जनाब एम ए खान युसुफी
सूचना आयुक्त
केन्द्रीय सूचना आयोग
नई दिल्ली
मान्यवर,
विषय : परिवाद संख्या CIC/YA/C/2014/900157 – मनीराम शर्मा बनाम राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद प्रतितोष आयोग
सूचना का
अधिकार अधिनियम की धारा 4 की अवहेलना के उक्त
प्रकरण में आपके निर्णय दिनांक 17.12.2015
के लिए मैं आपको धन्यवाद देता हूँ| आपके उक्त निर्णय के प्रकाशन से मुझे माननीय आयोग के
उक्त निर्णय का ज्ञान हुआ किन्तु इस प्रसंग
में मेरा विचार किंचित भिन्न है|
हमारे पवित्र संविधान के अनुच्छेद 51क (एच )में नागरिकों
का यह मूल कर्तव्य बताया गया है कि वे वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानव वाद और ज्ञानार्जन
तथा सुधार की भावना का विकास करे| इसी प्रकार अनुच्छेद 51 क (जे ) में कहा
गया है कि नागरिक व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की
ओर बढ़ने का सतत प्रयास करें जिससे राष्ट्र निरंतर बढ़ते हुए प्रयत्न और उपलब्धि की नई
ऊंचाइयों को छू ले| उक्त प्रावधानों ने मुझे आपको यह पत्र
लिखने को प्रेरित किया है| आप द्वारा यह पत्र पढने के लिए अपने अमूल्य समय में से
समय निकालने के लिये अग्रिम धन्यवाद |
माननीय आयोग के उक्त निर्णय का सम्मान
करते हुए मेरे विचार इस प्रकार हैं:
1.
यह है कि मैंने दिनांक
15.2.14 को आवेदन कर प्रत्यर्थी द्वारा
सूचना का अधिकार अधिनियम की धारा 4 की अनुपालना के विषय में सूचना की अपेक्षा की गयी
थी किन्तु 30 दिन की विहित अवधि में कोई सूचना
प्राप्त नहीं होने पर उक्त दिनांक 21.3.14 को परिवाद प्रस्तुत किया गया था
|
2.
यह है कि मैं दिनांक 15.11.15 से बाहर प्रवास पर हूँ इसलिए इस प्रकरण की सुनवाई के लिए आपकी ओर से कोई नोटिस मुझे यथा समय नहीं मिला और न ही सुनवाई के दिन
प्रवास पर मेरे पास प्रकरण से सम्बंधित कोई रिकार्ड था जिसके आधार पर मैं मामले
में अपना पक्ष रख पाता|
3.
यह है कि आपने
अपने निर्णय के बिंदु 1 में मुझ पर यह आरोप लगाया है कि मैं अधिनियम के प्रावधानों
का दुरूपयोग कर रहा हूँ किन्तु आपने अपने निर्णय में यह कहीं भी स्पष्ट नहीं किया
है कि मैंने किस प्रकार ऐसा किया है |
4. यह है कि आपने संभवतया प्रकरण का रिकार्ड भी नहीं देखा है
या दृष्टि ही खो दी है और बिंदु 2 में यह
लिखा है कि उक्त जवाब ( दिनांक 2.4.14) से क्षुब्ध होकर आयोग के समक्ष यह परिवाद
प्रस्तुत किया है जबकि परिवाद उससे पर्याप्त पहले ही 21.3.14 को प्रस्तुत किया जा
चुका था |
5.
यह है कि जब लिखित में प्रमाणित दस्तावेज के रूप में प्रमाणिक साक्ष्य उपलब्ध हो और उसकी भी यदि
उपेक्षा की जाए तो फिर मौखिक साक्ष्य, जिसका कोई प्रमाण नहीं हो , से क्या लाभ
संभव था और तदनुसार मेरे उपस्थित होने या न होने से भी कोई अंतर नहीं होता – ऐसी
मेरी मान्यता है|
6. यह है कि आपने अपने निर्णय के बिंदु 4 व 6 में भी उल्लेख किया है कि परिवाद
धारा 18 में उल्लिखित आधारों की पूर्ति नहीं करता | जबकि अधिनियम के अनुसार आवेदन
का जवाब 30 दिन में दिया जाना चाहिए और
धारा 7(2) के अनुसार विहित अवधि में जवाब नहीं देना सूचना के लिए मनाही
माना जाता है | तदनुसार दिनांक 15.2.14 के आवेदन का दिनांक 17.3.14
तक जवाब नहीं देना कानून के अनुसार सूचना के लिए मनाही है और परिवाद का उचित व पोषणीय आधार है|
7. यह है कि
रिकार्ड के अनुसार परिवाद में अन्तर्वलित आवेदन का जवाब विहित अवधि के 16 दिन बाद
दिनांक 2.4.14 को दिया गया है| कानून में
परिवादी की उपस्थिति कहीं भी आवश्यक नहीं है और धारा 19(5) में सूचना के लिए मनाही
का औचित्य स्थापित करने का भार प्रत्यर्थी पर है | आयोग को अधिनियम में कहीं भी
कोई विवेकाधिकार प्राप्त नहीं है और न ही कोई कानून बनाने का अधिकार है|
8. यह है कि यद्यपि विलम्ब के प्रत्येक दिन के लिए उचित
स्पष्टीकरण आवश्यक है किन्तु प्रत्यर्थी ने अपने द्वारा की गयी ( विलम्ब) – मानित सूचना
हेतु मनाही का कहीं भी कोई औचित्य स्थापित नहीं किया है फिर भी प्रत्यर्थी जनाब
