Wednesday, 31 August 2011

निश्चित तरीके से भिन्न ढंग से कार्य मना है

सुप्रीम कोर्ट ने चर्चित प्रकरण ए.आर. अन्तुले बनाम रामदास श्री निवास नायक (1984 एआईआर 718) में कहा है कि यह एक जग जाहिर सिद्धान्त है जिस पर कि अपराध नीति लागू की गई है अर्थात् कानून द्वारा तत्समय दण्डनीय बनाया गया कृत्य या अकृत्य मात्र जो व्यक्ति हानि सहन करता है के संदर्भ में ही अपराध नहीं है बल्कि समूचे समाज के विरूद्ध अपराध है। हमारे विचार में ये कोई जबाब नहीं है कि न्यायालय के ध्यान में ऐसा कोई मामला नहीं आया जिसमें गत बतीस वर्षों में 1947 के (भ्रष्टाचार निवारण )   अधिनियम के अधीन विशेष न्यायाधीश ने अपराध पर प्रसंज्ञान लिया हो। यदि भूतकाल में घटित न होना ही मात्र एक दिग्दर्शिका हो और भविष्य के लिए मनाही हो तो कानून स्थिर हो जायेगा और धीरे-धीरे दूर भाग जायेगा। दं.प्र.सं. की योजना स्पष्ट प्रकट करती है कि जो कोई अपराध की सूचना देना चाहता  वह मजिस्ट्रेट या थाना प्रभारी तक जा सकता है। यदि न्यायालय प्रक्रिया पूर्व सावधानी बरतते हुए परिवादी के समस्त गवाहों की परीक्षा पर बल देगा तो यह परिणाम विपरीत होगा जिससे त्वरित अन्वीक्षण का उद्देश्य विफल होगा। इसी प्रकार जब तक आदेशिका जारी नहीं की जाती है तब तक अपराधी तस्वीर में ही नहीं आता। वह भौतिकतः उपस्थित हो सकता है किन्तु कार्यवाही में भाग नहीं ले सकता। यह कहा गया है कि गंभीर अपराध मात्र सत्र न्यायालय द्वारा अन्वीक्षणीय है। जहां कानून एक कार्य करने के लिए निश्चित तरीके से करने की अपेक्षा करता है वह उसी प्रकार किया जाना चाहिये अन्यथा बिल्कुल नहीं। निष्पादन के अन्य तरीके आवश्यक रूप से निषिद्ध हैं।

Tuesday, 30 August 2011

न्यायाधीशों द्वारा अवमान

सुप्रीम कोर्ट ने अवमान के सम्बन्ध में ब्रेड कान्ता बनाम उड़ीसा उच्च न्यायालय (एआईआर 1974 सु.को.710) में कहा है कि एक न्यायाधीश ऐसा कार्य करते समय अपनी भाव भंगिमा से न्याय प्रशासन को दूषित कर सकता है।
हरिशचन्द्र बनाम अली अहमद (1987 क्रि.ला.रि.ज. 320 पटना ) में  कहा है कि एक न्यायाधीश जिसमें वह अध्यक्ष पीठासीन है उस न्यायालय  का अवमान कर सकता है।
बी.एन.चौधरी बनाम एस.एस.सिंह (1967 क्रि.ला.रि.ज. पटना 1141) में  कहा है कि मजिस्ट्रेट को अपने भारी दायित्व के प्रति सचेत रहना चाहिए तथा विवाद्यकों के हित के विपरीत कार्य नहीं करना चाहिये।
बरेली बनाम जम्बेरी (1988 क्रि.ल स.रि.ज.90) में कहा गया है कि यदि अधीनस्थ न्यायालय का एक पीठासीन अधिकारी न्यायालय के अवमान का दोषी है तो अधिनियम की धारा 15 के अन्तर्गत संदर्भ का प्रावधान लागू नहीं हो सकता।

Monday, 29 August 2011

जांच आयोग व जनहित याचिकाएं

सुप्रीम कोर्ट ने संजीव कुमार बनाम हरियाणा राज्य के निर्णय दिनांक 25.11.03 में स्पष्ट किया है कि हम महसूस करते है कि इस प्रकार के मामले में जांच करने में भारत के आयोग अधिक उपयुक्त हैं जिनका उद्देश्य सत्य का पता लगाना है जिससे भविष्य के लिए सबक सीख सकें तथा नीतियां इस प्रकार तैयार करे या विधायन करे कि उन कमियों की पुनरावृति न हो। इस प्रकार के आयोग दोषी को दण्ड देने के उद्देश्य की पूर्ति के लिए उपयुक्त नहीं है।
राजीव रंजन सिंह ललन बनाम भारत संघ के निर्णय दिनांक 21.08.06 में कहा है कि न्यायालय के लिए प्रार्थी की शिकायत की विषय वस्तु को देखे बिना उसके हित को देखना गलत है। यदि याची सार्वजनिक कर्तव्य की विफलता दर्शाता है तो उसकी लोकहित याचिका को निरस्त करने में न्यायालय गलत है। इस न्यायालय की खण्डपीठ ने न केवल सी.बी.आई. को नौकरशाहों के विरुद्ध जांच का निर्देश दिया है बल्कि उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा परियोजना के लिए दिये गये 17 करोड़ रूपये का पता लगाने के लिए भी कहा है। विभाग को सहयोग से काम करना होता है। यदि सदस्यों के लिए मुद्दों को समझना कठिन था तो एक व्यक्ति यह समझने में असमर्थ है कि ट्रिब्यूनल द्वारा विभाग के उच्चाधिकारियों को दण्डित क्यों किया गया। एक संतोषजनक न्यायिक निकाय मुख्य रूप से निचले स्तर के न्यायालयों के कार्य करने पर निर्भर करता है।

