Wednesday 6 July 2011

न्यायपालिका की अच्छी सेहत के लिए

जब सवा अरब की आबादी में हमें एक भी योग्य क्रिकेट कोच नहीं मिलता और हम विदेशी कोच नियुक्त करते हैं तो न्यायपालिका के गिरते स्वास्थ्य को देखते हुए हाई कोर्टों व सुप्रीम कोर्ट में विदेशी आयातित न्यायाधीशों की नियुक्ति पर सक्रिय विचार करना चाहिए. अमेरिका में पूर्णकालिक न्यायाधीशों की नियुक्ति 8 वर्ष के लिए व अंशकालिक न्यायधीशों की नियुक्तियां 4 वर्ष के लिए की जाती हैं .हमें भी ऐसी व्यवस्था की ओर बढ़ने के विषय में चिंतन करना चाहिए .इंग्लॅण्ड में न्यायिक नियुक्तियों के लिए अलग से न्यायिक नियुक्ति आयोग कार्यरत है तथा न्यायिक विभिन्नता पर सलाहकार मंडल की फरवरी 2010 की रिपोर्ट में कहा गया है कि न्यायधीशों के चयन पैनल में सेवारत न्यायाधीशों की संख्या घटाई जानी चाहिए जबकि हमारे यहाँ न्यायाधीशों के चयन का मामला न्यायपालिका पूर्णतया एक मात्र अपना क्षेत्राधिकार समझती है और कहा जाता है कि न्यायधीशों की नियुक्ति में मुख्य न्यायधीश की अनुशंसा राष्ट्रपति पर बाध्यकारी है .यह भी कहा जाता है कि निचले स्तर के न्यायाधीशों के चयन के लिए न्यायपालिका ही सर्वोतम है .इस प्रकार भारतीय लोकतंत्र में न्यायपालिका न केवल स्वतंत्र बल्कि स्वछन्द और लोक पर हावी दिखाई देती है. इंग्लॅण्ड एवं अमेरिका जैसे देशों में न्यायाधीशों को संरक्षण के लिए भारत के न्यायिक अधिकारी संरक्षण अधिनियम ,1850 या न्यायाधीश संरक्षण अधिनयम 1985 के समान अलग से कोई कानून नहीं है .



हमारी वर्तमान न्यायिक व्यवस्था में मात्र व्यावहारिक वकील जो न्यायाधीश , पुलिस, सरकारी वकील व न्यायालय के मंत्रालयिक कर्मचारियों से बेहतर तालमेल बनाये रख सके, उनकी मांगों की पूर्ति करता रहे और उनकी किसी बात का विरोध नहीं करे वही सफल वकील कहलाता है तथा वांच्छित निर्णय प्राप्त कर अच्छी आमदनी करने के साथ साथ कालांतर में वही उच्च न्यायिक पद प्राप्त कर सकता है . बी एम डब्लू मामले में प्रसिद्ध वकीलों क्रमशः आर के आनंद तथा आई यू खान द्वारा अपने मुवक्किल के लिए गवाह की खरीद फरोख्त के प्रकरण से यह तथ्य पुष्ट होता है कि नामी व सफल वकील कैसे बनते हैं, उनके ग्राहक किस स्तर के होते हैं और उनके आचरण के क्या गुणधर्म होते हैं .
सुप्रीम कोर्ट ने भी राजा खान के मामले में रातोंरात अमीर बनने वाले वकीलों का प्रासंगिक जिक्र किया है .उच्च न्यायालयों के रजिस्ट्रार जनरलों तथा राज्यों के विधि सचिवों की संगोष्ठी दिनांक 23.10.06 में भी अन्य बातों के साथ साथ कहा गया है कि सतर्कता प्रकोष्ठ न्यायालय के स्टाफ पर प्रभावी निगरानी रखेगा और उनकी गतिविधियों पर निगरानी रखेगा ताकि आम जनता की दृष्टि में न्यायालयों की छवि कलंकित न हो .आगे यह भी कहा है कि मामलों में तारीखें निरपवाद रूप से मात्र पीठासीन अधिकारी द्वारा ही दी जानी चाहिए और प्रक्रिया तथा परम्पराओं को इस प्रकार ढाला जाना चाहिए जिससे मुक़दमे के पक्षकारों का स्टाफ सदस्यों के साथ न्यूनतम संपर्क हो .जनता के समक्ष यह यक्ष प्रश्न उभरता है कि जिस स्टाफ की अस्वस्थ कार्यशैली के आगे उच्च न्यायालयों के रजिस्ट्रार जनरल तथा राज्यों के विधि सचिव बेबस हों उनसे बेचारी आम जनता किस प्रकार निपट सकती है .

