Saturday 21 December 2013

भारतीय न्यायचरित मानस

अक्सर मिडिया और अग्रणी लोगों द्वारा प्रसारित किया जाता है कि देश के न्यायालय लोकतंत्र की रक्षा में मजबूती से खड़े हैं किन्तु मेरे स्वतंत्र मतानुसार वास्तविक स्थिति इससे भिन्न है| भ्रष्ट और शक्तिशालों लोगों को यदाकदा दण्डित करने मात्र से 125 करोड़ का जनतंत्र मजबूत नहीं होता है| न्यायालयों के तो समस्त निर्णयों में प्रजातंत्र झलकना चाहिये और अपवाद स्वरुप किसी मामले में दोषी को दण्डित करने में मानवीय चूक हो सकती है जिसे जनता सहन-वहन कर सकती है| आज स्थिति यह है कि कार्यरत और सेवानिवृत न्यायाधीशों पर भी नैतिक अधपतन तक के आरोप लग रहे हैं यद्यपि सेवारत न्यायाधीशों पर बहुत कम आरोप लग रहे हैं| इसका यह कदापि अभिप्राय नहीं है कि भारत में सेवारत समस्त न्यायाधीश भले और ईमानदार हैं अथवा रहे हैं| ऐसा नहीं है कि ये लोग आदित: सदचरित्रवान रहे हों और कालान्तर में इनका नैतिक अधपतन हुआ हो| सेवारत होते हुए किसी न्यायाधीश पर आरोप लगाने पर अवमान कानून का न्यायिक आतंकवाद की तरह प्रयोग किये जाने का जोखिम बना रहता है अत: इस कानून के कारण नागरिक न्यायपालिका के सम्बन्ध में अपने विचार भी खुलकर अभिव्यक्त नहीं कर पाते हैं और पीड़ित लोग न्यायाधीशों की सेवानिवृति तक आरोप लगाने का इन्तजार करते हैं| भारत में पत्रकारों द्वारा न्यायालयों की कार्यवाहियों की रिपोर्टिंग भी दबी जुबान से ही होती है जो प्राय: अर्द्धसत्य ही होती है| वास्तव में भारतीय न्यायालय अवमान कानून न केवल ब्रिटेन के कानून से अश्रेष्ठ और आतंकी है बल्कि श्रीलंका का अवमान कानून भी भारतीय कानून से श्रेष्ट है| जहाँ ब्रिटेन के कानून में किसी न्यायाधीश पर आरोप लगाना अवमान नहीं है बल्कि किसी मामले में सीधे अवरोध उत्पन्न करना ही अवमान है वहीं किसी मामले में झूठी गवाही देने, झूठे साक्ष्य पेश करने जैसे मामलों में भारत में मुश्किल से ही किसी दोषी को सजा होती है| न्यायालय अपराधियों के प्रति उदारता का परित्याग कर जिस दिन ऐसा करने लगेंगे उस दिन रक्तबीज की तरह बढती अनावश्यक मुकदमेबाजी स्वत: ही घट जायेगी और सरकारी अधिकारी इससे सबसे अधिक प्रभावित होंगे| ठीक इसी प्रकार श्रीलंका में अलग से कोई अवमान कानून ही नहीं है अपितु न्यायिक कार्यवाही में अवरोध करना ही अवमान माना जाता है| प्रथम तो भारत में कोई वकील अपवाद स्वरुप ही राजनीति या किसी राजनैतिक दल से घनिष्ठ संपर्क से दूर है और भारत में उच्च न्यायालयों व उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया और उसके पैंतरों को देखने से भी यह एहसास नहीं होता कि ये नियुक्तियां गैर-राजनैतिक ढंग से स्वच्छतापूर्वक  होती हैं|    

अभी हाल ही में चारा घोटाले में लालू यादव व जगन्नाथ मिश्र को सुनाई गयी सजा (सजा भुगतेंगे कितनी यह अभी भविष्य के गर्भ में है) से शायद देश की जनता को ऐसा भ्रम होगा कि देश में कानून का राज है और दोषियों को बख्शा नहीं जाता| किन्तु विचारणीय है कि क्या लालू यादव या जगन्नाथ मिश्र का यह पहला आपराधिक मामला है जहां उन्हें सजा सुनाई गयी है| यदि नहीं तो फिर आज तक ये आजाद क्यों घूमते रहे? क्या आजादी का मतलब इतना उदार है ? एक ओर उच्च वर्ग के अपराधी या पीड़ित के मामले में पुलिस पीछा करने या गिरफ्तार करने के लिए हवाई यात्रा का खर्चा वहन करती है वहीं आम गवाह को बजट नहीं होने का बहाना बनाकर बस यात्रा व भोजन व्यय का भी भुगतान नहीं करती है| सैद्धांतिक तौर पर पुलिस पर भी न्यायपालिका का नियंत्रण बताया जाता है अत: पुलिस द्वारा ढंग से छानबीन नहीं की जाए या अपराधियों को बचाया जाए और निर्दोष लोगों को फंसाया जाए तो न्यायालय मूकदर्शी नहीं रह सकते| फिर अपराधी आखिर दंड से क्यों बच निकलते हैं?  किसी भी अपराधी को यदि अपराध करने पर दंड नहीं मिले तो वह दुस्साहसी हो जाता है और देश की कानून-व्यवस्था को ठेंगा दिखाता है| एक सामान्य अपराधी जेबकाटने से प्रारम्भ कर कालांतर में चोर और डाकू बनता है| देश की जनता जानती है कि निश्चित रूप से उक्त मामले के आरोपियों-लालू यादव व जगन्नाथ मिश्र के ये पहले अपराध नहीं थे किन्तु आज तक दण्डित नहीं हुए फलत: ये अपराध की दुनिया में आगे तेजी से कदम बढाते गए| बिहार राज्य की जनता तो इनके बारे में काफी कुछ जानती है|