Sunday, 28 August 2011

अभियोजन स्वीकृति एवं वास्तविक न्याय

सुप्रीम कोर्ट ने बशीर उल हक बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1953 एआईआर 293) में कहा है कि एक ही संव्यवहार में दो अलग-अलग अपराध हुए हैं, एक धारा 409 के अन्तर्गत दुर्विनियोग का अपराध है और दूसरा धारा 477ए के अन्तर्गत जिसके लिए राज्यपाल की स्वीकृति आवश्यक है। इसमें बाद के अपराध का प्रसंज्ञान नहीं लिया जा सकता। यह अपीलार्थी की अन्वीक्षा के लिए कोई अवरोध नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट ने प्रसिद्ध प्रकरण अब्दुल रहमान अंतुले बनाम आर.एस. नायक (1992 एआईआर एस सी 1701) में स्पष्ट किया है कि अन्वीक्षण के अधिकार से मनाही की आपति तथा उपचार के लिए पहले उच्च न्यायालय ऐसे अभिवचन को व्यवहृत करता है तो भी सिवाय गंभीर मामलों तथा आपवादिक प्रकृति में सामान्यतया कार्यवाही नहीं रोकी जानी चाहिए । उच्च न्यायालय में ऐसी कार्यवाही प्राथमिकता के आधार पर निपटायी जानी चाहिये। यह सही है कि यह राज्य का कर्तव्य है कि वह त्वरित अन्वीक्षण सुनिश्चित करे और राज्य में न्यायपालिका शामिल है किन्तु बजाय पाण्डित्यपूर्ण के वास्तविक तथा व्यावहरिक विचारधारा इस प्रकार के मामलों में अपनायी जानी चाहिए ।

Saturday, 27 August 2011

व्यक्तिगत उपस्थिति

सुप्रीम कोर्ट ने गोरी शंकर स्वामीगलू बनाम कर्नाटक राज्य के निर्णय दिनांक 05.03.08 में कहा है कि हम यह समझने में असमर्थ हैं कि सुनवाई के प्रत्येक दिन अपीलार्थी की उपस्थिति पर क्यों जोर दिया गया और उसकी अनुपस्थिति पर प्रतिकूल टिप्पणियां की गई। एक विघ्नकारी तथ्य जो कि उच्च न्यायालय के समक्ष हुआ इस पर इस चरण पर ध्यान दिया जा सकता है। यद्यपि अपीलार्थी पर जघन्य अपराध करने का आरोप है। न्यायालय द्वारा वरिष्ठ स्वामी जी व अपीलार्थी के मध्य उपजे सिविल विवाद को हल करने का प्रयास किया गया है।
सुप्रीम कोर्ट ने जमुना चौधरी बनाम बिहार राज्य (1974(3) एससीसी 774) में कहा है कि अनुसंधान अधिकारी का कर्तव्य मात्र अभियोजन का ऐसा मामला तैयार करना नहीं है जिससे कि न्यायालय दोषसिद्धि दर्ज कर सके अपितु वास्तविक और बिना लीपापोती के सत्य को समक्ष लाना है।

Friday, 26 August 2011

अभियुक्त को दस्तावेज निशुल्क दिए जाने चाहिए

राजस्थान उच्च न्यायालय ने रामनाथ बनाम राजस्थान राज्य (1989 क्रि.ला.रि. राज0 785) में कहा है कि डूप्लीकेट कैसेट देने से मनाही का तर्क ठीक प्रतीत नहीं होता। न्यायालय मे कैसेट चलाकर सुनना बचाव पक्ष तैयार करने के लिए वांछित सुविधा नहीं देगा। दं.प्र.सं. की धारा 207 में विशिष्ट उल्लेख है कि पुलिस द्वारा रिपोर्ट और अन्य प्रलेख अभियुक्त को बिना देरी के तथा निःशुल्क दिये जायेंगे। जब अभियुक्त से इन प्रलेखों का कोई शुल्क नहीं लिया जा सकता और प्रलेखों में बोला गया प्रलेख शामिल है तब कैसेट अभियुक्त को निःशुल्क दी जानी चाहिये। उसे अपने खर्च पर यह तैयार करवाने का कहना न्यायोचित नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट ने राज्य बनाम एस जे चौधरी (1996 क्रि.ला.रि. सु.को. 286)  में कहा है कि वर्तमान मामले में हस्तलिपि में धारा 45 में टाईपलिपि भी शामिल है। हम यह जोड़ते हैं कि टेलीग्राफ शब्द में टेलीफोन भी शामिल है जबकि 1863 के अधिनियम में जबकि टेलीफोन का आविष्कार नहीं हुआ था। 1872 के अधिनियम में हस्तलिपि में इसे हम वर्तमान मामले में टाईपलिपि पढेंगे ऐसा इसलिए है कि लगभग एक शताब्दी पूर्व अधिनियम में हस्तलिपि में टाईपलिपि शामिल है क्योंकि हाथ से लिखने के बजाय टाईप से लिखना सामान्य हो गया है और यह परिवर्तन टाईपराईटरों ने और जब अधिनियम 1872 में लागू हुआ था उसके बाद सामान्य प्रचलन होने से है। यह एक अतिरिक्त हमारे लिए कारण है कि टाईपराईटर विशेषज्ञ की राय धारा 45 के परिपेक्ष्य में स्वीकार्य है।

