ब्रिटिश भारत में उच्चस्तरीय सरकारी लोक सेवकों (राजपत्रित- जोकि प्रायः
अंग्रेज ही हुआ करते थे )को संरक्षण दिया गया था ताकि वे ब्रिटिश खजाने को भरने
में अंग्रेजों की निर्भय मदद कर सकें ,
उन्हें किसी प्रकार की कानूनी कार्यवाही का कोई
भय न हो| अपने इस स्वार्थ पूर्ति के लिए उन्होंने दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1898 में धारा 197 में प्रावधान किया था कि ऐसे लोक सेवक जिन्हें
सरकारी स्वीकृति के बिना पद से नहीं हटाया जा सकता, के द्वारा शासकीय हैसियत में
किये गए अपराधों के लिए किसी भी न्यायालय
द्वारा प्रसंज्ञान सरकार की स्वीकृति के
बिना नहीं लिया जायेगा| स्वस्पष्ट है कि साम्राज्यवादी सरकार द्वारा
यह प्रावधान मात्र अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए किया गया था| यह
भी स्मरणीय है कि तत्समय निचले स्तर के (भारतीय) सरकारी लोक सेवकों को यह संरक्षण
प्राप्त नहीं था| उस समय बहुत कम संख्या में राजपत्रित सेवक हुआ करते थे तथा उनके
नाम एवं छुटियाँ भी राजपत्र में प्रकाशित हुआ करती थी किन्तु आज स्थिति भिन्न है|
हमारी संविधान सभा के समक्ष भी यह
विषय विचारणार्थ आया तथा उसने मात्र राष्ट्रपति और राज्यपाल को उनके कार्यकाल के
दौरान ही अभियोजन से सुरक्षा देना उचित समझा जबकि लोक सेवकों को लोक कृत्य के सम्बन्ध में दण्ड प्रक्रिया संहिता,1973 की धारा 197 का उक्त संरक्षण हमेशा
के लिए उपलब्ध है| आज भारतीय गणतंत्र में भी दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 197 तथा अन्य कानूनों में
यह प्रावधान बदस्तूर जारी है जबकि
पाश्चत्य देशों इंग्लॅण्ड , अमेरिका आदि के कानून में ऐसे प्रावधान नहीं हैं|
अभियोजन स्वीकृति का यह प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 14 की भावना के विपरीत, अनावश्यक तथा लोक सेवकों
में अपराध पनपाने की प्रवृति रखता है| यही नहीं यह प्रावधान लोक सेवकों के मध्य भी
भेदभाव रखता है| निचले श्रेणी के लोक सेवक जिनका जनता से सीधा वास्ता हो सकता है
अर्थात जिनकी नियुक्ति राज्यपाल या राष्ट्रपति की ओर से या उनके द्वारा नहीं
की जाती उन्हें यह संरक्षण उपलब्ध नहीं है|
दूसरी ओर बराबर की श्रेणी ( ग्रेड ) के अधिकारी जो राजकीय उपक्रमों(जोकि संविधान
के अनुसार राज्य है ) में नियुक्त हैं उन्हें यह सुरक्षा उपलब्ध नहीं होगी जबकि
उसी ग्रेड के राज्य सेवा में प्रत्यक्ष तौर पर सेवारत सेवक को सुरक्षा उपलब्ध है| इसी
प्रकार की विसंगति का एक उदाहारण तहसीलदार सेवा का है| तहसीलदार राजस्व मंडल
द्वारा नियुक्त होने के कारण उसे धारा 197 का संरक्षण प्राप्त नहीं है जबकि उसी
ग्रेड के सहायक वाणिज्यिक कर अधिकारी व अन्य अधिकारियों को संरक्षण उपलब्ध है| इसके
अतिरिक्त जब एक ही अपराध में विभिन्न श्रेणी के लोक सेवक संलिप्त हों तो निचली
श्रेणी के लोक सेवकों का अभियोजन कर दण्डित करना और मात्र उपरी श्रेणी के सेवकों
का अपराधी होते हुए भी बच निकालना अनुच्छेद
14 का स्पष्ट उल्लंघन है| विधि का
ऐसा अभिप्राय कभी नहीं रहा है कि एक ही अपराध के अपराधियों के साथ भिन्न भिन्न
व्यवहार हो| सुप्रीम कोर्ट ने अखिल भारतीय शोषित रेलवे कर्मचारी के मामले में कहा
है कि असमानता दूर होनी चाहिए और विशेषाधिकार समाप्त होने चाहिए| इसी प्रकार सुप्रीम कोर्ट ने विनीत नारायण के मामले
में भी कहा कि कानून अभियोजन एवं जांच के लिए अपराधियों को उनके जीवन स्तर के
हिसाब से भेदभाव नहीं करता है| पी पी शर्मा के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट द्वारा
