Sunday, 11 May 2014

भारत में न्याय की अवधारणा और यथार्थ

हमारी जनतांत्रिक व्यवस्था में यद्यपि जन प्रतिनिधियों के माध्यम से जन भावनाओं को कार्यरूप देने  की व्यवस्था की गयी है किन्तु सभी जानते हैं कि ये जनप्रतिनिधि सच्चे अर्थों में किनके प्रतिनिधि हैं जब ये प्रश्न पूछने के लिए धन लेते हैं और सांसदों का वेतन जो वर्ष 2005 में 4000 रूपये प्रतिमाह था को बढाकर वर्ष 2009 में 50000 रूपये महीना एक स्वर में कर लोकतंत्र पर बड़ा उपकार करते हैं|   इसी दर्शन को ध्यान में रखते हुए ग्राम पंचायत स्तर पर ग्राम सभाओं की व्यवस्था की गयी है जहां आम नागरिक सभा में भाग ले सकते हैं, अपने विचार रख सकते हैं| ठीक यही व्यवस्था संसद और विधान सभाओं के सम्बन्ध में लागू की जानी चाहिए व  सांसदों तथा विधायकों के लिए अपने क्षेत्र में नियमित मीटिंगें करना आवश्यक  बनाया जाना चाहिए क्योंकि वे पार्टी के नहीं अपितु जन प्रतिनिधि हैं और न्यायपालिका  सहित सरकार के प्रत्येक अंग में प्रत्येक स्तर पर जन समितियों का गठन किया जाना चाहिए  ताकि जनता की सक्रिय  भागीदारी सुनिश्चित हो सके| भारतीय गणतंत्र का उद्धार तो तभी हो सकता है जब समस्त नीतियाँ, नियम, कानून यह धारणा लेकर बनाए जाएँ कि सत्ता  में शामिल प्रत्येक व्यक्ति भ्रष्ट, नकारा, कर्तव्यहीन, गैर जिम्मेदार है या सत्ता प्राप्त होने पर हो जाएगा चाहे उसके पद की ऊँचाई  या नाम  कुछ भी क्यों न  हो | भारत के लोग सदियों से गुलाम रहे हैं और अब उनके हाथ में सत्ता  का कोई भी अंश प्राप्त होने पर वे भूखी भेडिये की तरह टूट पड़ते हैं जिस प्रकार एक भूखे व्यक्ति को कई दिनों से भोजन मिलने पर | यदि वास्तव में लोकतंत्र के सपने को साकार करना हो तो देश के प्रत्येक कानून में सम्बद्ध लोक सेवकों की जिम्मेदारी परिभाषित होनी चाहिए और उनकी प्रत्येक लापरवाही, दुराचार व अनाचार  के लिए बिना किसी औपचारिक पूर्वानुमति के दंड की पुख्ता व्यवस्था होनी चाहिए | सुपरिभाषित नीतियों व स्पष्ट  कानून के अभाव में मनमानेपन की संभावना रहती है |
हमारे  राजनेता भी मात्र कमियाँ ढूंढने  का ही कार्य करते रहे हैं , कोई रचनात्मक कार्य करने की न  तो उनमें क्षमता है और न  ही ज्ञान है हाल ही में पूर्व मंत्री श्री अरुण शौरी ने बयान दिया कि  विकास में तेजी लाने के लिए राज्यों को और शक्तियाँ दी जानी चाहिए|  किन्तु प्रश्न यह है कि जो शक्तियां राज्यों के पास पहले से ही हैं क्या उनका वे सही व भरपूर उपयोग करते हैं | संविधान के अनुसार न्याय व्यवस्था राज्यों के अधिकार क्षेत्र में है और देश में साक्ष्य, सिविल प्रक्रिया , दंड प्रक्रिया , दंड संहिता आज भी राजशाही तर्ज पर  अंग्रेजों के बनाए  हुए ही प्रचलित हैं और किसी भी राज्य ने उनका भारतीयकरण या प्रजातान्त्रिकीकरण  करने की पहल नहीं की है| कुछ  समय पूर्व यशवंत  सिन्हा ने भी बयान दिया था कि  आई पी सी  में क्या दोष है इस कानून के आधार पर तो अंग्रेजों ने 200  वर्ष शासन किया है| किन्तु वे भूल रहे हैं कि शासन तो अंग्रेजी कानून से पहले भी चलता रहा है|  यदि अंग्रेजों के बनाए  ये कानून और नीतियाँ प्रजातंत्र के अनुकूल थी तो फिर अंग्रेजों को कोसने अथवा स्वतंत्रता की मांग करने की आम  व्यक्ति को क्या  आवश्यकता थी | इंग्लॅण्ड तो बिना लिखित संविधान के भी चल रहा है किन्तु भारत में लिखित संविधान के बावजूद ठीक ठाक  नहीं चल रहा इसका कारण यह है कि वहां के नेतृत्व का नैतिक स्तर भारत से श्रेष्ठ है|  देश के राजनेताओं की मानसिक स्थिति को देखने पर वे दया के पात्र  नजर आते हैं|  अव्यवस्था और मंद विकास का जिक्र करने पर देश का नेतृत्व  बचाव में कहता है कि जापान जैसे तेजी से विकास करने वाले देशों की जनसंख्या कम है किन्तु वे भूल जाते हैं कि उनके प्राकृतिक साधन और श्रम शक्ति भी तो कम है| इसके विपरीत भारत में प्रचुर प्राकृतिक साधन व श्रम शक्ति है  तथा उपभोक्ता बाज़ार भी विस्तृत है किन्तु सुप्रबन्धन का अभाव है | अत: अधिक आय,उत्पादन व उपभोग पर सरकार को कर भी अधिक मिलता है फिर अव्यवस्था का क्या कारण है  समझ से परे रह जाता है | प्रजातंत्र का वास्तविक अर्थ तो लोगों के मन पर  शासन से होता है न  कि  इनके तन पर, शायद यह बात देश के राजनेता आज तक नहीं समझ पाए हैं| भारतीय  1  रूपये का जो अंतर्राष्ट्रीय मूल्य वर्ष 1917 में 13 डॉलर के बराबर था 2013 में   1 डॉलर बराबर  70 रुपया (अर्थात 1/910) हो गया  और वह  दिन दूर नहीं लगता जब 100 रुपया एक डॉलर के समान रह जाएगा|