Thursday, 25 August 2011

औपचारिकताएं अभियोजन में बाधक नहीं

सुप्रीम कोर्ट ने धर्मेश उर्फ नानू नितिन भाई शाह बनाम गुजरात राज्य के निर्णय दिनांक 01.08.02 में कहा है कि यदि हमने इस तर्क पर विचार कर भी लिया तो याची को कोई सारभूत लाभ नहीं मिलेगा। यह मानते हुए याची अपने तर्क में ठीक है अधिकतम यही हो सकता है कि मामला मजिस्ट्रेट के पास अभियोजन द्वारा स्वीकृत आदेश फाईल किये जाने के पश्चात कमीटल की नई प्रक्रिया द्वारा गुजरेगा। फिर भी मामला पुनः सत्र न्यायालय के पास आयेगा। इस औपचारिकता के साथ अनुपालना याची को बिना किसी लाभ के अन्वीक्षण में देरी के रूप में परिणित होगी।
सुप्रीम कोर्ट ने राज्य बनाम डी.ए.एम. प्रभू के निर्णय दिनांक 11.02.2009 में कहा है कि अकेली कम्पनी का अभियोजन किया जा सकता है, प्रभारी अधिकारी मात्र का अभियोजन किया जा सकता है। मिलीभगत वाले अधिकारी का व्यक्तिशः अभियोजन किया जा सकता है। एक कुछ या सभी का अभियोजन किया जा सकता है। यह कोई कानूनी विवशता नहीं है कि प्रभारी अधिकारी या कम्पनी का अधिकारी अभियोजित नहीं होगा जब तक की कम्पनी के साथ उसे जोड़ा नहीं जाय।

Tuesday, 23 August 2011

अवमान में अधिकारी का नाम नहीं होने पर भी दण्डित किया जा सकता है

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सावित्री देवी बनाम सिविल जज (एआईआर 2003 इलाहा 321) में कहा है कि अवमान कार्यवाही में अर्द्ध आपराधिक प्रकृति के कारण प्रमाण का स्तर तथा भार आपराधिक कार्यवाही के समान है। यह सुनिश्चित है कि एक सह-हिस्सेदार अपना हिस्सा अंतरण/भारित कर सकता है किन्तु यदि सम्पति का नाप तौल कर विभाजन नहीं किया तो अन्तरिती को कब्जा नहीं दिया जा सकता। इसलिए अंतरिती के लिए यदि विभाजन नहीं होता है तो कब्जा लेने की अनुमति नहीं है। यहां तक की निगम निकाय संस्थायें जैसे कि नगरपालिका/सरकार को भी दण्डित किया जा सकता है चाहे पक्षकार के रूप में किसी अधिकारी का नाम न हो।
सुप्रीम कोर्ट ने डॉ0 डी.सी. सक्सेना (एआईआर 1996 सु0को0 2481) में कहा है कि वकील या पक्षकार जो कि व्यक्तिशः उपस्थित होता है अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता दी गई है किन्तु जैसा कि ऊपर कहा गया है उनका समान रूप से यह कर्तव्य है कि वे न्यायालय कार्यवाही में गरिमा, अनुशासन तथा व्यवस्था बनाये रखेंगें। मुक्त अभिव्यक्ति की आजादी का अर्थ किसी भी संस्था पर निराधार आरोप लगाने से नहीं है। तद्नुसार न्यायधीशों को निष्पक्ष बने रहना चाहिये और लोगों द्वारा उनका निष्पक्ष होना जाना चाहिये। यदि उन पर अपवित्र उद्देश्य से पनपती भ्रष्टता एवं भेदभाव आदि का आरोप लगाया जाये तो लोग उनमें विश्वास खो देंगे।

Monday, 22 August 2011

न्यायिक अवमानना

सुप्रीम कोर्ट ने सेबास्टेन एम. हंगरी बनाम भारत संघ (क्रि.ला.रि. १९८४ सुको 237) में कहा है कि ऐसे तथ्य जो रिकॉर्ड पर हों उन्हें तोड़मोड़कर न्यायालय में प्रस्तुत कर न्यायालय को गुमराह करके बन्दी प्रत्यक्षीकरण याचिका की जानबूझकर स्वैच्छा से अवज्ञा की गयी है। इस प्रकार स्थापित है कि प्रतिपक्षी सं0 12 और 4 ने रिट की स्वेच्छा से अवज्ञा कर सिविल अवमान किया है। इस प्रकार के मामलों में जैसा कि अनुमत है उदाहरणात्मक क्षतिपूर्ति स्वरूप प्रतिपक्षी सं0 12 उपरोक्त दोनों औरतों प्रत्येक को 1 लाख रूपये आज से 4 सप्ताह के भीतर देंगे।
राजस्थान उच्च न्यायालय ने कर्णसिंह बनाम राज्य (1986 क्रि.ला.रि. राज0 31) में कहा है कि मुझे यह प्रतीत होता है कि धारा 344 द.प्र.सं.) वे जो कि झूठा साक्ष्य गढकर झूठी गवाही देते हैं के आरोपियों को दण्ड देने तथा अन्वीक्षा के लिए एक अतिरिक्त विधि प्रदान करती है। यह  प्रावधान विवेकाधीन है और जहां न्यायालय का विचार है कि कोई जटिल प्रश्न उपस्थित हो सकते हैं, या कृत्य के लिए अन्यथा गंभीर दण्ड दिया जाना चाहिए या जहां कार्यवाही समीचीन समझी जाती है कि अन्वीक्षण के अंतिम आदेश के निर्णय के चरण तक पहुँचने से पहले संहिता के सामान्य प्रावधानों के तहत कार्यवाही के लिए न्यायालय निर्देश दे सकता है। मजिस्ट्रेट ने धारा 218 भा.द.सं. के अन्तर्गत स्वयं ने प्रसंज्ञान नहीं लिया है और दं.प्र.सं. की धारा 344 का प्रश्न नहीं उठता है। मजिस्ट्रेट परिवाद फाईल करने का निर्देश देने के लिए कानूनतः सक्षम है और कथित आदेश किसी क्षेत्राधिकार या कानूनन सक्षमता की चूक से ग्रसित नहीं है।

