राजस्थान
पत्रिका में आज राजस्थान उच्च न्यायालय के एक पूर्व न्यायाधीश का लेख पढ़ने का
सौभाग्य मिला जिसमें माननीय न्यायाधिपति ने अन्य बातों के साथ यह कहा है कि यह आवश्यक
कर दिया जाए कि यदि थाने में रिपोर्ट दर्ज नहीं की जाए तो सम्बंधित अधिकारी के विरुद्ध कार्यवाही
की जाएगी| किन्तु माननीय को शायद यह ज्ञान नहीं है कि राजस्थान पुलिस अधिनियम, 2007
की धारा 31 में यह प्रावधान पहले से ही
मौजूद है परन्तु यक्ष प्रश्न यह है कि इसे
लागू कौन और क्यों करेगा| किसी भी कार्य करने के लिए कोई कारण होना आवश्यक है |बिना
प्रेरणा के कोई कार्य नहीं होता यह कानून की भी धारणा है| सरकारी अधिकारी, पुलिस और न्यायिक अधिकारियों का
मानना है कि वेतन तो वे पद का लेते हैं,
जनता को काम करवाना है तो पैसे देने पड़ेंगे | और तरक्की तो अपने बड़े अधिकारियों और
जन प्रतिनिधियों को खुश करने, सेवा करने मात्र
से मिलती है, कर्तव्य पालन से नहीं | इनके लिए कोई आचार संहिता भी नहीं है | इन्हें
दण्डित करने के लिए कोई मंच भी नहीं
है| सेवा से हटाने के लिए उन्हें संविधान
का पूर्ण संरक्षण प्राप्त है और न्यायालय से दण्डित होने पूर्व उन्हें दंड
प्रक्रिया संहिता की धरा 197 का पूर्ण संरक्षण प्राप्त है| जब कर्तव्य पालन में विफलता पर पुलिस को
स्वतंत्र कहे जाने वाले न्यायाधीश भी दण्डित नहीं करते तो फिर उनके वरिष्ठ उनको
दंड क्यों और कैसे दे सकते हैं जिनकी वे दिन रात सेवा करते हैं| न्यायिक अधिकारियों
को पुलिस विभिन्न सेवाएं और सुविधाएं
उपलब्ध करवाती है और न्यायिक अधिकारियों
के घर जाकर मिलती रहती है व फोन, मोबाइल
से निरंतर संपर्क में रहती है तो फिर यह तो एक सपना ही हुआ कि उन्हें कोई दण्डित
कर सकता है | पुलिस अधिकारी के पद पर एक बार 5 साल सेवा कर ली जाए तो इतना कमा लिया
जता है कि वह अपना सम्पूर्ण जीवन निर्वाह
कर सकता है | और यदि संयोग या दुर्भाग्यवश उसे सेवा से बर्खास्त कर दिया जाए तो भी
पुलिस की दलाली करने का काम तो फिर भी बचा रहेगा|
वैसे
भी देश के निकम्मे और भ्रष्ट जन प्रतिनिधि
मुश्किल से ही कोई ऐसा कानून बनाते हैं जिसमें जनता के हाथों में कोई शक्ति दी गयी हो | शक्तियां तो अधिकारियों को ही दी जाती
हैं जबकि उन्हें शक्ति न दें तो भी वे धक्केशाही से झूठी शक्तियां प्राप्त कर लेते
हैं | फिर भी यदि चूक से कोई
जन प्रिय कानून बन भी जाए तो उसकी धार को न्यायिक, पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी
भोंथरा कर देते हैं और वह भी निष्प्रभावी हो जाता है | सूचना का अधिकार कानून इसका
जीवंत उदाहरण है |
देश
और राज्य में ऐसे न्यायिक अधिकारी भी हैं जो जनता से आवेदन नहीं लेते –रजिस्टर्ड डाक
को भी लेने ही मना कर देते हैं और उनका
कुछ नहीं बिगड़ता| जहां कानून में मौखिक बात कहने का प्रावधान है वहां न्यायिक
अधिकारी लिखित के लिए आदेश देते हैं और
जहां लिखित का प्रावधान हैं वहां मौखिक के लिए |
देश में शायद ही कोई न्यायालय, न्यायिक, पुलिस या प्रशासनिक अधिकारी होगा
जो संविधान या कानून के अनुसार चलता है | जनोन्मुखी प्रावधानों की तो 10% भी अनुपालना नहीं होती है | पुलिस पर
अंगुली उठाने से पूर्व न्यायपालिका को अपने गिरेबान में जनता की नजर से झांककर देखना चाहिए के स्वयं किस श्रेणी में आते हैं |
http://epaper.patrika.com/c/3836949
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