सुप्रीम कोर्ट ने अधीक्षण अभियन्ता जन स्वास्थ्य चण्डीगढ़ बनाम कुलदीप सिंह (ए.आई.आर. 1997 सु.को. 2133) के मामले में कहा है कि प्रत्येक लोक सेवक समाज का ट्रस्टी है तथा हर सूरत में प्रत्येक लोक सेवक को ईमानदारी, निश्ठा, सत्यनिश्ठा और विष्वसनीयता दिखानी है, लोक प्रषासन में उत्कर्शटता और दक्षता प्राप्त करने के लिए और राश्ट्र को एक सूत्र में बांधने के लिए संवैधानिक नीतियों, राजनैतिक, सामाजिक एवं आर्थिक तथा संवैधानिक लक्ष्यों को लागू करने के लिए संविधान में लोक सेवक पर ईमानदार प्रषासक के रूप में विष्वास किया है। यहां याची ने विष्वास भंग किया है और जननीति को निरर्थक बना दिया है। तथ्यों से यह अभिप्रायः निकलता है कि याची संवैधानिक कर्त्तव्यों की अनुपालना में विफल रहा है। संघ प्रदेष चण्डीगढ प्रषासन को मामले को देखकर सम्बन्धित चूककर्ता अधिकारियों के विरूद्ध उचित कार्यवाही करनी चाहिए तथा दो माह के भीतर इस न्यायालय की रजिस्ट्री को अनुपालना रिपोर्ट भेजनी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने बम्बई उच्च न्यायालय बनाम उदयसिंह (ए.आई.आर. 1997 सु.को. 2286) में कहा है कि संभावित घटना की अधिसंभावना और कुछ विशय वस्तु इस निश्कर्श पर पहंुचने के लिए आवष्यक है कि क्या दोशी ने दुराचरण किया है। इस न्यायालय के विभिन्न निर्णयों द्वारा स्थापित मानक के अनुसार यह देखना है क्या इस बात के साक्ष्य रिकॉर्ड पर हैं कि दोशी ने अपराध किया है और क्या एक तर्कषील मनुश्य उन परिस्थितियों में इस निश्कर्श पर न्यायोचित रूप से पहुंच सकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने पंजाब राज्य बनाम भजनसिंह प्रकरण के निर्णय दिनांक 27.02.2001 में कहा है कि कथित सचिव द्वारा कानूनी दायित्वों को पूरा करने में अकर्मण्यता और इसके स्थान पर अनुचित कार्य करना मात्र प्रत्यर्थी सं0 1 के लिए ही गंभीर नहीं है अपितु उन सब के लिए गंभीर है जो विधि के षासन और देष में लोकतांत्रिक संस्थानों के मूल्यों का संरक्षण और विकास करने में विष्वास करते हैं। कोई भी प्रयास जिससे यह निकाय कमजोर होता हो विषेशतः जब इसका इरादा समाज के सामाजिक-राजनैतिक सूत्र को प्रभावित करना हो तो यदि नियंत्रण और रोक थाम नहीं किया गया तो उससे निकाय में आफत आ जायेगी। चुनावों के द्वारा अभिव्यक्त इच्छा को किसी भी लोक सेवक को उसकी चूक या कुकृत्य द्वारा निराष करने की अनुमति नहीं दी जा सकती। सचिव की अकर्मण्यता और चूक को विधि के प्रावधानों को विफल करने का आधार नहीं बनाया जा सकता और चुनावों के माध्यम से सम्पन्न लोगों के जनादेष को उसे षून्य नहीं करने दिया जा सकता। उदाहरणात्मक खर्चे दिलवाने के लिए हम इसे उचित मामला पाते हैं और हमारा यह दृढ़ विचार है कि ऐसे खर्चे राज्य राजस्व पर भारित नहीं किये जाने चाहिए। कथित सचिव जो कि कानून के उपबन्धों का उल्लंघन और विधि के षासन की अवधारणा को कमजोर करने के लिए जिम्मेवार है वह अपनी जेब से उक्त खर्चे देने के लिए व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार है। अपील को निरस्त करते हुए हम निर्देष देते हैं कि कथित सचिव प्रत्यर्थी सं0 1 को 2 माह की अवधि में रूपये 25,000/- खर्चा भुगतान करेगा।
सुप्रीम कोर्ट ने सोमप्रकाष बनाम दिल्ली राज्य (ए.आई.आर. 1974 सु.को. 989) में कहा है कि रिष्वतें मात्र गैर कानूनी कार्य को करने के लिए ही नहीं दी जाती है अपितु कानूनी कार्य को जल्दी से करने के लिए भी दी जाती है क्यांेकि समय का अर्थ धन है। यहां हम पाते हैं कि गेट पास और फार्म पर उत्पाद षुल्क निरीक्षक के हस्ताक्षर कराने होते हैं और हस्ताक्षरों की कीमत हो सकती है। प्रत्येक पास और फार्म लालायित करता है और प्रत्येक विवेकाधिकार अनुचित मांग प्रेरित करता है। जैेेसे-जैसे नैतिक पतन होता है यह बुराई अटल हो जाती है और आदत पड़ जाती है। उत्पादक माल की जल्द बिक्री पर आश्रित होता है जो कि फॉर्मों तथा पासों पर अधिकारी के हस्ताक्षर से बाधित होती है। इसके लिए उद्देष्यपूर्ण अनिच्छा और षासकीय मन्द गति इस बात का संकेत देती है कि कागजी चिकनाई (नोटों के रूप में रिष्वत) का प्रयोग आवष्यक है जिसे कि व्यापारियों का संदिग्ध मनोबल वाला बढ़ता समूह उत्पादन लागत का अदृष्य भाग मानता है व गिरी हुई आत्मा वाले अधिकारी अनापति वाला मानते हैं जो कि बिना कर चुकाये अपनी परिलब्धियों मंे वृद्धि करता है। यहां तक कि कौटिल्य ने कहा है, ‘‘जिस तरह पानी मंे विचरण करती मछली के बारे में नहीं कहा जा सकता कि वह पानी पी रही है अथवा नहीं इसी प्रकार सरकारी कर्मचारी रिष्वत लेते नहीं देखे जाते है।’’
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