Sunday, 21 August 2011

राजनैतिक हथियारों का सृजन


 जब दिल्ली पूर्णतया संघ शासित प्रदेश था तब दिल्ली पुलिस अधिनियम के अंतर्गत दिल्ली प्रदेश में कानून व्यवस्था की देखभाल के लिए दिल्ली पुलिस का गठन किया गया था| इसी अधिनियम के अंतर्गत विशेष पुलिस संगठन के तौर पर केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो की स्थापना की गयी| हमारी केन्द्रीय सरकार के सामने जब जब किसी राज्य में कानून व्यवस्था की बिगडती स्थित का प्रश्न उठाया जाता है तो वह सामान्यतया यह कहकर दायित्वमुक्त होना चाहती है कि कानून व्यवस्था राज्य सरकार का विषय है| इससे स्वयं  केंद्र सरकार के अधीन कार्यरत केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो की संवैधानिकता एवं वैधता पर प्रश्न चिन्ह लगता है| राज्य सरकार के अनुरोध पर केंद्र सरकार केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो से जांच का निर्देश दे सकती है | किन्तु राजनैतिक शिकार के लिए केन्द्र सरकार केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो का भरपूर उपयोग करती है और राज्य सरकारों के इस अधिकार क्षेत्र में  अतिक्रमण करती रहती है| अभी हाल ही में योगी बालकृष्ण द्वारा फर्जी दस्तावेजों के आधार पर पासपोर्ट लेने के मामले में केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो द्वारा जांच ऐसा ही एक उदहारण है| निश्चित रूप से इस मामले में कोई  बड़ा  राष्ट्रीय हित संलिप्त नहीं है जिसके लिए ऐसी विशेषज्ञ एजेंसी की सेवाएँ लेकर सार्वजनिक धन, समय और सीमित संसाधनों एवं ऊर्जा का अपव्यय किया जाये| इसे राज्य पुलिस भी देख सकती है| दूसरी ओर करोड़ों रुपये के जनता द्वारा सूचित किये गए विभिन्न घोटालों को केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो या तो स्वयं राज्य पुलिस को भेज देता है अथवा विभागीय जांच हेतु स्वयं चोर को ही कोतवाली सौंपकर अपने दायित्व की इतिश्री कर लेता है| केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो केंद्र में सतासीन राजनेतिक पार्टी के हाथों की कठपुतली और जनता के लिए एक अनियंत्रित घोड़े के समान है| लोकत्तंत्र में सभी निकाय जनता के लिए बनाये जाते हैं किन्तु केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो किसी संवैधानिक न्यायलय या केंद्र सरकार के आदेश पर ही मामला दर्ज करता है| केंद्र सरकार अपने राजनेतिक समीकरणों के आधार पर ही जांच का आदेश देते है|

जहाँ राज्य पुलिस द्वारा दर्ज मामलों में दोषसिद्धियाँ मात्र १.५% आती हैं वहीँ केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो का यह प्रतिशत ७० के लगभग है| विचारणीय प्रश्न यह है कि जब इन्हीं कानूनों के अंतर्गत केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो द्वारा ७०% दोष सिद्धियाँ करवाई जा सकती हैं तो फिर राज्य पुलिस इतने कम परिणामों में ही संतोष क्यों कर लेती है| एक अन्य दुखद पहलू यह भी है कि केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो द्वारा दर्ज कुल ८१५ मामलों में से मात्र १८६ ही सरकारी आदेशों से दर्ज हुए हैं शेष ६२९ (७७%) संवैधानिक न्यायलयों के आदेशों पर ही दर्ज हुए हैं | निष्कर्ष यह है कि केंदीय अन्वेषण ब्यूरो एक जन निकाय की तरह कार्य नहीं कर रहा है बल्कि उसे गतिमान करने के लिए तथाकथित सक्षम न्यायालय या सरकार का आदेश चाहिए जोकि आम नागरिक सामान्यतया  प्राप्त  नहीं कर पाता है| हमारे देश में शक्तिसंपन्न लोगों  द्वारा कानून का मनमाना और अपने लिए अनुकूल  अर्थ  लगाया जाता है| दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा २ (ज) में कहा गया है कि अन्वेषण के अंतर्गत वे सब कार्यवाहियां हैं जो इस संहिता के अधीन पुलिस अधिकारी द्वारा या (मजिस्ट्रेट से भिन्न) किसी भी ऐसे व्यक्ति द्वारा जो मजिस्ट्रेट द्वारा इस निमित अधिकृत किया गया है, साक्ष्य एकत्र करने के लिए की जाए| अर्थात मजिस्ट्रेट किसी भी व्यक्ति को अन्वेषण के लिए आदिष्ट कर  सकता है तो फिर केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो इसका अपवाद कैसे हो सकता है| इस धारा के अनुसार हमारी विधायिका का यह अभिप्राय रहा  है कि मजिस्ट्रेट द्वारा भी विशेषज्ञ एजेंसी (केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो) को उपयुक्त मामले में अन्वेषण के लिए आदेश दिया जा सकता है| किन्तु व्यवहार में स्थिति भिन्न है और हमारे संवैधानिक न्यायलय इसे मात्र अपने लिए सुरक्षित एकाधिकार समझते हैं| रुपये ३००० प्रतिमाह कमाने वाले आम नागरिक के लिए उच्च न्यायलय या उच्चतम न्यायालय पहुँचना संभव नहीं है क्योंकि उसके लिए भारी धन की आवश्यकता है और व्यक्तिशः उपस्थित होने वाले याचिगणों को न्यायालयों द्वारा कोई महत्त्व नहीं दिया जाता है और उन्हें अप्रसन्नता की दृष्टि से देखा जाता है| आम नागरिक यदि न्यायालय के सामने किसी कानून की व्याख्या प्रस्तुत करे तो उसे सहर्ष ग्रहण करने स्थान पर न्यायाधीश उसे अपनी विद्वता को चुनौती समझाते हैं| उच्चतम न्यायालय की वेबसाइट पर उपलब्ध सूचना के विश्लेषण से ज्ञात होता है कि (अपराधियों को छोड़कर) व्यक्तिशः प्रस्तुत होने वाली याचिकाओं को लगभग प्राथमिक स्तर पर ही ख़ारिज कर औपचारिक निपटान कर दिया जाता है| न्यायधीशों के ऐसे कृत्यों का विरोध करने वाले अधर्मियों को भयभीत किया जाता है और उन पर खर्चे लगाने का भय दिखाकर याचिका ही वापस करवा दी जाती है| उच्चतम न्यायालय में वैसे भी प्रभावी लोगों और घोटालों से सम्बंधित मामलों का बाहुल्य है जिसके चलते आम नागरिक या जनहित के मामलों की सुनवाई के लिए जल्दी बारी ही नहीं आती है| स्पष्ट है कि केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो एक सार्वजानिक एजेंसी कम है और  राजनैतिक हथियार के तौर पर अच्छा कार्य कर रही है |