कहा गया है कि अभियोजन स्वीकृति के बिना आरोप पत्र दाखिल करना अवैध नहीं है| मानवाधिकारों
पर अंतर्राष्ट्रीय घोषणा , जिस पर भारत ने भी हस्ताक्षर किये हैं, के अनुच्छेद एक
में कहा गया है कि गरिमा और अधिकारों की दृष्टि से सभी मानव प्राणी जन्मजात स्वतंत्र तथा समान हैं|
एक तरफ देश भ्रष्टाचार और राज्य
आपराधिकरण की अमरबेल की मजबूत पकड़ में है तो दूसरी ओर अभियोजन स्वीकृति की
औपचारिकता के अभाव में बहुत से प्रकरण बकाया पड़े हैं| सी बी आई के पास अभियोजन
स्वीकृति की प्रतीक्षा में अभियोजन बकाया की लम्बी सूची है | ठीक इसी प्रकार
भ्रष्टाचार के अभियोजन स्वीकृति की प्रतीक्षा में राज्यों की पास बकाया मामलों की
भी लम्बी सूची है| इससे भी अधिक गंभीर तथ्य यह है कि इन स्वीकृतियों को भी चुनौती
देकर न्यायालयों से स्थगन प्राप्त कर विवाद को और लंबा खेंचा जा सकता है जबकि ऐसा
करना कानूनन निषिद्ध है| फिर भी न्यायाधीश कुछ अपवित्र कारणों और जवाबदेही के अभाव
के कारण यह सब निस्संकोच कर रहे हैं| कानून में अभियोजन स्वीकृति के लिए कोई
समयावधि अथवा प्रक्रिया निर्धारित नहीं हैं| यह भी स्पष्ट नहीं है कि व्यक्तिगत
परिवाद की स्थिति में यह स्वीकृति किस प्रकार और किसके द्वारा मांगी जायेगी|
कुलमिलाकर स्थिति भ्रमपूर्ण एवं अपराधियों के लिए अनुकूल है| यद्यपि राजस्थान
सरकार के पूर्व में प्रशासनिक आदेश थे कि अभियोजन स्वीकृति का निपटान 15 दिवस में
कर दिया जावे| बाद में केंद्रीय सतर्कता आयोग ने 2 माह के भीतर अभियोजन स्वीकृति का निपटान करने के
आदेश जारी किये हैं| किन्तु इन आदेशों की अनुपालना की वास्तविक स्थिति
स्वस्पष्ट है|
आपराधिक प्रकरणों में प्रसंज्ञान मात्र तभी लिया
जाता है जब प्रथम दृष्टया मामला बनता हो अतः अनावश्यक परेशानी की आशंका निर्मूल है|
इसका दूसरा अभिप्राय यह निकलता है कि न्यायालयों द्वारा प्रसंज्ञान प्रक्रिया में स्वयम
राज्य के विश्वास का अभाव होना है तथा प्रसंज्ञान के न्यायिक निर्णय की प्रशासनिक
पुनरीक्षा कर एक वर्ग विशेष के अपराधियों
के अभियोजन की स्वीकृति रोक कर न्यायिक अभियोजन के प्रयास को विफल करना है व आम
नागरिक एवं वंचित श्रेणी के लोक सेवकों को ऐसी अविश्वसनीय न्यायिक प्रक्रिया
द्वारा परेशान किये जाने हेतु खुला छोड़ना है|
एक सक्षम मजिस्ट्रेट को मामले का
प्रसंज्ञान लेने की शक्ति है तथा अभियोजन स्वीकृति के अभाव में प्रसंज्ञान को
बाधित करना उचित क्षेत्राधिकार के प्रयोग में अवरोध है| प्रायः अभियोजन स्वीकृति
की अपेक्षा के पक्ष में तर्क दिया जाता है कि यह लोक सेवकों को अनावश्यक परेशानी
से बचाने के लिए उचित है| जबकि निचले स्तर
के लगभग 90% लोक सेवक, जिनका जनता से सीधा वास्ता पडता है और उनकी नियुक्ति
राज्यपाल या राष्ट्रपति की अधिकृति के बिना की जाती है, को यह संरक्षण उपलब्ध नहीं
है तथा वे ऐसी सुरक्षा के बिना भी सेवाएं
दे रहे हैं व जनता से सीधा संपर्क होने से उनके अभियोजन की संभावनाएं तथा जोखिम भी
अधिक है| इसी प्रकार इंग्लॅण्ड , अमेरिका आदि देशों के सभी लोक सेवक भी ऐसी
सुरक्षा के बिना सेवाएं दे रहे हैं तो हमारे देश में इस उपरी लोक सेवक वर्ग को ऐसी
सुरक्षा का कोई औचित्य नहीं रह जाता है| फिर भी यदि अनुचित अभियोजन या परेशानी का
अंदेशा हो व प्रथम दृष्टया मामला नहीं बनता हो तो उपरी स्तर के सक्षम लोक सेवक
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के
अंतर्गत अन्य नागरिकों की तरह हाई कोर्ट से राहत प्राप्त कर सकते हैं|
उक्त प्रावधान का एक कानूनी पहलू यह
भी है कि समस्त अपराधों का अभियोजन करना राज्य का कर्तव्य है और गोरे समिति (1970)
