"पूर्ण न्याय - हर वादी का एक ड्रीम"

"पूर्ण न्याय - हर वादी का एक ड्रीम" परिचय
भारत की स्वतंत्रता से पहले, फेडरल कोर्ट ने अपने फरमान को क्रियान्वित करने के लिए कोई मशीनरी की थी. इसके मूल क्षेत्राधिकार का प्रयोग करते हुए यह केवल एक घोषणा के निर्णय सुनाना सकता है. इसकी अपील अधिकार क्षेत्र के अभ्यास में, यदि फेडरल कोर्ट में अपील की अनुमति दी है, यह न्यायालय जिसमें से अपील लाया गया था, के लिए एक घोषणा के साथ निर्णय, डिक्री के रूप में मामला परिहार था, या आदेश जो करने के लिए प्रतिस्थापित किया जा रहा था निर्णय, डिक्री या आदेश के खिलाफ अपील it.1 अब, वहाँ वर्तमान संविधान के तहत ऐसी कोई सीमा है. विस्तृत शक्तियों को country.2 यह सुनिश्चित करना है कि कोर्ट के किसी भी क्षेत्राधिकार कठिनाइयों से ग्रस्त नहीं है के साथ न्याय नहीं करता है के बीच में किसी भी न्यायालय से आदेश या आदेशों के खिलाफ विशेष छोड़ने के लिए या अधिकरण अनुदान शक्ति के रूप में सुप्रीम कोर्ट को प्रदत्त किया गया है यह पहले पार्टियों. इस के अलावा, के तहत Article.142 (1), अपने क्षेत्राधिकार के अभ्यास में, सुप्रीम कोर्ट के लिए किसी भी डिक्री पारित करने, या किसी आदेश करने के लिए पात्र है, जैसा कि किसी भी 'कारण' या 'मामले में पूर्ण न्याय करने के लिए आवश्यक है 'it.3 में लंबित यह सुप्रीम कोर्ट पर बहुत व्यापक शक्तियां किसी भी मामले में पूरा न्याय कर प्रदान करता है. इस अनुच्छेद के उद्देश्य के लिए न्यायालय को ऐसे निर्देश दे या ऐसे आदेश पारित करने के रूप में पूर्ण न्याय करने के लिए आवश्यक हैं कानूनों की घोषणा करने के लिए सक्षम है. न्यायालय ने इन निहित शक्तियों जो आवश्यक करने के लिए सही करने के लिए और गलत पूर्ववत करें, और कार्य कर रहे हैं के पास पूर्व debito justicia को असली और पर्याप्त न्याय जिसके लिए वे मौजूद नहीं है. इसलिए, एक प्रयास को समझा और संविधान के तहत उच्चतम न्यायालय की पूर्ण शक्ति की गतिशीलता का पता लगाने की गई है.

पूरा न्याय - परिभाषित अपरिभाषित
'शब्द का पूरा न्याय' परिभाषित नहीं किया जा सकता. यह तथ्य और प्रत्येक और हर मामले की परिस्थितियों पर निर्भर करता है. यह अपरिभाषित है और इसलिए uncatalogued है कि यह पर्याप्त लोचदार करने के लिए situation.4 शब्द 'पूरा न्याय दिया जाता है के लिए सूट ढाला जा रहता क्या पूरा न्याय है एक मामले में अन्य मामलों में पूरा न्याय और नहीं हो सकता क्योंकि कोई निश्चित अर्थ नहीं है अभिव्यक्ति कोई सटीक परिभाषा की संभावना नहीं है. यह एक अनियंत्रित घोड़ा है और जब एक बार आप इस पर सवार होकर मिलता है और आप नहीं जानते कि यह तुम्हें कहाँ ले जाएगा. इसलिए, शब्द 'पूरा न्याय' कोई निश्चित अर्थ है क्योंकि यह मुद्दा आधार पर फैसला किया जाएगा किया गया है. अभिव्यक्ति 'पूरा न्याय अनुच्छेद 142 में engrafted (1) व्यापक "आयाम लोच के साथ couched को असंख्य मानव ingenuinity या कारण या क़ानून कानून या कानून के आपरेशन के परिणाम के द्वारा बनाई गई स्थितियों से मिलने का 32 लेख, 136 और संविधान से 141 के तहत घोषित और या नहीं cribbed पाबंद सकता है किसी भी सीमाओं के भीतर या phraseology.5 यह सुनिश्चित करता है कि कोर्ट Article.142 के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग करने के लिए पूरा न्याय कर सकती है. यह भी नीचे कोई कारण बनता है या परिस्थितियों में सत्ता में प्रयोग किया जाना है के बारे में सीमा देता है. ऐसी शक्ति का प्रयोग पूरी तरह से सर्वोच्च Court.6 इसके अलावा, न्याय के हित में किसी भी क्रम या डिक्री पारित की ऐसी शक्ति के विवेक पर छोड़ दिया है 142 अनुच्छेद के तहत ही और अनुरूप प्रावधान के अभाव में सुप्रीम कोर्ट पर प्रदत्त किया गया है, उच्च न्यायालय या अधिकरण powers.7 समान नहीं है
142 अनुच्छेद के एनाटॉमी
142 अनुच्छेद के तहत न्यायालय की शक्तियां निहित हैं और उन शक्तियों का जो कर रहे हैं विशेष रूप से विभिन्न विधियों द्वारा न्यायालय को प्रदत्त के पूरक हैं. इस शक्ति विधियों जो उच्च न्यायालयों करना enjoy8 नहीं और इतनी देर के रूप में 142 अनुच्छेद आपरेशन में है और मामला उप सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीन है, यहां तक ​​कि राज्यपाल को कोई अधिकार नहीं है से अलग न्यायालय की एक अलग और स्वतंत्र आधार के रूप में मौजूद Article.1619 के तहत सजा को निलंबित और यह भी अप करने के लिए विधायी खाई को पाटने यदि विधायिका या कार्यपालिका, अपने responsibility.10Such एक विस्तृत कवरेज इस अनुच्छेद के तहत दी गई है प्रदर्शन विफल रहता है लागू किया जा सकता है. केवल सुप्रीम कोर्ट के इस शक्ति प्रदान करने के पीछे कारण यह है कि यह सावधानीपूर्वक देखभाल के साथ प्रयोग किया जाएगा और वह भी एक फिट के मामले के लिए विशेष रूप से जब सुप्रीम कोर्ट की भूमिका को महज बसने विवाद ही सीमित नहीं है कि. यह इन शब्दों में किया गया है सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन वी. India11 संघ में स्थापित:

