वास्तविक लोकतंत्र की चिंगारी सुलगाने का एक अभियान - (स्थान एवं समय की सीमितता को देखते हुए कानूनी जानकारी संक्षिप्त में दी जा रही है | आवश्यक होने पर पाठकगण दिए गए सन्दर्भ से इंटरनेट से भी विस्तृत जानकारी ले सकते हैं|पाठकों के विशेष अनुरोध पर ईमेल से भी विस्तृत मूल पाठ उपलब्ध करवाया जा सकता है| इस ब्लॉग में प्रकाशित सामग्री का गैर वाणिज्यिक उद्देश्य के लिए पाठकों द्वारा साभार पुनः प्रकाशन किया जा सकता है| तार्किक असहमति वाली टिप्पणियों का स्वागत है| )
Saturday, 14 November 2020
Wednesday, 18 December 2019
भारत के विधिवेताओं के दिमाग का दिवालापन
एक बार केंद्रीय विधि मंत्री
हंसराज भारद्वाज राजस्थान के दौरे
पर आये थे। उच्च न्यायालयों में जजों की कमी का मुद्दा उनके सामने उठाया । मंत्री महोदय बोले यहां जज काम कम कर रहे हैं इसलिये जब तक सुधार नहीं हो जाता तब तक
और जज नहीं मिलेंगे। शाबाश ! काम जज नहीं करते और खामियाजा भुगते जनता यह निर्णय है जन प्रतिनिधि
का..?
और एक विधि वेता कहते हैं जब तक हिंसा नहीं रुकती तब तक सुनवाई नहीं करेंगे . और यही फार्मुला आगे
बढे तो .. जब तक रेप नहीं
रुकते रेप पर सुनवाई नही.. ? क्यों यही होना चाहिये ना
..? यह है भारत के विधिवेताओं के दिमाग का दिवालापन . शायद इसीलिये -- शेक्सपीयर ने कहा है --"The
first thing we do, let's kill all the lawyers". - (Act IV, Scene II).
----Henry VI (Part 2) - William Shakespeare
Thursday, 14 March 2019
अंग्रेजो भारत छोडो के बाद –नौकरशाही भारत छोडो---
अंग्रेजो भारत छोडो के बाद –नौकरशाही
भारत छोडो---
वर्तमान अनिश्चित राजनीतिक परिदृश्य की
पृष्ठभूमि में, देश के वातावरण में न तो हमारे संवैधानिक अधिकार और न ही संसद के
निर्वाचित सदस्य, और न ही विधानमंडल के सदस्य संबंधित लोक सेवकों
को जनता का काम करने के लिए लोगों की सहायता कर पा रहे हैं, जब तक कि
स्व-प्रेरणा से उच्च न्यायालय और शीर्ष
अदालत कुछ
जनादेश देने के लिए सरकार और विशेष रूप से संबंधित लोक सेवक को कानूनी रूप से
कार्य करने और / या अवैध भूमिका से दूर रहने के लिए हस्तक्षेप नहीं करता है । हमारे
बुद्धिमान, ईमानदार, ईमानदारी
से चुने हुए प्रतिनिधियों के लिए स्वतंत्रता का जयंती के 50 वें समारोह में लोगों
को ठीक से जानने और महसूस करने के लिए स्थिति का जायजा लेना चाहिए। सार्वजनिक
प्रशासन को कुछ रूढ़िवादी, अनम्य,
असंवेदनशील लोगों द्वारा
चलाया और प्रबंधित किया जा रहा है । 'नौकरशाहों' के रूप
में जाने जाने वाले लोक सेवक एक शब्द में तुच्छ अवांछनीय असंतुष्टीकारक और जन
विरोधी हैं।
यह कटु अनुभव है कि उन्हें वास्तव में
कोई पता ही नहीं है, बल्कि वे लोगों की वास्तविक समस्याओं और
आकांक्षाओं की नब्ज और धड़कन की अनुभूति और चिंता को अनदेखा करते हैं । यह अनम्यता
और सार्वजनिक प्रयोजनों के मामले में असंवेदनशीलता, सार्वजनिक
समस्याएं मानो विशेषताएं बन गई हैं बल्कि हमारे दिन-प्रतिदिन की पुरानी समस्याओं के लिए सार्वजनिक प्रशासन, जहाँ
दक्षता और जनता के प्रति जवाबदेही हमेशा सबसे निचले स्तर पर होती है और बहुत सहज
मुद्दों को हवाओं में उडा दिया जाता है । जब हम इसे इतनी ज़िम्मेदारी के
साथ साथ कहते हैं, तो इसे भी यहाँ स्पष्ट करना होगा और अब इस स्तर
पर किसी भी अनावश्यक गलतफहमी से बचें, केवल यह
नहीं है कि प्रत्येक राजनेता या लोक सेवक पर जनविरोधी, नौकरशाह
होने का आरोप लगाया जाता है। ऐसा नहीं है और वास्तव में ऐसा नहीं हो सकता। हर
काले बादल की तरह जिसमें कुछ खूबसूरत चमकीली रेखायें भी
होती हैं। सार्वजनिक-प्रशासन की तरह कथित
रूप से निराशाजनक काले बादलों में भी कुछ वास्तविक, उम्मीदवान
और आदर्श किंतु नगण्य लोक सेवक भी हैं, जिनके पर देश गर्व कर सकता है, जो उनकी
हर तंत्रिका को तनाव में रखते हैं जिन्होने वास्तव में सार्वजनिक रूप से काफी मदद
की, सेवा की जो कि एक
परीक्षात्मक तरीके से प्रदान करता है आशा की रजत रेखा की तरह सरकार में लोगों की कुछ आशा को बनाए रखनी
चाहिये। परन्तु फिर मामले या राज्य या देश के समग्र दृष्टिकोण को छोड़कर अपवादों
के बीच कुछ और दूर जहां 'नौकरशाही संस्कृति' ने
दुर्भाग्य से मुख्य रूप से शिकंजे में जकड लिया है ।अपनी चुनी हुई सरकार में लोगों
के लोकतांत्रिक अधिकारों, मूल्यों और उम्मीदों के लिए, सार्वजनिक
हित को कभी नहीं रोका जा सकता है, इसके बावजूद यह वांछित सीमा तक नहीं
बढ़ पाया है। बारबार की राजनीतिक अस्थिरता , पार्टीयों
की सरकारें तेजी से बदल रही है और अभी और
फिर चक्रवाती राजनीतिक हवाओं की हर
कानाफूसी के साथ 'मौसम सूचक मुर्गा' की दिशा
बदल रही है । इस मामले का पूर्वोक्त
दृष्टिकोण की वास्तविकता यह है कि यह कठोर, कड़वा है,
'लोक नियम' के अनुसार कानून 'देश पर शासन
करने के लिए, सरकारी प्रशासन को रवैया, चरित्र
और काम करने की गुणवत्ता को आवश्यक रूप से बदलना होगा बल्कि 'नौकरशाही'
शब्द के साथ इसकी बदसूरत पहचान संविधान के तहत लोगों के परम संप्रभु अंतिम
अधिकारों के लिए पर्याप्त और घोर विरोधी है
। क्या हमने कभी किसी एक मिनट में शैतान को देश से बाहर निकालने, चंगुल
से देश को निकालने और बचाने की बात,
'नौकरशाही पंथ', जिसके कारण सभी व्यापक, प्रकट
अक्षमता, लाल-फीताशाही, गैर जिम्मेदारापन ने
लोगों को अपंग, कुचल और निचोड़ दिया है ,के लिये विचार
और योजना बनाई है?
यह दुखद स्थिति स्वतंत्रता और स्वतंत्रता
का फल भोगने में बाधक है। अगर ऐतिहासिक वर्ष 1942 ने सफलतापूर्वक अंग्रेजों को
चुनौती दी और 'भारत छोड़ो', वर्ष चला
तो 1997 भी एक और ऐतिहासिक वर्ष होना
चाहिए जो 'नौकरशाही पंथ' को स्पष्ट जनादेश और आदेश दे 'भारत
छोड़ो' और इसके लिए हम सभी को इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए कड़ी मेहनत
करनी होगी। कारण स्पष्ट है 'लोकतंत्र' और 'नौकरशाही
’, वस्तुतः एक तरह से एक-दूसरे के विरोधी, विपर्यय,
विरोधाभास के संदर्भ में हैं। सेवा में ही सही, सार्थक लोकतंत्र
है, । जनता के पास मतदान करने का
अधिकार है, अगर सत्ता में रहने वाली पार्टी उनकी समस्याओं
का समाधान नहीं करती है, तो लोक
सेवक के साथ भी एक ही जवाबदेही और पारदर्शिता परीक्षण से कुछ उचित तरीकों और
साधनों को प्रभावी ढंग से विनियमित और नियंत्रित करने के लिए निपटा जाना चाहिए और
खोजने के लिए विद्यमान परिधि से बाहर निकलना चाहिए । मशीन या तंत्र जब भी पकड़,
दक्षता खोता है और वांछित और अपेक्षित सेवा नहीं देता है, उचित
समय पर ध्यान देने की आवश्यकता है,
सर्विसिंग, पेंचिंग और टोनिंग-अप इस उद्देश्य की
पूर्ति करेगा और यदि इन सभी चीजों को करने के बावजूद, यदि
स्थिति में सुधार नहीं होता है, तो आगे की आवश्यकता को ध्यान में रखते
हुए समकक्षों को भी बदलने की आवश्यकता होती है और यदि ऐसा नहीं किया जाता है तो
इसके अलावा कोई विकल्प नहीं रह जाता है कि निंदा के रूप में 'कबाड'
के रूप में उपयोग के लिये यह सारा कचरा फेंक देना और नष्ट या बंद करना निपटाने के लिए उत्तम है।
अपरिहार्य स्थिति की समस्या को हल करने
के लिए सामना करना होगा। दूसरे शब्दों में, सही
मायने में लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम रखने और उसके ऊपर राज्य, लोकतांत्रिक
अधिकार, मूल्यों और लोगों की संस्कृति, घातक “नौकरशाही के
वायरस’ को
पहली बार में सख्त निगरानी और नियंत्रण में रखना होगा, देश
लोकतंत्र के अपने चरित्र और गुणवत्ता को बनाए रखना चाहता है, और
दूसरे ओर वैकल्पिक रूप में जहां इसका समूल उन्मूलन तुरंत संभव नहीं है। यदि ऐसा नहीं किया
जाता है, तो यह मान लें कि तथाकथित 'लोकतंत्र'
केवल नाम के लिये होगा और लोगों को शैतान द्वारा शासित और शोषित किया जाएगा और 'ब्यूरोक्रेसी'
का अभिशाप, सफलतापूर्वक खरपतवारों द्वारा जालों के
आसपास कताई होगी और कताई से लोगों और उसकी सरकार के बीच दूरी बढती जायेगी। अगर
पूर्णिमा के चांद की भांति स्वतंत्रता और
लोकतंत्र ने अपनी सुंदरता खो दी तो हमारे देश में यह पूरी तरह से इसका दोहरा घातक
नौकरशाहों और भ्रष्ट राजनेतों की महत्वाकांक्षाओं द्वारा ग्रहण लग जायेगा। समय रहते
हमेंजागना पडेगा। जय भारत...
