Saturday, 10 September 2011

अनुसन्धान एवं अभियोजन

रामनारायण बनाम राजस्थान राज्य (1989 क्रि.ला.ज.760) में कहा गया है कि द.प्र.सं. की धारा 195 (1) द्वारा इसमें उल्लिखित अपराधों का प्रसंज्ञान की मनाही है और अनुसंधान की नहीं। यदि पुलिस अनुसंधान आरोप पत्र दाखिल करती है और आपति की जाती है तो धारा 195 (1) के कारण प्रसंज्ञान नहीं लिया जा सकता। यहां तक कि यदि एक मामले में एक मूल प्रलेख की जालसाजी की जाती है तो न्यायालय को आपति निर्धारित करनी पड़ेगी। कारण स्पष्ट है यह भी संभव है कि अनुसंधान के बाद पुलिस धारा 195 (1) (बी) (द्वितीय) से प्रथम दृष्टया भिन्न अपराधों के नतीजे पर पहुँच सकती है और तदनुसार रिपोर्ट बना सकती है या संभव है वह अंतिम रिपोर्ट दे दे। इसलिए अनुसंधान को निरस्त करना स्पष्टतया गलत होगा।
राजस्थान उच्च न्यायालय ने जगदीश चन्द्र बनाम राजस्थान राज्य (1996 (2) डब्लू एल एम 542) में कहा है कि गोविन्द सिंह को  न्यायालय में नहीं पेश  किये जाने के विषय में साक्ष्य के अभाव में, अभियोजन द्वारा प्रयासों के बावजूद यह अभिप्राय निकाला जा सकता है कि उसे अभियोजन ने रोक लिया है।

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