"वास्तव में सुप्रीम कोर्ट ही विवाद निपटाने की प्रतिबंधित न्यायालय की अदालत नहीं है. सुप्रीम कोर्ट हमेशा एक कानून निर्माता की गई है और उसकी भूमिका केवल विवाद निपटाने के पार यात्रा. यह अस्पष्ट क्षेत्रों में एक समस्या solver है ....
142 अनुच्छेद के तहत निहित शक्ति जब वैकल्पिक उपाय उपलब्ध है नहीं मिलेगा जो कर सकते हैं और पहले से ही किया गया of.12 लाभ उठाया 142 अनुच्छेद के दायरे के बारे में, यूनियन कार्बाइड Corpn वी. भारत संघ में न्यायालय, 13 कि कहा:
"सर्वोच्च न्यायालय के संवैधानिक शक्तियों का plenitude के साथ न्याय की वजह से और उचित प्रशासन सुनिश्चित करना है और सहयोग करने के लिए प्रत्येक मामले में व्यापक हो सकता है और किसी भी ज़रूरत को पूरा करने का इरादा है. व्यापक शक्तियां बहुत किया गया है न्याय की वजह से और उचित प्रशासन के लिए इस न्यायालय को प्रदत्त और जब भी देखता है कि कोर्ट के न्याय वारंट की मांग को ऐसी शक्तियों का प्रयोग करते हैं, यह बाहर तक पहुँचने के लिए वह यह है कि इस असाधारण शक्ति का सहारा द्वारा किया न्याय सुनिश्चित करेगा सम्मानित करने के लिए ठीक ऐसी स्थिति को पूरा. "
किस हद तक इस शक्ति का विस्तार किया जा सकता है के रूप में, दिल्ली विकास प्राधिकरण वी. कप्तान निर्माण कंपनी (पी) लिमिटेड, के रूप में 14 में स्पष्ट किया गया था:
"तथ्य की बात के रूप में, हमें लगता है कि यह उचित इस अपरिभाषित और इसलिए uncatalogued है कि यह पर्याप्त लोचदार करने के लिए दी स्थिति के अनुरूप ढाला जा अवशेष सत्ता छोड़ने के लिए."
142 अनुच्छेद के दायरे perusing के बाद, अब यह जरूरी है हमें पता है क्या पूरा न्याय अनुच्छेद 142 के अनुसार जो सुप्रीम कोर्ट ने एस नागराज वी. Karnataka15 राज्य में व्यक्त किया गया था इस प्रकार है के लिए:
"वाक्यांश 'पूरा न्याय' अनुच्छेद 142 में engrafted (1) लोच के साथ couched को असंख्य मानव विदग्धता या कारण या क़ानून कानून या कानून के आपरेशन के परिणाम के द्वारा बनाई गई स्थितियों से मिलने की चौड़ाई शब्द 32 लेख, 136 और 141 के तहत घोषित संविधान और है या नहीं cribbed किसी भी सीमाओं के भीतर या पदावली पाबंद कर सकते. "
142 अनुच्छेद के संदर्भ में, यह कल्याण चंद्र सरकार बनाम राजेश Ranjan16 में हेगड़े जे द्वारा की गई टिप्पणियों की सराहना करते हैं सार्थक है जिसमें उसके स्वामी ने बताया कि 142 आलेख एक महत्वपूर्ण संवैधानिक कोर्ट को दिए अपने नागरिकों की रक्षा की शक्ति है. सीखा जज "एक दी स्थिति में जब कानून, न्यायालय संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग कर सकते राहत की अनुदान के प्रयोजनों के लिए अपर्याप्त होना पाया जाता है" मनाया. जबकि 142 अनुच्छेद के तहत अपने निहित शक्ति कसरत कि न्यायालय सांविधिक प्रावधान ओवरराइड है या L.Rs. द्वारा नहीं स्पष्ट किया गया Laxmidas मोरारजी (मृत) में समझाया जा सकता है v. Behrose Madan17 निम्नलिखित शब्दों में, Darab:
... संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत बिजली एक संवैधानिक शक्ति और इसलिए, नहीं कानूनी अधिनियमितियों द्वारा प्रतिबंधित है. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने संविधान जो राशि होगा की 142 अनुच्छेद के तहत किसी भी आदेश पारित नहीं होगा करने के लिए पर्याप्त कानून लागू supplanting या व्यक्त सांविधिक विषय के साथ काम एक ही समय में प्रावधानों की अनदेखी कर इन संवैधानिक शक्तियों का किसी भी तरह से किसी भी वैधानिक द्वारा नियंत्रित नहीं किया जा सकता है प्रावधानों. हालांकि, यह स्पष्ट कर दिया जाना चाहिए कि यह सत्ता में मामले के लिए लागू कानून उखाड़ना नहीं किया जा सकता है. इसका मतलब यह है कि अनुच्छेद 142 के तहत अभिनय सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश या अनुदान राहत जो पूरी तरह से असंगत है या मूल या सांविधिक मामले से संबंधित अधिनियमितियों के खिलाफ जाता है पारित नहीं कर सकते. सत्ता में संयम से जिन मामलों में प्रभावी ढंग से और उचित रूप से कानून के मौजूदा प्रावधानों या जब कानून के मौजूदा प्रावधानों के बारे में पार्टियों के बीच पूरा न्याय नहीं ला सकते द्वारा हल नहीं किया जा सकता है में इस्तेमाल किया जा रहा है.
इसलिए, पूरा न्याय करने के कारण के लिए, न्यायालय भी वैधानिक विवाद में बात विनियमन प्रावधान की अनदेखी कर सकते हैं लेकिन सामान्य रूप से कोर्ट नहीं किया जाएगा. यह विशेष प्रावधान है जो विवाद जो दिल्ली न्यायिक सेवा संघ वी. राज्य गुजरात के, 18 में किया गया है उच्चतम न्यायालय द्वारा के रूप में elucidated की विषय सामग्री को नियंत्रित करने के लिए उचित और कारण पर विचार देता है:
"कोई विधायिका द्वारा बनाए गए सीमा या 142 अनुच्छेद के तहत सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक शक्ति सीमित कर सकते हैं अधिनियमन, हालांकि कोर्ट वैधानिक विवाद में बात विनियमन के प्रावधानों को ध्यान में रखना चाहिए."
एक मामले में एक और इस दृश्य के साथ सहमत, सुप्रीम कोर्ट ने पाया है कि
"... लेकिन व्यापक और पूर्ण Article142 की भाषा., न्यायालय द्वारा दिए गए निर्देशों के साथ असंगत नहीं हो सकता है, प्रतिकूल चाहिए, या किसी भी कानून की विशिष्ट प्रावधानों के उल्लंघन में" 19
एक ही विचार तेरी जई संपदा (पी) लिमिटेड वी. केन्द्र शासित प्रदेशों में लिया गया है. Chandigarh20as:
"... एक असाधारण संवैधानिक भारत के संविधान के Article142 में निहित अधिकार क्षेत्र के बावजूद, इस कोर्ट आमतौर पर एक आदेश है जो एक सांविधिक प्रावधान के उल्लंघन में होगा पारित नहीं होगा."
इसलिए, यह एक घटक सांविधिक निषेध करने के लिए ट्रान्सेंडैंटल शक्ति है. कोई Article.142 में 'शब्द को सीमित कर रहे हैं के लिए राहत के साँचे में ढालना या उचित निर्णय लेने के लिए बाहर न्याय मिलना या injustice.21 एक क़ानून के मूल प्रावधानों के रूप में के रूप में दूर दूर, ESP में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ राजाराम और अन्य रैंकों. v. India22 संघ कि मनाया
संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत, इस कोर्ट ने पूरी तरह एक क़ानून के मूल प्रावधानों की अनदेखी नहीं है और एक मामला है जो किसी अन्य कानून में निर्धारित प्रक्रिया के माध्यम से ही हल किया जा सकता विषय में आदेश पारित कर सकते हैं. यह नहीं करने के लिए किया जाता है एक मामले में प्रयोग किया जहां कानून में कोई आधार है, जिस तक superstructure.23 एक इमारत के लिए एक भवन के रूप कर सकते है
142 अनुच्छेद के तहत उच्चतम न्यायालय की पूर्ण शक्ति चाहे एक मौलिक अधिकार के विरुद्ध प्रयोग किया जा सकता था या प्रेम चंद वी. आबकारी Commr24 में नहीं elucidated, कि:
"एक आदेश जो कोर्ट के आदेश में करने के लिए पार्टियों के बीच पूरा न्याय कर बना सकते हैं, केवल मौलिक अधिकार संविधान द्वारा गारंटीकृत से असंगत नहीं होना चाहिए, लेकिन यह और भी प्रासंगिक सांविधिक कानूनों के मूल प्रावधानों के साथ असंगत नहीं किया जा सकता है ..... व्यापक शक्तियां जो पार्टियों के बीच पूरा न्याय करने के लिए इस न्यायालय को दिया जाता है, उदाहरण के लिए इस न्यायालय द्वारा किया जा सकता से पहले, या अतिरिक्त सबूत स्वीकार करने में, या मामला remanding में लंबित कार्यवाही में, या में करने के लिए पार्टियों को जोड़ने में, एक नई बात की अनुमति पहली बार के लिए ले जाया जाएगा. यह स्पष्ट है कि ये और इसी तरह की अन्य शक्तियों के व्यायाम में, यह न्यायालय प्रक्रिया के संगत प्रावधानों द्वारा बाध्य नहीं होता है अगर वह संतुष्ट है कि ने कहा कि प्रक्रिया से एक प्रस्थान के लिए आवश्यक है दलों के बीच पूरा न्याय करते हैं. "
