मृच्छकटिका के अंक 9 ष्लोक 5 में कहा गया है कि न्यायाधीष सम्पूर्ण विधि संहिता से परिचित, छल का पता लगाने में दक्ष व वाकपटु होना चाहिए। उसे कभी भी मिजाज नहीं बिगाड़ना चाहिए और सम्बन्धियों, मित्रों या अपरिचितों के प्रति निश्पक्ष होना चाहिए। उसके निर्णय वास्तविक घटनाओं के परीक्षण पर आधारित होने चाहिए। उसकी नैतिकता उच्च होनी चाहिए व लालच के प्रभाव में नहीं आना चाहिए, उसे दुश्टांे के हृदय में भय उत्पन्न करने व अषक्तजनों की रक्षा करने हेतु पर्याप्त सषक्त होना चाहिए। उसका मानस हर संभव तरीके से अधिकतम सत्य का अन्वेशण करने में संलग्न होना चाहिए।
संचार जगत में न्यायतंत्र के विशय मंे विधिवेताओं एवं न्यायाधिपŸिायों के विचार समय-समय पर प्रकट होते रहते है किन्तु उनमें लोकतान्त्रिक दृश्टिकोण का अभाव प्रायः अखरता है। इन प्रकट विचारांे में प्रायः आम जनता के अन्तर्मन की पीड़ाओं की अभिव्यक्ति का अभाव पाया जाता है। इस लेख के माध्यम से न्यायतंत्र के विशय में बिना किसी पूर्वाग्रह के जन दृश्टिकोण अभिव्यक्त करने का हार्दिक प्रयास कर रहा हूं। उच्चतम न्यायालय के आंकडों के अनुसार वर्श 2009 में क्रमषः मद्रास, उडी़सा एवं गुजरात उच्च न्यायालय के न्यायाधीषों ने 5005, 4583, एवं 3746 प्रकरण प्रति न्यायाधीष से प्रकरणों का निपटारा किया है जबकि भारत के समस्त उच्च न्यायालयों का आलोच्य अवधि में प्रति न्यायाधीष औसत मात्र 2537 प्रकरण रहा है। दूसरी ओर क्रमषः उŸाराखण्ड, दिल्ली और गौहाटी उच्च न्यायालयों का आलोच्य अवधि में यह औसत 1140, 1258 एवं 1301 आता है।
वहीं उच्च न्यायालयों द्वारा निर्णित मामलों का उच्चतम न्यायालय में पहुंचने के अनुपात के दृश्टिकोण से स्थिति अग्रानुसार है। क्रमषः दिल्ली, पंजाब व उŸाराखण्ड उच्च न्यायालयों द्वारा निर्णित मामलों के 8.6 प्रतिषत 7.1 प्रतिषत एवं 6.3 प्रतिषत प्रकरण इनके क्षेत्र से उच्चतम न्यायालय पहुंचे हैं जबकि समस्त भारतीय उच्च न्यायालयों द्वारा निर्णित प्रकरणों के 2.5 प्रतिषत प्रकरण औसतन उच्चतम न्यायालय पहुंचे हैं। तथ्यों से स्पश्ट है कि दिल्ली एवं उŸाराखण्ड उच्च न्यायालय प्रति न्यायाधीष कम प्रकरण निपटाने के साथ-साथ अधिक आनुपातिक प्रकरण उच्चतम न्यायालय में पहंुचने वाले उच्च न्यायालय है। इन उच्च न्यायालयों में निस्तारण का गुणात्मक एवं गणात्मक दोनों पहलू चिन्ताजनक है। दूसरी ओर मद्रास, उड़ीसा एवं गुजरात उच्च न्यायालय अधिक निस्तारण के साथ-साथ कम प्रकरण उच्चतम न्यायालय पहुंचने वाले उच्च न्यायालयों में से है। इन उच्च न्यायालयों का कार्य अनुकरणीय हो सकता है। आलोच्य अवधि में क्रमषः उड़ीसा, जम्मू-कष्मीर एवं मद्रास उच्च न्यायालयों द्वारा निर्णित प्रकरणों का मात्र 0.6 प्रतिषत, 0.7 प्रतिषत एवं 0.8 प्रतिषत प्रकरण इस क्षेत्र से उच्चतम न्यायालय पहुंचे है।