जगन्नाथ मिश्र 1972 से 1974 तक बिहार में मंत्री पद पर रहे हैं और मुख्यमंत्री भी रहे हैं| इस अवधि में भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा बिहार के सहकारिता विभाग की ऑडिट की गयी और इस रिपोर्ट में गंभीर अनियमितताएं पायी गयी| रिपोर्ट के अनुसार अवैध ऋण वितरण, भ्रष्टाचार और गबन भी पाया गया| जगन्नाथ मिश्र पर पुरानी तारीख में आदेश करने और रिकार्ड में हेराफेरी करने के भी आरोप थे| मजिस्ट्रेट न्यायालय से मामले की शुरुआत हुई और परीक्षण के दौरान मामला कई बार उच्च न्यायालय व उच्चतम न्यायालय गया| इस बीच राज्य सरकार ने मामला वापिस लेने की अनुमति दे दी किन्तु शिवनंदन पासवान के विरोध के कारण मामला शीघ्र बंद नहीं हो सका| मामला दुबारा उच्चतम न्यायालय के समक्ष पुनरीक्षण याचिका के रूप में सुनवाई हेतु आया और न्यायालय के सामने प्रमुख प्रश्न था कि क्या सरकार द्वारा आपराधिक मुकदमा  वापिस लेने का कोई नागरिक विरोध कर सकता है| न्यायालय ने इस सैद्धांतिक प्रश्न का तो सकारात्मक जवाब दे दिया किन्तु मामले में पुन: परीक्षण के आदेश नहीं दिए और घटना के लगभग 14 वर्ष बाद भी दोषियों के विरुद्ध परीक्षण न्यायालय में कोई प्रभावी कार्यवाही प्रारम्भ तक न हो सकी| परिणामत: इस निर्णय का कोई वास्तविक और व्यावहारिक लाभ देश की जनता को नहीं मिला और भरसक प्रयास  के बावजूद  भ्रष्टाचार, गबन, अमानत में खयानत, रिकार्ड में हेराफेरी का अभियुक्त न केवल दण्डित होने से बच गया बल्कि उसे एक अभियुक्त की तरह न्यायालयी कार्यवाही का सामना तक नहीं करना पडा| कालान्तर में जगन्नाथ मिश्र ने प्रगति की और चारा घोटाले में लिप्त हो गए और लालू यादव के साथ उन्हें भी दोषी पाया गया है| यदि जगन्नाथ मिश्र के विरुद्ध 1980 के दशक में ही प्रभावी कार्यवाही हो गयी होती तो शायद दुस्साहस इस स्तर तक नहीं बढ़ता|  

बिहार राज्य में ही भागलपुर में न्यायालय में बैठे न्यायाधीश पर पुलिस द्वारा हमला करने के मामले में पटना उच्च न्यायालय ने 3 माह से भी कम अवधि में अवमान कार्यवाही के मामले में अन्वीक्षा पूर्ण कर दोषी पुलिस कर्मियों को दण्डित कर दिया| ठीक इसी प्रकार नडियाद (गुजरात) में मजिस्ट्रेट को जबरदस्ती शराब पिलाकर जुलूस निकालने के मामले में अवमान कार्यवाही में उच्चतम न्यायालय ने समस्त दोषी पुलिस अधिकारियों व झूठा प्रमाण पत्र देने वाले डॉक्टर को भी दण्डित कर दिया| किन्तु देश की जनता का मानना है कि जब यही प्रश्न किसी दोषी न्यायिक अधिकारी को दण्डित करने के सम्बन्ध में उठता है तो भारत के न्यायाधीशों का रुख भिन्न पाया जाता है| लगभग 10 वर्ष पूर्व अहमदाबाद के एक मजिस्ट्रेट पर आरोप लगाए गए कि उसने कुछ वकीलों के साथ मिलकर 40000/- रूपये के बदले भारत के राष्ट्रपति,  मुख्य न्यायाधीश, एक अन्य न्यायाधीश व एक वकील के विरुद्ध फर्जी मामले में वारंट जारी किये| मामला सी बी आई को जांच हेतु दिया गया और एक सप्ताह में जांच रिपोर्ट भी आ गयी थी किन्तु मामले में परीक्षण उच्चतम न्यायालय में आज तक लंबित है|    

ऐसे ही एक मामले में कलकता उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने पश्चिम बंगाल की ज्योति बासु सरकार के पक्ष में एक आदेश जारी करके उपकृत किया और बदले में उसी दिन आवेदन कर मुख्य मंत्री के विवेकाधिकार कोटे से साल्ट लेक में सस्ती दर पर एक प्लाट आवंटित करवा लिया| मामले की फ़ाइल को भी न्यायाधीश ने अपने पास रख लिया और कोई भी नागरिक फ़ाइल से कोई नकल तक नहीं ले सका| न्यायाधीश महोदय के सेवानिवृत होने तक 12 वर्ष तक फ़ाइल उनके कब्जे में रही| यदपि यह प्रथम दृष्टया व्यक्तिगत लाभ के लिए पद के स्पष्ट दुरूपयोग का मामला था| इस प्रसंग में कलकता उच्च न्यायाल में भी रिट लगाई गयी किन्तु उसमें याची को कोई राहत नहीं मिली| मामला उच्चतम न्यायालय पहुंचा और उच्चतम न्यायालय ने मात्र प्लाट का आवंटन को रद्द करने का प्रभाव रखने वाला ही आदेश दिया जिससे  मिला अनुचित लाभ सरकार को लौटाना पड़े किन्तु पद के दुरूपयोग के लिए कोई दांडिक कार्यवाही के आदेश नहीं  दिए गये| यद्यपि मामले में स्वयं उच्चतम न्यायालय ने कहा कि हमें स्मरण रखना चाहिए कि बाहरी तूफ़ान की बजाय अन्दर के कथफोड़ों से अधिक ख़तरा है|

