समाज
में अपराध भर्त्सनीय हैं क्योंकि ये मानव मात्र के सह अस्तित्व के मौलिक सिद्धांत के
विपरीत कार्य करते है| वे सामाजिक
ढांचे को न केवल कमजोर करते हैं अपितु उसको
नष्ट करने के लिए ताल ठोकते हैं| ये शांतिमय व्यक्तिगत जीवन का
त्याग करते हैं और अनावश्यक पीड़ा या मृत्यु का कारण बनते हैं| अपराध जब संगठित रूप में प्रायोजित
किये जाएँ तो और अधिक घातक हो जाते हैं| और जब इन अपराधियों की
प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में उन्हीं लोगों द्वारा मदद की जाए जिनका कर्तव्य इन्हें
रोकना है तो स्थिति बद से बदतर हो जाती है| जब पीड़ित व्यक्ति को दुःख सहन करने
के लिए विवश किया जाए और अपराधी बच निकलते हैं तो यह असीम आक्रोश उत्पन्न करता है |
आज भारत कुछ ऐसी ही हालत से गुजर रहा है|
आपराधिक न्याय प्रशासन के प्रत्येक क्षेत्र में सुधार
की आवश्यकता है| जहां एक ओर न्याय प्रणाली
में सुधार के लिए तुरंत, गंभीर और निष्ठा पूर्वक प्रयासों की
आवश्यकता है वहीं अपराधियों के प्रति सामन्यतया नरम रुख अपनाने का फैशन बनता जा रहा है और मृत्यु दंड
को बंद करने की चर्चाएँ हो रही हैं|
उचित अनुसंधान की आवश्यकता के विषय में कोई दो राय नहीं हो सकती|
एक अभियुक्त को तब तक दोषी नहीं माना जाना चाहिए जब तक कि दोष प्रमाणित न हो जाए| किसी भी व्यक्ति के
साथ निर्मम व्यवहार उचित नहीं है| अपराध को उचित ठहरानेवाली परिस्थितयों
पर समुचित विचार किया जाना चाहिए| इन सब के साथ साथ समाज में
अच्छा व्यवहार सुनिश्चित करने के लिए और संकट को टालने के लिए दंड दिए जाने की भी मुख्य भूमिका है| आपराधिक
न्याय प्रशासन में दंड कोई बदला लेने के लिए नहीं दिया जाता| इसका आँख के बदले आँख के सिद्धांत से कोई लेनादेना नहीं है| यद्यपि यह अप्रासंगिक है फिर भी गांधीजी
को उद्धृत किया जाता है कि यदि आँख के बदले
आँख के सिद्धांत को लागू किया गया तो समस्त संसार ही अंधा हो जाएगा| किन्तु वास्तविकता तो यही है कि समस्त
विश्व को अंधा होने से मात्र भय और आँख के बदले आँख के सिद्धांत की संभावना
ने ही बचा रखा है| भय के अभाव में विश्व में दो तरह के लोग होंगे, एक वे जिन्होंने
दूसरों की आँखें फोड़ दी और दूसरे वे जो उनके द्वारा बदले में अंधे कर दिए गए|
यदि
न्यायालय एक दोष सिद्ध व्यक्ति पर मृत्युदंड
सहित कोई दंड आरोपित करता है तो वह बदला बिलकुल नहीं है अपितु यह तो पेशेवर, न्यायिक, निष्पक्ष और प्रशासनिक
कृत्य है जोकि समाज के वृहतर हित में और अन्य लोगों को अपराध करने से रोकने के लिए
उपाय है| प्राचीन तमिल संत थिरुवावल्लुर ने कहा है, “जिन लोगों ने हत्या जैसे संगीन अपराध
किये हैं उन्हें कड़ा दंड देने में राजा का कृत्य ठीक वैसा ही है मानो कि फसलों को बचाने के लिए एक किसान खरपतवार को हटाता है|”
एक अच्छी सरकार को कानून का सम्मान करने वाले अपने नागरिकों का सर्व प्रथम ध्यान रखना चाहिए| इसके लिए आवश्यक है कि अपराधियों के साथ सख्ती से निपटे| भारत में वर्तमान में विद्यमान स्थिति इसके ठीक विपरीत है| यहाँ कानून का सम्मान करने वाले नागरिक पीछे धकेल दिए गए हैं और अपराधियों
को कोई भय नहीं है| अपराध लगातार बढ़ रहे हैं | वे न केवल बढ़ रहे हैं अपितु सुनियोजित और क्रूरतर तरीके से
किये जाने लगे हैं| अपराधी लोग और अधिक धनवान व दुस्साहसी
