गिरफ्तारी और जमानत – एक दुधारू गाय
वैसे
तो संविधान में व्यक्तिगत स्वतंत्रता को एक अमूल्य मूल अधिकार माना गया है और भारत
के सुप्रीम कोर्ट और विभिन्न हाई कोर्ट ने गिरफ्तारी के विषय में काफी दिशानिर्देश
दे रखें हैं किन्तु मुश्किल से ही इनकी अनुपालना पुलिस द्वारा की जाती है| सात साल
तक की सजा वाले अपराधों के अभियुक्तों को गिरफ्तार करने की कानूनन भी कोई आवश्यकता
नहीं है किन्तु छिपे हुए उद्देश्यों के लिए पुलिस तो असंज्ञेय और छिटपुट अपराधों
में भी गिरफ्तार कर लेती है और जमानत भी नहीं देती| निचले न्यायालयों द्वारा जमानत
नहीं लेने के पीछे यह जन चर्चा का विषय होना स्वाभाविक है कि जिन कानूनों और परिस्थितियों
में शीर्ष न्यायालय जमानत ले सकता है उन्हीं परिस्थितियों में निचले न्यायालय अथवा
पुलिस जमानत क्यों नहीं लेते| देश का पुलिस
आयोग भी कह चुका है कि 60 % गिरफ्तारियां अनावश्यक होती हैं
तो आखिर ये गिरफ्तारियां होती क्यों हैं और जमानत क्यों नहीं मिलती? इस प्रकार अनावश्यक
रूप से गिरफ्तार किये गए व्यक्ति को मजिस्ट्रेट द्वारा दंड प्रक्रिया संहिता की
धारा 59 के अंतर्गत बिना जमानत छोड़ दिया जाना चाहिए व पुलिस
आचरण की भर्त्सना की जानी चाहिए किन्तु न
तो वकीलों द्वारा ऐसी प्रार्थना कभी की जाती है और न ही मजिस्ट्रेटों द्वारा ऐसा
किया जाता है| ये यक्ष प्रश्न आम नागरिक को रात दिन कुरेदते
हैं| दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 437 में प्रावधान है कि किसी
गैर-जमानती अपराध के लिए पहली बार गिरफ्तार किये गए व्यक्ति को पुलिस
द्वारा भी जमानत दी सकती है यदि अपराध मृत्यु दंड अथवा आजीवन कारावास से दंडनीय न
हो| किन्तु स्वतंत्र भारत के इतिहास में एक भी ऐसा उदाहरण मिलना मुश्किल जहां
पुलिस ने इस प्रावधान की अपनी शक्तियों का
कभी विवेकपूर्ण उपयोग किया हो और किसी व्यक्ति को जमानत दी हो| पुलिस का बड़ा अजीब तर्क होता है कि यदि वे इस प्रावधान में जमानत स्वीकार कर
लेंगे तो उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगेंगे इसलिए वे जमानत नहीं लेते| इस प्रकार जमानत जो भी अधिकारी लेगा उस पर
भ्रष्टाचार के आरोप तो लगेंगे ही चाहे उसका स्तर कुछ भी क्यों न हो | आश्चर्य की बात
है कि जो कार्य पुलिस को करना चाहिए वह कार्य देश के न्यायालय प्रसन्नतापूर्वक करते हैं और वे पुलिस से जमानत नहीं लेने का
कारण तक नहीं पूछते, न ही वकील निवेदन करते कि पुलिस ने जमानत लेने से इन्कार कर दिया इसलिए उन्हें न्यायालय आना पडा | क्या
यह स्पष्ट दुर्भि संधि नहीं है ? न ही कभी सुप्रीम कोर्ट ने अपने इतिहास में इस
हेतु किसी पुलिस अधिकारी से जवाब पूछा है कि उसने जमानत क्यों नहीं ली|
हाई
कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की स्थापना संवैधानिक प्रावधानों कि व्याख्या करने के लिए की जाती है किन्तु राजस्थान
उच्च न्यायालय में एक वर्ष में लगभग 18000 जमानत आवेदन आते हैं जिससे इस रहस्य को समझने में और आसानी होगी| अन्य हाई कोर्ट की स्थिति भी
लगभग समान ही है| जमानत के बहुत से प्रकरण
सुप्रीम कोर्ट तक भी पहुंचते हैं | जमानत देने में निचले न्यायालयों और पुलिस
द्वारा मनमानापन बरतने के अंदेशे के कारण प्रख्यात लेखिका तसलीमा नसरीन को सीधे ही
सुप्रीम कोर्ट ने जमानत दी थी | शायद विश्व में भारत ही ऐसा देश है जहां लोगो को
जमानत के लिए सुप्रीम कोर्ट तक की यात्रा करनी पड़ती है फिर
अंतिम न्याय किस मंच से मिलेगा ...विचारणीय प्रश्न है |
गिरफ्तारी
का उद्देश्य यह होता है कि अभियुक्त न्यायिक प्रक्रिया से गायब न हो और न्याय
