Tuesday, 1 October 2013

बंदर कहना महँगा पड़ा ...

ओंटारियो की एक कृषि फर्म को अपने एक कर्मचारी को बंदर कहना महँगा पडा जबकि वहां के मानवाधिकार ट्रिब्यूनल ने चर्चित प्रकरण एड्रिअन मोंरोसे बनाम डबल डायमंड एकड़ लिमिटेड (2013 एच आर टी ओ 1273)  में दोषी पर भारी जुर्माना लगाया| किंग्सविले की एक टमाटर उत्पादक कंपनी डबल डायमंड एकड़ लिमिटेड  को मानवाधिकार ट्रिब्यूनल ओंटारियो (कनाडा)  ने शिकायतकर्ता एड्रिअन मोंरोसे को बकाया वेतन और गरिमा हनन के लिए कुल 23,500 पौंड क्षतिपूर्ति देने के आदेश दिया है| 
तथ्य इस प्रकार हैं कि शिकायतकर्ता ने प्रतिवादी संस्थान में प्रवासी मौसमी कृषि मजदूर के रूप में दिनांक 9.1.09 से कार्य प्रारंभ किया था| शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया कि प्रतिवादी संस्थान के एक कर्मचारी करिरो ने चिल्लाते हुए मुझे कहा कि तुम पेड़ शाखा पर बंदर जैसे लगते हो और वह चला गया| मौसमी मजदूरों के करार के अनुसार उनके वेतन का पच्चीस प्रतिशत वेतन उन्हें बाद में भेजे जाने के लिए काटा जाता है किन्तु उसे समय पर भुगतान नहीं किया गया| आवेदक –शिकायतकर्ता-एड्रिअन मोंरोसे के अनुसार उसने यह मामला प्रतिवादी के समक्ष माह जनवरी व फरवरी 2009 में उठाया था| किन्तु उसकी  शिकायत के फलस्वरूप बदले की भावना से उसे नौकरी से ही निकाल दिया जिससे वह 5500 पौंड मजदूरी से वंचित हो गया| मामला जब ट्रिब्यूनल के सामने निर्णय हेतु आया तो ट्रिब्यूनल का यह विचार रहा कि क्षतिपूर्ति के उचित मूल्याङ्कन के लिए बदले की भावना से प्रेरित कार्यवाही से उसकी गरिमा, भावना और स्व-सम्मान को पहुंची ठेस के लिए प्रार्थी क्षतिपूर्ति का पात्र है| प्रार्थी  ने अपने देश वापिस भेज दिए जाने सहित मजदूरी के नुक्सान आदि इन सबके लिए कुल 30000 पौंड के हर्जाने की मांग की है| ओंटारियो मानवाधिकार संहिता की धारा 46.3 के अनुसार किसी संगठन के कर्मचारियों, अधिकारियों या एजेंटों द्वारा भेदभाव पूर्ण आचरण करने पर संस्था का प्रतिनिधित्मक दायित्व है, तदनुसार करेरो और मस्टरोनारडी के कृत्यों के लिए डबल डायमंड एकड़ लिमिटेड जिम्मेदार हैट्रिब्यूनल ने आवेदक को 15000 पौंड का हर्जाना बदले के भावना से हुए मानवाधिकार हनन के लिए स्वीकृत किया और मजदूरी के नुक्सान की भरपाई के लिए 5000 पौंड मय ब्याज के देने के आदेश दिए|
आवेदक ने यह भी मांग की कि प्रत्यर्थी अपने यहाँ मानवाधिकार नीति को लागू करने के लिए ओंटारियो मानवाधिकार आयोग से अनुमोदन करवाकर एक निश्चित प्रक्रिया लागू करे| इस पर ट्रिब्यूनल ने आदेश दिया कि प्रत्यर्थी 120 दिन के भीतर मानवाधिकार कानून विशेषज्ञ की सहायता से एक व्यापक मानवाधिकार और भेदभाव विरोधी नीति विकसित करे व प्रत्यर्थी के सभी अधिकारीकर्मचारी, जिन पर किसी भी प्रकार के पर्यवेक्षण का दयित्व हो वे, 101 मानवाधिकारों के विषय में 120  दिन के भीतर ऑनलाइन प्रशिक्षण प्राप्त करें |
वहीं भारतीय परिपेक्ष्य में मानवाधिकारों पर नजर डालें तो स्थिति अत्यंत दुखद कहानी कहती है| ओड़िसा में जुलाई 2008 में संजय दास को पुलिस ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों की निस्संकोच अवहेलना करते हुए गिरफ्तार कर लिया था अत: पुलिस की इस अनुचित कार्यवाही से व्यथित होकर पीड़ित ने वर्ष 2009 में उच्च न्यायालय में रिट याचिका दाखिल की| खेद का विषय है कि इस याचिका पर उच्च न्यायालय ने 4 वर्ष बाद अब वर्ष  2013 में सरकार से जवाबी हलफनामा दायर करने को कहा हैप्रकरण में जवाब देते हुए राज्य के पुलिस महानिदेशक ने कहा है कि अब दोषी की पहचान करना कठिन है| वास्तव में देखा जाए तो भारत भूमि के अधिकाँश लोगों, चाहे वे कोई भी पद धारण करते हों, के चिंतन से लोकतंत्र का मूल दर्शन ही गायब है| विधायिकाएं आधे-अधूरे और जनविरोधी कानून बनाती हैं, न्यायपालिका उन्हें लागू करते हुए और भोंथरा बना देती परिणामत: पुलिस का मनोबल और दुस्साहस-दोनों इस वातावरण में मुक्त रूप से पनपते  रहते  है|   पुलिस द्वारा न केवल आम नागरिक के साथ अभद्र व्यवहार करने और सरे आम गाली गलोज करने के  मामले मानवाधिकार तंत्र के सक्रिय या निष्क्रिय सहयोग और सानिद्य में जारी हैं बल्कि हिंसा तक  बेहिचक की जाती है| देश की सवा अरब की आबादी  में ढूंढने से भी उदाहरण मिलना मुश्किल है जहां बीस लाख में से एक भी पुलिस वाले को अपशब्दों के लिए या मानव गरिमा हनन के लिए दण्डित किया गया हो|

