सूचना का अधिकार अधिनियम,2005 के प्रावधानों
के अंतर्गत केंद्र व राज्यों में आयोगों की
स्थापना की गयी है और केन्द्रीय प्रतिष्ठानों में “अधिकार” की प्रोन्नति का दायित्व
केन्द्रीय सूचना आयोग को सौंपा गया है| केन्द्रीय आयोग की स्थापना से अब
तक लगभग 170,000 अपीलें व परिवाद याचिकाएं आयोग में दायर हुई हैं और लगभग 140,000 याचिकाएं
निस्तारित की जा चुकी हैं|
किन्तु
विडंबना यह है कि लोक प्राधिकारियों द्वारा 80-90प्रतिशत मामलों में देय सूचना से अभी भी इन्कार ही किया जाता
है और शासन व्यवस्था व लोक प्राधिकारियों के कार्यकरण में अभी भी अपार अस्वच्छता-भ्रष्टाचार-अपारदर्शिता कायम है| ऐसा नहीं है कि यह कोई नवीन प्रवृति हो अपितु संचार व विचार
अभिव्यक्ति पर प्रतिबन्ध के माध्यम से सरकारों के अस्वच्छ कार्यकरण पर पर्दा डालने
यह मनोवृति हमें अंग्रेजों से विरासत में मिली थी जिसे हमने संजोकर बरकरार रखा है|
वायरलेस का आविष्कार पर्याप्त पहले हो गया था और सरकारी तंत्र के पास यह सुविधा उपलब्ध
थी किन्तु आम जनता तक इसकी पहुँच प्रतिबंधित रही है| यहाँ तक कि 1947 में मिली नाम
की आजादी के पर्याप्त बाद तक भी जनता को रेडियो सुनने के लिए लाइसेंस लेना पड़ता
था| भारत सरकार के दूरसंचार विभाग के पास 1970 से ही इन्टरनेट सेवा उपलब्ध थी जो
आम जनता को 1990 के बाद ही सुलभ हो सकी
है|
जहां प्रथम वर्ष में आयोग में मात्र 7000 याचिकाएं
प्राप्त हुई वहीं आठवें वर्ष में 40000 याचिकाएं प्राप्त हुई हैं व औसत याचिका की सुनवाई
में एक वर्ष से अधिक का समय लग रहा है जो आयोग के गठन के उद्देश्य को ही मिथ्या साबित
कर रहा है|
यह स्थिति
एक भयावह चित्र प्रस्तुत करती है| सूचना हेतु मना करने पर नागरिक आयोग में याचिका
दायर करते हैं और इस संख्या में सुपरसोनिक जेट की गति से वृद्धि हो रही है| यह वृद्धि इस कारण नहीं है कि नागरिकों में जागरूकता का संचार
हो रहा है अपितु आयोग दोषी जन सूचना अधिकारियों के साथ मित्रवत व्यवहार कर रहा है और आम लोक प्राधिकारी में यह विश्वास गहरा रहा
है कि वे चाहे किसी भी सूचना के लिए मना करें उनका कुछ भी बिगड़नेवाला नहीं| अधिक से अधिक यह हो सकता
है कि आयोग द्वारा एक आवेदक को दो वर्ष संघर्ष करने के बाद सूचना देने के आदेश हो जाएँ
व उसकी अनुपालना तो फिर भी संदिग्ध है| आयोग द्वारा दोषी अधिकारियों का अनुचित बचाव
करने से जनतंत्र के इस औजार की धार लगभग कुंद हो चुकी है व जनता की नजर में आयोग स्वामिभक्त
रहे सेवानिवृत अधिकारियों को रोज़गार देकर उपकृत करने का एक संस्थान मात्र रह गया है| कुछ आयुक्तों द्वारा
किन्हीं अपवित्र कारणों या सस्ती लोकप्रियता के लिए अतिउत्साहित होकर कुछेक जनानुकूल
