अक्सर मिडिया और अग्रणी लोगों द्वारा
प्रसारित किया जाता है कि देश के न्यायालय लोकतंत्र की रक्षा में मजबूती से खड़े
हैं किन्तु मेरे स्वतंत्र मतानुसार वास्तविक स्थिति इससे भिन्न है| भ्रष्ट और
शक्तिशालों लोगों को यदाकदा दण्डित करने मात्र से 125 करोड़ का जनतंत्र मजबूत नहीं
होता है| न्यायालयों के तो समस्त निर्णयों में प्रजातंत्र झलकना चाहिये और अपवाद
स्वरुप किसी मामले में दोषी को दण्डित करने में मानवीय चूक हो सकती है जिसे जनता
सहन-वहन कर सकती है| आज स्थिति यह है कि कार्यरत और सेवानिवृत न्यायाधीशों पर भी
नैतिक अधपतन तक के आरोप लग रहे हैं यद्यपि सेवारत न्यायाधीशों पर बहुत कम आरोप लग
रहे हैं| इसका यह कदापि अभिप्राय नहीं है कि भारत में सेवारत समस्त न्यायाधीश भले और
ईमानदार हैं अथवा रहे हैं| ऐसा नहीं है कि ये लोग आदित: सदचरित्रवान रहे हों और
कालान्तर में इनका नैतिक अधपतन हुआ हो| सेवारत होते हुए किसी न्यायाधीश पर आरोप
लगाने पर अवमान कानून का “न्यायिक आतंकवाद” की तरह प्रयोग किये जाने का जोखिम बना रहता है अत: इस
कानून के कारण नागरिक न्यायपालिका के सम्बन्ध में अपने विचार भी खुलकर अभिव्यक्त
नहीं कर पाते हैं और पीड़ित लोग न्यायाधीशों की सेवानिवृति तक आरोप लगाने का
इन्तजार करते हैं| भारत में पत्रकारों द्वारा न्यायालयों की कार्यवाहियों की
रिपोर्टिंग भी दबी जुबान से ही होती है जो प्राय: अर्द्धसत्य ही होती है| वास्तव
में भारतीय न्यायालय अवमान कानून न केवल ब्रिटेन के कानून से अश्रेष्ठ और आतंकी है
बल्कि श्रीलंका का अवमान कानून भी भारतीय कानून से श्रेष्ट है| जहाँ ब्रिटेन के
कानून में किसी न्यायाधीश पर आरोप लगाना अवमान नहीं है बल्कि किसी मामले में सीधे
अवरोध उत्पन्न करना ही अवमान है वहीं किसी मामले में झूठी गवाही देने, झूठे
साक्ष्य पेश करने जैसे मामलों में भारत में मुश्किल से ही किसी दोषी को सजा होती
है| न्यायालय अपराधियों के प्रति उदारता का परित्याग कर जिस दिन ऐसा करने लगेंगे
उस दिन रक्तबीज की तरह बढती अनावश्यक मुकदमेबाजी स्वत: ही घट जायेगी और सरकारी
अधिकारी इससे सबसे अधिक प्रभावित होंगे| ठीक इसी प्रकार श्रीलंका में अलग से कोई
अवमान कानून ही नहीं है अपितु न्यायिक कार्यवाही में अवरोध करना ही अवमान माना
जाता है| प्रथम तो भारत में कोई वकील अपवाद स्वरुप ही राजनीति या किसी राजनैतिक दल
से घनिष्ठ संपर्क से दूर है और भारत में उच्च न्यायालयों व उच्चतम न्यायालय के
न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया और उसके पैंतरों को देखने से भी यह एहसास नहीं
होता कि ये नियुक्तियां गैर-राजनैतिक ढंग से स्वच्छतापूर्वक होती हैं|
अभी हाल ही
में चारा घोटाले में लालू यादव व जगन्नाथ मिश्र को सुनाई गयी सजा (सजा भुगतेंगे
कितनी यह अभी भविष्य के गर्भ में है) से शायद देश की जनता को ऐसा भ्रम होगा कि देश
में कानून का राज है और दोषियों को बख्शा नहीं जाता| किन्तु विचारणीय है कि क्या
लालू यादव या जगन्नाथ मिश्र का यह पहला आपराधिक मामला है जहां उन्हें सजा सुनाई
गयी है| यदि नहीं तो फिर आज तक ये आजाद क्यों घूमते रहे? क्या आजादी का मतलब इतना
उदार है ? एक ओर उच्च वर्ग के अपराधी या पीड़ित के मामले में पुलिस पीछा करने या
गिरफ्तार करने के लिए हवाई यात्रा का खर्चा वहन करती है वहीं आम गवाह को बजट नहीं
होने का बहाना बनाकर बस यात्रा व भोजन व्यय का भी भुगतान नहीं करती है| सैद्धांतिक
तौर पर पुलिस पर भी न्यायपालिका का नियंत्रण बताया जाता है अत: पुलिस द्वारा ढंग