हो रहे हैं, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उनकी भूमिकाएं महत्वपूर्ण
होती जा रही हैं – विशेषकर व्यापार और राजनीति में | अपराधियों के प्रभाव को कम करने के किसी भी प्रयास का संगठित राजनैतिक वर्ग
द्वारा कड़ा विरोध किया जाता है | यद्यपि वे किसी राष्ट्रीय मुद्दे के
लिए इतने जल्दी संगठित नहीं होते हैं |
आज संगठित अपराध तेजी
से बढ़ रहे हैं, इसके कई कारण हैं | इनमें खराब शासन, राजनैतिक हस्तक्षेप, अपराधियों का धन बल, अनुसन्धान व अभियोजन में संवेदनहीनता,
न्याय प्रदानगी में असामान्य देरी, अपर्याप्त दंड,
जेल प्रशासन में कमियाँ,
दिखावटी मानवाधिकार कार्यकर्ताओं द्वारा अनुचित व झूठा प्रचार –प्रसार व दिखावटी
मानवाधिकार संगठन, प्रतिस्पर्धी और धन लोलुप दृश्य-मीडिया शामिल
हैं| उचित रूप से लागू
किया गया दंड अपराधों की रोकथाम में निश्चित रूप से सहायक है|
इस प्रसंग में राजस्थान
का एक उदाहरण उल्लेखनीय है जिसमें अभियुक्त ने दिनांक- 19.7.82 को समूह
में प्राणघातक हमला करके एक व्यक्ति की बांये हाथ की कोहनी व दूसरे के हाथ की हथेली तलवार
से काट दी| अभियुक्त मात्र 7 दिन जेल में रहा और जमानत पर बाहर आ गया| सत्र न्यायालय
ने अपने निर्णय दिनांक- 11.10.1984 से मुख्य अभियुक्त को पाँच वर्ष के कठोर
कारावास एवं 3000/-रूपये अथर्दण्ड से दण्डित किया| अभियुक्त ने उच्च न्यायालय में अपील
कर सजा पर स्थगन ले लिया और स्वतंत्र घूमता रहा| अभियुक्त राज्य सेवा में था अत: उसने
नौकरी भी निर्बाध पूरी कर ली| आखिर 25 वर्ष
बाद उच्च न्यायालय ने दिनांक 02, जुलाई 2009 को दिए गए निर्णय में भुगती हुई 7 दिन की सजा को पर्याप्त
समझा एवं 50,000/-रूपये (अक्षरे पचास हजार)
अथर्दण्ड से दण्डित किया और आदेश दिया कि यह जुर्माना राशि पीड़ित को
क्षतिपूर्ति स्वरुप दी जायेगी| यक्ष प्रश्न
यह है कि संगीन अपराध के लिए जब देश के संवैधानिक न्यायालय इतनी सजा को ही पर्याप्त
मान लेते हैं तो ऐसे अपराधों में फिर पुलिस द्वारा गिफ्तारी या रिमांड का क्या औचित्य
है| इतनी अल्प सजा के बावजूद सरकार ने आगे
कोई अपील नहीं की और स्वयं पीड़ित ने ही उच्चतम न्यायालय में अपील की जिसमें दिनांक
5 मई 2014 को निर्णय सुनाकर उच्चतम न्यायालय
ने सजा को 2 वर्ष के कठोर कारावास तक बढ़ा दिया और क्षति पूर्ति की राशि को बरकरार रखा|
देश के ही गैर इरादतन वाहन व औद्योगिक दुर्घटना कानून में अंग भंग के लिए उचित क्षतिपूर्ति
का प्रावधान है| किन्तु देश के आम नागरिक की समझ से यह बाहर है कि जो न्यायपालिका किसी
घोटाले से सम्बन्धित समाचार में एक न्यायाधीश के
चित्र को गलती से दिखा दिए जाने पर
मानहानि के बदले 100 करोड़ रूपये की क्षतिपूर्ति उचित समझती है वह एक हाथ काटे जाने के मामले में
निस्संकोच होकर मात्र 50000 रूपये की क्षतिपूर्ति को किस प्रकार पर्याप्त समझती है|
जहां एक ओर भीड़ द्वारा पुलिस पर पथराव करने या मजिस्ट्रेट की गाडी से किसी अन्य की
गाडी के टकरा जाने मात्र को ही जानलेवा हमला मान लिया जाता है और निचले न्यायालय जमानत
से मना कर देते हैं वहीं हाथ काट देने को भी जानलेवा नहीं माना जाता| संभव है कि पीड़ित
ने क्षतिपूर्ति राशि बढाने की मांग न की हो किन्तु जब न्यायपालिका मिडिया में प्रकट
किसी मामले में स्वप्रेरणा से संज्ञान लेकर न्याय देने का बीड़ा उठाने को तैयार है तो