सम्पूर्ण भारतवर्श के उच्च न्यायालयों के औसत निश्पादन के आधार पर वर्श में दायर कुल 1779482 प्रकरणों के लिए 701 न्यायाधीषों की समस्त उच्च न्यायालयों में आवष्यकता है। तद्नुसार क्रमषः दिल्ली, गौहाटी एवं पंजाब में 24, 13 और 8 न्यायाधीष अधिषेश हैं जबकि दूसरी ओर मद्रास, कर्नाटक एवं उडी़सा में क्रमषः 45, 25 और 20 न्यायाधीषों की कमी है। सर्वोŸाम निस्तारण के आधार पर क्रमषः बम्बई, दिल्ली एवं इलाहबाद उच्च न्यायालयों में 35, 33 एवं 28 न्यायाधीष अधिषेश रहें है। जबकि मात्र उड़ीसा उच्च न्यायालय में 2 न्यायाधीषों की कमी है। इस प्रकार समस्त उच्च न्यायालयों में कुल 272 न्यायाधीष अधिषेश हैं जिन्हें बकाया मामलों के निस्तारण में संलग्न किया जा सकता है।अधिनस्थ न्यायालयों में भी केरल, मद्रास एवं पंजाब के न्यायाधीषों ने आलोच्य अवधि में प्रति न्यायाधीष क्रमषः 2575, 1842 एवं 1575 प्रकरणों का निस्तारण किया है जबकि समस्त भारतीय न्यायाधीषों का यह औसत 1142 प्रकरण है। बिहार, झारखण्ड एवं उडी़सा के अधीनस्थ न्यायाधीषों का यह औसत क्रमषः 284, 285 एवं 525 है। दूसरी ओर आलोच्य अवधि में अधीनस्थ न्यायालयों द्वारा निर्णित प्रकरणों का उच्च न्यायालय पहुंचने का अनुपात क्रमषः उडी़सा, बिहार और हिमाचल प्रदेष से 39.1 प्रतिषत, 27.4 प्रतिषत और 25.1 प्रतिषत रहा जो कि देष के औसत 11.1 प्रतिषत से अधिक है। बिहार, उड़ीसा एवं झारखण्ड के अधीनस्थ न्यायालयों का प्रति न्यायाधीष कम निस्तारण होते हुए भी अधिक अनुपातिक भाग उच्च न्यायालय पहुंचा है। इन अधीनस्थ न्यायालयों का निस्तारण भी गुणात्मक व गणात्मक दोनों दृश्टिकोणों से चिन्ताजनक है। दूसरी ओर क्रमषः गुजरात, उŸाराखण्ड एवं केरल के अधीनस्थ न्यायालयों द्वारा निर्णित मामलों का मात्र 5.4 प्रतिषत, 6.2 प्रतिषत एवं 7.6 प्रतिषत ही उच्च न्यायालयों तक पहुंचा है। केरल एवं गुजरात के अधीनस्थ न्यायालयों की स्थिति गुणात्मक एवं गणात्मक दोनों दृश्टिकोण से सुदृढ़ है।
समस्त भारत के अधीनस्थ न्यायालयों के औसत निपटान की दृश्टि से वर्श में दायर कुल 16965198 प्रकरणों के लिए कुल 14856 न्यायाधीषों की अधीनस्थ न्यायालयों में आवष्यकता है। इस दृश्टिकोण से क्रमषः बिहार, झारखण्ड एवं महाराश्ट्र में 747, 298 एवं 264 अधीनस्थ न्यायाधीष अधिषेश हैं तथा इसी प्रकार उŸारप्रदेष, तमिलनाडू एवं केरल के अधीनस्थ न्यायालयों में क्रमषः 610, 571 एवं 543 न्यायाधीषों की कमी है। सर्वोŸाम निस्तारण के आधार पर क्रमषः महाराश्ट्र, बिहार एवं उŸारप्रदेष के अधीनस्थ न्यायालयों में 1136, 923 एवं 805 न्यायाधीष अधिषेश हैं जबकि मात्र केरल के अधीनस्थ न्यायालयों में 7 न्यायाधीषों का अभाव है। सर्वोŸाम निस्तारण के आधार पर समस्त भारतीय अधीनस्थ न्यायालयों में 7507 न्यायाधीष अधिषेश हैं