से छानबीन नहीं की जाए या अपराधियों को बचाया जाए और निर्दोष लोगों को फंसाया जाए तो
न्यायालय मूकदर्शी नहीं रह सकते| फिर अपराधी आखिर दंड से क्यों बच निकलते हैं? किसी भी अपराधी को यदि अपराध करने पर दंड नहीं
मिले तो वह दुस्साहसी हो जाता है और देश की कानून-व्यवस्था को ठेंगा दिखाता है| एक
सामान्य अपराधी जेबकाटने से प्रारम्भ कर कालांतर में चोर और डाकू बनता है| देश की
जनता जानती है कि निश्चित रूप से उक्त मामले के आरोपियों-लालू यादव व जगन्नाथ
मिश्र के ये पहले अपराध नहीं थे किन्तु आज तक दण्डित नहीं हुए फलत: ये अपराध की
दुनिया में आगे तेजी से कदम बढाते गए| बिहार राज्य की जनता तो इनके बारे में काफी
कुछ जानती है|
जगन्नाथ
मिश्र 1972 से 1974 तक बिहार में मंत्री पद पर रहे हैं और मुख्यमंत्री भी रहे हैं|
इस अवधि में भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा बिहार के सहकारिता विभाग की ऑडिट की गयी और
इस रिपोर्ट में गंभीर अनियमितताएं पायी गयी| रिपोर्ट के अनुसार अवैध ऋण वितरण,
भ्रष्टाचार और गबन भी पाया गया| जगन्नाथ मिश्र पर पुरानी तारीख में आदेश करने और रिकार्ड
में हेराफेरी करने के भी आरोप थे| मजिस्ट्रेट न्यायालय से मामले की शुरुआत हुई और परीक्षण
के दौरान मामला कई बार उच्च न्यायालय व उच्चतम न्यायालय गया| इस बीच राज्य सरकार
ने मामला वापिस लेने की अनुमति दे दी किन्तु शिवनंदन पासवान के विरोध के कारण
मामला शीघ्र बंद नहीं हो सका| मामला दुबारा उच्चतम न्यायालय के समक्ष पुनरीक्षण
याचिका के रूप में सुनवाई हेतु आया और न्यायालय के सामने प्रमुख प्रश्न था कि क्या
सरकार द्वारा आपराधिक मुकदमा वापिस लेने
का कोई नागरिक विरोध कर सकता है| न्यायालय ने इस सैद्धांतिक प्रश्न का तो
सकारात्मक जवाब दे दिया किन्तु मामले में पुन: परीक्षण के आदेश नहीं दिए और घटना
के लगभग 14 वर्ष बाद भी दोषियों के विरुद्ध परीक्षण न्यायालय में कोई प्रभावी कार्यवाही
प्रारम्भ तक न हो सकी| परिणामत: इस निर्णय का कोई वास्तविक और व्यावहारिक लाभ देश
की जनता को नहीं मिला और भरसक प्रयास के
बावजूद भ्रष्टाचार, गबन, अमानत में खयानत,
रिकार्ड में हेराफेरी का अभियुक्त न केवल दण्डित होने से बच गया बल्कि उसे एक
अभियुक्त की तरह न्यायालयी कार्यवाही का सामना तक नहीं करना पडा| कालान्तर में
जगन्नाथ मिश्र ने प्रगति की और चारा घोटाले में लिप्त हो गए और लालू यादव के साथ
उन्हें भी दोषी पाया गया है| यदि जगन्नाथ मिश्र के विरुद्ध 1980 के दशक में ही
प्रभावी कार्यवाही हो गयी होती तो शायद दुस्साहस इस स्तर तक नहीं बढ़ता|
बिहार राज्य
में ही भागलपुर में न्यायालय में बैठे न्यायाधीश पर पुलिस द्वारा हमला करने के
मामले में पटना उच्च न्यायालय ने 3 माह से भी कम अवधि में अवमान कार्यवाही के
मामले में अन्वीक्षा पूर्ण कर दोषी पुलिस कर्मियों को दण्डित कर दिया| ठीक इसी
प्रकार नडियाद (गुजरात) में मजिस्ट्रेट को जबरदस्ती शराब पिलाकर जुलूस निकालने के
मामले में अवमान कार्यवाही में उच्चतम न्यायालय ने समस्त दोषी पुलिस अधिकारियों व
झूठा प्रमाण पत्र देने वाले डॉक्टर को भी दण्डित कर दिया| किन्तु देश की जनता का
मानना है कि जब यही प्रश्न किसी दोषी न्यायिक अधिकारी को दण्डित करने के सम्बन्ध
में उठता है तो भारत के न्यायाधीशों का रुख भिन्न पाया जाता है| लगभग 10 वर्ष
पूर्व अहमदाबाद के एक मजिस्ट्रेट पर आरोप लगाए गए कि उसने कुछ वकीलों के साथ मिलकर
40000/- रूपये के बदले भारत के राष्ट्रपति,
मुख्य न्यायाधीश, एक अन्य न्यायाधीश व एक वकील के विरुद्ध फर्जी मामले में