( गुजरात उच्च न्यायालय के खियालदास बनाम गुजरात राज्य प्रकरण में दिनांक
31.31997 को दिये गये निर्णय पर आधारित ) ---
मनीराम शर्मा
Wednesday, 6 February 2019
पुलिस द्वारा गिरफ्तारी क्यों ..?
पुलिस द्वारा गिरफ्तारी क्यों ..?
भारत में पुलिस जब मर्जी चाहे जिसे गिरफ्तार कर
लेती है और उसके साथ अवांछनीय व्यवहार करती है यह जग जाहिर है । गुजरात के नडियाड
में एक मजिस्ट्रेट को गिरफ्तार कर लिया था, उसे जबरदस्ती शराब
पिलायी, रस्सियों में बांधा , सरे बाजार जुलूस निकाला था। फिर आम नागरिक की
हैसियत तो किसी कीडे-मकोडे से ज्यादा क्या
है ?
वैसे संज्ञेय अपराध यदि पुलिस की मौजूदगी में
किया जाये तो ही पुलिस द्वारा गिरफ्तारी को उचित ठहराया जा सकता है अन्यथा यदि
गिरफ्तारी उचित हो तो पुलिस मजिस्ट्रेट से
वारंट लेकर गिरफ्तार कर सकती है।
विद्वानों और
विधिवेताओं के विचार सादर आमन्त्रित हैं ....
Monday, 17 July 2017
संवैधानिक कर्तव्य
दिल्ली उ. न्या. ने सांसदों द्वारा प्रष्न पूछने के बदले धन लिए जाने
के प्रमुख प्रकरण अनिरूद्ध बहल बनाम राज्य में निर्णय दि. 24.09.10 में कहा है कि
सजग एवं सतर्क रहते हुए राश्ट्र की आवष्यकताओं एवं अपेक्षाओं के अनुसार दिन-रात
रक्षा की जानी चाहिए और उच्च स्तर पर व्याप्त भ्रश्टाचार को उजागर करना चाहिए।
अनुच्छेद 51 क (छ) के अन्तर्गत जांच-पड़ताल एवं
सुधार की भावना विकसित करना नागरिक का कर्तव्य है। अनुच्छेद 51 क (झ) के अन्तर्गत समस्त क्षेत्रों में उत्कृष्टता के लिए अथक प्रयास करना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य
है ताकि राष्ट्र आगे बढे। प्रत्येक नागरिक
को भ्रष्टाचार मुक्त समाज के लिए भरसक
प्रयास करना चाहिए और भ्रश्टाचार को उजागर करना चाहिए और राज्य प्रबन्धन में समस्त
विषेशतः उच्च स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार को दूर करने का प्रयास करना चाहिए।
स्वच्छ न्यायपालिका, विधायिका, कार्यपालिका और अन्य अंग पाना नागरिकों का मूलभूत अधिकार है और इस मूलभूत
अधिकार को प्राप्त करने के लिए जहां भी भ्रश्टाचार पाया जावे उसे उजागर करना
प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है और यदि संभव हो तो सप्रमाण उजागर करे ताकि राज्य
तन्त्र यदि कार्य नहीं करे और भ्रश्ट लोगों के विरूद्ध कार्यवाही नहीं करे तो
उपयुक्त समय आने पर लोग अपने प्रतिनिधियों को नकार कर कार्यवाही कर सकें अथवा
जन-जागृति के माध्यम से उनके विरूद्ध कार्यवाही के लिए राज्य को विवष कर सकें। सत्तासीन
लोगों के विरूद्ध शिकायतों पर केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो और पुलिस किस प्रकार कार्यवाही करती है
कहने कि आवश्यकता नहीं है । सीटी बजाने-सचेतकों
का हश्र इस राष्ट्र के लोग देख चुके हैं, उन्हें परेशान किया जाता है अथवा मार दिया जाता है अथवा झूठे आपराधिक
प्रकरणों में बांध दिया जाता है। यदि भ्रष्टाचार ध्यान में आ जावे तो भी पुलिस प्रथम सूचना
रिपोर्ट दर्ज करने में रूचि नहीं रखती। यदि पुलिस वास्तव में रूचिबद्ध होती तो दूरदर्शन
चैनलों पर टेप गूजंने के बाद ठीक अगले दिन
ही प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कर सकती थी। पुलिस ने, बड़ी
संख्या में सांसदों के नाम टेप में दिखायी दिए उनको छोड़ते हुए, मात्र माध्यस्थ लोगों और उलटे याची तथा एक दो अन्यों के विरूद्ध प्रथम
सूचना रिपोर्ट दर्ज की और सत्तासीन व्यक्तियों के लिए ‘स्वामी
भक्त’ की की तरह कार्य किया है ।स्मरण रहे कि
उक्त प्रकरण में स्वयं स्टिंग ऑपरेशन करने वालों के विरुध पुलिस ने मामला दर्ज कर
लिया था जबकि सांसदों के विरुध पुलिस ने कोई कार्यवाही नहीं की। दिल्ली उ.
न्यायालय ने स्टिंग ऑपरेशन करने वाले प्रार्थियों
के विरुध दर्ज प्रकरण को निरस्त कर दिया।
भारतीय पुलिस संस्कृति में भ्रष्टाचार की जड़ें
भारतीय पुलिस संस्कृति में
भ्रष्टाचार की जड़ें
भारतीय पुलिस में भ्रष्टाचार
सर्वविदित और सुज्ञात है| जो इस विभाग में
ईमानदार दिखाई देते हैं वे भी लगभग ईमानदारी का नाटक ही कर रहे हैं और वे
महाभ्रष्ट नहीं होने से ईमानदार दिखाई देते हैं|
भ्रष्ट भी दो तरह के होते हैं – एक
वे जो माँगते नहीं अपितु दान दक्षिणा स्वीकार करते है – पुजारी होते हैं| दूसरे वे
जो मांग कर रिश्वत लेते हैं – भिखारी होते हैं| ये ईमानदार दिखाई देने वाले
ज्यादातर पुजारी होते हैं| भ्रष्टाचार को
पुलिस में शिष्टाचार माना जाता है और जनता को यह विश्वास होता है कि बिना रिश्वत
के काम नहीं होगा इसलिए वे बिना मांगे ही रिश्वत दे देते हैं जिसे सहर्ष स्वीकार
कर लिया जाता है| पुलिस को भ्रष्ट विभाग
कहने पर कुछ पुलिसवाले इस पर आपत्ति करते हैं और बचाव करते हैं कि पुलिस कोई भ्रष्टाचार की फैक्ट्री नहीं है जहां भ्रष्ट लोग बनाए जाते हों| किन्तु
मेरा उनसे यह कहना है कि जो कोई भी
व्यक्ति सेवा का चयन करता है वह उस सेवा में उपलब्ध विशेषाधिकार, ऊपर की कमाई,
रॉब, राजनेताओं की गुलामी आदि जांच पड़ताल
कर अपनी रूचि के अनुरूप ही सेवा ग्रहण करता है| पुलिस की नौकरी में उसे इन
विशेषाधिकारों और वसूली का ज्ञान होने पर अपने अनुकूल पाने वाले लोग ही यह सेवा
ग्रहण करते हैं| जो कोई भी भूलवश जोश में
आकर देश सेवा के लिए अपवादस्वरूप यह सेवा ग्रहण करते हैं ऐसे आपवादिक लोग पुलिस
में अपनी सेवा सम्मानपूर्वक पूर्ण नहीं कर पाते और या बीच में सेवा त्याग देते हैं
या फिर मुख्यधारा में शामिल होकर नेताओं की गुलामी स्वीकार कर लेते हैं| कांस्टेबल से लेकर पुलिस प्रमुख और देश के
प्रत्येक पुलिस विभाग में भ्रष्टाचार प्रत्येक स्तर पर तक विद्यमान है |शेरमन
(1978) के अनुसार सर्वव्यापी भ्रष्टाचार इस प्रकार पनपने का कारण संगठनात्मक
संस्कृति है जोकि विभिन्न प्रकार के
विश्वास और मूल्य पद्धति का होना है| भारतीय पुलिस की उप –संस्कृति
ब्रिटिशों द्वारा अपना राज स्थापित करने के उद्देश्य से चतुराईपूर्वक बनायी गयी थी
|
पुलिस का
उद्देश्य ब्रिटिश राज के विरुद्ध किसी भी
असंतोष को दबाने का रहा है – एक ऐसी स्थिति जो पुलिस अधिकारियों को असीमित शक्ति
दे| परिणाम स्वरुप पुलिस विभाग में भ्रष्टाचार सामान्य और सर्वव्यापी बन गया| दुर्भाग्य से स्वतंत्रता के बाद भी इस निकाय
में कोई सुधार नहीं हुआ और पुलिस संस्कृति व संगठनात्मक परम्पराएं अपरिवर्तित रही
| ब्रिटिश काल में स्वाभाविक रूप से जनता के प्रति शासकों के दायित्व का कोई प्रश्न ही नहीं था क्योंकि
देश में औपनिवेशिक शासन था | स्वतन्त्रता
के बाद का भारत लोकतंत्र है और सरकार बदलने की शक्ति जनता में निहित है | फिर भी
पुरानी व्यवस्था जारी है और पुलिस
नागरिकों के प्रति अभी भी जिम्मेवार नहीं है | ( बक्सी 1980) इसकी कार्यशैली में बहुत कम परिवर्तन हुआ है और
भ्रष्टाचार बढना जारी है तथा इसने नयी जड़ें बना ली हैं | यहाँ इस बात पर स्वस्थ बहस की जा सकती है
कि भारतीय पुलिस में विस्तृत भ्रष्टाचार ने संगठनात्मक और सांसकृतिक आदर्शों में
अपनी गहरी पैठ बना ली है| जैसे कि क्रेंक (1998:4) ने सुझाव दिया है पुलिस का व्यवहार तो तभी झलकता है जब उसी संस्कृति के लेंस से देखा जाए| इस
आलेख का उद्देश्य भारतीय पुलिस में व्याप्त भ्रष्टाचार की सांस्कृतिक जड़ों को उजागर करना है |सर्वप्रथम,
पुलिस विभाग में नीचे से लेकर ऊपर तक व्याप्त आम स्वरुप को उजागर करना है |द्वितीय,
उन संगठनात्मक परम्पराओं पर चर्चा करना और
ब्रिटिश काल से उद्भव का पता लगाना है| इस
बात को सौदाहरण प्रस्तुत करना कि किस प्रकार जनता से दूरी बनाए रखने की औपनिवेशिक मानसिकता व परम्परा को जानबूझकर लागू
किया गया और किस प्रकार अधीनस्थ पुलिस अधिकारियों में इससे धन दोहन की परम्परा को प्रोत्साहन मिला| भ्रष्ट
व्यवहार भारतीय पुलिस व्यवस्था का अभिन्न अंग