राज्य सभा सदस्य रशीद मसूद को एम बी बी एस सीटों के आवंटन में गड़बड़ी के आरोप में दोषी मानते हुए हाल ही में सजा सुनाई गयी है| लगभग ऐसा ही एक मामला  महाराष्ट्र राज्य में वर्ष 1985 में हुआ था जिसमें एम डी की प्रवेश परीक्षा में उत्तर पुस्तिका से छेड़छाड़ कर महाराष्ट्र के मुख्य मंत्री के रिश्तेदारों को बम्बई विश्वविद्यालय में प्रवेश दिलाकर उपकृत किया गया था| परिणामत: अन्य पात्र सामान्य डॉक्टर एम डी में प्रवेश से वंचित हो गये थे| कालान्तर में मामला उच्चतम न्यायालय तक पहुंचा और उच्चतम न्यायालय ने पाया कि इस बात में  काफी सशक्त संदेह है कि श्री पाटिल या उसके चहेतों को प्रसन्न करने के लिए गड़बड़ी की गयी और गड़बड़ी साबित है| गड़बड़ी से लाभ मिलने वालों की रिश्तेदारी भी साबित है| मुख्य मंत्री द्वारा सार्वजनिक जांच समिति के सामने उपस्थिति से इन्कारी भी रिकार्ड पर है| न्यायालय ने आगे कहा कि मुख्यमंत्री की पुत्री जो पहले 3 बार अनुतीर्ण हो चुकी थी को उत्तीर्ण करवाने के लिए प्रयास किया गया| फिर भी उच्चतम न्यायालय ने मामले में आपराधिक कार्यवाही करने का कोई आदेश नहीं दिया|   

उक्त कथानक तो भारतीय न्यायतंत्र का, महासागर में तैरते हिमखंड के दिखाई देने वाले भाग की तरह, एक अंश मात्र है| अमेरिका में न्यायपालिका की वास्तविक स्थिति जानने के लिए सरकारें निजी संस्थाओं से सर्वेक्षण करवाती हैं और उसके आधार पर सरकारें न्यायिक सुधार की रूपरेखा तैयार करती हैं| यदि यही प्रक्रिया भारत में भी अपनाई जाये तो दूध का दूध और पानी का पानी हो सकता है| जिम्मेदार पत्रकारिता जगत यह कार्य भारत में भी स्वत: कर सकता है क्योंकि उसके पास आवश्यक नेटवर्क भी है| अब उक्त तथ्यों के आधार पर विद्वान पाठक ही अनुमान लगाएं कि देश की न्यायपालिका उनकी आशाओं और अपेक्षाओं पर कितनी खरी उतर रही है व कितनी स्वतंत्र, निष्पक्ष, तटस्थ और दबावमुक्त है| स्वयं प्रज्ञावान नागरिक यह भी मूल्यांकन करें कि न्याय का तराजू कितना संतुलित है और हमारा गणतन्त्र मात्र सीमा पर ही नहीं अंदर से कितना सुरक्षित है |

जय हिन्द ! ....

Wednesday 18 December 2013

गृह मंत्रालय सरकार एक प्रमुख अंग है जो मुख्य रूप से पुलिस से सम्बन्ध रखता है व  पुलिस ज्यादतियों से सम्बंधित शिकायतों पर समुचित कार्यवाही करने का दायित्व मंत्रालय पर है| किन्तु व्यवहार में पाया गया है कि स्वतंत्रता के बाद भी पुलिस के रवैये में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है| देश में पुलिस बलों का गठन यद्यपि जनता की सुरक्षा के लिए किया गया है किन्तु देश की पुलिस आज भी अपने कर्कश स्वर का प्रयोग जनता को भयभीत करने के लिये ही कर रही है परिणामत: देश का पुलिस संगठन अपराधियों का मित्र और आम नागरिक के दुश्मन की तरह देखा जाता है| आज भी आम नागरिक पुलिस से दूर ही रहना चाहता है|
मंत्रालय भी अपने कर्तव्यों में घोर विफल है और पुलिस अभी भी बेलगाम है तथा पुलिस बल का उपयोग आमजन की सुरक्षा की बजाय मात्र (आर्थिक या राजनैतिक) सतासीन लोगों की रक्षा के लिए हो रहा है| इस स्थिति पर दृष्टिपात करें तो ज्ञात होता है कि स्वयं केन्द्रीय गृह मंत्रालय में 20 से अधिक पुलिस अधिकारी नियुक्त/प्रतिनियुक्त हैं जो गृह मंत्रालय सचिवालय की कार्यशैली व संस्कृति को अपदूषित कर रहे हैं| राज्यों की स्थिति भी लगभग समान ही है| इससे यह गृह मंत्रालय कम और पुलिस मंत्रालय ज्यादा नजर आता है| मैं अपने अनुभव से यह बात स्पष्ट तौर पर कह सकता हूँ कि सम्पूर्ण देश के पुलिस बलों में निष्ठावन और योग्य व्यक्ति मिलने कठिन है | देश के पुलिस बलों का वातावरण ही ऐसा है कि वहां कोई भी निष्ठावान  व्यक्ति टिक नहीं सकता| जो लोग आज पुलिस बलों में टिके हुए हैं वे सभी अपने कर्तव्यों और जनता के प्रति निष्ठावान के स्थान पर अपने वरिष्ठ अधिकारियों और राजनेताओं के स्वामिभक्त अधिक हैं और उनके प्रसाद स्वरुप ही पदोन्नतियाँ और पदक पा रहे हैं| यदि कोई निष्ठावान व्यक्ति भ्रान्तिवश इस बल में भर्ती हो भी जाए तो उसे भीरु बनकर पुलिस की अस्वस्थ परम्पराओं को निभाना पडेगा या पुलिस सेवा छोडनी पड़ेगी| यदि एक व्यक्ति सर्वगुण  सम्पन्न होते हुए भीरु हो तो उसके सभी गुण निरुपयोगी हैं क्योंकि वह उनका कोई उपयोग नहीं कर सकता|
पुलिस के विरुद्ध आने वाली समस्त शिकायतों में दोषी पुलिस अधिकारी का बचाव करने के लिए गृह मंत्रालय में पर्याप्त पुलिस अधिकारी लगा रखे हैं| ऐसी स्थिति में पुलिस सुधार की कोई भी आशा करना ही व्यर्थ है| गृह मंत्रालय में इन पुलिस अधिकारियों को लगाने से कोई जन अभिप्राय: सिद्ध नहीं होता क्योंकि जो पुलिस वाले अपने कार्यक्षेत्र में रहते हुए पुलिस को जनोंन्मुखी नहीं बना सके वे मंत्रालय में किस प्रकार सहायक हो सकते हैंयदि देश का पुलिस बल निष्ठा पूर्वक कार्य करता तो शायद नीतिनिर्माण के अतिरिक्त गृह मंत्रालय की कोई आवश्यकता ही नहीं रहती और जितना बड़ा गृह मंत्रालय का बीड़ा है उसका एक चौथाई ही पर्याप्त रहता|  