इसलिए, पौष्टिक राय यह है कि सामान्य रूप से सुप्रीम कोर्ट की वजह से सम्मान और विचार दे देंगे, अगर वहाँ विवाद में बात विनियमन के लिए एक सांविधिक प्रावधान है और यह इस पर नहीं अतिक्रमण जब तक यह आवश्यक है, लेकिन समान विचार अगर मांग ऐसा है, तो होगा न्यायालय द्वारा पार्टियों के बीच पूरा न्याय कर रही के प्रयोजन के लिए वैधानिक प्रावधानों के पारित कर सकते हैं. एक ही समय, इसका आयाम की चौड़ाई के साथ भी 142 अनुच्छेद में, के लिए एक नया भवन, जहां कोई भी पहले व्यक्त सांविधिक विषय से निपटने के प्रावधानों की अनदेखी करके, अस्तित्व का निर्माण और इस तरह प्राप्त करने के लिए कुछ अप्रत्यक्ष रूप से जो directly.25 हासिल नहीं किया जा सकता है नहीं किया जा सकता लेकिन हम गर्व से कहते हैं कि व्यवस्था में पर्याप्त न्याय करने के लिए कर सकते हैं, 142 अनुच्छेद के दायरे से भी विश्लेषण कि क्या छह महीने की अवधि सांविधिक आपसी सहमति यू द्वारा तलाक के मामले में माफ किया जा सकता / s द्वारा आकाश को छुआ 13 बी (2 इसलिए 0.26), यह पूर्ण अधिकार क्षेत्र अवशिष्ट शक्ति है जो न्यायालय पर आकर्षित के रूप में जब भी आवश्यक यह सिर्फ और न्यायसंगत तो और विशेष रूप में करने के लिए कानून के कारण प्रक्रिया का पालन सुनिश्चित करने के लिए पार्टियों के बीच पूरा न्याय करते हैं, जबकि हो सकता है law.27 के अनुसार न्याय प्रशासन
पूरा न्याय के उदाहरण
142 अनुच्छेद के तहत अपनी शक्ति का प्रयोग करते हुए, न्यायालय अलग मामलों में ऐतिहासिक निर्णय पारित किया है. एक मामले में जहां हालांकि यह आदेश में कार्यकारी की तलाश में पूरा करने के लिए न्याय की छोर तत्काल विधायी सिर, विधानसभा अध्यक्ष को कानून की अदालत के समक्ष पेश होने को कहा गया कोर्ट सीबीआई, एक मामले में एक और जांच 28 के लिए आदेश दिया है को प्राप्त करने में के लिए न्यायालय के अवमानना ​​न्याय, 29 को पूरा करने के परंपरागत दृष्टिकोण से मोड़ लेने न्यायालय लगाया अनुकरणीय लागत, 30 इसी तरह, न्यायालय ने भी हमेशा की सजा के अलावा बलात्कार पीड़ित को अंतरिम क्षतिपूर्ति प्रदान की, 31 इसी तरह न्यायालय ने भी अवैध के लिए अंतरिम क्षतिपूर्ति प्रदान की निरोध, 32 एक ही पंक्ति पर अदालत को नाम और न्यायपालिका की प्रसिद्धि बनाए रखने के क्रम में मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, 33 के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही निरस्त करने के लिए सजा के महत्व का एहसास अदालत भी एक जेल है कैदी बाहर स्थानांतरित राज्य जेल मैनुअल के 34 छात्रों को न्यायालय कानून के अभाव में भी रैगिंग के उन्मूलन के लिए निर्देश और दिशानिर्देश जारी किए हैं के हित में, 35 में एक प्रावधान के सुनसान मुस्लिम महिलाओं के हितों की रक्षा के लिए अनुपस्थिति में भी रखरखाव दी धारा 125 सीआरपीसी की है, यहां तक ​​कि उनके मुस्लिम कानून it.36 अनुमति नहीं आदेश में साबित करने के लिए कि कोई भी कानून से ऊपर है कोर्ट जवाब सुप्रीम कोर्ट, 37 के आदेश को नहीं करने के लिए पापी जजों के खिलाफ अवमानना ​​की कार्यवाही शुरू कर दी है करता है और निवारक दंड सिद्धांत को साबित करने के कोर्ट के 5 साल से कैद की अवधि को बढ़ाया टाडा के मामले में 10 साल के लिए न्याय, 38 की छोर सजा मिलने के बजाय कम कोर्ट में वापस फिर से परीक्षण और के लिए भेजने का आरोप लगाया जिससे द्वारा सांविधिक 401 धारा (3) द्वारा उस पर लगाए गए सीमा गुजर सीआरपीसी की, 39 वैसे भी अनुच्छेद 14 सर्वोच्च न्यायालय के सजा के निष्पादन में पीछा सह आरोपी 40 से साबित होता है कि कोई भी चंगुल से बच सकते हैं कानून की अदालत एक मामले एक और सुप्रीम कोर्ट के एक तरफ पुनरीक्षण और फिर से व्यवस्थित करने के लिए उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए दिशा सेट में फिर से गिरफ्तार करने और एक आरोपी की हिरासत, जो एक offence41 राजधानी के उच्च न्यायालय द्वारा बरी कर दिया गया था करने के लिए निर्देशित सूची में अब तक चयन के रूप में महिलाओं के उम्मीदवारों का संबंध है और निर्देश दिया कि अपीलार्थी महिलाओं उम्मीदवारों को दी नियुक्तियों परेशान नहीं किया जाएगा और उनकी सेवाओं हुए कहा कि एक बार एक उम्मीदवार आरक्षण के लाभ ही वापस ले लिया नहीं होना चाहिए दिया जाता है से नहीं समाप्त होगी के रूप में यह सेवा की समाप्ति के लिए राशि और इस तरह होगा 142,42 अनुच्छेद के तहत अपनी शक्ति इसी तरह एक संवेदनशील मामला न्यायालय में तर्क है कि मामले में एक छात्र की जाति प्रमाण पत्र है डिग्री प्राप्त करने के बाद फिर लंबे अवैध लगाने से दलों के साथ न्याय नहीं किया छात्र को 142,43 अनुच्छेद के तहत एक मामले में एक और अपने निहित शक्ति इसी तरह का उपयोग करके डिग्री कतिपय शर्तों के अधीन रखने की अनुमति दी जा सकती है, कोर्ट कि "हालांकि नियुक्ति की वैधता या अन्यथा एक जाति प्रमाणपत्र के आधार पर एक द्वारा प्रदान पर समिति आमतौर पर नियोक्ता और कर्मचारी के बीच और इस तरह के मामले में हालांकि एक छोड़ दो विशेष याचिका पर विचार नहीं कर सकते हैं एक बात है, सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले का संज्ञान ले अगर मामला गंभीर महत्व का है सकते हैं, लेकिन एक ही समय में यह है कि आयोजित किया गया था जो लोग सामान्य वर्ग की स्थिति तक पहुँच गए हैं, मुराद और मलाईदार परत का विचार है कि दर्शन पर अवधारणा थी के रूप में "मलाईदार परत 'की अवधारणा की वस्तु हार की अनुमति नहीं कर सकते हैं. यह भी देखा गया है कि राज्य भी नीचे एक विधायी नीति रखना कर सकते हैं के रूप में आरक्षण की हद तक पिछड़ा वर्ग के विभिन्न सदस्यों के लिए किया जा संबंध है, बशर्ते कि वे आदि such44 के रूप में रह ...
शादी बनाम 142 अनुच्छेद असाध्य टूटने
वहाँ बहुत सारे जिसमें 142 अनुच्छेद इस तरह है कि यह न्यायपालिका के लिए और उस हद तक यह सरकार के अन्य अंग के डोमेन encroaches को विशाल शक्ति देता है में किया जा रहा आलोचना की है अवसरों हैं. इसी समय, वहाँ उदाहरण है जिसमें वहाँ एक रंग था और 142 अनुच्छेद आह्वान रोना. उदाहरण के लिए, हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13 नीचे देता मैदान में तलाक के एक डिक्री प्राप्त है, लेकिन शादी के अप्रतिकार बे्रकडाउन एक आधार की नहीं है. रमेश चंदर वी. Savitri45 में, इस मुद्दे पर विचार के लिए आया था इससे पहले सुप्रीम कोर्ट गया था कि क्या एक शादी के जो अन्यथा भावनात्मक और व्यावहारिक रूप से मर चुका है को नाम के लिए जारी रखने के लिए अनुमति दी जाए. संविधान के तहत Article142 अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया कि अपीलार्थी और प्रतिवादी के बीच शादी के रूप में व्यावहारिक रूप से मर गया था शादी को भंग कर खड़ा करेगा. इस निर्णय cases.46 कई में किया गया है उच्चतम न्यायालय के बाद यह करने के लिए तलाक की राहत प्रदान करने के लिए एक सीधे जैकेट सूत्र 'के रूप में शादी के अप्रतिकार बे्रकडाउन के किसी भी सबमिशन लागू उचित नहीं होगा. इस पहलू पर अन्य तथ्यों और परिस्थितियों का मामला जो भी इस 'टूटने के सिद्धांत' पर विचार हो सकता है, सवाल है जो करघे बड़ी सुप्रीम कोर्ट की शक्ति है के टूटने के आधार पर तलाक अनुदान की पृष्ठभूमि में विचार किया गया है 142 अनुच्छेद (1) के अधीन शक्तियों का प्रयोग करते हुए संविधान की शादी. यह हिंदू विवाह अधिनियम में एक कमी नहीं है. यह एक नए अधिनियम के कार्यान्वयन के बाद कोर्ट के साठ साल से शुरू की जा जमीन है. निर्णय से मोड़ ले रहा है, विष्णु दत्त शर्मा वी. Sharma47 मंजू में हाल ही में सुप्रीम कोर्ट का आयोजन किया है कि अधिनियम की धारा 13 के एक नंगे पढ़ने पर, यह क्रिस्टल स्पष्ट था कि असाध्य टूटने जैसी कोई जमीन के लिए विधायिका द्वारा प्रदान की गई है तलाक के एक डिक्री देने. इस न्यायालय धारा 13 इस तरह के एक जमीन नहीं जोड़ने के रूप में है कि अधिनियम, जो विधायिका के एक समारोह है संशोधन राशि होगी कर सकते हैं पहले के फैसलों का जिक्र करते. "(जिसमें तलाक शादी के अप्रतिकार बे्रकडाउन की जमीन पर दी गई थी), कोर्ट उन्हें उदाहरण के रूप में लेने से इनकार कर दिया. सीखा न्यायाधीशों के मुताबिक कानूनी स्थिति पर विचार के बिना एक मात्र न्यायालय के दिशा, "एक मिसाल नहीं है. अगर हम असाध्य टूटने की जमीन पर तलाक अनुदान, फिर, हम, न्यायिक निर्णय से, प्रभाव है कि शादी के अप्रतिकार बे्रकडाउन भी तलाक के लिए एक जमीन है करेगा धारा 13 के लिए एक खंड जोड़ने हो. हमारी राय में, यह केवल विधायिका द्वारा किया जा सकता और न न्यायालयों द्वारा. यह संसद को कानून बनाना या करने के लिए कानून में संशोधन और न्यायालयों के लिए नहीं करने के लिए है. "