संक्षेप में यह कटु सत्य है कि द्रौपदी रूपी लोकतंत्र का चीर हरण में लोकतंत्र का कोई भी स्तंभ पीछे नहीं है और सभी शक्ति संपन्न  निरीह जनता का रक्तपान करने को आतुर हैं| इस स्थिति से छुटकारा पाने के लिए आमूलचूल परिवर्तन आवश्यक हैं मात्र कुछ तुष्टिकारक सुधारों से कोई अभिप्राय सिद्ध नहीं होगा | वर्तमान में तो  सरकार द्वारा सृजित होने वाला प्रत्येक नया पद भी मात्र भ्रष्टाचार और जन यातना का एक नया केंद्र साबित हो रहा है |

Saturday, 20 August 2011

सूचना कानून की गुत्थियां

केन्द्रीय सूचना आयोग के अनुसार वर्ष २००७-८ से लेकर २०१०-११ तक केंद्रीय सूचना अधिकारियों को १८३२१८१ सूचनार्थ आवेदन किये गए जिनमें से १७३३६२० प्रकरणों में सूचनाएँ प्रदान की गयीं अर्थात ९८५६१ प्रकरणों में सूचनाएँ नहीं दी गयीं| दुर्भावनापूर्वक सूचना देने से मना करने, बिना उचित कारण के विलम्ब करने, आवेदन स्वीकार करने से मना करने या भ्रामक या असत्य सूचना देने पर  केन्द्रीय सूचना आयोग को अधिकतम रूपये २५०००/ अर्थदंड लगाने का अधिकार है| स्मरण रहे कि सम्पूर्ण सूचना का अधिकार अधिनियम में कहीं भी विवेकाधिकार शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है| यदि विधायिका आयोग को विवेकाधिकार देना चाहती तो वह ऐसा स्पष्टतया कर सकती थी किन्तु विधायिका का ऐसा कोई अभिप्राय नहीं रहा है| किन्तु फिर भी  आयोग द्वारा अर्थदंड नहीं लगाया जा रहा है| यद्यपि जो आंकडे आयोग ने सूचना प्रदान करने के दिए हैं वे तो सूचना अधिकारियों के अनुसार हैं, दी गयी सूचना कितनी संतोषजनक अथवा उद्देश्यपरक है यह तो आवेदक ही अच्छी तरह बता सकते हैं |

इसी अवधि में आवेदकों से रुपये २२१५६३६३ की राशि वसूली गयी जबकि दोषी सूचना अधिकारियों से मात्र रुपये ४४२३२२१ अर्थदंड के रूप में वसूली गयी है| यदि यह माना जाय कि औसतन प्रति सूचना अधिकारी अधिकतम राशि वसूली गयी है तो यह प्रकट होता है कि सूचना हेतु मना करने वाले ९८५६१ में से मात्र १७७ अधिकारियों को ही दण्डित किया गया है और शेष दोषी अधिकारियों को आयोग द्वारा अभयदान दे दिया गया है| यह स्थिति आयोग की प्रासंगिकता, निष्पक्षता और उपादेयता पर प्रश्नचिन्ह लगाती है| इसके अतिरिक्त आयोग में ऐसे भी प्रकरण हैं जिनमें अर्थदंड आदेश पारित कर दिए गए हैं किन्तु उनकी न तो पत्रावलियां आयोग में  उपलब्ध हैं और न ही उनमें वसूली की कोई  कार्यवाही प्रस्तावित है| आयोग के उक्त चरित्र से परिलक्षित होता है कि वह  सूचना कानून की धार को भोंथरा बनाने में पूर्ण ऊर्जा से संलग्न है| आयोग में बढ़ते प्रकरणों के मूल में यही कारण है |

Friday, 19 August 2011

अवमान में व्यक्तिगत शिकायत भी हो सकती है

सुप्रीम कोर्ट ने पी.एन.दूबे बनाम पी. शिवशंकर (एआईआर 1988 एस सी 1208) में स्पष्ट किया है कि न्यायालय द्वारा स्पष्ट रूप से स्वप्रेरणा से (अवमान का) प्रसंज्ञान लिया जा सकता है किन्तु आम जनता को भी न्यायालय जाने का अधिकार है। न्यायालय के ध्यान में लाने का अधिकार अटॉर्नी जनरल या सॉलिसिटर जनरल की सहमति पर निर्भर है और यदि ऐसी सहमति बिना कारण के धारा 15 के अन्तर्गत अधिकार के रोक ली जाती तो वह व्यक्ति के न्यायालय में आवेदन पर अनुसंधान की जा सकती है।