जिनका उपयोग बकाया मामलों के निपटान में किया जा सकता है। विडम्बना यह है कि सम्पूर्ण देष में एक समान मौलिक कानून-संविधान, व्यवहार प्रक्रिया संहिता, दंड प्रक्रिया संहिता, साक्ष्य अधिनियम व दण्ड संहिता- के उपरान्त न्यायालयों द्वारा अपनायी जाने वाली मनमानी व स्वंभू प्रक्रिया व परम्पराओं के कारण निस्तारण में गंभीर अन्तर है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने सोमप्रकाष के प्रकरण में कहा है कि प्रत्येक विवेकाधिकार गैरकानूनी मांग प्रेरित करता है। देष के उच्चतम न्यायालय को समस्त न्यायालयों पर पर्यवेक्षण, अधीक्षण एवं नियन्त्रण का अधिकार प्राप्त हैं किन्तु उक्त चिन्ताजनक परिस्थितियों के बावजूद मौन है। स्मरण रहे जन कल्याण की प्रोन्नति ही सर्वोच्च कानून है।
उच्च न्यायालयों में प्रति न्यायाधीष प्रतिवर्श निर्णित प्रकरणों की संख्या 284 से लेकर 2575 तक है वहीं अधीनस्थ न्यायालयों में प्रति न्यायाधीष यह संख्या 1140 से 3736 तक है। ठीक इसी प्रकार उच्चतर स्तर पर प्रस्तुत होने वाले प्रकरणों का प्रतिषत अधीनस्थ न्यायालयों द्वारा निर्णित प्रकरणों की दषा में 5.4 प्रतिषत से लेकर 39.1 प्रतिषत तक है व उच्च न्यायालयों द्वारा निर्णित प्रकरणों की स्थिति में 0.7 प्रतिषत से 8.6 प्रतिषत तक है। यह असहनीय विचलन 4 से 12 गुणा तक आता है।
भारत में अधिकांष राज्यों में न्यायालयों एवं न्यायाधीषों के पद सृजन हेतु कोई ठोस सैद्धान्तिक नीति-पत्र नहीं है। अतः सुस्पश्ट नीति के अभाव में न्यायाधीषों एवं राजनेताओं को मनमानी करने का अवसर उपलब्ध है। न्याय-विभाग भारत सरकार के अनुसार यद्यपि न्यायाधीषों की पदस्थापना औसत वादकरण एवं बकाया के आधार पर की जाती है किन्तु उक्त वस्तुस्थिति से सरकार का दावा प्रथम दृश्टया खोखला प्रतीत होता है। न्यायालयों द्वारा प्रकरणों में उठने वाले सभी विवाद्यक बिन्दुओं का प्रायः निर्धारण ही नहीं किया जाता है परिणामतः उŸारोतर अपील के लिए संभावना के द्वार खुले रहते हैं व मुकदमेबाजी रक्तबीज की तरह वृद्धि करती है। इस प्रकार न्यायालयों में बढते कार्यभार का प्रमुख कारण गुणवताहीन निस्तारण है जिससे न तो आहत को पर्याप्त राहत मिलती है और न ही दोशी को इतना पर्याप्त दण्ड मिलता है कि जिसे देखकर विधि का उल्लंघन करने को लालायित अन्य लोग हतोत्साहित हो सकें। वैसे भी हमारी न्याय व्यवस्था में खर्चे व क्षतिपूर्ति के कोई मानक निष्चित नहीं है जिससे मनमानी का अवसर मिलता है। प्रत्यायोजित षक्तियों से बाहर जाकर न्यायाधीषों द्वारा दुस्साहसपूर्ण ढंग से कार्यवाहियां करने तथा बिना विधिक प्रावधान के संदर्भ के दण्डात्मक खर्चे अधिरोपित करने और वरिश्ठ न्यायालयों द्वारा पुश्टि जैसे दुखद उदाहरणों का भी अभाव नहीं है। दैवीय कार्य करने वाले संवैधानिक न्यायालयों द्वारा एक ही प्रकरण (भ्रश्टाचार निर्मूलन संगठन) में रू0 25000/- से लेकर रू0 40,00,000/- तक खर्चे व क्षतिपूर्ति मूल्यांकन किया जाना भारतीय न्यायपालिका के लिए आष्चर्यजनक तथ्य नहीं है।