दिखाई देने वाले निर्णय देने मात्र से 125 करोड़ भारतवासियों का हित नहीं सध सकता| यद्यपि, आपवादिक मामलों को छोड़ते
हुए,
अधिकाँश
मामलों में आयोग ने सूचना प्रदानगी के आदेश दिये हैं किन्तु फिर भी दिए गये अधिकाँश निर्णय
कानून व न्याय की कसौटी पर खरे नहीं हैं| ऐसे भी
मामले हैं जहां समाजसेवा के कुछ थोक व्यापारियों पर आयुक्तों ने उपकार किया हो और
उनके मामलों को दर्ज होने से पहले ही निर्णित कर दिया हो| मीडिया की सुर्ख़ियों में
रहने को लालायित ऐसे स्वामिभक्त लोग आयोग और आयुक्तों का यशोगान करने वालों की
अग्रिम पंक्ति में दुधिया प्रकाश में खड़े नजर आते हैं और आयोग को अयोग्य बना रहे
हैं|
केन्द्रीय आयोग ने अपनी स्थापना से लेकर अब
तक 1000 से भी कम प्रकरणों में अर्थदंड लगाया गया है और उसका भी लगभग 40प्रतिशत भाग वसूली होना शेष है| इतना ही नहीं अर्थदंड के कुल मामलों में से 60% तो दिल्ली
सरकार के विभाग और स्थानीय निकाय के हैं| अन्य प्रमुख मामले बैंकों व बीमा
कंपनियों के हैं| इनमें से भारत सरकार के विभागों या मंत्रालयों पर अर्थदंड के
मामले तो 5% से भी कम हैं| देश की नौकरशाही जिम्मेदारी
व पारदर्शिता से कार्य नहीं कर रही थी और इस पवित्र उद्देश्य को ध्यान में रखकर अधिनियम
बनाया गया| किन्तु आयोगों में उन्हीं सेवानिवृत नौकरशाहों को नियुक्त कर दिया गया
है जो इस अंग्रेजी शासन से चली आ रही गैर-जिम्मेदार, अस्वच्छ, हठधर्मी,
राजतान्त्रिक, निरंकुश व अपारदर्शी व्यवस्था का कल तक अंग रहे हैं और इसी के लिए
उपयुक्त रहे हैं| तभी तो वे अपना सेवाकाल सहर्ष पूर्ण कर पाए अन्यथा ये लोग यदि अंत:करण,
विचारों, कार्यशैली व मन से इस मलिन व्यवस्था
को अंगीकार नहीं करते तो निश्चित रूप से अपना सेवाकाल सहर्ष पूर्ण नहीं कर पाते| इनसे
कुछ सुधार की आशा करना दिन में स्वप्न देखने से अधिक कुछ भी नहीं है| अर्थात
सरकारों ने बिल्ली को दूध की रखवाली की जिम्मेदारी देने की कहावत चरितारार्थ कर दी
है| सेवा निवृति के बाद पुन:नियुक्त ये नौकरशाह अपनी बिरादरी के विरुद्ध कोई
दंडात्मक कार्यवाही नहीं कर सके हैं यह तथ्य आंकड़ों से साबित है| केन्द्रीय आयोग
में अब तक लगभग 20 आयुक्त नियुक्त हो चुके हैं जिसमें से आपवादिक तौर पर मात्र एक
ही गैर-नौकरशाह रहे हैं| ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि केन्द्रीय आयोग द्वारा
अर्थदंड लगाने के कुल 1000 मामलों में से आधे से ज्यादा तो अकेले इस गैर-नौकरशाह
आयुक्त के हैं अर्थात शेष 19 आयुक्तों ने मिलकर अपने सम्पूर्ण कार्यकाल में मात्र
300 मामलों में अर्थदंड लगाया है जोकि प्रति आयुक्त 15 मामले आते हैं| उक्त
विश्लेष्ण से यह भी निष्कर्ष निकलता है कि आयोग में एक औसत नौकरशाह आयुक्त ने एक
वर्ष में मात्र 3 मामलों में अर्थदंड लगाया है और दोषी अधिकारियों का पर्याप्त