Thursday, 18 August 2011

झूठा आरोप

डॉ0 एस दत बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1996 एआईआर 523) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि शब्द भ्रष्टतापूर्वक बेइमानी या छलपूर्वक का समानार्थी न होकर विस्तृत है। उनके अनुसार यदि आचरण छलपूर्वक या बेईमानी पूर्वक न हो और यदि यह अन्यथा दोषारोपण योग्य हो या अनुचित हो तो भी शामिल है। यह देखा गया है कि डॉ0 दत का कार्य दण्ड संहिता की धारा 192 तथा 196 द्वारा आच्छादित है। यदि डॉक्टर ने न्यायालय में झूठी गवाही दी या उसने झूठी गवाही बनायी तो यह स्पष्ट रूप से धारा 193 का अपराध है। यदि उसने झूठी गवाही काम में ली तो धारा 196 का अपराध किया गया। इन अपराधों के विषय में संज्ञान लिया  जाने से पूर्व ( धारा १९५ दण्ड प्र स के अनुसार ) सत्र न्यायाधीश  द्वारा लिखित शिकायत होना आवश्यक है।
बम्बई उच्च न्यायालय ने पेपा बालाराव देसाई (एआईआर 1926 बम्बई 284) में स्पष्ट किया है कि हमारे निर्णयन में प्रार्थी का कथन जहां तक कि वह धारा 211( मिथ्या दोषरोपण) से सम्बन्ध रखता है ठीक है और इस पर जिला मजिस्ट्रेट द्वारा झूठा आरोप लगाने की शिकायत दर्ज करवाना जब तक वह कानून के अनुसार शिकायत की जांच नही कर ले जिसकी प्रार्थी ने शिकायत की है, खुला नहीं है।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने रघुनाथसिंह बनाम राज्य (एआईआर 1950 इला0 471) मे स्पष्ट किया है कि आरोपित व्यक्ति इस बात के लिए स्वतन्त्र नहीं है कि उसने कथित अपराध दूसरे व्यक्ति के उकसाने पर किया।

Wednesday, 17 August 2011

पुलिसवाले अपने आप में कानून नहीं हैं

दिल्ली उच्च न्यायालय ने एफ.डी. लारकिन्स बनाम राज्य (1984 (2) क्राईम्स 734) में कहा है कि सारांश  रूप में परिवादी या उसके साक्षियों की धारा 200 या 202 के अन्तर्गत परीक्षा किये बिना सत्र न्यायाधीश को मामला कमिट करने में कोई तात्विक अनियमितता या कानूनी कमजोरी से ग्रसित नहीं है। दूसरे शब्दों में वर्तमान प्रकरण में कमिटमेन्ट पूर्णतया वैध तथा उचित है और इस न्यायालय के हस्तक्षेप की कोई आवश्यकता नहीं है। फिर भी जैसा कि पूर्व में पाया गया परिवाद को व्यक्तिशः प्रस्तुत नहीं करना कोई क्षेत्राधिकार की ऐसी चूक नहीं है जिसे प्रारम्भ में ही मूल पर काट दिया जावे या ऐसी कोई सारभूत चूक नहीं है जिससे न्याय हेतु विफल होता हो।

मद्रास उच्च न्यायालय ने भी ए.नलासिवन बनाम तमिलनाडू राज्य (1995 क्रि.ला.ज. 2754 मद्रास) में कहा है कि यदि एक पुलिस अधिकारी दं.प्र.संहिता की धारा 160 (1) ( साक्ष्यों को स्वयं के थाना क्षेत्र या उसके चिपते क्षेत्र  से महिला एवं १५ वर्ष से छोटे बच्चों को छोड़कर बुलाना) के विपरीत कार्य करता है तो उसे तुरन्त दण्डित किया जाना चाहिए क्योंकि पुलिस वाले अपने आप में कानून नहीं हो सकते जो दूसरों से कानून पालन की अपेक्षा रखें।

Tuesday, 16 August 2011

उच्च न्यायालय को परिवाद के आरोपों की सत्यता परीक्षण का अधिकार नहीं है

राजस्थान उच्च न्यायालय ने उमाकान्त बनाम राजस्थान राज्य (1992 क्रि.ला.रि. राज. 492) में स्पष्ट किया है कि कोई भी व्यक्ति अपने स्वयं के प्रकरण में न्यायाधीश नहीं हो सकता। यह एक पवित्र कहावत है और एक विवादित विषय वस्तु में एक हितबद्ध को न्यायाधीश होने से रोकता है। एक न्यायिक कार्यवाही में न्याय मात्र होना ही नहीं चाहिए अपितु दिखाई भी देना चाहिए और विवाद्यक के मानस में पक्षपात की कोई तर्कसंगत आशंका नहीं रहनी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने सतविन्दर कौर बनाम राज्य (1999 (8) एससीसी 728) में कहा है कि उच्च न्यायालय को परिवाद में लगाये गये आरोपों या संलग्न दस्तावेजों के आधारों पर कार्यवाही करनी होती है। उसे आरोपों की सत्यता या अन्यथा परीक्षण का कोई क्षेत्राधिकार नहीं है। रिकॉर्ड पर उपलब्ध विषय वस्तु का मूल्यांकन करे कि क्या परिवादी द्वारा लगाये आरोपों से कोई अपराध बनता है यदि उन्हें हूबहू स्वीकार कर लिया जाये। इसलिए न्यायालयों को अभिव्यक्त कानूनी प्रावधानों से अलग अन्तनिर्हित शक्तियां उचित जो कि कार्यों और कर्त्तव्यों, विधि द्वारा अधिरोपित के उचित निर्वहन के लिए आवश्यक है।