( फॉण्ट परिवर्तन से हुई वर्तनी सम्बंधित अशुद्धियों के लिए खेद है )
संचार जगत में न्यायतंत्र के विशय मंे विधिवेताओं एवं न्यायाधिपŸिायों के विचार समय-समय पर प्रकट होते रहते है किन्तु उनमें लोकतान्त्रिक दृश्टिकोण का अभाव प्रायः अखरता है। इन प्रकट विचारांे में प्रायः आम जनता के अन्तर्मन की पीड़ाओं की अभिव्यक्ति का अभाव पाया जाता है। इस लेख के माध्यम से न्यायतंत्र के विशय में बिना किसी पूर्वाग्रह के जन दृश्टिकोण अभिव्यक्त करने का हार्दिक प्रयास कर रहा हूं। उच्चतम न्यायालय के आंकडों के अनुसार वर्श 2009 में क्रमषः मद्रास, उडी़सा एवं गुजरात उच्च न्यायालय के न्यायाधीषों ने 5005, 4583, एवं 3746 प्रकरण प्रति न्यायाधीष से प्रकरणों का निपटारा किया है जबकि भारत के समस्त उच्च न्यायालयों का आलोच्य अवधि में प्रति न्यायाधीष औसत मात्र 2537 प्रकरण रहा है। दूसरी ओर क्रमषः उŸाराखण्ड, दिल्ली और गौहाटी उच्च न्यायालयों का आलोच्य अवधि में यह औसत 1140, 1258 एवं 1301 आता है।
वहीं उच्च न्यायालयों द्वारा निर्णित मामलों का उच्चतम न्यायालय में पहुंचने के अनुपात के दृश्टिकोण से स्थिति अग्रानुसार है। क्रमषः दिल्ली, पंजाब व उŸाराखण्ड उच्च न्यायालयों द्वारा निर्णित मामलों के 8.6 प्रतिषत 7.1 प्रतिषत एवं 6.3 प्रतिषत प्रकरण इनके क्षेत्र से उच्चतम न्यायालय पहुंचे हैं जबकि समस्त भारतीय उच्च न्यायालयों द्वारा निर्णित प्रकरणों के 2.5 प्रतिषत प्रकरण औसतन उच्चतम न्यायालय पहुंचे हैं। तथ्यों से स्पश्ट है कि दिल्ली एवं उŸाराखण्ड उच्च न्यायालय प्रति न्यायाधीष कम प्रकरण निपटाने के साथ-साथ अधिक आनुपातिक प्रकरण उच्चतम न्यायालय में पहंुचने वाले उच्च न्यायालय है। इन उच्च न्यायालयों में निस्तारण का गुणात्मक एवं गणात्मक दोनों पहलू चिन्ताजनक है। दूसरी ओर मद्रास, उड़ीसा एवं गुजरात उच्च न्यायालय अधिक निस्तारण के साथ-साथ कम प्रकरण उच्चतम न्यायालय पहुंचने वाले उच्च न्यायालयों में से है। इन उच्च न्यायालयों का कार्य अनुकरणीय हो सकता है। आलोच्य अवधि में क्रमषः उड़ीसा, जम्मू-कष्मीर एवं मद्रास उच्च न्यायालयों द्वारा निर्णित प्रकरणों का मात्र 0.6 प्रतिषत, 0.7 प्रतिषत एवं 0.8 प्रतिषत प्रकरण इस क्षेत्र से उच्चतम न्यायालय पहुंचे है।