मेट्रो में रहने वाले जन प्रतिनिधियों को जब ग्रामीण कठिनाइयों का कोई अनुभव नहीं हो तो उन्हें मंत्री बनाना किस प्रकार उचित हो सकता है| क्योंकि मेट्रो की नगर निगम का ही बजट राजस्थान जैसे एक राज्य के बजट से अधिक होता है | एक उदाहरण से यह बात और स्पष्ट हो सकेगी कि आपातकाल के दौरान सभी विरोधी नेताओं को जेल की कठिनाइयों का सामना करना पडा फलत: 1977 में सत्ता  में आते ही जनता पार्टी की सरकार ने सर्वप्रथम जेल सुधार पर ध्यान दिया|  जिस प्रकार एक गरीब व्यक्ति को अरबों रूपये यदि एक साथ दे दिये जाएँ तो वह उनका कुशल प्रबंधन नहीं कर सकता ठीक उसी प्रकार मेट्रो में रहने वाले ये धनी लोग भी समान रूप से गरीब और ग्रामीण  जनता के योग्य बजट, योजना या कानून  नहीं बना सकते | अंग्रेजी संस्कृति के वातावरण में जन्मे और पले  इन नेताओं द्वारा जो भी नीतियाँ, कानून आदि बनाए जाते हैं वे लोगों के लिए  दुर्बोध अंग्रेजी भाषा में बनाए जाते हैं जो प्लास्टिक फूलों की तरह शोभायमान तो होते हैं किन्तु  उनमें देशी संस्कृति के पुट  के बिना स्वाभाविक खुशबू गायब होती है |  

