Friday 10 March 2017

न्याय में विलम्ब एक सुनियोजित षड्यंत्र है

न्याय में विलम्ब एक सुनियोजित षड्यंत्र है | दीवानी में मामलों में प्रावधान है कि किसी भी मामले में एक पक्षकार को कुल 3 से अधिक अवसर नहीं दिये जांयेंगे| दिए जानेवाले अवसर भी किसी पक्षकार, साक्षी या वकील की अस्वस्थता या मृत्यु जैसे अपरिहार्य कारणों से  ही स्थगन स्वीकार किया जाएगा|  किन्तु वकील और न्यायाधिशों  की  मिलीभगत से यह खेल चलता रहता है- कानून किताबों में बंद पडा सर धुनता रहता है| अपराधिक कानून में  यह भी प्रावधान है कि किसी मामले में सुनवाई प्रारम्भ होने के बाद जारी रहेगी जब तक कि उचित कारण  से उसे स्थगित  नहीं कर दिया जाए | किन्तु भारत के इतिहास में शायद उदाहरण ही मिलने मुश्किल हैं जब किसी मामले में सुनवाई प्रारंभ की गयी हो और उसे बिना स्थगन जारी रखा गया हो |
स्थगन देते समय आदेशिका इस प्रकार अस्पष्ट ढंग से लिखी जाती है कि उससे कोई निश्चित अर्थ नहीं लगाया जा सकता और स्थगन पर स्थगन दिए जाते रहते हैं | स्थगन देते समय अक्सर लिखा जाता है – पक्षकार समय चाहते हैं , प्रकरण दिनांक ..को पेश हो |जबकि आदेशिका में यह स्पष्ट लिखा जाना चाहिए कि किस पक्षकार ने और कितने दिन का समय मांगा और कितना समय अनुमत किया गया ताकि भविष्य में वह और समय मांगे तो उसे ध्यान  रखा जा सके | इसके साथ ही यह भी लिखा जाना चाहिए कि यह कौनसा या कितनी बार का अवसर है | किन्तु भारतीय न्यायालय तो मिलीभगत की नुरा कुश्तियां लड़ने के रंगमंच मात्र रह गए  हैं |आदेशिका पर पक्षकारों या प्रतिनिधियों के कोई हस्ताक्षर नहीं करवाए जाते और करवाए भी जाएँ तो कोरी शीट पर ताकि उसमें बाद में अपनी सहूलियत के अनुसार आदेश लिख सकें |


2 comments:

  1. भारतीय न्यायालय तो मिलीभगत की नुरा कुश्तियां लड़ने के रंगमंच मात्र रह गए हैं |

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  2. अब न्याय व्यवस्था के लिए व्यापक परिवर्तन की अवश्यकता महसूस होती है,आपका आलेख वास्तविकता का घोतक हैं।

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