जजों की
नियुक्ति एक भ्रमजाल ...!!
पर्याप्त समय
से देश में यह बवाल चल रहा है कि जजों की नियुक्ति कौन करे ?
अब तक इस
कार्य पर सुप्रीम कोर्ट ने अपना कब्जा मजबूत कर रखा था हालांकि केंद्र सरकार की भी
इसमें अहम् भूमिका थी | यद्यपि यह भी जनता को भ्रमित करने का एक तरीका है | वास्तव
में इन पदों पर नियुक्ति के लिए सत्तासीन सरकार व न्यायपालिका के बीच मोलभाव होता
है और दोनों ही पक्ष इसमें अपनी हिस्सेदारी लेने के बाद नियुक्तियां करते हैं | जब
इस हिस्सेदारी पर सहमति नहीं बनती तब ये
विवाद सार्वजनिक होते हैं| जिस जज को
सत्तासीन नियुक्त नहीं करना चाहें और न्यायपालिका नियुक्त करना चाहे उसके विरुद्ध इंटेलिजेंस
ब्यूरो से जांच करवाकर उसकी प्रतिकूल टिपण्णी के माध्यम से नियुक्ति बाधित कर दी
जाती है क्योंकि प्रत्याशी वकीलों में से
बेदाग़ तो कोई मिलना मुश्किल ही नहीं लगभग असंभव है | ठीक इसी प्रकार जिसे कार्यपालिका नियुक्त करना
चाहे उसके दुश्चरित्र को नजर अंदाज कर दिया जाता है | स्वयम न्यायपालिका भी इसी अस्वच्छ
कृत्य की पक्षधर है और जजों की नियुक्ति
से सम्बंधित कोई भी सूचना सार्वजनिक नहीं करना चाहती| राजस्थान से एक वकील के जज नियुक्त होने के
मामले में उसके द्वारा पत्नी की ह्त्या का मामला उजगार हुआ यद्यपि वे उस मामले में
छूट चुके थे फिर भी वे संदेह के दायरे से बाहर नहीं होने से इस विश्वसनीय पद के
योग्य नहीं थे, ऐसा इंटेलिजेंस रिपोर्ट में सामने आया| किन्तु तत्कालीन मुख्य मंत्री ने प्रधान मंत्री
को सिफारिश की जिसके आधार पर इस तथ्य को नजर अंदाज कर नियुक्ति दे दी गयी और सूचना
का अधिकार में उक्त सूचना मांगने पर आज तक नहीं दी गयी है और वे जज महोदय सेवा
निवृत होकर सकुशल चले गए हैं |
जजों की
नियुक्ति चाहे कोई करे जनता को तब तक कोई
लाभ नहीं जब तक निचले स्तर से लेकर ऊपर तक सभी की जिम्मेदारी तय नहीं हो जाए | चीन
का सर्वोच्च न्यायालय वहां की संसद के प्रति जवाब देह है और 8 करोड़ की आबादीवाले
जापान में संसद का स्थायी महाभियोग न्यायालय है जोकि संसद का ही एक अंग है | लगता
है भारत में न्यायाधीशों को जरुरत से ज्यादा छूट मिलने से वे लक्ष्मण रेखा को पार
कर गए हैं और उनकी अपेक्षाएं कुछ ज्यादा ही बढ़ गयी हैं | इंग्लॅण्ड में 1981 से
पहले सुप्रीम कोर्ट का अस्तित्व ही नहीं था |
अमेरिका में
प्रति व्यक्ति औसत आय 48000/= डॉलर, उचित मजदूरी 15000/= डॉलर
और एक जिला न्यायाधीश का वेतन 25000/= डॉलर प्रति वर्ष है जबकि भारत में
प्रति व्यक्ति औसत आय 60000/= रुपये, न्यूनतम
मजदूरी 72000/= रुपये और एक जिला न्यायाधीश का वेतन 720000/= रुपये प्रति वर्ष है|
अमरीका में न्यायाधीशों का वेतन बहुत से अन्य सरकारी कर्मचारियों से
कम है(http://www.uscourts.gov/JudgesAndJudgesh...eFact.aspx ) व उन्हें बढ़ी हुई मंहगाई राहत
का भुगतान नहीं किया जा रहा है जबकि भारत में न्यायाधीशों को सर्वोच्च वेतनमान