बेशक ऊपर विवाद है, कोई संदेह नहीं है, पर्याप्त रूप में स्वीकार्य के रूप में एक अच्छी तरह से, लेकिन अगर वहाँ निकट भविष्य में इस तरह के मामलों की सैकड़ों रहे हैं, सुप्रीम कोर्ट ने उन सभी मामलों को एक ही जवाब प्रस्तुत करना होगा? इसके अलावा, विष्णु दत्त शर्मा के मामले में निर्णय के अनुसार, यह शक्तियों के पृथक्करण का स्पष्ट उल्लंघन किया है, अगर यह धारा 13 के लिए एक खंड जोड़ने है. बेशक, वह भी स्वीकार्य है. लेकिन, पहले, एक ही सुप्रीम कोर्ट ने कई मामलों में तलाक प्रदान की गई 142 अनुच्छेद के तहत समान तथ्यों और परिस्थितियों को अपनी शक्ति लगाने से, इसका मतलब यह है कि उन सभी मामलों में, सुप्रीम कोर्ट शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का उल्लंघन किया है? इसलिए, शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का संविधानवाद के चश्मे से अपनी पूरी परिमाण में न्याय के लक्ष्यों को कायम रखने के लिए देखा जाना चाहिए. शक्तियों के पृथक्करण, इसलिए, एक सुखद संवैधानिक सिद्धांत हो सकता है लेकिन अभ्यास के एक मामले के रूप में एक पूरा जुदाई कभी नहीं संभव है. एक आधुनिक सरकारी सेट अप में, विधायी, कार्यकारी और न्यायिक कार्य कर सकते हैं ओवरलैप करते हैं, और इन तीनों शाखाओं द्वारा प्रयोग शक्ति संभावित सह है extensive.48 अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस सासीज यह भी कहा कि "जुदाई की एक कठोर गर्भाधान के प्रवर्तन की शक्तियों होगा आधुनिक impossible.49 सरकार शायद यह कहा कि हमारे संविधान निर्माताओं ने कभी rigidly पानी से तंग डिब्बों में से तीन अंगों विभाजित की हद तक शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत पर शुरू करना चाहता था जा सकता है. मगर विभाजन के सिद्धांत शक्तियों का functions.50 उनकी की सख्त सीमीत के भीतर राज्य के तीन अंगों रखने के लिए एक जादू फार्मूला यह एक सिद्धांतवादी को पंडिताऊ दृढ़ता के साथ प्रयोग का बनाया जा अवधारणा नहीं है. नहीं है वहाँ समझदार सन्निकटन और समायोजन की लोच जवाब में किया जाना चाहिए सरकार की व्यावहारिक आवश्यकताओं जो आज उनके लगभग अनंत किस्म ".51 यह करने के लिए यहाँ उल्लेख दिलचस्प है कि भारत के विधि आयोग भी जोरदार है एक आधार के रूप में शादी के अप्रतिकार बे्रकडाउन को शामिल किए जाने के लिए तलाक के लिए सिफारिश में कल की घटनाओं की संभावना नहीं दिखती कर सकते हैं 1981 में itself.52 और भी हाल ही में जब तक, यहां तक ​​कि एक ही विधि आयोग फिर it.53 लगभग के लिए सिफारिश की है, अंतर के 20 साल बाद भी विधायिका को इस संबंध में कुछ भी नहीं किया गया है. जैसे, हम वही विधायिका है कि यह भविष्य में कुछ करना होगा भरोसा कर सकते हैं? इसलिए, विधायिका की ओर से विफलता के लिए, कोर्ट में पार्टियों बेसहारा नहीं छोड़ सकते. सभी का तर्क है कि सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दृष्टिकोण अपनाने नहीं क्यों और 142 के तहत अनुच्छेद पक्ष जो अपने दरवाजे दस्तक दे रहे हैं और हम शक्तियों के विभाजन के उल्लंघन के रूप में क्यों यह व्यवहार करना चाहिए करने के लिए पूरा न्याय करती हैं? बल्कि यह एक विशाखा case.54 एक और करने के लिए इस उदाहरण में तरह न्यायपालिका द्वारा भरा विधायिका द्वारा छोड़ा अंतर है जब वहाँ कोई विदेशियों को गोद देने को विनियमित कानून, लक्ष्मीकांत पांडे वी. संघ India55 की, तैयार में भगवती जे था अंतर - देश और अंतर को गोद देने के विनियमन के लिए एक पूरी योजना. यह न्यायपालिका को निर्देश जो अभी भी क्षेत्र धारण कर रहे हैं देने के द्वारा शून्य को भरने का एक उदाहरण है. इस तरह के न्यायिक हस्तक्षेप जब वहाँ कानून में अंतराल हैं न्याय के कारण कार्य किया है. हालांकि "न्यायाधीशों को नहीं माना और आम तौर पर कानून ही स्वतंत्रता है कि विधायिका और क्या कर सकते हैं के साथ नहीं कर सकता हूँ", "तथ्य यह है कि न्यायाधीशों बना है, और कर पाते हैं और न सिर्फ law.56 लागू" न्यायाधीश एक विधायक में नहीं है लेकिन सामान्य प्रकाश डाला गया कैसे न्यायाधीश में नए कानून कानून करता है और अंतराल को भरने. वह के पारंपरिक सिद्धांत Blackstonian से एक प्रस्थान के रूप में इस सिद्धांत "कानून के पूर्व मौजूदा नियम जो न्यायाधीशों पाया है, लेकिन बनाने के लिए नहीं था." प्रदान करता है यह सब हाथों कि न्यायाधीशों केवल कानून की खोज नहीं करते पर मान्यता प्राप्त है, लेकिन वे भी कानून बना. .. यहां तक ​​कि जब एक न्यायाधीश या एक अधिकार क़ानून के एक बिल की व्याख्या के साथ संबंध है, वहाँ एक उसे विकसित करने के लिए कानून आचारण के लिए पर्याप्त गुंजाइश है, यह वह है जो शुष्क कंकाल में जीवन और रक्त रहता विधायिका द्वारा प्रदान की. बनाता है एक जीवित जीव उचित और पर्याप्त करने के लिए समाज की जरूरतों को पूरा और इस तरह कर रही है और कानून ढलाई के द्वारा, वह सृष्टि के कार्य में भाग लेता है और यह अधिक संविधान ... महानता की व्याख्या के मामले में सच को बहुत है खंडपीठ रचनात्मकता में निहित है और यह साहसिक और कल्पनाशील व्याख्या के माध्यम से ही है कि कानून और ढाला जा सकता है विकसित की है और मानव अधिकारों के उन्नत ... करने के लिए समाज की जरूरतों को पूरा करने, जजों कानून बना कर और उसे अब हर जगह मान्यता है कि न्यायाधीशों इस समारोह में बना कानून में भाग लेने के लिए और, इसलिए, न्यायाधीशों कानून बनाना चाहिए. "
निष्कर्ष और निष्कर्ष
इन वर्षों में, सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के सिरों है अक्सर 142 अनुच्छेद पर भरोसा मिलने के लिए. हालांकि, असाधारण शक्तियों का प्रयोग करते 142 अनुच्छेद के तहत प्रदत्त देर कुछ आलोचनाओं कि न्यायालय ने आज अधिक बार कभी पहले से इस अनुच्छेद के उपयोग सहारा के साथ मुलाकात की है. आलोचक इस प्रकार की मांग है कि सुप्रीम कोर्ट के स्पष्ट रूप से 142 अनुच्छेद के तहत हद तक और अपनी शक्तियों के दायरे राज्य चाहिए और इस तरह अपनी सीमाओं को परिभाषित करने के भीतर जो सुप्रीम कोर्ट को अपनी शक्ति का प्रयोग चुनते सकता है. यह भी प्रतीत होता है कि न्यायालय अक्सर इस शक्ति का उपयोग कर रहा है और यह सोच कर कि सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे भी छोटे मुद्दों में भी व्यापक रहे हैं की भावना पैदा. ऊपर आलोचना तर्कसंगत नहीं है बहुत तथ्य यह है कि यह सत्ता है सुप्रीम कोर्ट और कोई नहीं पर केवल प्रदत्त क्योंकि. ऊपर खुद की रक्षा एक आश्वासन है कि यह सावधानीपूर्वक देखभाल के साथ प्रयोग किया जाएगा और सावधानी के मन में पूर्ण न्याय करने का अंतिम वस्तु रखे हुए हैं. अगर हम वापस इतिहास भी पता लगा, यह पता चलता है कि वहाँ एक भी उदाहरण है जहाँ सुप्रीम कोर्ट 142 अनुच्छेद पर एक नहीं, गुण होने के मामले के लिए भरोसा है नहीं है. कारण यह है कि पीछे उच्चतम न्यायालय के दरवाजे भी किसी भी अन्य न्यायालयों से अधिक व्यापक हो जाता है कि अनुच्छेद 142 की हमारी न्याय के हित की सेवा संविधान में पेश किया गया था और यह भी सुनिश्चित करना है कि न्याय के हित सर्वोपरि है और सुप्रीम कोर्ट ऐसा करने में किसी भी प्रावधान है जो अपने संवैधानिक दायित्वों प्रदर्शन से न्यायालय रोकता उपेक्षा कर सकते हैं. और उच्चतम न्यायालय की टिप्पणियों की राशि पदार्थ को चाहिए कि 142 अनुच्छेद के दायरे से बहुत व्यापक है और एक संवैधानिक प्रावधान किया जा रहा है, यह किसी भी वैधानिक प्रावधान ओवरराइड कर सकते है लगता है. लेकिन व्यवहार में, कोर्ट अपनी शक्तियों 142 अनुच्छेद के नीचे का उपयोग नहीं करता सीधे टकराव में किसी भी व्यक्त सांविधिक हाथ में मामले के लिए लागू प्रावधान के साथ और यह एक स्व लगाया गया प्रतिबंध है, लेकिन एक में न्यायालय बायपास कर सकते हैं-ही है, यदि समान विचार मांग इतनी मामला दी. उन लोगों को भी परिस्थितियों में, सुप्रीम कोर्ट में 142 अनुच्छेद के तहत अपनी शक्ति का प्रयोग नहीं किया जा झुका, यदि किसी विशिष्ट वैधानिक प्रावधान को जब तक और एक ही बिल्कुल न्याय के हित में आवश्यक है जब तक शामिल मुद्दे से निपटने से मौजूद है. इस प्रकार, सतर्क रवैया प्रशंसनीय है, लेकिन इस न्याय में परिणाम नहीं किया जा रहा केवल वंचित है क्योंकि एक सांविधिक प्रावधान मौजूद होना चाहिए.