वैसे भी पुलिस तो जनता की सुरक्षा के लिए क्षेत्र में कार्य करने वाला बल जिसका कार्यालयों में कोई कार्य नहीं है| सभी स्तर के पुलिस अधिकारियों को कार्यक्षेत्र में भेजा जाना चाहिए और उन्हें, अपवादों को छोड़कर, हमेशा ही चलायमान ड्यूटी पर रखा जाना चाहिए| आज संचार के उन्नत साधन हैं अत: आवश्यकता होने पर किसी भी पुलिस अधिकारी से कभी भी कहीं भी संपर्क किया जा सकता है व आमने सामने बात की जा सकती है और पुलिस चलायमान ड्यूटी पर होते हुए भी कार्यालय का कामकाज देख सकती है|
वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को यह भी निर्देश हो को वे पुलिस थानों के कार्यालय की बजाय जनता से संपर्क कर निरीक्षण रिपोर्ट बनाएं| पुलिस का कार्य विशुद्ध रूप से जनता को सुरक्षा उपलब्ध करवाना और कानून-व्यवस्था बनाए रखना है, किसी भी प्रकार से प्रशासन में हस्तक्षेप करना उनका कार्य नहीं है| पुलिस को वैसे भी सचिवालय में कार्य करने का कोई प्रशिक्षण नहीं होता अपितु शस्त्र चलाने, कानून-व्यवस्था का ही प्रशिक्षण दिया जाता है अत: सचिवालय के लिए पुलिस का कोई उपयोग न्यायोचित नहीं है| सचिवालय को, जो पुलिस अधिकारी कहीं पर उपयुक्त न हों, ऐसे नाकाम पुलिस अधिकारियों की शरण स्थली नहीं बनाया जाए

वास्तव में देखा जाये तो वर्दी में छिपे अपराधी ही आज समाज के लिए सबसे बड़ा ख़तरा हैं| अतेव गृह मंत्रालय को पुलिस प्रभाव से पूर्णतया मुक्त कर गृह मंत्रालय का शुद्धिकरण किया जाये, पुलिस को अपने कार्य क्षेत्र में भेजा जायऔर प्रत्यक्ष सुरक्षा के अतिरिक्त किसी भी पुलिस अधिकारी को गृह मंत्रालय में नियुक्ति अथवा प्रतिनियुक्ति पर नहीं रखा जाए|  

आपराधिक मामलों में पुलिस जांच अपराधी को कम और पीड़ित को ज्यादा दुःख देने वाली होती है| यहाँ तक की पुलिस द्वारा जांच में, निर्धारित नियमों से विपरीत प्रक्रिया अपनाई जाती है| यद्यपि पुलिस को अपराध की सूचना मिलने पर तुरंत घटना स्थल पर जाकर प्रमाणों को सुरक्षित करना चाहिये और अपराधी का पक्ष जानना  चाहिए किन्तु पुलिस ठीक इसके विपरीत, पहले पीड़ित के बयान लेती है और अक्सर पीड़ित को धमकाकार उसे मामला वापिस लेने के लिए दबाव बनाती है| जबकि यदि पुलिस पहले अपराधी के बयान ले और बाद में इन बयानों के आधार पर पीड़ित के बयान ले तो पीड़ित पक्षकार, अपराधी के बयानों के विषय में, और बेहतर स्पष्टीकरण  दे सकता है और पीड़ित के बयान तो स्वयम ऍफ़ आई आर या न्यायालय के माध्यम से प्राप्त परिवाद में पहले से ही होते हैं| इससे स्थिति प्रारम्भिक स्तर पर ही अधिक स्पष्ट हो सकेगी| पुलिस अनुसन्धान का अभिप्राय किसी पक्ष को पीड़ा पहुंचाना न होकर दोनों पक्षों को सुनकर निष्पक्ष तथ्यात्मक रिपोर्ट तैयार करना है  जबकि पुलिस द्वारा मनमानी प्रक्रिया अपनाई जाती| आश्चर्य होता जब कई बार पुलिस किसी अभियुक्त की लम्बी अवधि के लिए रिमांड की मांग करती है वहीं कई बार अभियुक्त से कोई पूछताछ किये बिना ही उसे दोषी मान बैठती है|  