दिया जा रहा है| भारतीय नागरिक अपनी जेब से न्यायाधीशों को न
केवल अपनी क्षमता से अधिक भुगतान कर रहे हैं बल्कि उनका शोषण हो रहा है| इस प्रकार भारत के न्यायालयों में आवश्यकता से बहुत अधिक न्यायाधीश हैं और
न्यायप्रशासन के नाम पर देश का धन बर्बाद किया जा रहा है और उसका कोई दृश्यमान लाभ
आम नागरिक को नहीं मिल रहा है| संभवतया भारत के उच्च
न्यायलयों व सर्वोच्च न्यायालय में विश्व की सर्वाधिक छुट्टियां होती हैं| भारत
में न्याय की वर्तमान व्यवस्था से आम
व्यक्ति तो हताश है ही शक्तिशाली लोगों को भी इसमें कोई विश्वास नहीं है और वे
अपनी जान व सम्पति की सुरक्षा के लिए अपनी व्यक्तिगत ब्रिगेड रख रहे हैं|
यद्यपि
संविधान के अनुच्छेद 32(3) में जिला न्यायालयों को रिट क्षेत्राधिकार देने का
प्रावधान है किन्तु देश की शिथिल व संवेदनहीन संसद खुले व आक्रामक जन-आंदोलन
द्वारा विवश नहीं किये जाने तक किसी भी
न्यायोचित मांग पर ध्यान देने की कोई आवश्यकता नहीं समझती है|जापान में सुप्रीम कोर्ट के
न्यायधीशों की नियुक्ति उनकी नियुक्ति के बाद प्रथम आम चुनाव में लोगों द्वरा
समीक्षा की जायेगी, और दस वर्ष के बाद संपन्न प्रथम चुनाव
में पुनः समीक्षा की जायेगी और इसी प्रकार उसके बाद भी| इस
पुनरीक्षा में यदि मतदाताओं का बहुमत, पूर्वोक्त पैरा में
उल्लेखित मामले में, यदि एक न्यायाधीश की बर्खास्तगी के पक्ष
में है तो उसे बर्खास्त कर दिया जायेगा|इतिहास साक्षी है कि
भारत में सरकार को तो अपदस्थ किया जा सकता है किन्तु न्यायाधीश को नहीं| भारत के
संविधान के अनुच्छेद 50 में कहा गया है कि
राज्य की लोक सेवाओं में, न्यायपालिका को
कार्यपालिका से पृथक करने के लिए
राज्य कदम उठाएगा |इंग्लॅण्ड में न्यायालयों पर निरीक्षण के लिए अलग से न्यायिक निरीक्षणालय है तथा सुप्रीम कोर्ट में न्यायिक मुखिया मुख्य
न्यायाधीश (Chief Judge) व प्रशासनिक मुखिया न्यायाधिपति (Chief Justice) दोनों अलग
अलग हैं | इस प्रकार वहां पर न्यायिक कार्य व प्रशासनिक कार्य अलग अलग व्यक्तियों
द्वारा देखे जाते हैं| जबकि भारत में न्यायपालिका न्यायिक नियुक्तियां पर अपना
वर्चस्व रखना चाहती है जिससे उनकी संविधान विरोधी अपवित्र इच्छा जाहिर है|
जापान में निचले
न्यायालयों के न्यायाधीश सुप्रीम कोर्ट द्वारा नामित न्यायाधीशों की सूची में से
मंत्री मंडल द्वरा नियुक्त किये जायेंगे| ऐसे समस्त न्यायाधीश पुनः
नियुक्त के विशेषाधिकार सहित 10 वर्ष के लिए पद धारण
करेंगे| भारत में प्रचलित परम्परानुसार न्यायाधीशों की
नियुक्ति में मुख्य न्यायाधीश की राय बाध्यकारी है| न्यायाधीश
पद पर नियुक्ति होने बाद सेवानिवृति की आयु पूर्ण करने तक की लगभग गारंटी है|
भारतीय लोकतंत्र के पास अवांछनीय न्यायाधीशों को सहन करने अतिरिक्त
व्यवहार में कोई विकल्प नहीं है| जापान और इंग्लॅण्ड की
व्यवस्थाएं हमारी इन अस्वस्थ परम्पराओं से किसी भी प्रकार से अश्रेष्ठ नहीं हैं|
