जिस
व्यक्ति का भारत के न्यायालयों से कोई वास्ता नहीं पडा हो उनके लिए वे बहुत
सम्मानजनक स्थान रखते हैं | मेरे मन में भी कुछ ऐसा ही भ्रम था किन्तु लगभग 20
आपराधिक और सिविल मामले सरकारी अधिकारियों और प्रभावशाली लोगों के विरूद्ध देश के
विभिन्न स्तर के न्यायालयों में दायर करने के बाद मेरा यह भ्रम टूट गया | इनमें से
ज्यादातर का प्रारम्भिक स्तर पर ही असामयिक अंत कर दिया गया ...न्याय एक में भी
नहीं मिला | सरकारी पक्ष के विषय में न्यायालयों की यह अवधारणा पायी गयी कि वह ठीक होता है |
एक
रोचक मामला इस प्रकार है | राज्य परिवहन की बस में एक बार यात्रा कर रहा था जिसमें
36 सवारियां बेटिकट थी अचानक चेकिंग आई, गाडी रुकवाकर निरीक्षण किया गया | चेकिंग
दल ने सिर्फ 18 सवारियां बेटिकट का रिमार्क दिया | कंडक्टर और ड्राईवर गाड़ी को लेकर आगे बढे | अब
कंडक्टर को आगे चेकिंग का कोई भय नहीं था
इसलिए रास्ते में एक भी सवारी को टिकट नहीं दी |
दो दिनों तक वह बिना व्यवधान के चलता रहा | आखिर मेरी शिकायत और सूचनार्थ
आवेदन पहुँचने के बाद उसे निलम्बित किया गया | बेटिकट यात्रा करवाने के मामले में
मैंने सम्बंधित मजिस्ट्रेट के यहाँ शिकायत भेजी और उसके समर्थन में मेरा व मेरे एक
सह यात्री का शपथ –पत्र भी प्रस्तुत किया | दंड प्रक्रिया संहिता में यह प्रावधान
है कि किसी लोक सेवक पर आरोप लगाए जाए तो उसके लिए शपथ पत्र दिया जा सकता है ताकि
उसके चरित्र के बारे में खुली चर्चा न हो |
ठीक इसी प्रकार दंड प्रक्रिया
संहिता के अनुसार मजिस्ट्रेट से
मौखिक शिकायत भी की जा सकती है और किसी गुमनाम अपराधी के विषय में भी शिकायत की जा
सकती है क्योंकि संज्ञान अपराध का लिया जाता
है न कि शिकायतकर्ता या अपराधी का | जबकि मजिस्ट्रेट पक्षकारों को तंग परेशान और हैरान करने के लिए
जहां मौखिक का प्रावधान हो वहां लिखित और जहां लिखित का प्रावधान हो वहां मौखिक पर
जोर देकर अपनी शक्ति का बेजा प्रदर्शन करते हैं | न्यायालयों में मंत्रालयिक स्तर
पर भ्रष्टाचार को वे जानते हैं और उनको जानना चाहिए किन्तु फिर भी सब यथावत चलता
है | भारत में तो न्यायालय के मंत्रालयिक कर्मचारियों के लिए तारीख पेशी देना, जैसा कि रजिस्ट्रार जनरलों की एक
मीटिंग में कहा गया था, एक आकर्षक धंधा है और इससे
न्यायालयों की बहुत बदनामी हो रही है|
किन्तु मजिस्ट्रेट ने न केवल मेरी शिकायत को इस आधार पर निरस्त कर दिया कि वहां
उपस्थित होकर बयान नहीं दिए और अपराधी का नाम नहीं था बल्कि मुझ पर खर्चा ( अर्थदंड) भी लगा दिया गया | निचले न्यायालयों की शक्तियां सम्बंधित कानून के अनुसार ही होती हैं
और दंड प्रक्रिया संहिता में ऐसा कोई प्रावधान ही नहीं है कि एक शिकायतकर्ता पर
खर्चा लगाया जा सके | मामले में सत्र
न्यायालय, उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में भी याचिकाएं क्रमश: दायर की गयी
किन्तु कहीं से कोई राहत नहीं मिली | अब मामला पुन: मजिस्ट्रेट के पास खर्चे की वसूली के लिए आ गया और मुझे नोटिस जारी किया गया
| मैंने मजिस्ट्रेट न्यायालय को निवेदन किया कि
इस न्यायालय को अर्थदंड लगाने का कोई
अधिकार ही नहीं है तब जाकर कार्यवाही रोकी गयी किन्तु फिर भी परिवहन निगम के दोषी कार्मिकों
पर कोई कार्यवाही नहीं की गयी |
क्या
कोई विधिवेता बता सकता है कि देश में कैसा कानून और न्याय है , किस स्तर के
न्यायाधीशों को कानून का कोई ज्ञान है ...?
अब जनता कानून की मदद कैसे, कब और क्यों कर सकती है ..? ऐसे लगता है देश के
न्यायालय जनता की सेवा के लिए नहीं अपितु
पीड़ित पक्षों का और उत्पीडन के लिए बनाए गए नयी तकनीक के यातना गृह हैं |
No comments:
Post a Comment