जनता की पुलिस के प्रति शिकायतों में भी कोई कमी नहीं आयी है और पुलिस वालों को यह विश्वास है  कि वे चाहे जो करें उनका कुछ भी बिगड़ने वाला नहीं है| आंकड़े बताते हैं कि वर्ष भर में पुलिस के विरुद्ध प्राप्त होने वाली शिकायतों में मुश्किल से मात्र 1 प्रतिशत में ही कोई कार्यवाही होती है क्योंकि  इन शिकायतों की जांच किसी पुलिस अधिकारी के द्वारा ही की जाती है| आखिर वे अपनी  बिरादरी के विरुद्ध कोई कदम कैसे उठा सकते हैं? अत: यह व्यवस्था की जाए कि भविष्य में किसी भी पुलिसवाले चाहे किसी भी स्तर का क्यों न हो, के विरुद्ध जांच पुलिस द्वारा नहीं की जायेगी| अब तक की प्रवृति के अनुसार देश में जांचें दोषियों को बचाने के लिए की जाती रही हैं न कि दोषी का दायित्व निश्चित करने के लिए| मैं एक उदाहरण से आपको यह स्पष्ट करना चाहूंगा| एक बार ट्रेन के कुछ डिब्बे पटरी से उतर गए तो जांच के लिए इंजीनियर आये और डिब्बे वाले इंजीनियरों ने रिपोर्ट दी कि पटरी का अलायन्मेंट सही नहीं था और पटरी वाले इंजीनियरों का कहना था कि डिब्बे के पहियों का अलायन्मेंट ठीक नहीं था किन्तु किसी ने भी अपने विभाग को सही और दुरस्त होने या सही नहीं होने पर कोई टिपण्णी नहीं कीआज हमारी सरकारें इस प्रकार के छद्म बहानों की तामीर पर ही चल रही हैं और जांचों में मुख्य मुद्दे से हटकर ही कोई निष्कर्ष निकाला जाता है जिससे दोषियों को फलने फूलने का अवसर मिल रहा है और देश में दोषी लोक सेवक रक्तबीज की तरह बढ़ रहे हैं
अनुसन्धान में अग्रसर होने के लिए पुलिस तुरंत अपराधी का पक्ष जाने और पहले पीड़ित के बयान लेने में अनावश्यक समय बर्बाद नहीं करे क्योंकि जांच का उद्देश्य अभियुक्त की गिरफ्तारी के मजबूत आधार तैयार करना नहीं होकर सत्य का पता लगाना है|   न ही अभियुक्त की गिरफ्तारी न्याय का अंतिम लक्ष्य है|

दंड प्रक्रिया संहिता एवं पुलिस नियमों में पुलिस हैड कांस्टेबल को पुलिस थाना के प्रभारी की शक्तियां दी  हुई हैं  अत: निरीक्षक का हमेशा थाने पर उपस्थित रहना आवश्यक नहीं और एफ आई आर दर्ज करने के लिए हैड कांस्टेबल को किसी प्रशासनिक आदेश की भी आवश्यकता नहीं है क्योंकि वह कानून द्वारा ऐसा करने के लिए पहले से ही सशक्त है और कोई भी पुलिस अधिकारी कानून से ऊपर नहीं है|  जरूरत है पुलिस की कार्य शैली और भूमिका में जनानुकूल परिवर्तन कर इसे एक नई दिशा दी जाए |

वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को दिन-रात हर समय जनता के लिए आसानी से सुलभ होना चाहिए