बन गया है और प्रत्येक विभाग, पद व प्रशिक्षण केन्द्रों सहित प्रत्येक
संस्थान में पाया जाता है| यह बुराई पूरे
देश में और पुलिस के प्रत्येक पहलु में फ़ैल चुकी है |
विभाग में
पुलिस थाने के प्रभारी का पद सबसे आकर्षक
और मलाईदार पद माना जता है और अक्सर एक तरह से नीलामी पर ही छोड़ा जाता है| अनुचित
रूप से उसे आपराधिक मामले दर्ज करने के लिए, अनुसंधान करने और गेटकीपर की तरह संदिग्ध लोगों को गिरफ्तार करने,
अधिकांश आपराधिक अनुसंधान को नियंत्रित करने में उसे काफी स्वायतता होती है और इसीलिए थाने की बजाय पुलिस लाइन में पद स्थापना को एक दंड
मना जाता है| ये शक्तियां दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 154 -158 में वर्णित हैं
और इससे वह वसूली तथा अन्य प्रकार के भ्रष्टाचार करने में सक्षम होता है| घोष जोकि
(1978:158-159 ) पुलिस महानिरीक्षक पद से
सेवा निवृत हुए ने इसे हफ्ता या दुकानदारों, ठेलेवालों,व्यापारियों और उसके
क्षेत्र में कार्यरत अपराधियों से साप्ताहिक भुगतान को भारत में पुलिस का
सर्वमान्य भ्रष्टाचार बताया है |
शक्ति के इस दुरूपयोग को रोकने के लिए आवश्यक है कि दंड प्रक्रिया संहिता में नयी
धारा 36 ए इस प्रकार जोड़ी जानी चाहिए –“ इस कानून के तहत कार्यरत प्रत्येक पुलिस
अधिकारी समय पर, उचित व सही निर्णय और कार्यवाही के
लिए जवाबदेय होगा|”
अंतत: फलताफूलता
भ्रष्टाचार विमर्श का विषय है कि वर्तमान
पुलिस नेतृत्व ने सौ वर्ष से भी अधिक समय पूर्व प्रारम्भ की गयी संगठनात्मक
संस्कृति को अपना लिया है और अनुसरण करती आ रही है | इस प्रकार की भ्रष्ट परम्परा
को मात्र पुलिस संगठन में सांस्कृतिक
परिवर्तन से ही नियंत्रित किया जा सकता है |
भारत में
पुलिस बल जबरन वसूली के लिए कुख्यात है और वर्तमान में यह अपने चरम पर है| ग्रामीण
चोकीदार - के निम्नतम स्तर से लेकर महा
निदेशक के उच्चतम स्तर तक गंदे दागदार
हाथों के लिए जाने जाते हैं| ( टाइम्स ऑफ़ इंडिया 1997 ए)| मध्यम स्तरीय अधिकारी व
कनिष्ठ स्तरीय निरीक्षक जोकि अनुसन्धान कार्य करते हैं अपनी शक्तियों का दुरूपयोग
करके जन सामान्य -परिवादी, गवाह तथा स्वाभाविक रूप से अभियुक्त को चौथ वसूली के
लिए को अपना निशाना बनाते हैं | पुलिस थाने के सिपाही लोग भी ठेलेवालों, फूटपाथ के विक्रेताओं, ट्रक और बस ड्राइवर्स ( आनंदन - इंडियन एक्सप्रेस 1997) से वसूली
करते हैं और सामूहिक सौदेबाजी से अपना हिस्सा मांगते हैं| दुर्भाग्य है कि ऐसे आई
पी एस अधिकारी जोकि वरिष्ठ पदों को धारण करते हैं देश में प्रतिष्ठा पाते हैं |
पुलिस थानों में कुल पुलिस बल का मात्र
25% हिस्सा ही कार्यरत होता है, शेष महत्वपूर्ण लोगों के लिए आरक्षित रहता है जबकि
जनता इस सम्पूर्ण बल का खर्चा वहन करती है| थानों में स्टाफ की कमी को अनुसंधान
आदि में विलम्ब का कारण बताया जाता है जबकि वे लोग रात दिन ड्यूटी करते हुए भी
अधिक काम की शिकायत नहीं करते क्योंकि
उन्हें मालूम होता है कि थानों में और
स्टाफ लगा दिया गया तो उनकी वसूली में हिस्सेदार बढ़ जायेंगे |
यद्यपि इस स्तर पर भी भ्रष्टाचार अब सर्वमान्य है और
वर्ष दर वर्ष बढ़ता जा रहा है | आई पी एस अधिकारी तबादला उद्योग, रिश्वत लेने और पक्षपोषण
से धन कमाते हैं | ( इंडियन एक्सप्रेस 1999)
यह मांग गणवेश के आपूर्तिकर्ताओं से कमीशन, अन्य कार्यालय उपकरणों,
हथियारों व वाहनों की आपूर्ति में और यहाँ तक कि व्यापारिक घरानों से जबरन
वसूली (प्रोटेक्शन मनी ) तथा धन या राजनीतिक उद्देश्यों के लिए
मामलों में अनुचित अनुसन्धान तक विस्तृत है ( कुमार 1996)| इसलिए इसमें
आश्चर्य नहीं कि वे पुलिस थाने जिनके पास बड़े बाज़ार, व्यापारिक केंद्र , उद्योग या
परिवहन केंद्र हों उनकी मांग ज्यादा रहती है | (आनंदन)एक पुलिस अधिकारी जो मेरे
सहपाठी रह चुके हैं उन्होंने भी इस बात की पुष्टि करते हुए मुझे बताया था कि छोटी
जगह छोटी छोटी रिश्वत लेते हुए बदनाम होने
से अच्छा है किसी बड़े शहर में हों ताकि एक
दो सम्पति के मामलों में ही काफी सारा माल
कूट लें| ऐसा माना जाता है कि ऐसे स्थानों
पर कुछ महीने रहने मात्र से ही इतना धन कमाया
जा सकता है जितना कि वे अपने सम्पूर्ण सेवा काल में वेतन ले सकते हैं| एक अन्य
कार्मिक ने भी यह कहा कि प्रशासन व पुलिस की नौकरी 5 साल कर ली जाए तो फिर पूरी
जिन्दगी कमाने की कोई आवश्यकता ही नहीं रहती है| वास्तव में दिल्ली के चांदनी चौक,
मुंबई के ज्वेलरी बाज़ार या कलकत्ता के नया बाजार जहां पर कि बड़े व्यापरिक केंद्र हैं पुलिस के मुखिया द्वारा
सीधे नियंत्रित होते हैं| ज्ञात हुआ है कि पुलिस विभाग में ऐसे सभी पदस्थापन मंत्रियों की इच्छा से होते
हैं क्योंकि यहाँ प्रतिदिन ही सैंकड़ों हजारों रुपयों की वसूली होती है जिसमें ऊपर तक
हिस्सा पहुंचता है | व्यापार
संगठन अपने सदस्यों से हफ्ता (प्रोटेक्शन मनी) वसूली करके सीधे यह रकम पुलिस,
राजस्व व प्रशासनिक अधिकरियों तक नियमित पहुंचाते रहते हैं और इसमें वे गर्व महसूस
करते हैं| लगभग 100 करोड़ रूपये की हैसियत वाले एक उद्यमी से वार्ता में उसने मुझे
बताया था कि वह छोटे उद्यमियों से वसूली
करके बड़े अधिकारियों तक पहुंचाते हैं और वे कभी भी उनके कार्यालय नहीं जाते अपितु
या तो उनके घर मिलने जाते हैं या फिर वे अधिकारी स्वयं ही उनके घर समय समय पर मिलने आते हैं | मुझे इस बात पर ताज्जुब
हुआ कि वे इस दलाली के धंधे में अपने आपको
गौरवान्वित महसूस करते हैं |
ठीक इसी
प्रकार जो पुलिस थाने कोयला खदानों, बड़े
औद्योगिक काम्प्लेक्स, हाईवे या सीमा चेक पोस्ट पर स्थित हों वे भी समान रूपसे
कुख्यात होते हैं | ऐसे पदों पर स्थापना
भी पुलिस मुखिया सहित वरिष्ठ पुलिस अधिकारीयों के लिए वरदान होते हैं जोकि इन
थानों के प्रभारी लगाने के लिए निर्णय करते हैं |मामले में अनुसन्धान, संदिग्ध को
गिरफ्तार करना,आरोप पत्र प्रस्तुत करना या बकाया मामले को बंद करना वे प्रक्रियाएं
हैं जोकि सामान्यतया धनबल से प्रभावित
होते हैं| जब नडियाद (गुजरात ) में मजिस्ट्रेट को जबरदस्ती शराब पिलाकर पुलिस उसका
सार्वजनिक जुलूस निकाल सकती है तो फिर विधायिका द्वारा निर्मित कानून तो पुलिस के
डंडे में रहता है| आपराधिक घटना दर्ज करवाने के लिए नागरिकों को
पुलिस थाने जाना पड़ता है| प्रभारी पुलिस
थाना के लिए नागरिक की शिकायत दर्ज करने हेतु धन की मांग सामान्य बात है और यदि
किसी को संदिग्ध आरोपी बनाना है तो फिर यह मांग और ज्यादा बलवती होती है |और उससे भी आगे मात्र मामला दर्ज
करवाने हेतु ही नहीं बल्कि जब भी पुलिस अधिकारी जांचपड़ताल के लिए आयें तो उनके सत्कार में भी काफी खर्च
करना पड़ता है| मेरा भी यह अनुभव रहा है की मुझ पर दर्ज एक झूठे मामले में
जांच अधिकारी ने गाडी का किराया मांगा था|
मेरा विश्वास है कि बिना पैसे के पुलिस शायद ही कोई काम करती है| यहाँ तक कि नयी नौकरी के लिए चरित्र सत्यापन, पास पोर्ट के
लिए सत्यापन जैसे काम भी बिना पैसे के नहीं करती| एक बार तो इसकी हद देखने को मिली
जब नोटिस तामिलकर्ता पुलिसिये ने अभियुक्त
पर नोटिस तामिल करने के लिए स्वयं अभियुक्त से ही पैसे मांग लिए | जो कोई पुलिस के इस व्यवहार की शिकायत करे उसे
किसी झूठे मुकदमे में फंसाकर गिरफ्तार करके हिसाब बराबर कर लिया जाता है क्योंकि
पुलिस को यह विश्वास है देश के न्यायालय उसका बाल भी बांका नहीं कर सकते, वे चाहे
जो मर्जी करें | राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कुछ लोगों को झूठे मुकदमों
में फंसाया जाता है और न्यायालय में उन्हें पेश करने से पहले झूठे दस्तावेज और
बरामदगी का इंतजाम किया जाता है | ऐसी
लोगों को बाद में उच्च पदों पर पदोन्नति, सेवानिवृत पश्चात् लाभ व पुनर्नियुक्ति तथा पार्टी टिकट पर चुनाव लड़वाने के उपकार किये