निश्चित किया जा सके | किन्तु भारत में तो मात्र 2% से भी कम मामलों में सजाएं होती हैं
अत: 2% दोषी लोगों के लिए 98% निर्दोष लोगों की गिरफ्तारी करना अथवा उन्हें पुलिस,
मजिस्ट्रेट, सत्र न्यायालय अथवा हाई कोर्ट द्वारा जमानत से इन्कार कर सुप्रीम
कोर्ट जाने के लिए विवश करने का क्या
औचित्य रह जाता है –समझ से बाहर है | बम्बई उच्च न्यायालय ने आपराधिक अपील संख्या 685/ 2013 के निर्णय में कहा है कि यदि एक मामले
में दोषी सिद्ध होने की संभावना कम हो व अभियोजन से कोई उद्देश्य पूर्ति न हो तो न्यायालय को मामले
को प्रारम्भिक स्तर पर ही निरस्त कर देना चाहिए | मेरे विचार से जब भी किसी मामले
में अनावश्यक गिरफ्तार किया जाए या जमानत से इन्कार किया जाए तो अभियुक्त की ओर से यह निवेदन भी किया जाना चाहिए कि मामले में दोष सिद्धि की
अत्यंत क्षीण संभावना है अत: उसकी गिरफ्तारी या जमानत से इन्कारी अनुचित होगी और यदि अभियुक्त आरोपित अपराध के
लिए दोषी नहीं ठहराया गया तो हिरासत की अवधि के लिए उसे उचित क्षति पूर्ति दी जाए
| इस दृष्टि से तो भारत के अधिकाँश मामले, आपराधिक न्यायालय, अभियोजन और पुलिस के कार्यालय ही बंद हो जाने चाहिए|
इंग्लैंड
में पुलिस एवं आपराधिक साक्ष्य अधिनियम की
धारा 44 के अंतर्गत पुलिस द्वारा रिमांड
की मांग करने पर उसे शपथपत्र देना पडता है| कहने के लिए भारत
में कानून का राज है और देश का कानून सबके लिए समान है किन्तु अभियुक्त को तो
जमानत के लिए विभिन्न प्रकार के वचन देने पड़ते हैं और न्यायालय भी जमानत देते समय
कई अनुचित शर्तें थोपते हैं और दूसरी ओर पुलिस को रिमांड माँगते समय किसी प्रकार
के वचन देने की कोई आवश्यकता नहीं है मात्र जबानी तौर मांगने पर ही रिमान्ड दे
दिया जाता है| पुलिस द्वारा रिमांड मांगते समय न्यायालयों को
पुलिस से अंडरटेकिंग लेनी चाहिए कि वे रिमांड के समय देश के संवैधानिक न्यायालयों
द्वारा जारी समस्त निर्देशों और मानवाधिकार पर अंतर्राष्ट्रीय संधि की समस्त बातों
की अनुपालना करेंगे|
यद्यपि
देश का कानून गिरफ्तारी के पक्ष में नहीं है फिर भी गिरफ्तारियां महज इसलिए
की जाती हैं कि पुलिस एवं जेल अधिकारी गिरफ्तार व्यक्ति को यातना न देने और
सुविधा देने, दोनों के लिए वसूली करते हैं
तथा अभिरक्षा के दौरान व्यक्ति पर होने वाले भोजनादि व्यय में कटौती का लाभ भी जेल एवं पुलिस अधिकारियों को
मिलता है| इस प्रकार गिरफ्तारी में समाज का कम किन्तु न्याय
तंत्र से जुड़े सभी लोगों का हित अधिक निहित है|
आस्ट्रेलिया
में जमानत को व्यक्ति का अधिकार बताया गया है तथा जमानत के लिए अलग से एक कानून है
किन्तु हमारे यहाँ तो धन खर्च करके
स्वतंत्रता खरीदनी पड़ती है | उत्तर प्रदेश
में तो सत्र न्यायाधीशों द्वारा अग्रिम जमानत लेने का अधिकार ही दिनांक 01.05.1976
से छीन लिया गया है और इस लोक तंत्र में
स्वतंत्रता के अधिकार को एक फरेब व मजाक
बनाकर रख दिया है | पुलिस को गिरफ्तारी का अधिकार मात्र तभी होना चाहिए जब कोई सात साल से
अधिक अवधि की सजा वाला अपराध उसकी मौजूदगी में किया जाए अन्यथा जब मामला न्यायालय
में चला जाए व गिरफ्तारी उचित और वांछनीय
हो तो सक्षम मजिस्ट्रेट से वारंट प्राप्त
किया जा सकता | गिरफ्तारियों और जमानत का
यह सिलसिला इसलिए जारी है क्योंकि यही भारतीय न्याय प्रणाली उर्फ़ मुकदमेबाजी उद्योग की रीढ़ है और सम्बद्ध लोगों के लिए दुधारू गाय है |
सत्तासीन लोग भी पुलिस क्रूरता और पुलिस की भय उत्पन्न करने वाली कर्कश आवाज़ के दम
पर ही शासन कर रहे हैं |
No comments:
Post a Comment