हालांकि वहाँ 142 अनुच्छेद के उपयोग को लेकर कुछ प्रतिकूल टिप्पणी कर रहे हैं, वहाँ रहे हैं कई ऐतिहासिक निर्णय वही प्रावधान का उपयोग करके किया गया है सुप्रीम कोर्ट ने दिया है. यह काफी को यह भी बताना उचित है कि वहाँ कानून और न्याय के अनुसार करने की आवश्यकता के अनुसार न्याय के बीच अंतर का एक बहुत कुछ है. वास्तव में, सुप्रीम कोर्ट ने अपने मानक प्रधानता और नवीन दृष्टिकोण के माध्यम से कानून और कई मामलों में कानून की जरूरत के बीच अंतराल भर गया है. इसलिए, पोत बहुत साफ रखने के लिए, इस शक्ति की वजह से देखभाल और सावधानी और कोर्ट से किया जाना चाहिए भी न केवल न्याय की मात्र वस्तु पर भी पूरा न्याय के अंतिम वस्तु कल्पना करना होगा. इसलिए, हर प्रयास करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय की पूर्ण शक्ति का अनुचित लाभ लेने के व्यक्ति को रोकने के लिए लेकिन एक ही समय में सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा हमेशा खुला रखा जाना चाहिए बनाया जाना चाहिए सिर्फ 24hrs सेवा यानी जब भी और जो कोई भी दस्तक देता है की तरह अपनी दरवाजे, न्याय किया जाना चाहिए. संक्षेप में, यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि जिस देश से कोई अपील झूठ का सर्वोच्च न्यायालय जा रहा है, संविधान निर्माताओं अतिरिक्त मील गए हो सकता है और 142 लेख इतनी के रूप में के तहत सुप्रीम कोर्ट में व्यापक शक्तियां दी सुनिश्चित करें कि वहाँ सुप्रीम निरोधक कुछ भी नहीं है अदालत के बाहर न्याय meting से और कहा कि "न्याय पूर्ण" भी है.