जाते हैं |
परिवादी को
वाहन व्यय सहित अनुसन्धान के खर्चे वहन
करने पड़ते हैं| बाद में जांच, अभियुक्तों की गिरफ्तारी , न्यायालय में अभियोजन के
अतिरिक्त खर्चे भी परिवादी को ही वहन करने पड़ते हैं यदि वह मामले को चलाना चाहता
है (नंदा , 1998 )| यहाँ तक कि सरकारी कंपनी से भी वे वसूली से नहीं चूकते | देखा
गया है कि एक बड़ी सरकारी औद्योगिक कंपनी
के खर्चे पर पुलिसवाले अपने वाहन की मरम्मत करवाते थे| यदि वह कंपनी ऐसा नहीं करती तो उसे
आवश्यकता पड़ने पर कोई मदद उपलब्ध नहीं करवाई जाती| ऐसा
नहीं है कि अनुसन्धान अधिकारी के कार्य का पर्यवेक्षण करने के कोई नियम या
प्रक्रिया नहीं है किन्तु पर्यवेक्षण भी एक खरीद फरोख्त का मुद्दा है| धन बल पर
मामलों में मन चाहे अनुसन्धान अधिकारी से अनुसन्धान के आदेश प्राप्त किया जा सकता
हैं और बारबार अनुसन्धान बदलकर मामले को लंबा खेंचा जा सकता है| पुलिस महानिदेशक और स्वयं गृह मंत्री के स्तर
तक यह सूत्र कामयाब पाया गया है | बड़े पुलिस अधिकारी मात्र यह कहकर जिम्मेदारी से
अपना पल्ला झाड लेते हैं कि उनके पास काफी अनुसन्धान अधिकारी हैं इसलिए वे स्थिति
पर नियंत्रण नहीं रख सकते जबकि उनका यह कथन बिकुल खोखला है | यदि नमूने के तौर पर भी अनुसंधान पर स्वत: निगरानी रखी जाए
और दोषी अधिकारियों के विरुद्ध कड़ी कार्यवाही की जाए तो स्थिति में पर्याप्त सुधार
हो सकता है| देश के रिज़र्व बैंक में भी बड़ी मात्रा में नोटों का भण्डार होता है किन्तु
नमूना जांच प्रणाली से वे इस पर प्रभावी
नियंत्रण रखते हैं | यदि वरिष्ठ पुलिस अधिकारी अपने कनिष्ठ के 1% प्रतिशत
कार्यों का भी प्रभावी पर्यवेक्षण करें तो स्थिति में आमूलचूल परिवर्तन हो सकता है किन्तु कनिष्ठ तो उनके कमाऊ पूत होते
हैं इसलिए वे ऐसा करने की सोच भी नहीं सकते| निरीक्षण केवल तभी प्रभावी होता है जब
अचानक किया जावे किन्तु आजकल ज्यादातर निरीक्षण पूर्व सूचित होते हैं और वसूली में
हिस्सा लेने तथा आतिथ्य ग्रहण की रस्म अदायगी मात्र होते हैं | प्रशिक्षण के अभाव का बहाना भी बिलकुल बनावटी
है क्योंकि उन्हें रिश्वत लेने की कहीं
शासकीय ट्रेनिंग नहीं होती फिर भी इच्छाशक्ति
होने पर वे यह काम बिना ट्रेनिंग के ही बखूबी कर लेते हैं | शादी से पूर्व
गृहस्थी का कोई प्रशिक्षण नहीं होने पर भी आवश्यकतानुसार सभी सीख जाते हैं| पुलिसवाले
सामनेवाले की औकात देखकर ही व्यवहार करते हैं जो पुलिसवाले थानों गलियों की बौछार
करते हैं उन्हें एयरपोर्ट्स पर बिलकुल शालीन ढंग से पेश आते देखा गया है|
एक सामान्य
प्रचलित परम्परा है कि मामले दर्ज नहीं किये जाएँ और अपराध के आंकड़ों का सरकारी रिकार्ड
नीचा रखा जाए| ( सक्सेना – 1987 : वर्मा 1993) किसी मामले
को न्यायालय में भेजने का निर्णय अधीक्षक का होता है और अभियोजन अधिकारी का इस पर
बहुत कम नियंत्रण होता है| यह औपनिवेशिक
परम्परा रही कि पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी ब्रिटिश लोग हुआ करते थे और सरकारी वकील राज्यों द्वारा नियुक्त भारतीय वकील हुआ
करते थे| परिणामस्वरूप मामले को न्यायालय में भेजने का निर्णय पुलिस अधिकारी
नियंत्रित करते आ रहे हैं| आई पी एस की हैसियत अभियोजक से बहुत ऊपर होती है |इस प्रकार अभियोजक अधीक्षक
के निर्णय की आलोचना करने की स्थिति में नहीं होते हैं |( भारत सरकार 1980) जिसका
अंतिम परिणाम यह होता है कि पुलिस के पास बकाया में कमी करने के लिए अपर्याप्त
साक्ष्यों के आधार भी मामले न्यायालय में अन्वीक्षा हेतु भेजे जाते रहते हैं और सिर्फ 6.02
प्रतिशत मामलों में दोष सिद्धि हो पाती
हैं |(राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो 1998 :222 )पुलिस विभाग की
संस्कृति में ऐसी कोई परम्परा नहीं है जिससे अन्सुंधान अधिकारी के द्वारा अनुसंधान
किये गए, निपटाए गए और अभियोजन किये गए मामलों के निष्पादन का मूल्याङ्कन किया जा
सके| वे यह बहाना गढ़ते हैं कि रिकार्ड के मैन्युअल रख रखाव के कारण ऐसा संभव नहीं
है जबकि बैंक, बीमा आदि संस्थानों में मैन्युअल रिकार्ड के होते भी ऐसा किया जाता
रहा है| इन अस्वस्थ परमपराओं के चलते थाना
प्रभारी अत्यंत शक्तिशाली हो गए हैं और अधिकांश अधीक्षक उनके कृत्यों पर नियंत्रण
रखने में अपने आपको असहाय पाते हैं|इस बात में आश्चर्य नहीं है कि जो लोग अपने
परिवाद पर कार्यवाही चाहते हैं वे अनुसन्धान अधिकारी के बारबार चक्कर लगाते रहते
हैं| संगठनात्मक परिवर्तन और जिम्मेदारी के अभाव में अनुसन्धान अधिकारियों में
भ्रष्टाचार फलताफूलता रहता है| अनुसंधान में रिश्वत के अतिरिक्त भारतीय पुलिस
बदनाम वसूली करनेवाले हैं |झूठा और बेबुनियाद आपराधिक मामला बनाने व मात्र संदेह
के आधार पर किसी को भी गिरफ्तार करने की शक्ति से वे व्यापारियों से धन वसूलते हैं
|
कुछ
उदाहरणों से यह स्थिति स्पष्ट हो जाती है |वाहन चालकों से लाइसेंस और पंजीयन
प्रमाण पत्र जांच के बहाने भ्रष्ट परम्परा
कुख्यात है | (सजीश 1997) दूसरी ओर किसी
भी नागरिक के लिए न्यायालय जाने में समय और धन बर्बाद होने वाली प्रक्रिया के कारण
वे पुलिस से टकराव से बचना चाहते हैं | इन सभी कारणों से अधिकांश नागरिक अपने वाहन
बिना पंजीयन और उचित लाइसेंस के चलाकर रिश्वत के माध्यम से ही काम चलाना चाहते हैं
| इस प्रकार वाहन चेकिंग की शक्ति से सडक पर
वसूली का आकर्षक धंधा है और पुलिस वाले यह ड्यूटी बिना विश्राम किये रातदिन करने को सहमत होते
हैं| सीमावर्ती चेक पोस्ट भ्रष्टाचार के
अड्डे हैं जिसमें पुलिस की केन्द्रीय भूमिका होती है क्योंकि सीमा पार करने के सभी
कार्य इन प्रवर्तन अधिकारीयों के द्वारा संपन्न होते हैं | (सजीश 1997) ट्राफिक
विभाग पुलिस अधिकारियों के लिए एक वरदान वाली पद स्थापना है और रिश्वत या संरक्षण
वाले अधिकारी ही इस विभाग में स्थान पाते हैं |
थाना
प्रभारी सहित अधीनस्थ अधिकारियों के स्थानातरण अधीक्षक एवं उच्च स्तर के अधिकारियों द्वारा नियंत्रित होते हैं इसलिए
अपने विश्वास पात्र और स्वमीभक्तों को वसूली और हिस्सा के लिए मनचाहा पद देना आकर्षक कृत्य
बन गया है|जिला पुलिस अधीक्षक को प्रदत्त अनुशासन की शक्तियों के कारण वे अपने
अधीनस्थों को भयभीत कर उनके द्वारा की गयी
वसूली में से हिस्सा प्राप्त करना सुकर बनाते हैं |
एक राज्य
में पुलिस द्वारा औसतन 100 करोड़ का सामान खरीदा जाता है जिस पर बहुत कम प्रतिशत
में कमीशन भी बहुत बड़ी रकम होता है| इन आई पी एस द्वारा अनावश्यक और अवैध खरीददारी करके विक्रेताओं पर उपकार किया
जाता है जिसका उन्हें भी प्रतिफल अवश्य मिलता है |वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के निजी
निवास पर अनुमत से ज्यादा सिपाही अर्दली , बागवान , प्रहरी , चोकीदार ,रसोइये आदि के रूप में कार्य करते हुए देखे जा
सकते हैं| यह लाभ सिर्फ पुलिस अधिकारी ही नहीं अपितु उनके परिवार के सदस्य तथा
रिश्तेदार भी उठाते हैं | केन्द्रीय अन्वेषण के ब्यूरो के निदेशक के यहाँ 100
तक ऐसे सेवादार देखे गए हैं जो उनके यहाँ धोबी तक का कार्य करते हैं यद्यपि ऐसी
कोई शासकीय अनुमति नहीं होती है| न्यायाधीशों और मंत्रियों व प्रशानिक अधिकारियों
की कृपा दृष्टि प्राप्त करते रहने के उद्देश्य से उन्हें भी यह सुविधा उपलब्ध
करवाई जाती रहती है |यह भी ब्रिटिश काल की सुस्थापित परम्परा है | ब्रिटश राज के महात्म्य
में जनता को कोई प्रश्न उठाने का अधिकार नहीं था और जनता पर आधिपत्य जमाने में
पुलिस की अहम् भूमिका रही है| भारतीय ब्रिटिश पुलिस, शासक का बल अधिरोपित करने के
लिए बनाया गया एक संगठन था जिसकी जनता के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं थी | (दास व
वर्मा 1998) इस बड़े देश पर शासन करने का
