हमारे पवित्र
संविधान के अनुच्छेद 51क (एच )में नागरिकों
का यह मूल कर्तव्य बताया गया है कि वे वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानव वाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करे| इसी प्रकार अनुच्छेद 51 क (जे ) में कहा गया है कि नागरिक व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों
में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत प्रयास करें जिससे राष्ट्र निरंतर बढ़ते हुए प्रयत्न
और उपलब्धि की नई ऊंचाइयों को छू ले|
माननीय झारखण्ड उच्च न्यायालय में हिंदी भाषा के प्रयोग के रिट याचिका (जनहित ) संख्या
3169/2011 – भारत स्वाभिमान ट्रस्ट और पातंजलि योगपीठ बनाम भारत संघ दायर कर मांग की गयी कि उच्च न्यायलय में हिंदी
भाषा में कार्य होना चाहिए| प्रकरण में निर्णय दिनांक 02.04.2012 को प्रसारित करते हुए अन्य बातों के साथ साथ कहा है कि यद्यपि हम याची द्वारा उठाये गए बिंदुओं की
परीक्षा नहीं कर रहे हैं क्योंकि यह याचिका एक लोकप्रियता के लिए गया कृत्य है और
कुछ नहीं है और एक व्यस्त निकाय द्वारा फ़ाइल की गयी है जिसके पास कोई तथ्य और
सामग्री नहीं है| याचिका याची रुपये 10000 खर्चा लगाते हुए निरस्त की जाती
है|
राजभाषा पर संसदीय समिति ने
दिनांक 28.11.1958 को अनुशंसा की थी कि सुप्रीम कोर्ट में कार्यवाहियों की भाषा हिंदी होनी
चाहिए| स्मरणीय है कि राजभाषा अधिनियम की धारा 7 के दिनांक 7- 3- 1970 से लागू होने के साथ ही उच्च न्यायालयों के लिए वैकल्पिक
तौर पर हिंदी भाषा अनुमत हो गयी थी और यह अविभक्त बिहार राज्य में प्रवर्तमान थी|
झारखण्ड राज्य अविभक्त बिहार राज्य का ही एक अंग है अतः वहाँ पर हिंदी भाषा स्वतः
लागू हो जानी चाहिए| माननीय न्यायालय संविधान का संरक्षक है और हमारे
संविधान का अनुच्छेद 351 कहता है कि संघ
का यह कर्त्तव्य होगा कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाये, उसका विकास करे जिससे वह
भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों
की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके ....हमारा संविधान एक प्रगतिशील दस्तावेज है और यह
हमें आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है किन्तु एक बार किसी क्षेत्र विशेष में हिंदी
लागूकर उससे पीछे हटना तो संविधान विरोधी कार्य होगा| माननीय इलाहाबाद
उच्च न्यायालय ने न्यायपालिका के कर्तव्यों को रेखांकित करते हुए शेलेस्वर नाथ सिंह
के मामले के निर्णय दिनांक 11.08.1999 में कहा भी है कि प्रत्येक को समझ लेना चाहिए
कि न्यायपालिका जनता की सेवा के लिए बनाई गयी
है न कि वकीलों और न्यायाधीशों की सेवा के लिए|उच्चतम न्यायालय
के माननीय न्यायाधिपति काटजू ने एक बार कहा भी है कि लोकतंत्र में, लोग ही श्रेष्ठ हैं और
वे उच्च स्थान रखते हैं जबकि सभी (न्यायाधीशों सहित) राज्याधिकारी लोगों के सेवक
होने के नाते अश्रेष्ठ हैं|
प्रभावी जन
संचार के लिए आवश्यक है कि माननीय न्यायालय के निर्णय जनता की भाषा में हों ताकि
उनमें पारदर्शिता रहे| स्वतंत्रता के 64 वर्ष बाद भी देश के न्यायालयों की
कार्यवाहियां ऐसी भाषा में संपन्न की जा रही हैं जो 1% से भी कम लोगों द्वारा बोली जाती है| इस कारण देश के संवैधानिक
