विश्वविद्यालयों द्वारा परीक्षा शुल्क में भेदभाव
विश्वविद्यालयों द्वारा परीक्षार्थियों से वसूली जाने वाले परीक्षा शुल्क में भेदभाव व मनमानापन बरता जा रहा है . राज्य का अंग होने के कारण विश्वविद्यालयों से अपेक्षा है कि वे एक ही परीक्षा के लिए स्वयंपाठी एवं नियमित छात्रों से वसूले जाने वाले परीक्षा शुल्क में भिन्नता समाप्त करें तथा स्वयंपाठी छात्रों पर थोपे जाने वाली विकास शुल्क की वसूली बंद करें .
उदाहरणार्थ महाराजा गंगासिंह विश्वविद्यालय एम ए पूर्वार्ध के लिए नियमित छात्रों से मात्र 500 रूपये परीक्षा शुल्क ले रहा है जबकि इसी लागत वाली समान परीक्षा के लिए स्वयंपाठी छात्रों से रुपये 900 शुल्क ले रहा है .यह शुल्क बैंक में जमा होता है तथा इसके अतिरिक्त यद्यपि प्राइवेट महाविद्यालयों में कोई अतिरिक्त शुल्क नहीं लिया जाता है किन्तु राजकीय महाविद्यालयों में डाक खर्च आदि के नाम पर 10 रुपये प्रति फार्म बिना कोई रसीद दिए वसूल किये जाते हैं व विकास शुल्क रुपये 100 की रसीद कटवाए बिना फ़ार्म जमा नहीं लिए जाते हैं. इस प्रकार स्वयं पाठी से 1000 रुपये शुल्क लिया जाता है . जबकि नियमित विद्यार्थियों से इस प्रकार की अवैध वसूलियाँ नहीं की जाती हैं क्योंकि वे संगठित हैं .अन्य विश्वविद्यालयों की स्थिति भी कोई संतोषजनक नहीं कही जा सकती है .
जहाँ पर स्नात्कोतर महाविद्यालय नहीं होने के कारण एक तरफ तो जो छात्र बाहर जाकर छात्र अध्ययन नहीं कर सकते वे नियमित शिक्षा से वंचित हैं और दूसरी ओर स्वयंपाठी के रूप में अधिक शुल्क देने को विवश होकर अनुचित शोषण के शिकार हो रहे हैं .नागरिकों के लिए शिक्षा की व्यवस्था करना व शिक्षा को प्रोत्साहित कर मानव संसाधनों का विकास करना सरकार का संवैधानिक दायित्व है जबकि स्वयंपाठी छात्रों से मनमाना शुल्क लेकर विश्वविद्यालय संविधान विपरीत आचरण कर रहे हैं तथा सरकार द्वारा ऐसे केन्द्रों पर स्नातकोतर महाविद्यालय नहीं खोलने के पाप का दण्ड छात्रों को दे रहे हैं . इस प्रकार स्वयंपाठी छात्रों से अधिक परीक्षा शुल्क वसूलना पूर्णतया मनमाना, एवं संविधान के अनुच्छेद 14 के घोर उल्लंघन में किया गया कृत्य है . अतएव सरकार को यह भेदभाव समाप्त कर स्वयंपाठी छात्रों से सभी प्रकार की अवैध वसूलियाँ बंद कर देनी चाहिए .
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