जब तक वकीलों एवं न्यायाधीशों के मध्य दुरभि संधि है इन संस्थानों में भ्रष्टाचार को नहीं रोका जा सकता . हाल ही में उभरा न्यायाधीश निर्मल यादव प्रकरण व मुख्य न्यायाधिपति बालाकृष्णन के विरुद्ध जांच दुखदायी उदाहरण हैं .वैसे विडम्बना यह है कि देश के कानून में भ्रष्टाचार को कहीं परिभाषित नहीं किया गया है जबकि पोलैंड के कानून में भ्रष्टाचार की व्यापक व्याख्या की गयी है और निजी क्षेत्र के सार्वजनिक जीवन को प्रभावित करने वाली बातों को भी भ्रष्टाचार के दायरे में लिया गया है | पोलैंड में इस विभाग के मुखिया के लिए अन्य बातों के साथ साथ देश भक्त व निष्कलंक छवि वाला नागरिक होना योग्यता माना गया जबकि महान भारत भूमि में ऐसी योग्यता की आवश्यकता किसी भी महत्वपूर्ण पद के लिए नहीं बताई गयी है |
भारत भूमि में व्यावहारिक रूप में उच्च न्यायालय का न्यायाधीश होने के लिए प्रभावशाली राजनीतिज्ञों तथा न्यायाधीशों के साथ अच्छे संपर्क होना नितांत आवश्यक हैं. कई परिवारों से पीढ़ियों से हाई कोर्ट व सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीश चल रहें हैं मानो कि यह कोई आनुवंशिक पारितोषिक का पद हो व इस प्रकार की पक्षपात और भाई भतीजावाद आधारित नीति पर पर्याप्त विषय वस्तु इन्टरनेट पर पहले से ही अंग्रेजी भाषा में उपलब्ध है .

हमारे कानून में न्याय के नाम पर अनावश्यक शोषण व उत्पीडन, अथवा अपराध के शिकार व्यक्ति को राहत के लिए कोई कानून नहीं है फलतः न्यायालय कई बार मूल मामले की सुनवाई से पहले ही क्षतिपूर्ति देने की कृपा कर देते हैं व कई बार क्षतिपूर्ति का मामला मूल मुकदमे के परिणाम पर छोड़कर पीड़ित व्यक्ति के साथ क्रूर उपहास करते हैं. संहिताबद्ध कानून के अभाव में न्यायालयों के रुख एवं मत में परिवर्तन से अनिश्चितता बनी रहती है . हमारे राष्ट्रीय पुलिस आयोग की नवंबर 1980 में प्रस्तुत पांचवीं रिपोर्ट में भी क्षतिपूर्ति के लिए अनुशंषा की गयी है .हमारे सुप्रीम कोर्ट ने निलाब्ती बेहेरा के मामले में सत्र न्यायाधीश द्वारा प्रशासनिक जांच के आधार पर पुलिस को दायीं मानते हुए क्षतिपूर्ति प्रदान कर दी थीं किन्तु हाल ही में तुलसी प्रजापति मुठभेड़ प्रकरण में क्षति पूर्ति से मना कर दिया गया . दूसरी ओर यदि एक लोक सेवक को संदेह के आधार पर निलंबित कर जाँच की जाती है और वह दोषी सिद्ध नहीं हो पाता तो उसे पूर्व अवधि के समस्त सेवा लाभ देकर बहाल कर दिया जाता है . यह विधि के समक्ष समानता का स्पष्ट उल्लंघन है . इसी परिपाटी के अनुसार गिरफ्तारी एवं अभियोजन की अनुचित पीडा से पीड़ित व्यक्ति को क्षतिपूर्ति दी जानी चाहिए .गंभीर अपराधियों के मुठभेड़ में मारे जाने के प्रकरणों में भी यह जाँच का विषय होना चाहिए कि वह गंभीर अपराधी किसके सहयोग से बना क्योंकि अपराध की दुनियां में कदम रखते ही कोई व्यक्ति रातोंरात गंभीर अपराधी नहीं बन जाता है .अधिकांश खतरनाक अपराधियों को पुलिस व राजनेताओं का संरक्षण प्राप्त होता है .दूसरी ओर इंग्लॅण्ड में आपराधिक मामले पुनरीक्षा आयोग कार्यरत है जोकि किसी भी आपराधिक मामले की पुनरीक्षा कर सकता है तथा न्याय के विफल होने पर उचित क्षतिपूर्ति दिलवा सकता है . इंग्लॅण्ड में पुलिस अधिनयम ,1997 कि धारा 86 के अनुसार पुलिस द्वारा यातना के लिए महानिदेशक राष्ट्रीय अपराध दस्ता जिम्मेदार है तथा यातना के लिए कार्यवाही के मामलों में राष्ट्रीय अपराध दस्ता कोष में से क्षतिपूर्ति दी जाती है . हमारे यहाँ तो पुलिस पूछताछ में एक गवाह से ऐसा व्यवहार किया जाता है मानो कि वही अपराधी हो .इसीलिए लोग गवाही नहीं देना चाहते हैं.

उपरोक्त परिस्थितियों के मद्देनजर वकील समुदाय को भी विद्यमान भारतीय न्यायप्रणाली से न्याय प्राप्त होने का अधिक विश्वास नहीं है तथा वे अपने मुद्दों के लिए न्यायिक प्रक्रिया का सहारा लेने के बजाय धरना , प्रदर्शन , हड़ताल और राज्यपाल अथवा राष्ट्रपति को प्रतिवेदन देना ही श्रेयस्कर समझते हैं. अब तक किये गए दिखावटी न्यायिक सुधार लोकतंत्र की रक्षा के लिए अपर्याप्त हैं और जब लोकतंत्र के सभी स्तंभ अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर रहे हैं तो देश की कानूनी एवं न्याय प्रणाली में वास्तविक सुधार हेतु आज आम जन की भागीदारी आवश्यक है. स्वतंत्रता के बाद हमारी लोकतान्त्रिक सरकारों के कमजोर प्रदर्शन को देखते हुए विश्वास नहीं होता कि वे बिना जन दबाव के कोई सार्थक कार्य करेंगी .

No comments:

Post a Comment