ने भी यही सिफारिश की थी कि समस्त अपराधों का बिना किसी भेदभाव के अभियोजन राज्य ही
करे| अभियोजन का संचालन स्वयम राज्य करता
है और उसके अभियोजन विभाग में आपराधिक कानून के विशेषज्ञ होते हैं अत: किसी सरकारी
कर्मचारी के विरुद्ध आरोप पत्र पेश करने वाले इन विशेषज्ञों की राय को न मानना
अपने आप में हास्यास्पद स्थिति बनती है| दूसरी ओर सरकारी विभाग कानूनी मुद्दों पर
कानूनी विशेषज्ञों की राय के आधार पर ही अग्रिम कार्यवाही करते हैं अथवा न्यायालय
में अपना बचाव प्रस्तुत करते हैं | विशेषज्ञों की राय को अपनी सुविधानुसार मानना
या न मानना भी कोई औचित्यपूर्ण कदम नहीं है| कहने को तो सरकारी विभाग के आदेश के
विरुद्ध अभियोजन द्वारा रिट याचिका दायर की जा सकती है किन्तु तकनीकि दृष्टि से
देखा जाए तो यह अर्थ निकलता सरकार स्वयम
सरकार के विरुद्ध उपचार हेतु दावा करे| क्या यह संभव है कि कोई व्यक्ति अपने
अधिकारों के लिए स्वयं अपने ही विरुद्ध कोई दावा पेश करे? वास्तव में देखा जाए तो
अभियोजन स्वीकृति के प्रावधान का सारत: यही अर्थ है कि जिस अपराधी राज्य अधिकारी
को सरकार दण्डित नहीं करना चाहे उसके विरुद्ध भारत भूमि के कानून में कोई उपचार
नहीं है| राज्य का कानूनी कर्तव्य भी अपराधों का अभियोजन करना है न कि उनका अनुचित
बचाव| क्या अभियोजन स्वीकृति के उक्त प्रावधान को विवेक के धरातल पर किसी भी
दृष्टिकोण से उचित व तर्कसंगत ठराया जा सकता है?
दण्ड प्रक्रिया संहिता एक सारभूत
या मौलिक कानून न होकर प्रक्रियागत कानून
है जिसका उद्देश्य सारभूत कानून को लागू करने में सहायता करना है जबकि अभियोजन
स्वीकृति सम्बन्धित प्रावधान तो कानून लागू करने में बाधक साबित हो रहा है| इसलिए
प्रक्रियागत कानूनों को आज्ञापक के बजाय निर्देशात्मक ही बताया गया है| स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने कैलाश बनाम ननकू के
मामले में कहा है कि यद्यपि व्यवहार प्रक्रिया संहिता का आदेश 8 नियम 1 आज्ञापक
प्रवृति का है किन्तु प्रक्रियागत कानून का भाग होने से यह निर्देशात्मक ही है| इस
सिद्धांत को भी यदि समान रूप से लागू किया
जाय तो भी अभियोजन स्वीकृति मात्र एक रिक्त औपचारिकता ही हो सकती है अपरिहार्य
नहीं|
उक्त तथ्यों को ध्यान रखते हुए
राज्य सभा की 37 वीं रिपोर्ट दिनांक 09.03.10 में अनुशंसा की गयी है कि अभियोजन स्वीकृति पर 15 दिवस के भीतर निर्णय कर लिया जाये अन्यथा उसे
स्वतः ही स्वीकृति मान लिया जावे| पर्यावरण
संरक्षण अधिनियम ,1986 की धारा 19(1)(क)
में प्रावधान है कि कोई भी न्यायालय इस अधिनयम के अंतर्गत अपराध का सरकार द्वारा
शिकायत के बिना प्रसंज्ञान नहीं लेगा किन्तु उपधारा (ख) में यह भी प्रावधान किया
गया है कि किसी व्यक्ति द्वारा इस आशय का
६० दिन का नोटिस देने के पश्चात
ऐसी कार्यवाही संस्थित की जा सकेगी| अधिक सुरक्षा के लिए ऐसा ही प्रावधान दण्ड
प्रक्रिया संहिता में भी किया जा सकता है| यह भी स्मरणीय है कि संयुक्त राष्ट्र
संघ की साधारण सभा द्वारा वर्ष 1985 में पारित प्रस्ताव के अनुसार भी न्यायपालिका
की स्वतंत्रता के लिए न्यायाधीशों को मात्र दीवानी अभियोजन से सुरक्षा की अनुशंसा
की गयी है| अतः अभियोजन पूर्व स्वीकृति का प्रावधान किसी भी प्रकार से अपेक्षित , तर्कसंगत, न्यायोचित एवं भारतीय
गणराज्य में संवैधानिक नहीं है- चाहे देश
के न्यायविद इस पर कोई भी आवरण क्यों न चढ़ा दें और उसे हटाये
जाने की
आवश्यकता का अब संसद को मूल्यांकन करना चाहिए है|
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