अपने मातहत पुलिसकर्मियों के खिलाफ प्राप्त दुर्व्यवहार की सभी शिकायतों, आदि की  तुरंत जांच एक राजपत्रित अधिकारी द्वारा करवाया जाना  जिला अधीक्षक के महत्वपूर्ण कर्तव्यों में से एक होना चाहिए और की गई कार्रवाई के संबंध शिकायतकर्ताओं को सूचना भेजी जानी चाहिए| इसके अलावा, वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को  दिन-रात हर समय जनता के लिए आसानी से सुलभ होना चाहिए |पुलिस अधिकारियों की दक्षता को पहचानने के लिए उन पर अनुचित बल प्रयोग जैसी अवांछनीय प्रथाओं- अपराध के गैर पंजीकरण या न्यूनतम पंजीकरण , निर्दोष व्यक्तियों को दंड प्रक्रिया संहिता या विशेष अधिनियमों आदि में निवारक धारा में फांसने के विभिन्न प्रकार के लिए प्रेरित किये जाने को अस्वस्थ मान्यता प्राप्त हो रही है| वरिष्ठ अधिकारियों को आंकड़ों से जल्दबाजी में कोई निष्कर्ष नहीं निकालने  का परिवेश बनाना चाहिए| वे अपराध के  पूर्ण और सही पंजीकरण के लिए प्रोत्साहित करें,  और एक अच्छा सांख्यिकीय रिकॉर्ड बनाने के लिए निर्दोष व्यक्तियों को फंसाने के किसी भी प्रयास के साथ सख्ती से निपटें| हमारे लिए यह विशेष चिंता का विषय है कि यह बात विशेष रूप से समाज के गरीब और कमजोर वर्गों को प्रतिकूल प्रभावित करता है| बेहतर प्रशिक्षण, शिकायतों का गहन पर्यवेक्षण और तुरंत ध्यान से जांच अधिकारी को कदाचारों से दूर रखने और पुलिस के कामकाज के तरीकों में अधिक से अधिक जनता के विश्वास को बढ़ावा मिलेगा| मौजूदा आपराधिक कानून के तहत अपराधों के  संज्ञेय और गैर संज्ञेय के रूप में वर्गीकरण पुलिस की छवि को प्रतिकूल प्रभावित करता है क्योंकि संज्ञेय क्षेत्र तक  ही पुलिस सेवा सीमित है| इस तरह के वर्गीकरण से सबसे अधिक समाज के गरीब और कमजोर वर्गों के लोग प्रभावित होते हैं जिनके पास अदालत में जाने के लिए अपने संसाधन या समय नहीं होता है| एक ओर जहां पुलिस से हमारे कल्याणकारी  लोकतंत्र की प्रोन्नति की भूमिका अदा करने की उम्मीद कर रहे हैं तो  गैर संज्ञेय मामलों में उल्लंघन के खिलाफ सकारात्मक या तत्काल कार्रवाई के लिए पुलिस को स्वयं कार्यवाही से रोके जाने से प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है | इस तरह के विभेद  का एक मुश्त उन्मूलन व्यावहारिक नहीं है, लेकिन सरकार को जल्द से जल्द इस समस्या पर विचार करना चाहिए |पुलिस को समाज कल्याण कानून के प्रवर्तन के लिए जिम्मेदार होना चाहिए | वे समुदाय के कमजोर वर्गों के कल्याण के लिए अपनी प्रतिबद्धता की भावना के साथ इस कार्य को पूरा किये बिना बहुसंख्य लोगों के सामने खुद की  अच्छी छवि पेश नहीं कर सकते | इस प्रक्रिया में पुलिस की  विस्तृत भागीदारी से उनकी ताकत बढ़ाने की जरूरत होगी | सामाजिक सुरक्षा कार्य में भी पुलिस की अधिक से अधिक भागीदारी होनी चाहिए|छात्र समुदाय के साथ संपर्क पुलिस जनता के संबंधों में एक बहुत ही संवेदनशील और नाजुक मामला है| बड़े शहरों और विश्वविद्यालयों में छात्र समस्याओं से निपटने के लिए पुलिस अधिकारियों को विशेष रूप से चयनित और प्रशिक्षित किया और उन्हें विश्वविद्यालय संकाय और छात्र समुदाय दोनों के साथ निकट संपर्क का विकास करना चाहिए| माध्यमिक स्कूलों में छात्र समुदाय के साथ खेलकूद, विभिन्न मुद्दों पर स्कूल कार्यों और एक साथ बैठकों में भागीदारी के माध्यम से संपर्क स्थापित किया जाना चाहिए | वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को इस संबंध में एक मिसाल कायम करनी  है और स्वतंत्र रूप से छात्र समुदाय के साथ घुलमिल जाने के लिए और, यातायात जैसे पुलिस कर्तव्यों में, जितना संभव हो सके, स्कूलों आदि के पास  भीड़ नियंत्रण  आदि में उन्हें सक्रिय रूप से शामिल करने के लिए प्रयास करने के लिए अपने अधीनस्थ अधिकारियों को प्रोत्साहित करना चाहिए| उन्हें  सीमाओं आदि की पुलिस चौकसी, सड़क , सुरक्षा , अपराध की रोकथाम के उपायों के नियम जैसे विषयों पर फिल्म शो के साथ वार्ता करने के लिए कभी कभी स्कूलों और कॉलेजों का दौरा करना चाहिए|युवा स्कूल के लिए पाठ्य पुस्तकों में पुलिसकर्मी द्वारा लोगों को मदद जैसे  अध्याय शामिल करना चाहिए | पुलिस जनता की भलाई के लिए क्या करती है या क्या कर सकती है की एक उद्देश्यपरक तस्वीर प्रस्तुत करने में सहायता के लिए  साहित्यकारों, पत्रकारों और फिल्म निर्माताओं के साथ वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को मुक्त रूप से रूप से घुलना मिलना चाहिए | पुलिस महानिदेशक को काम के विभिन्न पहलुओं के बारे में लेख लिखने के लिए और उनकी कठिनाइयों को दूर करने के लिए और उपलब्धियों को प्रसारित करने के लिए प्रसिद्ध व्यक्तियों को आमंत्रित करने की संभावना तलाशनी चाहिए | उपयुक्त पुस्तकें नाटक और दस्तावेजी फ़िल्में भी जनता के आकलन में पुलिस छवि को ऊपर उठाने में महत्वपूर्ण योगदान कर सकती हैं| हमलों और अन्य आंदोलनकारी गतिविधियों से निपटने में पुलिस कार्रवाई से भी लोगों के बड़े वर्गों के साथ गलत समझ और तनावपूर्ण संबंधों के लिए जिम्मेदार है| ऐसे अवसरों पर पुलिस को तटस्थता का परिचय देना चाहिये और यह स्पष्ट किया जाना चाहिए कि पुलिस हिंसा और शांति के उल्लंघनों को रोकने के लिए ही मौके पर मौजूद है  व  किसी भी पार्टी का साथ देने के लिए नहीं | ऐसे दृष्टिकोण को विकसित किया जाना चाहिए कि अक्सर बिगड़ी हुई परिस्थितियों को बल प्रयोग के बिना हल किया जा सकता है| धैर्य और समझदारी के दृष्टिकोण को अपनाया जाना चाहिए| दोनों के बीच अपर्याप्त या प्रतिबंधित  संचार से लोगों और पुलिस के बीच की खाई बढ़ी  है | लोगों की सेवा में पुलिस द्वारा किए गए कई महत्वपूर्ण योगदान को अक्सर जनता नहीं जानती है | पुलिस अधिकारियों को पुलिस विभाग की गतिविधियों के बारे में जनता के लिए उद्देश्यपरक  जानकारी प्रस्तुत करने से  यह संभव है | समान रूप से यह भी आवश्यक है कि लोगों को यह बताया जाए कि वे  सामाजिक सुरक्षा के लिए क्या करें व क्या न करें और वे किन तरीकों तथा साधनों से पुलिस के लिए महत्वपूर्ण  योगदान दे सकते हैं| पुलिस अधीक्षक द्वारा  जिले , उप – खंड और पुलिस थाना स्तर पर समुदाय और अन्य सम्मानित व्यक्तियों की विभिन्न व्यावसायिक समूहों के प्रतिनिधियों से मिलकर नागरिक समितियों के गठन का प्रयोग उपयोगी हो सकता है |


Friday 6 December 2013

यदि देश का पुलिस बल निष्ठा पूर्वक कार्य करता तो शायद नीतिनिर्माण के अतिरिक्त गृह मंत्रालय की कोई आवश्यकता ही नहीं रहती