पक्षपोषण व बचाव कर जनतंत्र के इस प्रभावी उपकरण को भी नकारा साबित कर दिया है| व्यथित
नागरिकों को हर्जाना दिलाने के मामले तो ढूंढने से भी मिलना कठिन है|
अधिनियम की धारा 19(5) व 20(1) में समय पर
सूचना नहीं देने का औचित्य स्थापित करने का भार सूचना अधिकारी पर है और इसमें विफल
रहने पर सूचना अधिकारी पर कानून के अनुसार अर्थदंड निरपवाद स्वरूप लगाया जाना चाहिए| अधिनियम में
आयुक्तों को कोई विवेकाधिकार नहीं दिया गया है| यहाँ तक कि सम्पूर्ण अधिनियम में विवेकाधिकार शब्द तक का
प्रयोग नहीं किया गया है जिससे विधायिका का मंतव्य स्पष्ट है| समाज में व्यवस्था बनाये
रखने के लिए कानून में दंड का प्रावधान रखा जाता है किन्तु प्राय:आयोग के निर्णयों
में न ही तो सूचना नहीं देने का औचित्य स्थापित माना जाता है और न ही दोषी पर अर्थदंड
लगाया जाता जिससे सूचना अधिकारियों को यह सन्देश जाता है कि आयोग एक दंतविहीन, रस्मी
व दोषियों का मैत्रीपूर्ण संस्थान है और आयोग की कार्यवाहियां मैत्रीपूर्ण मैच हैं| दोषी लोगों को दंड नहीं देने से अन्य बचेखुचे अधिकारी भी
कानून का उल्लंघन करने को लालायित व प्रेरित होते हैं जिससे सम्पूर्ण वातावरण अपदूषित
होता है| इस मनोविज्ञान को ध्यान में रखते हुए आयोग को न्यूनतम 10
प्रतिशत मामलों में अर्थदंड लगाना चाहिए था| आयोग ने शक्तिसंपन्न
विभागों के विरुद्ध यद्यपि कई मामले निर्णित किये हैं किन्तु आश्चर्य का विषय है कि
आज तक उनमें से एक भी मामले में अर्थदंड नहीं लगाया है इससे आयोग की निष्पक्षता पर
बड़ा प्रश्न चिन्ह लगता|
आयोग
ने गृह मंत्रालय व न्याय विभाग के विरुद्ध कई हजार मामले निर्णित किये हैं जहां आवेदकों
को अनुचित रूप से सूचना हेतु मना किया गया किन्तु आयोग ने इन विभागों के अधिकारियों
पर किसी मामले में मुश्किल से ही कोई अर्थदंड लगाया हो| न्यायालय, सतर्कता, पुलिस आदि ऐसे ही अन्य सशक्त विभाग हैं जिन पर स्वयम आयोग
ने अर्थदंड लगाने से परहेज़ कर अपनी कर्तव्य विमुखता का परिचय दिया है और अपनी विश्वसनीयता
व निष्पक्षता पर बड़ा प्रश्न चिन्ह लगा दिया है| एक मामले
में तो आयोग ने न्यायालय द्वारा सुनवाई में समय मांगने पर न्यायालय की बजाय स्वयम अपने
खजाने से याची को क्षतिपूर्ति दी है| आयोग द्वारा अर्थदंड लगाए जाने के मामलों का विश्लेष्ण करने
पर ज्ञात होता है कि मात्र स्थानीय निकाय, शिक्षा विभाग, बिजली, पानी, परिवहन, निर्माण विभाग जैसे निरीह
व शक्तिहीन लोक प्राधिकारी ही अर्थदंड चुकाने के लिए विवश किये गए हैं|
आयोगों को यह चाहिए कि जहां सूचना हेतु याची
के पक्ष में आदिष्ट करे उस प्रत्येक निर्णय में या तो धारा 19(5) व 20(1) के अंतर्गत
दोषी अधिकारी द्वारा स्थापित औचित्य को अपने निर्णय में साबित समझे अन्यथा दोषी अधिकारी