Sunday 24 April 2011

न्यायिक आचरण के प्रतिमान -1


सुप्रीम कोर्ट ने बम्बई उच्च न्यायालय बनाम षिरिष कुमार रंगराव पाटिल (एआईआर 1997 सु.को. 2631) के प्रमुख प्रकरण में धारित किया है कि यदि न्यायाधीषों को जनता ने अत्यधिक सम्मान देना है तो न्यायाधीषों को अपना आचरण इसके अनुरूप बनाना चाहिए। उन्हें षब्दों अथवा कृत्यों से जनता को ऐसा अवसर नहीं देना चाहिए जिससे कि जिस स्थान की वे पात्रता रखते हैं उसी स्थान के योग्य होना चाहिए।
भ्रश्टाचार की जड़ भाई-भतीजावाद तथा भ्रश्ट अधिकारियों को निश्क्रिय संरक्षण देने में है। निर्णय को सही होने की स्वीकार्यता स्पश्ट चरित्र, आचरणपूर्ण सत्यनिश्ठा और पक्षपात रहित होने की निषानी के स्रोत में समाहित है। आम व्यक्ति के जीवन में नैतिकता एवं ईमानदारी के स्तर में आती गिरावट ठीक प्रकार से न्यायपालिका की ओर रास्ता बना लेती है। चूंकि प्रत्यर्थी प्रोबेषन पर था अतः न्यायिक कार्य करने, निशेधाज्ञा देना या न देने के बदले रिष्वत मांगने के लिए ज्यादा संभावना थी। भ्रश्ट गतिविधि की प्रवृति अधिक गंभीर और हानिकारक है बजाय अवैध पारितोशिक मांगने और स्वीकार करते हुए न्यायिक अधिकारी वास्तव में पकड़ा जावे। यदि विभागीय कार्यवाही में प्राप्त साक्ष्य न्यायिक अधिकारी के भ्रश्ट आचरण के दुर्व्यसन को प्रमाणित करती है और उसके आचरण की जांच उचित एवं मौलिक है, तो दुराचरण की मात्रा के अनुपात में दण्ड दिया जाना चाहिए।