उद्द्यश्य ऐसे पुलिस बल के माध्यम से संपन्न हुआ जिसका संचालन सस्ता, लोगों के लिए
क्रूर और शोषणकारी था व नागरिकों के प्रति
बिलकुल गैर जिम्मेदार था| (गुप्ता , 1979)साहेब और मेमसाहिबान बड़े बंगलों में रहते थे और उनकी प्रत्येक जरुरत के लिए उनके आगे पीछे नौकरों की
फ़ौज – भोजन बनाने के लिए खानसामा और बच्चों की देखभाल के लिए आया रहती थीं| गर्मी
और धूल से बचने के लिए गर्मी का समय पहाड़ी स्थानों पर गुजारते और सर्दी का मौसम महाराजाओं की
तरह शिकार, क्रिकेट और मनोरंजन आदि में
व्यतीत करते थे| चूँकि यह राज पुलिस प्रशासन की शक्ति और भय द्वारा स्थापित था
इसलिए पुलिस संगठन के चरित्र में भी यही गुणधर्म परिलक्षित होना स्वाभाविक था| ( वर्मा 1999) पुलिस तथा सेना के अधिकारी
अपने आपको शासक वर्ग से समझें इसलिए उन्हें घुड़सवारी करवाई जाती थी और उनके रसोई घर के आगे
भोजन समय पर मनोरंजन के लिए बैंड धुनें बजाई जाती थी| पुलिस व सेना में अलग से
बैंड पार्टी भी भर्ती की जाती थी|
ब्रिटिश
लोगों ने स्कूल और अस्पताल बहुत कम बनाए
किन्तु पुलिस थाने और भवन बंगले जैसे थे जिनकी वास्तु कला विक्टोरिया शैली जैसी थी
जिनकी छतें ऊँची होती थी जिससे गर्मी ऊपर ही रह जाती थी और चारों ओर चौड़े बरामदे होते
थे जहां अधिकाँश शासकीय कार्य संपन्न होता
था | ज्यादातर पुलिस थानों में टेढ़े मेधे रास्ते के साथ लंबा चौड़ा मैदान होता था
जिसके दरवाजे पर संतरी होता था जिससे
लोगों में भय और दूरी बनी रहे | संगठन के भीतर इस प्रकार की संस्कृति विकसित की
जाती थी कि प्रजाजन शासक की ओर आँख उठाकर भी नहीं देख सकें| पुलिस के निम्नतम स्तर
पर, यद्यपि वे निरक्षर होते थे व नाममात्र
का वेतन दिया जाता था, भी इतनी अधिक
शक्तियां दी जाती थी कि वे किसी को भी गिरफ्तार कर 24 घंटे के लिए
निरुद्ध कर सकते थे|(गुप्ता 1979) यह 24 घंटे का समय इसलिए अनुमत किया जाता था कि
इस अवधि में पुलिस झूठी कहानी तैयार कर सके और झूठे गवाह व बरामदगी का इंतजाम कर
मजिस्ट्रेट के सामने पेश कर सके| इस सब का
सार मात्र सम्पूर्ण जनता में शासन का भय उत्पन्न करना था और पुलिस विभाग ने इसे
बखूबी अंजाम दिया| इस संगठनात्मक संस्कृति, प्रशासन शैली और सौद्येश्यपूर्ण जनता से विलगाव इन सब कारणों से पुलिस में भ्रष्ट परम्पराएं पनपी | पुलिस थाने के प्रभारी पर बारबार और भ्रष्टाचार के लम्बे
चौड़े आरोपण के बावजूद ( अर्नाल्ड, 1986) इस व्यवस्था में सुधार के लिए ब्रिटिश
शासन ने कोई गंभीर प्रयास नहीं किये| (
गुप्ता ,1979)
इस प्रकार
जनता से बिना किसी विरोध के मुफ्त में भोजन, पेय, रसद, मनोरन्जन , परिवहन और विशेष
सम्मान जबरन प्राप्त किया जा सकता था | यद्यपि आज शेर का शिकार प्रतिबंधित हो गया
है किन्तु ब्रिटिश राज बदस्तूर जारी है| वह व्यवस्था जो 1861 में ब्रिटिश राज द्वारा थोपी गयी थी बिना किसी मौलिक सुधार के जारी है| अपराध को परिभाषित
करने वाली भारतीय दंड संहिता , जिसका निर्माण 1857 की क्रांति की परिस्थितियों के
मद्दे नजर किया गया था, साक्ष्य अधिनियम और दंड प्रक्रिया संहिता ब्रिटिश राज से
उसी रूप में आज भी लागू हैं| स्वतंत्रता
और लोकतांत्रिक समाज की स्थापना के बावजूद पुलिसिया बर्ताव में कोई परिवर्तन नहीं
आया है| पुलिस नागरिकों के साथ दुर्व्यवहार करती है और भयभीत करती है मानों कि ब्रिटिश
राज अभी भी जारी हो | पुलिस नेतृत्व की
उच्चता , विभाग का राजनीतिकरण, लोगों के प्रति गैर जिम्मेदारी और प्रबन्धन के
पुराने तरीकों ने मिलकर भ्रष्टाचार को महामारी का रूप दे दिया है और अब यह विभाग
में सर्व मान्य – सर्व स्वीकार्य है| इससे
यह संकेत मिलता है कि समस्त सरकारी मशीनरी बीमारू हो चुकी है | इस स्थिति में आमूलचूल
परिवर्तन लाने की आवश्यकता है | इस आलेख
में अरविन्द वर्मा पूर्व आईपीएस के अनुसन्धान कार्य का सहारा लिया गया है |
देश के
न्यायालयों का आचरण देखने पर भी यही विश्वास होता है कि वे भी इसी व्यवस्था को
सुगम,सुविधाजनक और अनुकूल पाते हैं |
रामलीला मैदान में रावणलीला खेले जाने,
तरनतारन में पुलिस द्वारा सरे आम पिटाई किये जाने, बिहार में पुलिस द्वारा
अध्यापकों पर डंडे बरसाए जाने, सोनी सोरी को नग्न कर उसके गुप्तांगों में कंकड़ भरे
जाने व बिजली के झटके देने के मामलों में भी जब देश का उच्चतम न्यायालय किसी दोषी
पुलिस अधिकारी को कोई दंड नहीं दे तो विश्वास नहीं होता कि देश में कोई न्यायालय है, कानून का राज है अथवा
मानवाधिकार भी कोई सार्थक चर्चा का विषय हो
सकता है बल्कि यह विश्वास और पुख्ता होता
है कि शासकों की मात्र चमड़ी का रंग बदलने के अतिरिक्त गत 70 वर्षों में कुछ भी
नहीं बदला है | एक ओर जहां पंजाब उच्च न्यायालय द्वारा नक्षत्रसिंह आदि को ह्त्या
के झूठे मामले में फंसाने के मामले में 1
करोड़ रूपये मुआवजा देने के आदेश का देश
का उच्चतम न्यायालय समर्थन व पुष्टि करता है तो दूसरी और अक्षरधाम
मामले में अभियुक्तों को झूठा फंसाये जाने पर रिहा करने के आदेश देता है किन्तु
मुआवजा देने से यह कहते हुए मना करता है कि इससे अनुचित परम्परा पड़ेगी या पुलिस का
मनोबल गिरेगा तो इन न्यायाधीशों की निष्पक्षता या मानसिक रूप से स्वस्थ होने पर संदेह होना स्वाभाविक है | जब किसी
प्रभावशाली व्यक्ति के मामले में आधी रात या छुट्टी के दिन न्यायालय खोले जाते हैं
तो लगता नहीं कि बिना धनबल के न्याय मिल सकता है|
ताज्जुब का विषय है कि जो पुलिस एक व्यक्ति को झूठे मुकदमे में फंसाकर उसका
जीवन बर्बाद कर देती है उसका भी कोई मनोबल माना जाता है | अब समय आ गया है जबकि
प्रत्येक भारतीय को इस कुप्रबंधन के विरोध में अपना स्वर उठाना होगा अन्यथा इस
लोकतंत्र की लुटिया गहरे सागर में डूब जायगी जिसके लिए हम सभी जिम्मेदार
होंगे| ------------------ मनीराम शर्मा
Monday, 26 June 2017
अपराधी प्रिय भारतीय न्याय-व्यवस्था का शुद्धिकरण
अपराधी प्रिय भारतीय न्याय-व्यवस्था का शुद्धिकरण
जब अधिक
माइलेज देने वाली हीरोहौंडा मोटरसाइकिल
भारत में आई थी तब विज्ञापन में कहा जाता था – फिल इट, शट इट एंड फॉरगेट इट| ऐसा ही कुछ भारतीय न्यायपालिका
के विषय में कहा जाता है – फाइल एंड
फॉरगेट यानी दावा दायर करो और भूल जाओ| यदि
आप भारत में व्यापार करते हैं तो लगभग यह असंभव कि आपने कानूनी कार्यवाही की पीड़ा नहीं
झेली हो| वास्तव में इस बात के पर्याप्त अवसर हैं कि आपको पहले ही वर्ष में बिक्री कर और उत्पाद कर आदि के मामलों में
अपीलें करनी पड़ेंगी जोकि कालान्तर में आयकर विभाग और करार की अनुपालना के लिए
मुकदमों तक कुछ ही वर्षों में रफ्तार पकड़ लेंगी| चूँकि भारत में व्यापारिक हित
सार्वजनिक हित के साथ सामन्जस्यपूर्ण नहीं हैं इसलिए ज्यादातर मामले व्यापारी के
विरुद्ध ही निर्णित होते हैं और सरकार के साथ मुकदमों को टालना असंभव बनाते हैं| इस कारण इसका दायरा बढ़ता जाता है और
व्यापार संकुचित होता जाता है| बाबु लोग
ऐसी शक्तियों का प्रयोग करना उचित समझते हैं जिनसे व्यापार को हानि पंहुचे लेकिन
जब उसे माफ़ करने या राहत देने का प्रश्न उठे तो वे कानून की ऐसी संकुचित व्याख्या
करेंगे की राहत नहीं दी जा सके और मजबूरन व्यापारी को उच्च अधिकारियों के पास जाना
पड़े| कई बार कई धाराओं के प्रावधानों से वे सहमत तो होते हैं किंतु फिर भी वे मौन
रहते हैं| करार सम्बंधित अधिकारों को भारत में लागू करना अत्यंत कठिन है और विश्व
बैंक के अनुसार व्यापार में सहजता के सूचकांक में भारत का 189 देशों में से 186 वां गौरवमयी स्थान है! कारण अपने आप
में स्वस्पष्ट है| मुकदमेबाजी में जाना या
विपक्षी को धकेलना और जिम्मेदारी को स्थगित किये रखना सस्ता व सरल है बजाय कि बैंक
से पैसा निकालें और आज ही चुका दें|
उदाहरण
के लिए कोई व्यक्ति अपना कर्जा आज ही चुकता है तो उसे बैंक से 12-14 प्रतिशत की दर