इकबाल अहमद के प्रति अनावश्यक उदारता –प्रेम – पक्षपोषण बरता गया और उस पर कोई अर्थ दंड नहीं लगाया है|
9. यह है कि आपने निर्णय के बिंदु 5 में भी यह सफेद झूठ लिखा
है कि सम्पूर्ण पत्रावली का अवलोकन किया गया जबकि रिकार्ड से ही प्रमाणित है कि आपने
आवेदन, परिवाद व जवाब की तिथियाँ तक नहीं देखी
हैं |
10.यह है कि निर्णय के बिंदु 7 में भी आपने लिखा है कि हमारे
विधिवत नोटिस के बावजूद परिवादी जानबूझकर अनुपस्थित रहा जबकि आपके पास ऐसा कोई
साक्ष्य नहीं था जिससे यह प्रमाणित होता है कि मुझे यथासमय नोटिस मिल चुका था| यदि
आप निष्पक्ष निर्णय चाहते तो परिवादी को एक अवसर और दिया जा सकता था| आपने यह भी
प्रतिकूल टिपण्णी की है कि परिवादी प्रकरण
में बिलकुल रुचिबद्ध नहीं है | मेरा आपसे प्रश्न है कि जब परिवादी ने अपना धन,
समय और श्रम लगाकर आवेदन व परिवाद
प्रस्तुत किया है तो वह किस प्रकार रूचि नहीं रखता ? हाँ, उसे आप जैसे सुनवाई करने
वाले अधिकारियों का पूर्वानुमान होने पर निराशा अवश्य हो सकती है |
11.यह है कि आपसे मात्र परिवाद के परीक्षण
की अपेक्षा की गयी थी न कि परिवादी या
उसके चरित्र की | परिवादी ने आपसे चरित्र प्रमाण पत्र की भी अपेक्षा नहीं की थी|
कानून भी आपको मात्र परिवाद परीक्षा की अनुमति देता है और उसमें परिवादी के चरित्र सत्यापन के लिए अधिकृत नहीं किया गया
है | इस प्रकार आपने लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन किया है और पद के दुरूपयोग की
पराकाष्ठा पार कर दी है |
12.यह है कि आपकी न्यायिक व विधिक
पृष्ठभूमि को देखते हुए आपसे एक अच्छे विधि सम्मत निर्णय की अपेक्षा की जा सकती है
किन्तु आपका उक्त निर्णय स्पष्टतया पद के मद में दिया हुआ है और उसमें अनियंत्रित
राजतंत्र की बू आती है| इन परिस्थितियों में आपके मानसिक स्वास्थ्य पर संदेह होना
भी स्वाभाविक है |
13.यह है कि आपके विधिक ज्ञान को देखते
हुए आप दया के पात्र लगते हैं |
न्यायिक अपेक्षा है कि अनुपस्थित
पक्षकार के हित का ध्यान रखे और न्यायिक अनुशासन के अनुसार अनुपस्थित पक्षकार के विषय
में कोई प्रतिकूल टिप्पणियाँ नहीं की जानी चाहिए क्योंकि वह उनका समुचित जवाब देने
के लिए उपस्थित नहीं है | किन्तु आपने तो इन मौलिक बातों की भी अनुपालना नहीं की
है | निश्चित रूप से आपने इस गरिमामयी पद के लिए योग्यता खो दी है और आपको अविलम्ब
त्यागपत्र दे देना चाहिए| आपने अपना पद ग्रहण करते समय ली गयी – भय, लालच , राग-
द्वेष के बिना निर्णय करने की – शपथ का भी
जानबूझकर उल्लंघन किया है|
14.यह है कि मैं सरकार से अपेक्षा करूंगा
कि आपको किसी अच्छे लोकतांत्रिक देश में
प्रशिक्षण के लिए भेजा जाए और पुन: मानसिक परीक्षण करवाया जावे कि क्या आप अभी भी नागरिकों के लिए कोई उपयोगिता रखते हैं| साथ
ही इस पत्र की एक प्रति संचार माध्यमों को प्रसारित की जा रही है ताकि देश के लोग
वास्तविकता को जान सकें और आपको भी उचित
सम्मान मिले जिसके आप हक़दार हैं |
उपरोक्त परिस्थितियों और तथ्यों के सन्दर्भ में माननीय आयोग
का उक्त निर्णय मेरी विनम्र राय में
संविधान और जनतांत्रिक मूल्यों के अनुकूल नहीं है| मैं यहाँ पर यह भी निवेदन करना प्रासंगिक
समझता हूँ कि प्रत्येक शक्ति के प्रयोग का आधार जनहित प्रोन्नति होना चाहिए विशेषतः
जब यह अहम प्रश्न सूचना के मौलिक अधिकार के
संरक्षक के सामने हो| माननीय आयोग के
उक्त निर्णय के विरुद्ध रिट भी दायर की जा
सकती है किन्तु वह भी एक अंतहीन, खर्चीली और जटिल व थकाने वाली प्रक्रिया
होगी| माननीय आयोग उदार हृदय से आत्मावलोकन
कर इस प्रकरण में स्वप्रेरणा से पुनरीक्षा कर पूर्ण और वास्तविक न्याय देने के लिए
सशक्त है| भारतीय गणतंत्र को मज़बूत बनाने की ईश्वर
आपको सदैव सद्प्रेरणा देते रहें| इसी आशा और विश्वास के साथ ,
आपका सदैव शुभेच्छु
मनीराम शर्मा
अध्यक्ष, इंडियन नेशनल बार एसोसिएशन , चुरू प्रसंग
रोडवेज डिपो के पीछे
सरदारशहर 331403 दिनांक:21.01.2016
ईमेल : maniramsharma@gmail.com
-:हिंदी प्रेम राष्ट्र
प्रेम:-
allwayes rules made to break.
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