Sunday 6 November 2011

न्यायिक स्खलन को रोका जाय

सुप्रीम कोर्ट ने प्रसिद्ध प्रकरण जाहीरा हबीबुल्ला षेख बनाम गुजरात राज्य (2004 एआईआर 3114) में कहा है कि यदि राज्य की मषीनरी नागरिकों के जीवन, स्वतन्त्रता और सम्पति की रक्षा करने में असफल रहती है और अनुसंधान इस प्रकार की जाती है जिससे अभियुक्तों की मदद हो तो इस न्यायालय के लिए उपयुक्त होगा कि न्याय के लिए पीड़ित और उसके परिवारों पर होेन वाले अनुचित स्खलन को रोकने के लिए आगे आये । यद्यपि नाम कोई महत्वपूर्ण नहीं है। इस बात के लिए प्रार्थना की कि षपथ पत्रों को रिकॉर्ड पर लिया जाये, स्वीकार किया जावे और षपथ पत्र देने वालों से अतिरिक्त साक्ष्य लिया जाये और यदि अतिरिक्त साक्ष्य के बाद उच्च न्यायालय आवष्यक समझता तो पुनः अन्वीक्षा हेतु निर्देष जारी किये जाये। चूंकि हम पुनः परीक्षण के निर्देष देते हैं अतः संहिता की धारा 309 के अनुसरण में इसे दिन प्रतिदिन के आधार पर और दिसम्बर 2004 के अन्त तक पूरा करना उपयुक्त रहेगा।
सुप्रीम कोर्ट ने भारत संघ बनाम सूबेदार देवासिंह (2006 एआईआर 909) में कहा है कि यदि एक पक्षकार किसी आदेष से व्यथित है कि उसके विचार में वह आदेष गलत या नियम विरूद्ध या जिसका लागू करना व्यवहारिक रूप से असंभव है तो उसे उसी न्यायालय में जाना चाहिऐ या अपीलीय क्षेत्राधिकार वाले न्यायालय में जाना चाहिए। आदेष की षुद्धता या गलती को अवमान कार्यवाही में नहीं उठाया जा सकता। सही या गलत हो आदेष की अनुपालना होनी चाहिए। न्यायालय के आदेष का उल्लंघन एक पक्षकार को अवमान के लिए दायी ठहराये जायेगा।
सुप्रीम कोर्ट ने नवाब खां अब्बास खां बनाम गुजरात राज्य (1974 एआईआर सुको 1471) में कहा है कि यदि एक पक्षकार को संविधान द्वारा गारंटी किये गये अधिकार को हानि पहंुचती है तो उसके लिए सुरक्षित रास्ता यही है कि जब तक विधायिका द्वारा उस पर सीधी और सुनिष्चित रोषनी नहीं डाली जाती तो प्रभावित पक्षकारों को सुने बिना दिये गये आदेष को प्रारम्भ से ही व्यर्थ एवं निश्प्रभ आना जाना चाहिए। दूसरे मामलों में प्राकृतिक न्याय के उल्लंघन में दिया गया आदेष  न्यायालय द्वारा सीमित अर्थों में अवैध ठहराये जाने योग्य है।
सुप्रीम कोर्ट ने मोतीलाल सर्राफ बनाम जम्मू कष्मीर राज्य के निर्णय दिनांक 29.09.06 में कहा है कि अतर्कसंगत विलम्ब को रोकना न्यायालय और अभियोजन दोनों का बाध्यकारी दायित्व है।

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