संज्ञेय अपराध के स्थिति में सूचना मिलने पर पुलिस को अविलम्ब ऍफ़ आई आर दर्ज करनी  चाहिए और शेष जांच तो उसके बाद में ही प्रारंभ होनी चाहिए|  इस आशय से सरकार ऑनलाइन ऍफ़ आई आर प्रारंभ करने जा रही है | दूसरी ओर सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की कि पुलिस को शिकायत प्राप्त होने के  बाद 3 माह तक का समय ऍफ़ आई आर दर्ज करने हेतु  अनुमत किया जाए| दंड प्रक्रिया संहिता में अनुसंधान हेतु 3 माह की अवधि नियत है|  यदि ऍफ़ आई आर दर्ज करने के लिए 3 माह अवधि हो तो फिर अनुसंधान के लिए तो 3 वर्ष की अवधि और मुक़दमे के लिए 3 दशक की अवधि की कल्पना की जानी चाहिए| इस भूमि पर एक ओर निर्दोष नागरिकों को फर्जी मुठभेड़ में मारने के लिए सजा के स्थान पर पुलिस को सम्मान और पदोन्नति  दी जाती है वहीं मानवाधिकार आयोग इन निर्मम हत्याओं  के लिए मुआवजा देते हैं| भारत सरकार  के उक्त विरोधाभासी कार्यों से सरकार संचालन में भागीदार लोगों व सरकारी वकीलों के मानसिक स्वास्थ्य  पर संदेह होना स्वाभाविक है| अर्थात सरकार और उसके वकील तो अपने प्रत्येक मनमाने कार्य को उचित ठहराने के भी दुराचरण की परिधि में आते हैं किन्तु सुपरिचित कारणों से सरकार इन पर कोई कार्यवाही नहीं करती | यदि सरकार तुलनात्मक रूप से हलके दंड के लिए भी अपने सेवकों के विरुद्ध कोई विभागीय कार्यवाही प्रारम्भ नहीं करती तो विश्वास नहीं किया जा सकता कि वही सरकारी तंत्र इनके विरुद्ध न्यायालय में कठोर कार्यवाही के लिए अनुमति देदेगी| वैसे व्यवहार में देखा जाए तो लोक सेवकों के अभियोजन के लिए स्वीकृति की नौबत ही नहीं आती है | फिर  भी जब तक ऊपर हिस्सा पहुंचता रहता है स्वीकृति नहीं दी जाती है| इस प्रकार दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 197 भ्रष्टाचार का पोषण करने में पर्याप्त योगदान देती है|  किसी भी लोक सेवक के विरुद्ध आपराधिक शिकायत पर कोई भी पुलिस अधिकारी या न्यायाधीश प्रथम दृष्टया ही कोई कार्यवाही नहीं करते बल्कि किसी न किसी अनुचित आधार पर उसका असामयिक अंत कर दिया जाता है| अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि लोक सेवकों के विरुद्ध दायर 20 में मात्र 1 मामले में  ऍफ़ आई आर दर्ज होने के आदेश हुए जिसमें भी पुलिस ने अंतिम रिपोर्ट दे दी किन्तु मजिस्ट्रेट ने प्रसंज्ञान लिया| किन्तु बाद में रिवीजन में वकील की मिलीभगत से सत्र न्यायालय स्तर पर वह मामला भी ख़ारिज हो गया| वकील लोग कई बार अनुपस्थित रहकर विरोधी की मदद कर देते हैं और न्यायाधीश इसमें भागीदार बनते हैं|  अत: भारत की जनता को इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि वे मौजूदा न्याय तंत्र में किसी राजपुरुष के विरुद्ध कोई उपचार प्राप्त कर सकते हैं | यह तो एक आँख मिचौनी के खेल और अभेद्य चक्रव्यूह की तरह है| भारत का न्यायतंत्र अस्वच्छ है और इसमें प्रवेश करनेवाले को संक्रमण का ख़तरा हमेशा बना रहता है |  देश के न्यायाधीश एक ओर बकाया मुकदमों के अम्बार पर चिंता व्यक्त करते देखे जाते हैं वहीं वर्ष में सर्दी-गर्मी- त्यौंहारों के नाम लगभग 100 छुट्टियां मनाते हैं| छुट्टियां इन लोगों ने मनानी ही हैं चाहे सर्दी गर्मी हो या न हो | जहां जम्मू कश्मीर, हिमाचल, उत्तराखंड जैसे इलाकों में गर्मी नहीं पडती वहां सर्दी के बहाने 45 दिन की छुट्टियां मना लेते हैं और बंगाल जैसे राज्यों में अक्टूबर माह में 30 दिन की छुट्टियां – जब सर्दी और गर्मी दोनों ही न हो – मनाना जरुरी समझते हैं| किन्तु इन्हीं लोगों को जब सेवानिवृति के बाद किसी आयोग या अर्द्धन्यायिक  निकाय में लगा दिया जाता है तो  ये बिना सर्दी गर्मी की परवाह किये कार्य करते हैं|  इससे न्यायतंत्र से जुड़े लोगों की बकाया मामलों के प्रति चिंता की वास्तविकता का सहज अनुमान लगाया जा सकता है | राजशाही के रूप में और लोकतंत्र के आवरण में  शासित भारत के निवासी धन्य हैं | लोकतंत्र  में जनभावना प्रमुख होती है| क्या जनता चाहती है कि वर्ष में इतनी सवैतनिक छुट्टियां हों ?
                                      


1 comment:

  1. जनता की कोई भी प्रवाह करता है ।

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