से ब्याज पर लेना पडेगा जिस पर मासिक चक्रवर्ती ब्याज लगेगा| उसे ऋण लेने के लिए
अन्य नाना प्रकार की परेशानियां – जैसे वार्षिक नवीनीकरण , स्टोक का हिसाब रखना ,
ऑडिट करवाना आदि भुगतनी पड़ेंगी| किन्तु यदि वह चुकाने से मुकर जाता है तो उसके
लेनदार को न्यायालय में जाना पडेगा जिससे आपको आने वाले 10 वर्षों तक कोई परेशानी
नहीं होगी – न वह कोई मांग तकरार कर सकेगा | और तब न्यायालय 6-8 प्रतिशत साधारण
ब्याज के लिए डिक्री देंगे जिसके इजराय के
लिए उसे फिर दुबारा दावा करना पडेगा जिसमें वसूली होने की संभावना 50 प्रतिशत ही
होगी अर्थात फिर भी आपको 50 प्रतिशत ही देना पडेगा | एक चूककर्ता अपने जिम्मेदारी
को फिर भी आगे खिसकाता जाएगा और आप एक निरीह प्राणी की भांति मूकदर्शक बने रहेंगे और गीली लकड़ी की भाँति
सुलगते रहेंगे|
यदि
एक लाख रूपये के मुक़दमे को 10 वर्ष तक खेंच लिया जाए तो बैंक को 12 प्रतिशत की दर
से ब्याज सहित जो रूपये दो लाख तीस हजार रुपये चुकाने पड़ते उसकी बजाय न्यायालय के माध्यम
से मात्र एक लाख बीस हजार में ही काम चल जाएगा! छोटे मोटे खर्चों को निकालकर भी वह
आकर्षक एक लाख दस हजार रूपये बचा लेगा और लगभग 50 प्रतिशत लाभ कमा लेगा| बैंकों के
बढ़ते डूबंत ऋणों में भी इस जटिल व्यवस्था का महत्वपूर्ण योगदान है| बैंकों ने अब
एक लाख रूपये से कम बकाया के मुकदमे दायर करने लगभग बंद कर दिए हैं| इसलिए हमारी न्यायिक प्रणाली करार की
अनुपालना को टालने और विपक्षी को न्यायालय
की और धकेलने के लिए आकर्षक प्रोत्साहन देती है| न्यायालयों में ज्यादा मामले का
अर्थ है, ज्यादा विलम्ब जिसका अर्थ है भुगतान के लिए और ज्यादा लंबा समय! इसलिए
न्यायालयों में विलम्ब का ऐसे चतुर लोग स्वागत करते हैं और वे न्यायालयों के सबसे
बड़े प्रशंसक भी हैं| यह स्थित अब और बिगड़नेवाली है तथा अंतत: हमारी सभ्यता के लिए बड़ी चुनौती है| सरल
शब्दों में , यदि लोगों को समय पर न्याय नहीं मिलेगा तो वे न्याय के लिए अंडरवर्ल्ड
के डॉन या बंदूक धारियों के पास जायेंगे जैसा
कि भारतीय पान मसाला किंग अपने साझेदार के
साथ विवाद निपटाने कुछ वर्ष पूर्व कराची गया था| किन्तु हमारे नीति निर्माताओं को
इस बात की चिंता नहीं है कि जब तक विशेष न्यायालयों का गठन नहीं किया जाए तब तक इसका इलाज संभव नहीं है| समाधान
तो तभी संभव है जब कोई समस्या को सही रूप
में जड़ से समझे | क्या ये लोग समस्या को समझ पा रहे हैं ? संभवत: वे यह भी समझ
नहीं पा रहे हैं कि देश में अपराधियों को पुलिस या कानून का कोई भय नहीं है| हमारी
वर्तमान व्यवस्था न तो एक दोषी को पर्याप्त दंड देती है और न ही एक पीड़ित को
पर्याप्त क्षतिपूर्ति| यह बात राजधानी में
भी लगातार होते बलात्कारों / महिलाओं पर हमलों से जग जाहिर है|
हमारे
नीति निर्माताओं का विचार है कि एक सशक्त
बलात्कारी के लिए 7 वर्ष की सजा पर्याप्त नहीं है इसलिए इसे 10 वर्ष कर दिया जाए| हमें
सर्व प्रथम हमारी न्यायिक प्रणाली की
समस्याओं को समझना होगा | एक न्यायार्थी के तौर पर यह अनुभव रहा है कि हमारी न्यायिक
प्रणाली निम्न कारणों से निष्प्रभावी और काम से बोझिल है --
1.
न्यायालयों में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष झूठ बोलने के लिए कोई
दंड नहीं दिया जाता है |
2.
यह मुकदमेबाजी के अधिकार की रक्षा करता है बजाय न्याय के अधिकार
की व कानून और डिक्री की अनुपालना को प्रोत्साहित नहीं करता |
3.
ज्यादातर मामले इसलिए
दायर किये जाते हैं ताकि विपक्षी परेशान, हैरान हो और वह व्यस्त रहे क्योंकि इनमें
अनिश्चित समय लगता है |
4.
सम्पति सम्बंधित महत्वपूर्ण मामलों, जमानत के मामलों में
विवेकाधिकार से अन्याय, विलम्ब और भ्रष्टाचार होता है | गायत्री प्रजापति का मामला
ताज़ा उदाहरण है |
5.
कानूनी अपेक्षाओं के
स्थान पर कुछ अकर्मण्य परिपाटियाँ |
6.
किसी भी राज्याधिकारी या न्यायिक अधिकारी के दायित्व का अभाव |
ऐसा प्रतीत होता है भारतीय कानून में दंड संहिता
की धारा 193 मात्र एक ही प्रावधान है जो न्यायालय में झूठ के लिए दण्डित करने के
विषय में है| जहां तक मुझे ज्ञात है इस प्रावधान का यदा कदा ही उपयोग होता है जबकि प्रत्येक न्यायालय में प्रत्येक मामले में
प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष ऐसा होता है | न्यायालय यह सब देखते हैं और उनके निर्णयों
पर इन झूठों का ज्यादा असर नहीं पड़ता किन्तु एक कमजोर पक्षकार विलम्ब करने के अपने मंतव्य में सफल हो ही जाता है और न्यायालय
का अमूल्य समय बर्बाद होता है| और जो इस उद्देश्य में आसानी से सफल होता है वह दूसरे
लोगों को भी यही रास्ता अपनाने को प्रेरित करता है| इसका समाधान यही है कि जब भी
एक पक्षकार का कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष झूठा आवेदन या साक्ष्य ध्यान में आये तो धारा 193 के प्रावधान को तुरंत
निरपवाद रूप से अमल में लाया जाए और वकील
पर भी आरोप लगाया जाए |
जिस प्रकार सरकार चूककर्ता व स्वेच्छिक चूककर्ता
में विभेद नहीं कर पाती ठीक उसी प्रकार हमारा कानूनी ढांचा मुक़दमे का अधिकार व
न्याय के अधिकार में भेद नहीं कर पाता है| न्यायिक दृष्टान्तों से वास्तव में
मुक़दमे के अधिकार की रक्षा के उद्देश्य से विधायिकीय कानून को उल्ट दिया जाता है| उदाहरण
के लिए धारा 69 में प्रावधान है कि एक अपंजीकृत साझेदारी फर्म द्वारा किसी तीसरे
पक्षकार के विरुद्ध कोई वाद नहीं लाया जा सकता किन्तु सामान्यतया न्यायिक दृष्टान्तों की आड़ में ऐसे वाद लाये
जाते रहते हैं और वे अनिश्चित काल तक चलते रहते हैं| न्यायिक दृष्टान्तों में ऐसे दोष को बाद में दूर
करने की छूट दी जाती रहती हैं जबकि कानून में इसके विपरीत प्रावधान हैं तो फिर बाद
में पंजीयन के द्वारा ऐसे दोष के निवारण का प्रश्न ही नहीं उठना चाहिए| विशेष अनुतोष अधिनियम में सम्पति सम्बंधित मामले
तब भी दायर किये जाते हैं जबकि वादकर्ता के पास ऐसा कोई अधिकार भी नहीं होता है|
ऐसा मात्र इसलिए किया जाता है ताकि वे सम्पति को विवादित बनाए रख सकें और विरोधी
को अपनी शर्तों को मानने के लिए मजबूर कर सकें| वादी को सिर्फ यह करना है कि वह करार का अपना भाग पूर्ण करने के लिए इच्छुक
और सक्षम है, उसे यह साबित करने की आवश्यकता नहीं, मात्र इतना कहने से ही वह वाद
को दसों वर्षों को तक खेंच सकता है |
ठीक
इसी प्रकार कानून चाहता कि चेक अनादरण एक
अपराधिक मामला समझा जायेगा | बहुत से ऐसे मामले प्रकाश में है जिनमें अपील में
सिर्फ न्यायालय उठने तक की सजाएं दी जाती हैं| जिससे यह सन्देश जाता है कि चेक
अनादरण के लिए सजा से भयभीत होने की कोई आवश्यकता नहीं है अपितु अन्वीक्षण
न्यायालय के प्रत्येक आदेश के विरुद्ध अपील में जाएँ| विधायिका को चाहिए कि प्रत्येक
अपराध के लिए अधिकतम के साथ साथ न्यूनतम सजा भी निर्धारित करे| इस प्रकार मुकदमेबाजी अपनी जिम्मेदारियों को टालने
का प्रसन्नताकारक और सस्ता तरीका है| एक ऋणी
मुकदमा हारने के बावजूद भी वास्तव में जीतता
है| न्यायालय को कभी आक्रोश नहीं आता कि अमुक
ऋणी ने उसके आदेश का पालन नहीं किया| निर्धारित समय में भुगतान के लिए कोई सख्त
निर्देश नहीं होता कि यदि अपील में रोक नहीं लगाई गयी तो भुगतान करना पडेगा| यदि समय पर निर्णय दिए जाने लगें तो आधे से
अधिक मुकदमे तो न्यायालयों में आएंगे ही नहीं |
इसी
प्रकार किरायेदारी के मुक़दमे मकान मालिकों के लिए दिवा स्वप्न ही हैं| उदाहरण के
लिए बलात्कार के आरोपी की जमानत मशीनी रूप
में अस्वीकृत कर दी जाती है, बिना इस बात पर गौर किये कि यदि उसे जमानत दे दी जाए
तो क्या आरोपी इस अपराध की पुनरावृति कर सकता है , क्या वह भाग सकता है , क्या वह
साक्ष्यों के साथ छेड़छाड़ कर सकता है आदि ?