गृह मंत्रालय सरकार एक प्रमुख अंग है जो मुख्य रूप से पुलिस से सम्बन्ध रखता है व  पुलिस ज्यादतियों से सम्बंधित शिकायतों पर समुचित कार्यवाही करने का दायित्व मंत्रालय पर है| किन्तु व्यवहार में पाया गया है कि स्वतंत्रता के बाद भी पुलिस के रवैये में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है| देश में पुलिस बलों का गठन यद्यपि जनता की सुरक्षा के लिए किया गया है किन्तु देश की पुलिस आज भी अपने कर्कश स्वर का प्रयोग जनता को भयभीत करने के लिये ही कर रही है परिणामत: देश का पुलिस संगठन अपराधियों का मित्र और आम नागरिक के दुश्मन की तरह देखा जाता है| आज भी आम नागरिक पुलिस से दूर ही रहना चाहता है|
मंत्रालय भी अपने कर्तव्यों में घोर विफल है और पुलिस अभी भी बेलगाम है तथा पुलिस बल का उपयोग आमजन की सुरक्षा की बजाय मात्र (आर्थिक या राजनैतिक) सतासीन लोगों की रक्षा के लिए हो रहा है| इस स्थिति पर दृष्टिपात करें तो ज्ञात होता है कि स्वयं केन्द्रीय गृह मंत्रालय में 20 से अधिक पुलिस अधिकारी नियुक्त/प्रतिनियुक्त हैं जो गृह मंत्रालय सचिवालय की कार्यशैली व संस्कृति को अपदूषित कर रहे हैं| राज्यों की स्थिति भी लगभग समान ही है| इससे यह गृह मंत्रालय कम और पुलिस मंत्रालय ज्यादा नजर आता है| मैं अपने अनुभव से यह बात स्पष्ट तौर पर कह सकता हूँ कि सम्पूर्ण देश के पुलिस बलों में निष्ठावन और योग्य व्यक्ति मिलने कठिन है | देश के पुलिस बलों का वातावरण ही ऐसा है कि वहां कोई भी निष्ठावान  व्यक्ति टिक नहीं सकता| जो लोग आज पुलिस बलों में टिके हुए हैं वे सभी अपने कर्तव्यों और जनता के प्रति निष्ठावान के स्थान पर अपने वरिष्ठ अधिकारियों और राजनेताओं के स्वामिभक्त अधिक हैं और उनके प्रसाद स्वरुप ही पदोन्नतियाँ और पदक पा रहे हैं| यदि कोई निष्ठावान व्यक्ति भ्रान्तिवश इस बल में भर्ती हो भी जाए तो उसे भीरु बनकर पुलिस की अस्वस्थ परम्पराओं को निभाना पडेगा या पुलिस सेवा छोडनी पड़ेगी| यदि एक व्यक्ति सर्वगुण  सम्पन्न होते हुए भीरु हो तो उसके सभी गुण निरुपयोगी हैं क्योंकि वह उनका कोई उपयोग नहीं कर सकता|
पुलिस के विरुद्ध आने वाली समस्त शिकायतों में दोषी पुलिस अधिकारी का बचाव करने के लिए गृह मंत्रालय में पर्याप्त पुलिस अधिकारी लगा रखे हैं| ऐसी स्थिति में पुलिस सुधार की कोई भी आशा करना ही व्यर्थ है| गृह मंत्रालय में इन पुलिस अधिकारियों को लगाने से कोई जन अभिप्राय: सिद्ध नहीं होता क्योंकि जो पुलिस वाले अपने कार्यक्षेत्र में रहते हुए पुलिस को जनोंन्मुखी नहीं बना सके वे मंत्रालय में किस प्रकार सहायक हो सकते हैंयदि देश का पुलिस बल निष्ठा पूर्वक कार्य करता तो शायद नीतिनिर्माण के अतिरिक्त गृह मंत्रालय की कोई आवश्यकता ही नहीं रहती और जितना बड़ा गृह मंत्रालय का बीड़ा है उसका एक चौथाई ही पर्याप्त रहता|  

वैसे भी पुलिस तो जनता की सुरक्षा के लिए क्षेत्र में कार्य करने वाला बल जिसका कार्यालयों में कोई कार्य नहीं है| सभी स्तर के पुलिस अधिकारियों को कार्यक्षेत्र में भेजा जाना चाहिए और उन्हें, अपवादों को छोड़कर, हमेशा ही चलायमान ड्यूटी पर रखा जाना चाहिए| आज संचार के उन्नत साधन हैं अत: आवश्यकता होने पर किसी भी पुलिस अधिकारी से कभी भी कहीं भी संपर्क किया जा सकता है व आमने सामने बात की जा सकती है और पुलिस चलायमान ड्यूटी पर होते हुए भी कार्यालय का कामकाज देख सकती है|
वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को यह भी निर्देश हो को वे पुलिस थानों के कार्यालय की बजाय जनता से संपर्क कर निरीक्षण रिपोर्ट बनाएं| पुलिस का कार्य विशुद्ध रूप से जनता को सुरक्षा उपलब्ध करवाना और कानून-व्यवस्था बनाए रखना है, किसी भी प्रकार से प्रशासन में हस्तक्षेप करना उनका कार्य नहीं है| पुलिस को वैसे भी सचिवालय में कार्य करने का कोई प्रशिक्षण नहीं होता अपितु शस्त्र चलाने, कानून-व्यवस्था का ही प्रशिक्षण दिया जाता है अत: सचिवालय के लिए पुलिस का कोई उपयोग न्यायोचित नहीं है| सचिवालय को, जो पुलिस अधिकारी कहीं पर उपयुक्त न हों, ऐसे नाकाम पुलिस अधिकारियों की शरण स्थली नहीं बनाया जाए