सम्पूर्ण भारतवर्श के उच्च न्यायालयों के औसत निश्पादन के आधार पर वर्श में दायर कुल 1779482 प्रकरणों के लिए 701 न्यायाधीषों की समस्त उच्च न्यायालयों में आवष्यकता है। तद्नुसार क्रमषः दिल्ली, गौहाटी एवं पंजाब में 24, 13 और 8 न्यायाधीष अधिषेश हैं जबकि दूसरी ओर मद्रास, कर्नाटक एवं उडी़सा में क्रमषः 45, 25 और 20 न्यायाधीषों की कमी है। सर्वोŸाम निस्तारण के आधार पर क्रमषः बम्बई, दिल्ली एवं इलाहबाद उच्च न्यायालयों में 35, 33 एवं 28 न्यायाधीष अधिषेश रहें है। जबकि मात्र उड़ीसा उच्च न्यायालय में 2 न्यायाधीषों की कमी है। इस प्रकार समस्त उच्च न्यायालयों में कुल 272 न्यायाधीष अधिषेश हैं जिन्हें बकाया मामलों के निस्तारण में संलग्न किया जा सकता है।अधिनस्थ न्यायालयों में भी केरल, मद्रास एवं पंजाब के न्यायाधीषों ने आलोच्य अवधि में प्रति न्यायाधीष क्रमषः 2575, 1842 एवं 1575 प्रकरणों का निस्तारण किया है जबकि समस्त भारतीय न्यायाधीषों का यह औसत 1142 प्रकरण है। बिहार, झारखण्ड एवं उडी़सा के अधीनस्थ न्यायाधीषों का यह औसत क्रमषः 284, 285 एवं 525 है। दूसरी ओर आलोच्य अवधि में अधीनस्थ न्यायालयों द्वारा निर्णित प्रकरणों का उच्च न्यायालय पहुंचने का अनुपात क्रमषः उडी़सा, बिहार और हिमाचल प्रदेष से 39.1 प्रतिषत, 27.4 प्रतिषत और 25.1 प्रतिषत रहा जो कि देष के औसत 11.1 प्रतिषत से अधिक है। बिहार, उड़ीसा एवं झारखण्ड के अधीनस्थ न्यायालयों का प्रति न्यायाधीष कम निस्तारण होते हुए भी अधिक अनुपातिक भाग उच्च न्यायालय पहुंचा है। इन अधीनस्थ न्यायालयों का निस्तारण भी गुणात्मक व गणात्मक दोनों दृश्टिकोणों से चिन्ताजनक है। दूसरी ओर क्रमषः गुजरात, उŸाराखण्ड एवं केरल के अधीनस्थ न्यायालयों द्वारा निर्णित मामलों का मात्र 5.4 प्रतिषत, 6.2 प्रतिषत एवं 7.6 प्रतिषत ही उच्च न्यायालयों तक पहुंचा है। केरल एवं गुजरात के अधीनस्थ न्यायालयों की स्थिति गुणात्मक एवं गणात्मक दोनों दृश्टिकोण से सुदृढ़ है।
समस्त भारत के अधीनस्थ न्यायालयों के औसत निपटान की दृश्टि से वर्श में दायर कुल 16965198 प्रकरणों के लिए कुल 14856 न्यायाधीषों की अधीनस्थ न्यायालयों में आवष्यकता है। इस दृश्टिकोण से क्रमषः बिहार, झारखण्ड एवं महाराश्ट्र में 747, 298 एवं 264 अधीनस्थ न्यायाधीष अधिषेश हैं तथा इसी प्रकार उŸारप्रदेष, तमिलनाडू एवं केरल के अधीनस्थ न्यायालयों में क्रमषः 610, 571 एवं 543 न्यायाधीषों की कमी है। सर्वोŸाम निस्तारण के आधार पर क्रमषः महाराश्ट्र, बिहार एवं उŸारप्रदेष के अधीनस्थ न्यायालयों में 1136, 923 एवं 805 न्यायाधीष अधिषेश हैं जबकि मात्र केरल के अधीनस्थ न्यायालयों में 7 न्यायाधीषों का अभाव है। सर्वोŸाम निस्तारण के आधार पर समस्त भारतीय अधीनस्थ न्यायालयों में 7507 न्यायाधीष अधिषेश हैं जिनका उपयोग बकाया मामलों के निपटान में किया जा सकता है। विडम्बना यह है कि सम्पूर्ण देष में एक समान मौलिक कानून-संविधान, व्यवहार प्रक्रिया संहिता, दंड प्रक्रिया संहिता, साक्ष्य अधिनियम व दण्ड संहिता- के उपरान्त न्यायालयों द्वारा अपनायी जाने वाली मनमानी व स्वंभू प्रक्रिया व परम्पराओं के कारण निस्तारण