फिर एक पीड़ित को समुचित न्याय क्यों नहीं दे सकती| उच्च न्यायालय द्वारा लम्बी अवधि
तक सुनवाई न करना किस प्रकार कानून के समक्ष समानता है? एक अन्य पहलू यह भी है कि जब एक अभियुक्त को संगीन
अपराध का दोषी पा लिया जाए और फिर भी उसे मात्र प्रतीकात्मक दंड दिया जाए तो मनोवैज्ञानिक रूप से पुलिस व अधीनस्थ
न्यायाधीश भी हतोत्साहित होते हैं तथा उनका मनोबल गिरता है| उक्त प्रकरण में मात्र
7 दिन की सजा देने की वजह भारत का दोषपूर्ण दंड कानून है जिसमें न्यूनतम सजा का प्रावधान
नहीं है अत: न्यायाधीश जो मर्जी सजा दे सकते हैं जबकि अमेरिका के दंड कानून में अधिकतम सजा का प्रावधान होने के साथ साथ न्यूनतम सजा भी परिभाषित है जोकि
अक्सर अधिकतम सजा की 90 प्रतिशत है यानी न्यायाधीश मात्र 10 प्रतिशत सजा में ही कटौती
कर सकते हैं जिससे भ्रष्टाचार की संभावनाएं भी कम हो जाती हैं| कहा भी गया है लक्ष्मी
व्यापार में निवास करती है अत: निश्चित रूप से जिन लोगों ने नौकरी करते हुए अकूत सम्पति
संचित कर रखी है वे नौकरी को भी व्यापार की तरह कर रहे हैं| स्मरण रहे बेईमानी व्यापार
का एक घटक है|
जेल के निरीक्षण पर आये पंजाब उच्च न्यायालय के एक
न्यायाधीश ने भ्रष्टाचार के आरोपी से जेल में आवेदन लेकर तत्काल ही जमानत मंजूर करने
के निर्देश दे दिए ! किन्तु बहुत से लोग वास्तविक
कारणों की ओर आँख मूँद लेते हैं और दंड प्रणाली को दोष देते हैं | आज कानूनी प्रणाली और आपराधिक प्रक्रिया अपराधियों के
लिए मददगार है| मानवाधिकार के ज्यादातर पैरोकार और सत्ता में
शामिल लोग कानून में विश्वास रखने वाले और
पीड़ित लोगों के अधिकारों के प्रति बेखबर हैं | ऐसे कितने मामले
हैं जहां अपराधी मात्र अपराध करने के लिए ही जमानत पर बाहर आये हों? तर्कसंगत दंड देने में विफलता के कारण प्रभावित लोग सरकार में विश्वास खो देते
हैं| कई मामलों में तो वे हिसाब चुकता करने के लिए कार्य करते हैं | स्थानीय गैंग के नेता और भाड़े के बदमाश अच्छा कारोबार करते हैं और बेईमान राजनेताओं
व अधिकारियों की मदद से जड़ें जमा लेते हैं| इससे समाज में संगठित अपराध पनपते हैं | वास्तव में भारतीय न्यायतंत्र
तो संगठित अपराधियों, राजनेताओं, विधिज्ञों, कार्यपालक व पुलिस अधिकारियों का एक रासायनिक योगिक है जिसको पारखी
रसायन शास्त्री ही जान सकता है| किसी वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के यहाँ समारोह में इन सभी
को एक मंच साझा करते हुए देखा जा सकता है|
सत्य
तो यह है कि जिस प्रकार की गंभीरता और संजीदगी एक सभ्य राष्ट्र में अपराधों की रोकथाम
के लिए होनी चाहिए वह भारत में बिलकुल नहीं है| इस विषय पर आंकड़ों को देखकर सत्ता में शामिल लोगों को शर्म आनी चाहिए किन्तु
उन्हें तो व्यक्तिगत कार्यों से ही फुरसत नहीं है और प्रशासन उनके हाथों की मात्र कठपुतली
है| एक कहावत है, “यदि तुम पेड़ पर बैठी
चिड़िया को मारना चाहते हो तो लक्ष्य आकाश पर होना चाहिए|” जबकि
इस देश में तो जनता को धोखा देने के लिए सत्तासीन लोग अपराध दर्ज करने का जिक्र करते
हैं और एक युवा नेता कहता है कि भारत में भ्रष्टाचार के निर्मूलन में 20 वर्ष लग जायेंगे|
लोगों को शून्य अपराध और शून्य भ्रष्टाचार में जीने का अधिकार है|
यदि राजनैतिक इच्छशक्ति हो तो यह असंभव नहीं है |
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