इसके अतिरिक्त कोई अन्य बात से जमानत पर असर नहीं पडना चाहिए | अपराध की गंभीरता
असम्बद्ध है यदि आरोपी द्वारा आरोप की पुनरावृति की संभावना नहीं हो| दंड की
शुरुआत दंडादेश पारित किये जाने से
प्रारम्भ होती है और जमानत इनकारी को दंड के विकल्प रूप में नहीं माना किया जाना
चाहिए किन्तु हमारी प्रणाली इस सुस्थापित सिद्धांत के विपरीत कार्य करती है कि एक
अभियुक्त तब तक निर्दोष है जब तक कि वह संदेह से परे दोषी साबित नहीं हो जाए| जेल
नहीं बल्कि जमानत का नारा भी कागजी ही लगता है| कुछ न्यायालय तो यहाँ तक आदेश करते
हैं की मामले के गुणावगुण में जाए बिना अपराध की गंभीरता को देखते हुए जमानत अस्वीकार
की जाती है| यदि यही कानून है तो फिर दंड संहिता में एक धारा ही जोड़ दी जाए कि बलात्कार , ह्त्या और अन्य विशेष संगीन अपराधों
में कोई जमानत मंजूर नहीं की जायेगी जिससे समय और धन की बचत होगी| ताकि अभियुक्त
जेल में लम्बे समय तक रहने और उसका परिवार उसके बिना रहने का मानसिक रूप से अभ्यस्त
हो जाए| हम सिर्फ यही कहते हैं कि ऐसी
परम्परा है| विवेकाधिकार, भ्रष्टाचार और दादागिरी को जन्म देता है| कुछ न्यायाधीश
जमानत आवेदन अस्वीकार करने के लिए प्रसिद्ध होते हैं और वकील उनका दूसरी बेंच में स्थानान्तरण होने का इंतज़ार करते हैं ताकि
वे जमानत आवेदन दायर कर सकें| किसी भी कानूनी प्रणाली में ऐसा क्यों कि एक जमानत
आवेदन न्यायाधीश क स्वीकार करे और ख इनकार ? जब दंड प्रक्रिया संहिता में जमानत
लेने के लिए एक पुलिस अधिकारी ही सशक्त है तो फिर जमानत के लिए उच्चतम न्यायालय तक
क्यों जाना पड़े ? जब समान कानून और परिस्थितियों में उच्चतम न्यायालय जमानत दे
देता है तो फिर निचले न्यायालय और पुलिस अधिकारी इन्कार क्यों करते हैं ? आस्ट्रेलिया
में जमानत के लिए 75 धाराओं वाला अलग कानून है और जमानत एक अभियुक्त का अधिकार है|
किन्तु भारत में पुलिस और वकील मिलकर इस स्थिति को खुलम खुल्ला भुनाते हैं और माल
कूटते हैं| मैं यह समझने में असमर्थ हूँ कि हमारे कानून में ऐसा प्रावधान क्यों है कि उसे
जमानत दे दी जाए तो क्या आरोपी इस अपराध की पुनरावृति कर सकता है, क्या वह भाग
सकता है , क्या वह साक्ष्यों के साथ छेड़छाड़ कर सकता है आदि तक ही विचारण को सीमित क्यों नहीं रखा जाता ?
यदि इन प्रश्नों का उत्तर ना में हो तो उसे जमानत क्यों नहीं दी जानी चाहिए ? इससे न्यायालयों का पर्याप्त
समय बचेगा और जनता को अन्याय से पर्याप्त मुक्ति
मिलेगी |
यद्यपि
एक व्यथित पक्षकार आदेश के विरुद्ध अपील दायर कर सकता है किन्तु क्या इससे एक न्यायिक अधिकारी को इस बात का लाइसेंस मिल जाता
है कि वह बिना बुद्धि का प्रयोग किये और उचित, तर्कसंगत व सही निर्णय नहीं दे? यह तब तक अनवरत जारी रहेगा जब तक कि उसे
जिम्मेदार नहीं ठहराया जाये| यद्यपि कई बार कनिष्ठ अधिकारियों के विरुद्ध गंभीर
निंदा प्रस्ताव पारित किये जाते हैं किन्तु फिर भी वे उस पद को धारण करते रहते हैं|
उनकी सुस्थापित अक्षमता के बावजूद उन्हें लोगों को लगातार हानि पहुंचाते रहने के
लिए खुला छोड़े रखा जाता है | प्रत्येक अपील के निस्तारण में यह निरपवाद रूप से
निर्णित किया जाना चाहिए कि क्या विक्षेपित आदेश पारित करते समय अधिकारी ने अपने
कर्तव्यों का उचित, तर्कसंगत और सही पालन किया है? यदि नहीं तो फिर पदावन्नति अवश्य होनी चाहिए| यह नियम सभी अपीलों में, चाहे
न्यायालय हों या विभागीय ट्रिब्यूनल सभी पर सामान रूप से लागू होना चाहिए | इससे
कनिष्ठ अधिकारियों को विवश होकर उचित निर्णय देने पड़ेंगे और अपीलों की संख्या में
भारी कमी आएगी | वे अधिकारीगण जो जनता से वसूले गए करों से अपना वेतन पाते हैं
उनके इस विश्वास को गत 70 वर्षों से अनुचित संरक्षण दिया जा रहा है कि वे कुछ भी
करें उनका कुछ भी बिगडने वाला नहीं है क्योंकि उनके ऊपर उनके माई बाप बैठे हैं
जिनके लिए वे रातदिन कमा रहे हैं|
यदि
सिंगापपुर के न्यायालय कुछ दिनों में निर्णय दे सकते हैं तो फिर ऐसा कोई कारण नजर
नहीं आता कि भारत के न्यायालय ऐसा क्यों
नहीं कर सकते? देश का आकार तो इस विषय में असंगत है क्योंकि सामान्यतया एक न्यायालय का मूल
क्षेत्राधिकार तो लगभग एक तहसील तक सीमित है| वास्तव में देखा जाए तो हमारी
विधायिका का न्याय देने का कभी कोई आशय रहा ही
नहीं बल्कि उनका उद्देश्य तो अपनी मशीनरी का संरक्षण करना और सत्ता पर अपनी
पकड़ को मजबूत बनाए रखना रहा है| जब निर्भया काण्ड के बाद जनता सडकों पर उतरी तो एक
महीने में कानून में संशोधन कर दिया जबकि उपभोक्ता संरक्षण में संशोधन का मुदा गत
दस वर्षों से लंबित है| पशुओं पर निर्दयता निवारण के लिए चालीस वर्ष पहले कानून
बना दिया गया किन्तु सस्ती लोकप्रियता और वोटों की छद्म राजनीति की संक्रामक
बिमारी से ग्रस्त हमारी विधायिकाओं को मनुष्यों पर वैसी ही निर्दयता के निवारण के
लिए कानून बनाने का आज तक समय नहीं मिल पाया है| लगभग प्रत्येक कानून में यह प्रावधान कर रखा है
कि इस कानून के तहत सद्भाविक रूपसे की गयी कार्यवाही के लिए किसी भी अधिकारी के
विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं होगी| जबकि कार्यवाही सद्भाविक होने पर ऐसे संरक्षण के
लिए अलग से प्रावधान की कोई आवश्यकता ही नहीं है| इसके स्थान पर प्रावधान यह होना
चाहिए कि इस कानून के तहत कार्यरत प्रत्येक अधिकारी समय पर, उचित व सही निर्णय और कार्यवाही
के लिए जवाबदेय होगा| इससे प्रशासन , पुलिस और न्यायिक विभागों में व्याप्त
भ्रष्टाचार और अकर्मण्यता पर पर्याप्त अंकुश लगेगा और ऐसा करना पूर्णतया
लोकतान्त्रिक मूल्यों के अनुकूल होगा|
एक
न्यायाधीश ने कहा है कि जिसके पास पैसा नहीं हो उसके लिए न्याय की अपेक्षा करना
ही गुनाह है| मद्रास उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने कहा है कि लोगों में
न्यायालयों के प्रति बड़ा आक्रोश और अविश्वास है और वे लोग जिनके कोई विवाद हैं
उनमें से मात्र 10 प्रतिशत ही न्यायालय आते हैं| सुप्रीम कोर्ट के जाने माने वकील
प्रशांत भूषण का कहना है कि मात्र 1 प्रतिशत मामलों में ही न्याय होता है| गुजरात
उच्च न्यायाल के सेवानिवृत न्यायाधीश बी जे सेठना ने भी कहा है कि उग्रवाद का पोषण
देश में सिर्फ उग्रवादी ही नहीं करते अपितु न्यायपालिका भी करती है| जब
अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में सुनवाई के समय विडिओ रिकार्डिंग की जाती है तो फिर
देश के न्यायालयों को इससे परहेज क्यों है ? क्यों इसे अवमान माना जाता है ? सभी
न्यायालयों में विडिओ रेकार्डिंग व्यवस्था से न्यायाधीशों और वकीलों की मिलीभगत व
दादागिरी दोनों पर अंकुश लग सकता है| न्यायालयों के लिये यह अनिवार्य होना चाहिए कि वे पक्षकारों द्वारा उठाये गए सभी
प्रश्नों पर अपना निर्णय देंगे|
अक्सर
देखा जता है की आपराधिक मामलों में पुलिस वाले न तो स्वयं उपस्थित होते और न ही
साक्ष्य समय पर प्रस्तुत करते हैं जिससे मामले लम्बे चलते हैं| डरपोक और लालची मजिस्ट्रेट