Saturday 23 April 2011

पुलिस और पब्लिक


एक प्रकरण में स्वयं पुलिस अधिकारी ने मामला दर्ज करवाया और उसी ने जांच की। चूंकि इसमें न्याय के प्राकृतिक सिद्धान्त का उल्लंघन था। अतः मेघासिंह बनाम हरियाणा राज्य 1996 11 एससीसी 709 नामक इस प्रमुख वाद में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि परिवादी होते हुए उसे स्वयं मामले में अनुसंधान नहीं करना चाहिए था।
पुलिस ने बिना समुचित प्रक्रिया अपनाये ही सुनील कुमार के विरूद्ध हिस्ट्रीषीट खोल ली थी। प्रकरण में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सुनिल कुमार बनाम पुलिस अधीक्षक (1997)क्रि.ला.ज. 3201 इलाहा) कहा कि दोनों ही स्थितियों में यह सुनिष्चित करने के लिए कि थाना प्रभारी द्वारा हिस्ट्रीषीट खोलने या खोलने की रिपोर्ट उचित है जांच आवष्यक है ।थाना प्रभारी की रिपोर्ट पर ही मोहर लगा देना पर्याप्त नहीं है।


एक प्रकरण में स्वयं पुलिस अधिकारी ने मामला दर्ज करवाया और उसी ने जांच की। चूंकि इसमें न्याय के प्राकृतिक सिद्धान्त का उल्लंघन था। अतः मेघासिंह बनाम हरियाणा राज्य 1996 11 एससीसी 709 नामक इस प्रमुख वाद में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि परिवादी होते हुए उसे स्वयं मामले में अनुसंधान नहीं करना चाहिए था।
पुलिस ने बिना समुचित प्रक्रिया अपनाये ही सुनील कुमार के विरूद्ध हिस्ट्रीषीट खोल ली थी। प्रकरण में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सुनिल कुमार बनाम पुलिस अधीक्षक (1997)क्रि.ला.ज. 3201 इलाहा) कहा कि दोनों ही स्थितियों में यह सुनिष्चित करने के लिए कि थाना प्रभारी द्वारा हिस्ट्रीषीट खोलने या खोलने की रिपोर्ट उचित है जांच आवष्यक है ।थाना प्रभारी की रिपोर्ट पर ही मोहर लगा देना पर्याप्त नहीं है।








Friday 22 April 2011

पुलिसिया राज-2


पुलिस द्वारा नागरिकों को पुलिस थानों में अवैध बन्दी बनाये रखने के प्रमुख प्रकरण जितेबोईना गुरवैया बनाम विषेश अधिकारी नक्सल विरोधी दस्ता (1999 (3) एएलडी 585) में आन्ध्र प्रदेष उच्च न्यायालय ने कहा है कि प्रत्येक जिला पुलिस अधीक्षक अपने क्षेत्र में सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी किये गये 11 निर्देषों की अनुपालना सुनिष्चित करने के लिए प्रत्येक तीन माह में एक बार पुलिस थानों की कार्यप्रणाली की समीक्षा करेंगे और मुख्यालय को रिपोर्ट भेजेंगे।प्रत्येक खण्ड में उपाधीक्षक पुलिस अपने क्षेत्र के समस्त पुलिस थानों का पखवाड़े में दौरा करेंगे और सत्यापित करेंगे कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी निर्देषों की समुचित अनुपालना हो रही है अथवा नहीं। यदि किसी पुलिस अधिकारी द्वारा इन निर्देषों की अनुपालना में उपाधीक्षक द्वारा कमी पायी जाती है तो आवष्यक विभागीय कार्यवाही करेंगे। उपाधीक्षक जिला पुलिस अधीक्षक का अपनी निरीक्षण की रिपोर्ट भेजेंगे।
सुप्रीम कोर्ट ने भगवान सिंह बनाम पंजाब राज्य (1992 3 एस.सी.सी. 249) में कहा है कि पूछताछ का मतलब चोट पहुंचाना नहीं है। एक व्यक्ति का उत्पीड़न करने और तीसरी डिग्री के तरीके अपनाना मध्यकालीन युग की प्रवृति के हैं और ये नृषंस तथा कानून के विपरीत है। यदि पुलिस अधिकारी जिनका कार्य नागरिकों को सुरक्षा व संरक्षण देना है ऐसे कार्य करते हैं जिससे नागरिकों के मानस में असुरक्षा की भावना उत्पन्न होती है तो यह एक रक्षक के भक्षक बनने से भी अधिक जघन्य है।
आन्ध्र प्रदेष में एक संगठन को एक रास्ते से समारोह को गुजरने की अनुमति दे दी गई किन्तु दूसरे समूह को कानून और व्यवस्था की दुहाई देते हुए मना कर दिया गया। इस प्ररकण में आन्ध्र प्रदेष उच्च न्यायालय ने गेहाहु ए मिरान षाह बनाम सचिव गृह विभाग (1993) क्रि.ला.ज. 406 (आन्ध्रा) में कहा कि पुलिस अधिकारियों द्वारा मुख्य स्थान से होकर एक संगठन को धार्मिक जुलूस को अनुमति देने तथा दूसरे को मना करने में इस आधार पर अपनाया गया भेदभाव कि इससे कानून और व्यवस्था की समस्या हो सकती है,  यह कृत्य अनुचित है। दोनों संगठनों को अपना जुलूस मुख्य केन्द्र से होकर ले जाने का अधिकार है और कानून और व्यवस्था की समस्या का समाधान करना पुलिस अधिकारियों का कर्तव्य है।