पर अर्थदंड अवश्य लगाए ताकि अधिनियम कारगर साबित हो सके और यह एक कागजी व कोरी औचारिकता
नहीं रह जाए|
राज्य
आयोगों की स्थिति भी लगभग समान ही है क्योंकि वहां पर भी किसी न किसी स्वामिभक्त सेवानिवृत
नौकरशाह को देव मूर्ति की तरह स्थापित कर उपकृत किया गया है और दोषी अधिकारियों का
भरपूर बचाव किया जा रहा है| सरकार का यह कुतर्क हो सकता है कि सेवानिवृत लोगों को
नियुक्त करने पर उन्हें आधा ही वेतन (आधा भाग तो वे पेंशन के रूप में पहले से ही प्राप्त
कर रहे होते हैं) देना पड़ता है अत: यह सस्ता है किन्तु इस सस्तेपन की जनता को
वास्तव में कितनी कीमत चुकानी पडती है इसका आकलन नहीं किया जा रहा है| इससे भी
अधिक आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि कई बार तो पुलिस विभाग के अधिकारियों को आयुक्त
नियुक्त कर दिया जाता है जिनके सम्पूर्ण सेवाकाल में मूल अधिकारों का तो क्या मानव-अधिकारों
की रक्षा करने का कोई वातावरण आसपास तक नहीं रहा हो| स्वयम पुलिस अधिकारी जानते
हैं कि सेवानिवृति के बाद उनका जनता में कितना सम्मान होता है| इस डर से कई पुलिस
अधिकारी तो फेसबुक जैसे सामाजिक माध्यमों
पर अपना खाता तो खोल लेते हैं किन्तु अपना पूर्व सेवाकाल तक प्रकट नहीं करते हैं| देश
की जनता को सूचना की स्वतंत्रता के लिए अभी मीलों का सफर व काफी संघर्ष करना बाकी
है क्योंकि अधिनियम अभी तक तो एक कोरी औपचारिकता है– जनता को भुलावे व सस्ती
लोकप्रियता का एक साधन मात्र है|
केंद्र
सरकार व राज्य सरकारों को यह नीति बनानी चाहिए कि किसी भी आयोग या बोर्ड में 20
प्रतिशत से अधिक सेवानिवृत नौकरशाह नियुक्त नहीं किये जाएंगे तभी इस देश की जनता
का हित सध सकता है- वास्तविक लोकतंत्र की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हो सकेगा| प्रजातंत्र,
प्रजा के सशक्तिकरण व सता के विकेन्द्रीकरण का का दूसरा नाम है जिसके संचालन में आम
जनता की सक्रिय सहभागिता होती है और जनता किसी भी जनप्रतिनिधि के बंधक नहीं होती
है| समस्त कार्यपालक, न्यायपालक व जनप्रतिनिधि लोकतंत्र के सेवक तथा जनता के ट्रस्टी
होते हैं और जनता ही लोकतंत्र की वास्तविक स्वामी होती है| प्रजातंत्र में
नौकरशाहों की नियुक्ति मात्र परामर्श के लिए ही उचित है किसी भी निर्णय करने के
लिए नहीं| सरकार में भी किसी भी स्तर के सचिव को नीतिगत निर्णय लेने का कोई अधिकार
नहीं है अपितु वे मंत्री के मात्र सलाहकार हैं| इसी सिद्धांत का यहाँ भी अनुसरण
किया जाना चाहिए क्योंकि जिन्होंने अपने सम्पूर्ण सेवाकाल में मात्र परामर्श दिया
हो और वे निर्णय लेने में अनुभवहीन हों उन्हें निर्णय करने का पद आखिर क्योंकर
दिया जाए|
जय भारत !
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