Monday, 15 August 2011

आपराधिक कार्यवाही पर नियंत्रण का मजिस्ट्रेट को अधिकार

राजस्थान उच्च न्यायालय ने रैनबैक्सी लेबोरेट्री बनाम इन्द्रकला (1997 (88)) कंपनी केसेज 348 (राज.) में कहा है कि एक बार याची कम्पनी और उस पर लागू कानून ने इसके लाभ के लिए पूरे देश में इसके शेयरों की खरीद बिक्री के सौदों की अनुमति दे दी तो ऐसा व्यवसाय इस तर्क से विफल करने नहीं दिया जा सकता कि लोगों को जहां कम्पनी का कार्यालय स्थित है मात्र वहां राहत दी जा सकती है। इस प्रकार की विचारधारा अधिनियम के तथा अन्य सम्बन्ध अधिनियमों के सुसंगत प्रावधानों को विफल करना होगा। यह आपति कि मजिस्ट्रेट को क्षेत्राधिकार नहीं है टिकने योग्य नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट ने धारीवाल टोबेको प्रोडक्टस लि0 बनाम महाराष्ट्र  राज्य के निर्णय दिनांक 17.12.08 में कहा है कि जब परिवाद में कोई अपराध प्रकट नहीं होता तो एक परिवाद को निरस्त करने के लिए कहा जाय तब न्यायालय तथ्य के प्रश्न की जांच कर सकता है।
राजस्थान उच्च न्यायालय ने स्वातीराम बनाम राजस्थान राज्य (1997(2) क्राईम्स 148 राज.) में कहा है कि धारा 157 अनुसंधान अधिकारी पर यह कर्त्तव्य अधिरोपित करती है कि सम्बद्ध मजिस्ट्रेट के पास संज्ञेय अपराध की रिपोर्ट तुरन्त भेजे। रिपोर्ट को मजिस्ट्रेट के पास भेजने का उद्देश्य उसे संज्ञेय अपराध के अनुसंधान से सूचित रखना है ताकि यदि आवश्यकता हो तो वह अनुसंधान को नियंत्रित कर सके व उचित दिशा निर्देश दे सके। मात्र एफआईआर के प्रेषण  के विलम्ब से अभियोजन की पूरी तरह फेंकने का कोई आधार नहीं है। मजिस्ट्रेट को रिपोर्ट भेजना दी गई परिस्थिति में संदेह  उत्पन्न करती है कि विचार विमर्श तथा सोच समझ के बाद एफआईआर दर्ज की गई तथा यह इसमें दर्ज समय के काफी समय बाद दर्ज हुई और यह प्रकट करती है कि अनुसंधान उचित एवं सही नहीं है।

JAI HIND
                                          



Sunday, 14 August 2011

अन्वीक्षण के लिए विश्वसनीय सामग्री होना आवश्यक है

मधुबाला बनाम सुरेश कुमार (1997 क्रि.ला.ज.3757) में स्पष्ट कहा गया है कि आन्ध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने मुथुराजू  सत्यनारायण बनाम आन्ध्रप्रदेश सरकार (1997 क्रि.ला.ज. 374 आंध्र) में कहा है कि यदि एक पुलिस थाने का प्रभारी का विचार है तथा इस आशय की अंतिम रिपोर्ट प्रस्तुत करता है कि अभियुक्त को अन्वीक्षण पर भेजने का कोई मामला नहीं बनता है तो कोई प्राधिकारी उसे विचार बदलने और आरोप पत्र दाखिल करने के लिए निर्देश नहीं दे सकता । फिर भी मजिस्ट्रेट पर पुलिस रिपोर्ट को स्वीकारने का कोई दायित्व नहीं है, यदि वह पुलिस के विचार से असहमत है ।
सुप्रीम कोर्ट ने एस.एस. छीना बनाम विजय कुमार महाजन (मनु/सुको/0585/2010) में कहा है कि दुष्प्रेरण में एक व्यक्ति की ऐसी मानसिक प्रक्रिया समाहित है जिसमें एक व्यक्ति को कुछ करने के लिए उकसाया जाता है या मदद की जाती है। एक व्यक्ति द्वारा अभियुक्त की ओर से उकसाने या आत्महत्या करने में सकारात्मक कार्य के बिना दोषसिद्धि टिक नहीं सकती। प्रस्तुत मामले में अपीलार्थी के विरूद्ध कोई भी विश्वसनीय सामग्री या साक्ष्य के अभाव में दोष सिद्धि टिक नहीं सकती। धारा 306 के अन्तर्गत अपराध करने का स्पष्ट आशय होना चाहिए। अपीलार्थी के विरूद्ध धारा 306 भा.द.सं. के आरोप विरचित करने का आदेश गलत एवं अटिकाऊ है। अतः अपीलार्थी के विरूद्ध किसी विश्वसनीय सामग्री के अभाव में आपराधिक अन्वीक्षा का सामना करना उचित एवं न्यायपूर्ण नहीं होगा। परिणामतः धारा 306 के तहत आरोप विरचित करने का आदेश तथा समस्त कार्यवाहियां निरस्त व अपास्त किये जाते है।