वारंट जारी किये| मामला सी बी आई को जांच हेतु दिया गया और एक सप्ताह में जांच
रिपोर्ट भी आ गयी थी किन्तु मामले में परीक्षण उच्चतम न्यायालय में आज तक लंबित
है|
ऐसे ही एक
मामले में कलकता उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने पश्चिम बंगाल की ज्योति बासु
सरकार के पक्ष में एक आदेश जारी करके उपकृत किया और बदले में उसी दिन आवेदन कर मुख्य
मंत्री के विवेकाधिकार कोटे से साल्ट लेक में सस्ती दर पर एक प्लाट आवंटित करवा
लिया| मामले की फ़ाइल को भी न्यायाधीश ने अपने पास रख लिया और कोई भी नागरिक फ़ाइल
से कोई नकल तक नहीं ले सका| न्यायाधीश महोदय के सेवानिवृत होने तक 12 वर्ष तक फ़ाइल
उनके कब्जे में रही| यदपि यह प्रथम दृष्टया व्यक्तिगत लाभ के लिए पद के स्पष्ट
दुरूपयोग का मामला था| इस प्रसंग में कलकता उच्च न्यायाल में भी रिट लगाई गयी
किन्तु उसमें याची को कोई राहत नहीं मिली| मामला उच्चतम न्यायालय पहुंचा और उच्चतम
न्यायालय ने मात्र प्लाट का आवंटन को रद्द करने का प्रभाव रखने वाला ही आदेश दिया जिससे
मिला अनुचित लाभ सरकार को लौटाना पड़े किन्तु
पद के दुरूपयोग के लिए कोई दांडिक कार्यवाही के आदेश नहीं दिए गये| यद्यपि मामले में स्वयं उच्चतम
न्यायालय ने कहा कि हमें स्मरण रखना चाहिए कि बाहरी तूफ़ान की बजाय अन्दर के
कथफोड़ों से अधिक ख़तरा है|
राज्य सभा
सदस्य रशीद मसूद को एम बी बी एस सीटों के आवंटन में गड़बड़ी के आरोप में दोषी मानते
हुए हाल ही में सजा सुनाई गयी है| लगभग ऐसा ही एक मामला महाराष्ट्र राज्य में वर्ष 1985 में हुआ था जिसमें
एम डी की प्रवेश परीक्षा में उत्तर पुस्तिका से छेड़छाड़ कर महाराष्ट्र के मुख्य
मंत्री के रिश्तेदारों को बम्बई विश्वविद्यालय में प्रवेश दिलाकर उपकृत किया गया
था| परिणामत: अन्य पात्र सामान्य डॉक्टर एम डी में प्रवेश से वंचित हो गये थे| कालान्तर
में मामला उच्चतम न्यायालय तक पहुंचा और उच्चतम न्यायालय ने पाया कि इस बात
में काफी सशक्त संदेह है कि श्री पाटिल या
उसके चहेतों को प्रसन्न करने के लिए गड़बड़ी की गयी और गड़बड़ी साबित है| गड़बड़ी से लाभ
मिलने वालों की रिश्तेदारी भी साबित है| मुख्य मंत्री द्वारा सार्वजनिक जांच समिति
के सामने उपस्थिति से इन्कारी भी रिकार्ड पर है| न्यायालय ने आगे कहा कि मुख्यमंत्री
की पुत्री जो पहले 3 बार अनुतीर्ण हो चुकी थी को उत्तीर्ण करवाने के लिए प्रयास
किया गया| फिर भी उच्चतम न्यायालय ने मामले में आपराधिक कार्यवाही करने का कोई
आदेश नहीं दिया|
उक्त कथानक
तो भारतीय न्यायतंत्र का, महासागर में तैरते हिमखंड के दिखाई देने वाले भाग की
तरह, एक अंश मात्र है| अमेरिका में न्यायपालिका की वास्तविक स्थिति जानने के लिए
सरकारें निजी संस्थाओं से सर्वेक्षण करवाती हैं और उसके आधार पर सरकारें न्यायिक
सुधार की रूपरेखा तैयार करती हैं| यदि यही प्रक्रिया भारत में भी अपनाई जाये तो
दूध का दूध और पानी का पानी हो सकता है| जिम्मेदार पत्रकारिता जगत यह कार्य भारत
में भी स्वत: कर सकता है क्योंकि उसके पास आवश्यक नेटवर्क भी है| अब उक्त तथ्यों के
आधार पर विद्वान पाठक ही अनुमान लगाएं कि देश की न्यायपालिका उनकी आशाओं और
अपेक्षाओं पर कितनी खरी उतर रही है व कितनी स्वतंत्र, निष्पक्ष, तटस्थ और
दबावमुक्त है| स्वयं प्रज्ञावान नागरिक यह भी मूल्यांकन करें कि न्याय का तराजू
कितना संतुलित है और हमारा गणतन्त्र मात्र सीमा पर ही नहीं अंदर से कितना सुरक्षित
है |
जय हिन्द !
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