न्यायालयों के निर्णयों से अधिकांश जनता
में अनभिज्ञता व गोपनीयता, और पारदर्शिता का अभाव रहता है| सुप्रीम कोर्ट ने क्रान्ति एण्ड एसोसियेट्स
बनाम मसूद अहमद खान की अपील सं0 2042/8 के निर्णय में कहा है कि इस बात में संदेह नहीं
है कि पारदर्शिता न्यायिक शक्तियों के दुरूपयोग पर नियंत्रण है। निर्णय लेने में पारदर्शिता
न केवल न्यायाधीशों तथा निर्णय लेने वालों को गलतियों से दूर करती है बल्कि उन्हें
विस्तृत संवीक्षा के अधीन करती है। जनगणना के आंकड़ों के अनुसार देश
में 43% लोग हिंदी भाषी हैं जबकि अन्ग्रेजी भाषी लोग मात्र 0.021% ही हैं और झारखण्ड राज्य में भी अंग्रेजी भाषी लोगों का बहुमत नहीं है| इस
दृष्टिकोण से भी अत्यंत अल्पमत की और विदेशी भाषा जनता पर थोपी नहीं जानी चाहिए|
जहां तक लोकप्रियता का प्रश्न है सामान्यतया सभी लोग
लोकप्रियता की चाहत रखते हैं और यहाँ तक कि जो लोग संसार छोड़कर सन्यासी बन गए हैं
वे भी इससे अछूते नहीं हैं| प्रस्तुत प्रकरण में तो याची ने संविधान के अनुच्छेद 351 में समाहित संघ के कर्तव्यों की पूर्ति में अपने विवेक के
अनुसार में योगदान देने का प्रयास किया है| एक व्यक्ति या संस्था यदि जनहित की
मामले में अपने स्वयं के व्यय से संविधान सम्मत कार्यकर किसी प्रकार की लोकप्रियता
की अपेक्षा करे तो उसे अनुचित नहीं कहा जा सकता| देश के माननीय न्यायालय एक ओर
जनहित के मुद्दों को लोकप्रियता हेतु
उठाया गया कदम बताकर जनता द्वारा दायर याचिकाएं निरस्त करें और दूसरी ओर संचार
माध्यमों में प्रकट विषय-वस्तु के आधार पर स्वप्रेरणा से संज्ञान लें तो न्यायालय
का मंतव्य चाहे कुछ भी रहा हो इससे न्यायाधीश और उस संचार माध्यम की लोकप्रियता
में स्वतः वृद्धि होती है|
उपरोक्त
परिस्थितियों और तथ्यों के सन्दर्भ में माननीय झारखण्ड उच्च न्यायालय का उक्त
निर्णय मेरी विनम्र राय में संविधान और जनतांत्रिक मूल्यों के अनुकूल नहीं है| प्रत्येक
विवेकी शक्ति के प्रयोग का आधार जनहित प्रोन्नति होना चाहिए विशेषतः जब यह अहम प्रश्न
संविधान के संरक्षक उच्च न्यायालय के सामने हो| इसी प्रसंग में माननीय उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने राज्य उपभोक्ता प्रतितोष
आयोग बनाम उत्तराखंड राज्य सूचना आयोग के प्रकरण में दिनांक 27.3.2010 को निर्णय घोषित करते हुए कहा है, “ लोगों द्वारा
बोली जाने वाली भाषा उनकी संस्कृति और पहचान की सूचक है| यह राष्ट्र और राज्य की
पहचान के लिए महतवपूर्ण है| न केवल संघ अपितु उत्तराखंड राज्य की राज भाषा हिंदी
है|...किन्तु संविधान के लागू होने के साठ वर्ष बाद किसी लोक प्राधिकारी के दिमाग में राज्य की राज
भाषा के विषय में कोई संदेह नहीं रहना चाहिए| “
माननीय
उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने आगे कहा और आदेश दिया, “चूँकि उत्तराखंड
राज्य की शासकीय भाषा हिंदी है, अत: उन्हें हिंदी में आदेश पारित करने पड़ेंगे| यदि
आदेश अंग्रेजी में पारित किये जाते हैं तो
उनके साथ अधिकृत हिंदी अनुवाद संलग्न होना चाहिए|” तदनुसार उत्तराखंड राज्य
सूचना आयोग द्वारा श्रीमती हर्षिता को राज्य उपभोक्ता प्रतितोष आयोग की अपील
संख्या 96/2008 के निर्णय का हिंदी अनुवाद उपलब्ध करवाने के निर्णय की पुष्टि कर
दी गयी|