यदि निष्पक्ष मूल्यांकन किया जाए तो भारत की न्यायपालिका उसके पडौसी देशों – पाकिस्तान,
श्रीलंका, बंगलादेश और चीन से भी अश्रेष्ठ है|
मद्रास उच्च
न्यायालय के न्यायाधिपति किरुबकरन ने एक
अवमान मामले की सुनवाई में कहा है कि देश की जनता पहले ही न्यायपालिका से कुण्ठित
है अत: पीड़ित लोग में से मात्र 10% अर्थात अतिपीडित ही न्यायालय तक पहुंचते हैं| सुप्रीम कोर्ट के जानमाने वकील
प्रशांत भूषण ने कहा है कि भारत में न्याय मात्र 1% ही होता है| समय समय पर लोक
अदालतें लगाकर समझौतों के माध्यम से मामले निपटाकर वाही वाही लूटी जाती है जबकि
समझौते न्यायपालिका की सफलता न होकर विफलता है क्योंकि समझौते कमजोर पक्ष के हित
की बलि देने पर ही संपन्न होते हैं| इसी प्रकार सेवानिवृत न्यायाधीश पञ्च-फैसलों
के माध्यम से रोजगार प्राप्त करके अच्छी कमाई कर रहे हैं| यह स्थिति न्यायपालिका
की विश्वसनीयता पर स्वत: ही एक बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह लगाती है| देश के संवैधानिक न्यायालयों में नियुक्तियां भी पारदर्शी और स्वच्छ ढंग
से नहीं हो रही हैं अत: राज्य सभा की 44 वीं रिपोर्ट दिनांक 09.12.10 में यह
अनुसंशा की गयी है कि उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्तियां लिखित
परीक्षा के आधार पर की जानी चाहिए| न्यायाधीशों की योग्यता
की परख के लिए लिखित परीक्षा एक अच्छा आधार है जिससे कार्यपालिका और न्यायपालिका
दोनों को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए |सुप्रीम कोर्ट न्यायाधीशों के समूह या मुख्य
न्यायाधीश द्वारा उन्हीं लोगों को पदलाभ दिया जाता है जो उनके समान विचार रखते हों|
बहु सदस्यीय या कोलोजियम प्रणाली का भी कोई लाभ नहीं है क्योंकि
इससे सदस्यों का दायित्व कमजोर हो जाता है| वहीं एक अध्यन
में पाया गया है कि सुप्रीम कोर्ट के 40% न्यायाधीश किसी न्यायाधीश या वकील के
पुत्र रहे हैं| इसी अध्ययन के अनुसार सुप्रीम कोर्ट के 95%
न्यायाधीश धनाढ्य या ऊपरी माध्यम वर्ग से रहे हैं अत: उनके मौलिक विचारों, संस्कारों और आचरण में सामजिक व आर्थिक न्याय की ठीक उसी प्रकार कल्पना
नहीं की जा सकती जिस प्रकार एक बधिक से दया की अपेक्षा नहीं की जा सकती| लेखक के निजी मतानुसार भी स्वतंत्र भारत के इतिहास में सुप्रीम कोर्ट के
न्यायाधीश, अपवादस्वरूप मात्र एक न्यायाधीश को छोड़कर,
आर्थिक न्याय देने में आम जन की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरे हैं|
देश के संवैधानिक न्यायालयों का संचालन अंग्रेजी भाषी-पाश्चात्य
सभ्यता के प्रभाव में शिक्षित - उच्च वर्ग के
लोगों द्वारा किया जा रहा है जिन्होंने मात्र पुस्तकों में ही “इंडिया” को पढ़ा होता है| उन्हें
आम व्यक्ति की कठिनाइयों का धरातल स्तरीय ज्ञान नहीं होता है|अब समय आ गया है जब न्यायपलिका को आत्मावलोकन करना चाहिए कि वह जनता की
अपेक्षा पर कितना खरा उतर रही है|
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