भी अपने आप को असहाय पाते हैं और वे पुलिस अधिकारियों को अर्ध-शासकीय पत्र लिखकर
अपना अपार स्नेह और कृपा दृष्टि जाहिर करते हैं| यद्यपि दंड प्रक्रिया संहिता में
ऐसा कोई प्रावधान नहीं है फिर भी यह मिलीभगत का एक अनूठा नमूना है| दंड प्रक्रिया
संहिता की धारा 91 के अंतर्गत ऐसे पुलिस अधिकारी को उपस्थित होने को आदिष्ट किया
जाना चाहिए और यदि वह अनुपालना नहीं करे तो उसे धारा 349 के अंतर्गत कारावास में
भेजा जाना चाहिए किन्तु 130 करोड़ की जनसंख्या वाले स्वतंत्र भारत के इतिहास में एक
भी ऐसा उदाहरण मिलना दुर्लभ है|
दंड
प्रक्रिया व सिविल प्रक्रिया संहिता दोनों में संक्षिप्त कार्यवाही के प्रावधान
हैं और मामलों को शीघ्र निपटाने के उद्देश्य से इसमें शामिल मामलों की सूची को और
बढ़ाया जा सकता| जहां
कहीं भी कोई प्रक्रियागत कानून व्यवधानकारी लगते हों तो न
केवल राज्य और केन्द्रीय विधायिका बल्कि सम्बंधित राज्य उच्च न्यायालय भी इनमें
संशोधन के लिए सक्षम हैं | जहां तक गुणवता का प्रश्न है मुझे तो न्यायिक अधिकारियों या विभागीय
ट्रिब्यूनल के निर्णयों या पूर्ण अन्विक्षा और संक्षिप्त अन्विक्षा दोनों में ही गुणवता
गायब दिखाई देती है| मुश्किल से कोई 10
प्रतिशत मामले ऐसे हो सकते हैं जिनके निर्णयों में गुणवता की झलक मिलती है शेष तो लगभग कोरी औपचरिकता मात्र होते हैं| अब समय
आ गया है जब समस्त पक्षकारों को अपना दायित्व समझना चाहिए और इस व्यवस्था के शुद्धिकरण में अपना योगदान देना चाहिए जिससे सशक्त और समृद्ध भारत का सपना साकार हो
सके |
Friday, 10 March 2017
भारत में आयकर अपवंचना ---
भारत में आयकर अपवंचना ---
अमेरिका में 55 प्रतिशत लोग आयकर देते हैं और वहां प्रतिव्यक्ति औसत
आय 50000 डॉलर प्रतिवर्ष है जबकि आयकर की न्यूनतम सीमा 9750 डॉलर | यद्यपि
अमेरिका में आयकर सीमा परिवार के आकार और पालन पोषण की जिम्मेदारी के हिसाब
से अलग अलग है | भारत में प्रति व्यक्ति
औसत आय 100000 रूपये प्रतिवर्ष है और आयकर की न्यूनतम सीमा 250000 रूपये है व मात्र
3 प्रतिशत लोग ही आयकर देते हैं | सरकार
के अनुसार 75 प्रतिशत लोग देश में ऐसे हैं जिन्हें भोजन के लिए सब्सिडी की जरूरत
है | शेष में से सम्भवतया 10 प्रतिशत लोग मध्य श्रेणी का जीवन यापन करते हैं व
आत्मनिर्भर हैं और उनसे कोई विशेष आयकर वसूलने की गुंजाईश नहीं है| यह बात अलग है
कि इनमें से भी जो संगठित क्षेत्र से हैं उन्हें सरकार को आयकर देना पड़ता है| इस दृष्टिकोण से देश में आयकर दाताओं की संख्या
कम से कम 15 प्रतिशत होनी चाहिए किन्तु वे कर जाल से निकल जाते हैं |
कृषि आय आयकर मुक्त होने से देश में कर अपवंचना के लिए एक बड़ा रास्ता
खुला है |धनिक लोग शहरों के पास कृषि भूमि क्रय कर लेते हैं उससे काफी आय बनावटी
तौर पर दिखाकर बच निकलते हैं | यक्ष प्रश्न यह है कि यदि कृषि से ही इतनी आय हो
पाती तो क्या देश के किसान आत्म ह्त्या करते या दूसरे धंधों की ओर पलायन करते,
कृषि बीमा व सब्सिडी की आवश्यकता होती ? किन्तु इस प्रसंग में राजस्व प्रशासन न केवल
मौन है बल्कि ऐसे कर चोरों को प्रोत्साहित भी कर रहा है|
दूसरा, आयकर कानून के अनुसार केवल वही भूमि कृषि भूमि की परिभाषा में
आती है जोकि नगर निकाय की सीमा से कमसे कम 8 किलोमीटर की दूरी पर हो जबकि इन धनिकों
की ये संपतियां इसी परिधि में आती हैं|
न्याय में विलम्ब एक सुनियोजित षड्यंत्र है
न्याय में विलम्ब एक सुनियोजित षड्यंत्र है | दीवानी में मामलों में
प्रावधान है कि किसी भी मामले में एक पक्षकार को कुल 3 से अधिक अवसर नहीं दिये जांयेंगे|
दिए जानेवाले अवसर भी किसी पक्षकार, साक्षी या वकील की अस्वस्थता या मृत्यु जैसे
अपरिहार्य कारणों से ही स्थगन स्वीकार
किया जाएगा| किन्तु वकील और न्यायाधिशों की
मिलीभगत से यह खेल चलता रहता है- कानून किताबों में बंद पडा सर धुनता रहता
है| अपराधिक कानून में यह भी प्रावधान है
कि किसी मामले में सुनवाई प्रारम्भ होने के बाद जारी रहेगी जब तक कि उचित कारण से उसे स्थगित नहीं कर दिया जाए | किन्तु भारत के इतिहास में शायद
उदाहरण ही मिलने मुश्किल हैं जब किसी मामले में सुनवाई प्रारंभ की गयी हो और उसे
बिना स्थगन जारी रखा गया हो |
स्थगन देते समय आदेशिका इस प्रकार अस्पष्ट ढंग से लिखी जाती है कि
उससे कोई निश्चित अर्थ नहीं लगाया जा सकता और स्थगन पर स्थगन दिए जाते रहते हैं |
स्थगन देते समय अक्सर लिखा जाता है – पक्षकार समय चाहते हैं , प्रकरण दिनांक ..को
पेश हो |जबकि आदेशिका में यह स्पष्ट लिखा जाना चाहिए कि किस पक्षकार ने और कितने
दिन का समय मांगा और कितना समय अनुमत किया गया ताकि भविष्य में वह और समय मांगे तो
उसे ध्यान रखा जा सके | इसके साथ ही यह भी
लिखा जाना चाहिए कि यह कौनसा या कितनी बार का अवसर है | किन्तु भारतीय न्यायालय तो
मिलीभगत की नुरा कुश्तियां लड़ने के रंगमंच मात्र रह गए हैं |आदेशिका पर पक्षकारों या प्रतिनिधियों के
कोई हस्ताक्षर नहीं करवाए जाते और करवाए भी जाएँ तो कोरी शीट पर ताकि उसमें बाद
में अपनी सहूलियत के अनुसार आदेश लिख सकें |
भारतीय सीमा क्षेत्र में शायद ही कोई ऐसा न्यायालय हो जो कानून और संविधान के अनुसार संचालित है |
ऑस्ट्रेलिया में उच्च न्यायालयों के लिए निर्णय लिखने का एक प्रारूप
निर्धारित है किन्तु भारत में ऐसा कुछ नहीं है और यह न्यायाधीशों को मनमाने ढंग से
निर्णय लिखने का निरंकुश अवसर प्रदान करता है| मैंने विभिन्न देशी और विदेशी
न्यायालयों के निर्णयों का अध्ययन किया है और पाया है कि अधिकांश भारतीय निर्णय “निर्णय” की बजाय
“ निपटान” की परिधि में आते हैं| दोनों पक्षों द्वारा
प्रस्तुत तथ्यों, साक्ष्यों , न्यायिक दृष्टान्तों और तर्कों में से चुनकर मात्र वही
सामग्री निर्णयों में समाविष्ट होती है
जिसके पक्ष में निर्णय दिया जाना है |शेष सामग्री का इन निर्णयों में कोई उल्लेख
तक नहीं किया जता और अपूर्ण व अधूरे निर्णय दिए जाते हैं जिससे आगे अपील दर अपील
होती रहती हैं और मुकदमेबाजी रक्त बीज की
तरह बढती देखी जा सकती है| कानून, न्याय जैसे शब्दों का बड़े गर्व से प्रयोग कर देश के न्यायाधीश और वकील
बड़ी बड़ी डींगें हांकते हैं किन्तु वास्तव
में भारतीय सीमा क्षेत्र में शायद ही कोई ऐसा न्यायालय हो जो कानून और संविधान के
अनुसार संचालित है |
एक अच्छे निर्णय के लिए आवश्यक है कि उसमें मामले के तथ्य, दोनों
पक्षकारों द्वारा प्रस्तुत साक्ष्यों, तर्कों, न्यायिक दृष्टान्तों और उन्हें
स्वीकार करने या अस्वीकार करने के स्पष्ट कारणों का उल्लेख किया जाना चाहिए | इसके
साथ साथ ही प्रार्थी पक्ष द्वारा चाहे गए प्रत्येक अनुतोष को स्वीकार या अस्वीकार करने के कारण भी
स्पष्ट किये जा चाहिए| किसी न्यायिक दृष्टांत को अस्वीकार या स्वीकार करने के लिए
मात्र यह लिखना पर्याप्त नहीं है कि वह हस्तगत प्रकरण में लागू होता है या लागू
नहीं होता है बल्कि यह स्पष्ट किया जाना परमावश्यक है कि न्यायिक दृष्टांत की कौनसी
परिस्थितियाँ समान या असमान हैं |
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