में गंभीर अन्तर है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने सोमप्रकाष के प्रकरण में कहा है कि प्रत्येक विवेकाधिकार गैरकानूनी मांग प्रेरित करता है। देष के उच्चतम न्यायालय को समस्त न्यायालयों पर पर्यवेक्षण, अधीक्षण एवं नियन्त्रण का अधिकार प्राप्त हैं किन्तु उक्त चिन्ताजनक परिस्थितियों के बावजूद मौन है। स्मरण रहे जन कल्याण की प्रोन्नति ही सर्वोच्च कानून है।
उच्च न्यायालयों में प्रति न्यायाधीष प्रतिवर्श निर्णित प्रकरणों की संख्या 284 से लेकर 2575 तक है वहीं अधीनस्थ न्यायालयों में प्रति न्यायाधीष यह संख्या 1140 से 3736 तक है। ठीक इसी प्रकार उच्चतर स्तर पर प्रस्तुत होने वाले प्रकरणों का प्रतिषत अधीनस्थ न्यायालयों द्वारा निर्णित प्रकरणों की दषा में 5.4 प्रतिषत से लेकर 39.1 प्रतिषत तक है व उच्च न्यायालयों द्वारा निर्णित प्रकरणों की स्थिति में 0.7 प्रतिषत से 8.6 प्रतिषत तक है। यह असहनीय विचलन 4 से 12 गुणा तक आता है।
भारत में अधिकांष राज्यों में न्यायालयों एवं न्यायाधीषों के पद सृजन हेतु कोई ठोस सैद्धान्तिक नीति-पत्र नहीं है। अतः सुस्पश्ट नीति के अभाव में न्यायाधीषों एवं राजनेताओं को मनमानी करने का अवसर उपलब्ध है। न्याय-विभाग भारत सरकार के अनुसार यद्यपि न्यायाधीषों की पदस्थापना औसत वादकरण एवं बकाया के आधार पर की जाती है किन्तु उक्त वस्तुस्थिति से सरकार का दावा प्रथम दृश्टया खोखला प्रतीत होता है। न्यायालयों द्वारा प्रकरणों में उठने वाले सभी विवाद्यक बिन्दुओं का प्रायः निर्धारण ही नहीं किया जाता है परिणामतः उŸारोतर अपील के लिए संभावना के द्वार खुले रहते हैं व मुकदमेबाजी रक्तबीज की तरह वृद्धि करती है। इस प्रकार न्यायालयों में बढते कार्यभार का प्रमुख कारण गुणवताहीन निस्तारण है जिससे न तो आहत को पर्याप्त राहत मिलती है और न ही दोशी को इतना पर्याप्त दण्ड मिलता है कि जिसे देखकर विधि का उल्लंघन करने को लालायित अन्य लोग हतोत्साहित हो सकें। वैसे भी हमारी न्याय व्यवस्था में खर्चे व क्षतिपूर्ति के कोई मानक निष्चित नहीं है जिससे मनमानी का अवसर मिलता है। प्रत्यायोजित षक्तियों से बाहर जाकर न्यायाधीषों द्वारा दुस्साहसपूर्ण ढंग से कार्यवाहियां करने तथा बिना विधिक प्रावधान के संदर्भ के दण्डात्मक खर्चे अधिरोपित करने और वरिश्ठ न्यायालयों द्वारा पुश्टि जैसे दुखद उदाहरणों का भी अभाव नहीं है। दैवीय कार्य करने वाले संवैधानिक न्यायालयों द्वारा एक ही प्रकरण (भ्रश्टाचार निर्मूलन संगठन) में रू0 25000/- से लेकर रू0 40,00,000/- तक खर्चे व क्षतिपूर्ति मूल्यांकन किया जाना भारतीय न्यायपालिका के लिए आष्चर्यजनक तथ्य नहीं है।
( फॉण्ट परिवर्तन से हुई वर्तनी सम्बंधित अशुद्धियों के लिए खेद है )
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