एक बार जब भारत ने मानवाधिकार संधि का अनुमोदन कर दिया तो उसके बाद सम्पूर्ण देश में मानवाधिकार की रक्षा करना, प्रोन्नति करना और उसका उल्लंघन रोकना सरकार का दायित्व हो जाता है ऐसा उल्लंघन चाहे किसी सरकारी सेवक द्वारा किया जा रहा हो या किसी नीजि व्यक्ति द्वारा| सरकार मानवाधिकार उल्लंघन के मामले में ऐसा कोई भेदभाव नहीं बरत सकती किन्तु भारत के मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम की धारा 12 में मात्र लोक सेवकों द्वारा मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों में ही आयोग द्वारा जांच का प्रावधान रखा गया है और इस प्रकार नीजि व्यक्तियों को मानवाधिकार उल्लंघन की खुली छूट दे दी गयी है कि उनके विरुद्ध शिकायतों पर आयोग कोई कार्यवाही नहीं करेगा| वहीं ओंटारियो राज्य ने अपने लिए एक विस्तृत और व्यापक मानवाधिकार संहिता बना रखी है| संहिता की धारा 29 में मानवाधिकार संरक्षण और प्रोन्नति के व्यापक प्रावधान है और यह कहा गया है कि आयोग का कार्य मानवाधिकारों (न केवल रक्षा करना बल्कि) के सम्मान को आगे बढ़ाना और प्रोन्नत करना आयोग का कार्य है तथा इसमें नीजि या सरकारी उल्लंघन के मध्य किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया गया है| मानवाधिकार ट्रिब्यूनल ओंटारियो न केवल अपने मुख्यालय पर बल्कि कैम्प लगाकर घटना स्थल के नजदीक सुनवाई का अवसर देता है ताकि पीड़ित पक्ष अपना दावा आसानी से प्रभावी ढंग प्रस्तुत कर सके| उक्त मामले से यह भी स्पष्ट है कि वर्ष 2009  के मामले में ओंटारियो के ट्रिब्यूनल ने अपना निर्णय सुना दिया है जबकि समान अवधि के मामले में ओड़िसा उच्च न्यायालय ने अभी सरकार से जवाब ही मांगा है, निर्णय  में लगने वाले समय और मिलने वाली राहत के विषय में कोई सुन्दर पूर्वानुमान  नहीं लगाया  जा सकता| उल्लेखनीय है कि भारत जब मानवप्राणी  के रूप में प्राप्त अधिकारों के विषय में कनाडा से इतना पीछे है तो नागरिक के तौर पर उपलब्ध मूल अधिकारों के विषय में अभी चर्चा करना ही अपरिपक्व होगा, चाहे कागजी तौर पर वे संविधान में सम्मिलित हों| यह भी ध्यान देने योग्य है कि कनाडा, ब्रिटिश संसद के नियंत्रण से वर्ष 1982 में ही अर्थात भारत से 35 वर्ष बाद पूरी तरह से मुक्त हुआ है| अब देश की जनता कर्णधारों से जवाब मांगती है कि इस अवधि में इन्होंने आम भारतीय के लिए अब तक क्या किया और भविष्य में जो करने जा रहे हैं उसकी रूप रेखा क्या है|  


No comments:

Post a Comment