Thursday 21 April 2011

पुलिसिया राज


श्रीमती षकिला अब्दुल गफार खान बनाम वसंत रघुनाथ धोबले के निर्णय दिनांक 08.09.03 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि न्यायालय का कर्त्तव्य है कि वह अनाज में से फूस को अलग करे। प्रभावित व्यक्तियों के प्रति न्याय करने के लिए ही न्यायालयों का अस्तित्व है। परीक्षण या प्रथम अपीलीय न्यायालय तकनीकी आधारों पर सफाई नहीं दे सकते और जिन तथ्यों पर ध्यान दिया जाकर सकारात्मक जांच की जानी चाहिए उन पर वे आंखे नहीं मूंद सकते। न्यायालय एक गवाही को रिकॉर्ड करने वाले टेप रिकॉर्डर की भांति अन्वीक्षण के उद्देष्य को अनदेखा नहीं कर सकता अर्थात् सत्य प्राप्त करना और ऐसी सक्रिय भूमिका अदा करना जिसके लिए संहिता में पर्याप्त षक्तियों दी गई है। न्यायालयों के महती कर्त्तव्य एवं जिम्मेदारियां अर्थात् जहां अभियोजन एजेन्सी स्वयं की भूमिका पर प्रष्नचिन्ह हो न्याय देना है। कानून को षांत व निश्क्रय बैठे नहीं देखा जाना चाहिए जहां जो उसका उल्लंघन करता है बच जाय और जो इससे संरक्षण की आषा करता है निराष हो जाये। न्यायालयों को यह सुनिष्चित करना पड़ता है कि दोशी दण्डित हो तथा यदि अनुसंधान या अभियोजन में कोई कमी है तो उसके साथ कानूनी ढंाचे के भीतर उचित व्यवहार किया जाना चाहिए। सत्य के अतिरिक्त न्याय को कुछ भी प्रिय नहीं है। जब एक आम नागरिक षक्ति सम्पन्न प्रषासन के विरूद्ध षिकायत करता है तो न्यायालय की संवेदनहीनता या अकर्मण्यता से विष्वास और अन्ततः देष की न्याय प्रदानगी प्रणाली ही नश्ट हो जावेगी। यदि आगे जांच में तथा संग्रहित विशय वस्तु से यह लगता है कि अभियुक्त की कोई भूमिका रही है तो प्राधिकारियों के लिए ऐसे कृत्य के लिए कार्यवाही करने का मार्ग खुला है और ऐसी कार्यवाही उच्च न्यायालय या हमारे द्वारा विमुक्ति के आदेष के बावजूद भी की जा सकती है। ऐसा इसलिए है कि जो रिकॉर्ड पर विशय वस्तु है उसके आधार पर विमुक्ति आदेष पारित किया गया है। उन अधिकारियों के विरूद्ध भी कार्यवाही की जावेगी जिन्होंने एफ आई आर लिखने से मना किया और जिन्होंने मामले में अभी तक जांच नहीं की। प्रथमतः एफ आई आर नहीं लिखने का कोई स्पश्टीकरण नहीं दिया गया। इस बात पर कोई जोर देने की आवष्यकता नहीं है कि जब पुलिस के ध्यान में लाया गया कि मृतक को किसी ने पीटा है एफ.आई.आर. लिखी जानी चाहिए थी। जांचकर्ता पुलिस अधिकारी ने ऐसे ढंग से कार्य किया मानों कि उसे अभियुक्त का दोश या अन्यथा निष्चित करना हो। पुलिस के लिए मात्र इतना ही अनुमत है कि वह संज्ञेय अपराध के अस्तित्व का पता लगावे और उससे आगेे कुछ नहीं।
अभियुक्त सरताज पर आरोप था कि वह एक नाबालिग लड़की को भगाकर ले गया। प्रकरण में आगे इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय दिनांक 14.07.2010 सरताज बनाम उ0प्र0 राज्य (मनु/उ.प्र./0400/2010) में कहा है कि मध्य प्रदेष उच्च न्यायालय ने रामधनी पाण्डे के मामले में कहा है कि किसी व्यक्ति के विचरण पर उसकी इच्छा के विरूद्ध पुलिस धारा केाई भी रोक लगाना उसकी गिरफ्तारी या अवैध निरूद्ध करना है। महेन्द्र जैन (पाटनी) के मामले में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने कहा है कि यदि एक व्यक्ति को पूछताछ के बहाने यदि लम्बे समय तक रोका जाता है तो ऐसे व्यक्ति को अभियुक्त के समान मानते हुए ऐसा करना हिरासती हिंसा होगी तथा संविधान के अनुच्छेद 21 का अतिक्रमण है। ए.नलासिवन के मामले में मद्रास उच्च न्यायालय ने 90 औरतों और 28 बच्चों को वन विभाग के कार्यालय में रातभर रखना अवैध माना तथा सी.बी.आई.जांच के आदेष दिये थे। याची को किसी भी हालत में चाहे स्वेच्छा से या अस्वेच्छा से मेडिकल रिपोर्ट के इन्तजार में पुलिस थाने में नहीं रोका जाना चाहिए था। स्वैच्छिक कार्य के आवरण में ऐसा प्रतिबन्ध कानूनी प्रक्रिया का दुरूपयोग है और पुलिस द्वारा दादागिरी है। लतासिंह बनाम उत्तर प्रदेष राज्य (क्रि.ला.ज. 2006 3309) के निर्णयानुसार में जब उसने स्वैच्छा से साथ जाने विवाह करने और वयस्कता का कथन किया है। तब पुलिस द्वारा उसकी स्वतन्त्रता को यहां तक कि अस्थायी तौर पर भी प्रतिबन्धित करने का कोई अधिकार नहीं है। उचित कारण सहित नोटिस दिये बिना किसी भी व्यक्ति को उठाकर नहीं ले जाया जावेगा। सामान्य डायरी (रोजनामचा आम) में ऐसे व्यक्तियों के पहुंचने एवं जाने के समय व बुलाने के कारण सहित प्रविश्टियां की जायेगी।
कानून में यह तय है कि यदि कोई प्राधिकारी कुछ करना चाहता है तो वह अधिनियम या सांविधिक प्रावधान के अनुसार ही करना चाहिए और अन्यथा बिल्कुल नहीं। जिस उद्देष्य के लिए थाना भवन निर्मित है प्राधिकारी पुलिस को उसके अतिरिक्त किसी अन्य उपयोग में नहीं ले सकते। यदि उन्हें ऐसा करने की अनुमति दे दी जावे तो हमारी प्रणाली में गिरती नैतिकता के मद्देनजर थाना भवन विधि की प्रक्रिया के दूरूपयोग की गैलरी बन जायेगा। प्रकरण में निम्नानुसार आज्ञापक निर्देष जारी किये गए:-
1.       किसी भी व्यक्ति को चाहे स्त्री हो या पुरूश गवाह के तौर पर पुलिस थाने में किसी भी कारण से 24 घण्टे से अधिक रहने की न तो अनुमति दी जायेगी और न ही रोका जावेगा। मेडिकल जांच के लिए ऐसे व्यक्ति को अधिकतम 3 दिन के लिए अस्पताल में रखा जा सकता है।
2.      सरकार यह सुनिष्चित करे कि किसी भी व्यक्ति को मेडिकल जांच के लिए अस्पताल में 24 घण्टे से अधिक नहीं रोका जावे।
3.      मुख्य सचिव उत्तर प्रदेष सरकार को निर्देष दिये जाते है कि मेडिकल रिपोर्ट को पुलिस को भेजे जाने के विशय में दिषा निर्देष तय करने हेतु एक विषेशज्ञ समिति की नियुक्ति करे। प्रकरण में पुलिस थाना भवन में 2 सप्ताह तक रखी गई याचि को बिना न्यायोचित कारणों के रखने को अनुच्छेद 21 का उल्लंघन मानते हुए मानसिक दुःख व संताप के लिए खर्चे/क्षतिपूर्ति का अधिकारी घोशित किया गया।