वास्तव में देखा जाये तो वर्दी में छिपे अपराधी ही आज समाज के लिए सबसे बड़ा ख़तरा हैं| अतेव गृह मंत्रालय को पुलिस प्रभाव से पूर्णतया मुक्त कर गृह मंत्रालय का शुद्धिकरण किया जाये, पुलिस को अपने कार्य क्षेत्र में भेजा जायऔर प्रत्यक्ष सुरक्षा के अतिरिक्त किसी भी पुलिस अधिकारी को गृह मंत्रालय में नियुक्ति अथवा प्रतिनियुक्ति पर नहीं रखा जाए|  

आपराधिक मामलों में पुलिस जांच अपराधी को कम और पीड़ित को ज्यादा दुःख देने वाली होती है| यहाँ तक की पुलिस द्वारा जांच में, निर्धारित नियमों से विपरीत प्रक्रिया अपनाई जाती है| यद्यपि पुलिस को अपराध की सूचना मिलने पर तुरंत घटना स्थल पर जाकर प्रमाणों को सुरक्षित करना चाहिये और अपराधी का पक्ष जानना  चाहिए किन्तु पुलिस ठीक इसके विपरीत, पहले पीड़ित के बयान लेती है और अक्सर पीड़ित को धमकाकार उसे मामला वापिस लेने के लिए दबाव बनाती है| जबकि यदि पुलिस पहले अपराधी के बयान ले और बाद में इन बयानों के आधार पर पीड़ित के बयान ले तो पीड़ित पक्षकार, अपराधी के बयानों के विषय में, और बेहतर स्पष्टीकरण  दे सकता है और पीड़ित के बयान तो स्वयम ऍफ़ आई आर या न्यायालय के माध्यम से प्राप्त परिवाद में पहले से ही होते हैं| इससे स्थिति प्रारम्भिक स्तर पर ही अधिक स्पष्ट हो सकेगी| पुलिस अनुसन्धान का अभिप्राय किसी पक्ष को पीड़ा पहुंचाना न होकर दोनों पक्षों को सुनकर निष्पक्ष तथ्यात्मक रिपोर्ट तैयार करना है  जबकि पुलिस द्वारा मनमानी प्रक्रिया अपनाई जाती| आश्चर्य होता जब कई बार पुलिस किसी अभियुक्त की लम्बी अवधि के लिए रिमांड की मांग करती है वहीं कई बार अभियुक्त से कोई पूछताछ किये बिना ही उसे दोषी मान बैठती है|  

जनता की पुलिस के प्रति शिकायतों में भी कोई कमी नहीं आयी है और पुलिस वालों को यह विश्वास है  कि वे चाहे जो करें उनका कुछ भी बिगड़ने वाला नहीं है| आंकड़े बताते हैं कि वर्ष भर में पुलिस के विरुद्ध प्राप्त होने वाली शिकायतों में मुश्किल से मात्र 1 प्रतिशत में ही कोई कार्यवाही होती है क्योंकि  इन शिकायतों की जांच किसी पुलिस अधिकारी के द्वारा ही की जाती है| आखिर वे अपनी  बिरादरी के विरुद्ध कोई कदम कैसे उठा सकते हैं? अत: यह व्यवस्था की जाए कि भविष्य में किसी भी पुलिसवाले चाहे किसी भी स्तर का क्यों न हो, के विरुद्ध जांच पुलिस द्वारा नहीं की जायेगी| अब तक की प्रवृति के अनुसार देश में जांचें दोषियों को बचाने के लिए की जाती रही हैं न कि दोषी का दायित्व निश्चित करने के लिए| मैं एक उदाहरण से आपको यह स्पष्ट करना चाहूंगा| एक बार ट्रेन के कुछ डिब्बे पटरी से उतर गए तो जांच के लिए इंजीनियर आये और डिब्बे वाले इंजीनियरों ने रिपोर्ट दी कि पटरी का अलायन्मेंट सही नहीं था और पटरी वाले इंजीनियरों का कहना था कि डिब्बे के पहियों का अलायन्मेंट ठीक नहीं था किन्तु किसी ने भी अपने विभाग को सही और दुरस्त होने या सही नहीं होने पर कोई टिपण्णी नहीं कीआज हमारी सरकारें इस प्रकार के छद्म बहानों की तामीर पर ही चल रही हैं और जांचों में मुख्य मुद्दे से हटकर ही कोई निष्कर्ष निकाला जाता है जिससे दोषियों को फलने फूलने का अवसर मिल रहा है और देश में दोषी लोक सेवक रक्तबीज की तरह बढ़ रहे हैं
अनुसन्धान में अग्रसर होने के लिए पुलिस तुरंत अपराधी का पक्ष जाने और पहले पीड़ित के बयान लेने में अनावश्यक समय बर्बाद नहीं करे क्योंकि जांच का उद्देश्य अभियुक्त की गिरफ्तारी के मजबूत आधार तैयार करना नहीं होकर सत्य का पता लगाना है|   न ही अभियुक्त की गिरफ्तारी न्याय का अंतिम लक्ष्य है|

दंड प्रक्रिया संहिता एवं पुलिस नियमों में पुलिस हैड कांस्टेबल को पुलिस थाना के प्रभारी की शक्तियां दी  हुई हैं  अत: निरीक्षक का हमेशा थाने पर उपस्थित रहना आवश्यक नहीं और एफ आई आर दर्ज करने के लिए हैड कांस्टेबल को किसी प्रशासनिक आदेश की भी आवश्यकता नहीं है क्योंकि वह कानून द्वारा ऐसा करने के लिए पहले से ही सशक्त है और कोई भी पुलिस अधिकारी कानून से ऊपर नहीं है|  जरूरत है पुलिस की कार्य शैली और भूमिका में जनानुकूल परिवर्तन कर इसे एक नई दिशा दी जाए |