Saturday, 13 August 2011

सिविल उपचार आपरधिक कार्यवाही में अवरोध नहीं है

सुप्रीम कोर्ट ने चर्चित प्रकरण हरियाणा राज्य बनाम भजनलाल (1992 सपली (1) एससीसी 335) में कहा है कि यदि पुलिस अनुसंधान न करे तो मजिस्ट्रेट हस्तक्षेप कर सकता है। अभिव्यक्ति-2 का अभिप्राय प्रत्येक मामले के तथ्यों व परिस्थितियों से अधिशासित हो और उस चरण पर एफआईआर में लगाये गये आरोपों के समर्थन में पर्याप्त प्रमाण का प्रश्न  नहीं उठता।
राजस्थान उच्च न्यायालय ने नेमाचन्द मिश्रीलाल बनाम राजस्थान राज्य (1996 क्रि.ला.रि.(राज.) 330) में कहा है कि विलम्ब मुख्यतः याची की अपेक्षा पर कारित हुई है और विलम्ब के लिए बैंक या अभियोजन दोषी नहीं है। इसलिए यह उपयुक्त मामला नहीं है जिसमें कि अन्तनिर्हित शक्तियों का प्रयोग करते हुए कार्यवाही को निरस्त किया जावे। विद्वान मजिस्ट्रेट द्वारा याचीगण के विरूद्ध भा.द.सं. की धारा 420 तथा 120 बी के अपराध का प्रसंज्ञान पहले ही ले लिया गया है। प्रतिभा रानी बनाम सूरज कुमार (1985) 2 एसीसी सी 370 में यह पहले की धारित किया जा चुका है कि सिविल उपचार का विकल्प आपराधिक क्षेत्राधिकार के लिए कोई अवरोध नहीं है।

Friday, 12 August 2011

अन्तर्निहित शक्तियाँ आपवादिक तौर पर ही प्रयोज्य

सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र स्टेट इलेक्ट्रिसिटी डिस्ट्रीब्यूसन बनाम दातार स्वीच गियर (मनु/सुको/0815/2010) में कहा है कि उच्च न्यायालय को अन्तर्निहित शक्तियों का प्रयोग यदाकदा तथा न्यायालय की प्रक्रिया के दुरूपयोग को रोकने के लिए ही और इस बात का ध्यान रखते हुए कि न्याय के लक्ष्य सुरक्षित रहे । जहां कहीं भी कानूनी मान्यता के सिद्धान्त से प्रतिनिधिक तौर पर दायित्व बनता है और एक व्यक्ति जो कि अन्यथा अपराध कारित करने में दायी नहीं है ऐसा सम्बन्धित कानून में विशिष्टतया प्रावधान होना चाहिए। भा.द.सं. की धारा 192 या 199 में ऐसा कोई प्रतिनिधिक सिद्धान्त नहीं है अतः परिवादी को अपने परिवाद में प्रत्येक अभियुक्त के विषय में ऐसा विशिष्टिक कथन करना चाहिए था। अभियुक्त सं. 1 के विरूद्ध प्रथम दृष्टया मामला बनता है अतः उसके पक्ष में धारा 482 की शक्तियां प्रयोग नहीं की जा सकती।   
( व्यावहारिक स्थिति यह है कि प्रत्येक सक्षम अभियुक्त इन शक्तियों के प्रयोग हेतु उच्च न्यायलय अवश्य जाता है |  फिर भी दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा ४८३ में प्रकरणों के शीघ्र निपटान के लिए यह प्रावधान भी है कि प्रत्येक उच्च न्यायालय अपने अधीनस्थ न्यायिक मजिस्ट्रेटों के न्यायालयों पर अपने अधीक्षण का प्रयोग इस प्रकार करेगा जिससे यह सुनिश्चित हो जाये कि ऐसे मजिस्ट्रेटों द्वारा मामलों का निपटारा शीघ्र और उचित रूप से किया जाता है| किन्तु व्यावहारिक स्थिति लगभग ठीक विपरीत है| मामलों में धारा ४८२ के अंतर्गत निषेधाज्ञा जारी कर उन्हें वर्षों तक लटकने के लिए छोड़ दिया जाता है जब तक महत्वपूर्ण साक्ष्य नष्ट हो जायं और इतिहास के पन्नों से पुष्टि होती है कि धारा ४८३ की शक्तियाँ प्रयोग करने के उदाहरण दुर्लभ हैं| इस प्रकार दिखावटी न्याय द्वारा आपवादिक शक्तियों प्रयोग रोजमर्रा तौर पर और शीघ्र न्याय के पक्ष में शक्तियों का प्रयोग दुर्लभ ही किया जाता है| न्यायजगत से जुड़े लोगों का यह कथन निराधार लगत है कि समुचित कानून के अभाव में अपराधियों को दण्ड नहीं दिया जा सकता है| यक्ष प्रश्न यह है कि जो अछे प्रावधान कानूनों में पहले से ही हैं उनका कितना सदुपयोग किया जा रहा है| शायद इसका सम्यक जवाब नहीं है )
दिल्ली उच्च न्यायालय ने अजय जैन बनाम कम्पनी रजिस्ट्रार (मनु/दिल्ली/2450/2010) में कहा है कि याची कम्पनी ने भावी निवेशकों के लिए प्रविवरण जारी करते समय यह पूर्वानुमान दिया कि वह मात्र पट्टे का कार्य करेगी और असत्य व भ्रामक कथन निवेशकों को जारी किया। मिथ्या कथन का आशय निवेशकों को धोखा देना या गुमराह करना था। यह स्पष्ट है कि कथन जानबूझकर पूर्णतया जानते हुए कि धन जिस उद्देश्य के लिए संग्रहित किया जा रहा है नहीं लगाया जावेगा जारी किया गया। याची का तर्क कि मामला धारा 406 का बनता है चलने योग्य नहीं है। यह जानबूझकर गलत विवरण देने का मामला है और मियाद की अवधि तुलन पत्र फाईल करने की तिथि से गणना की जावेगी न कि प्रविवरण जारी करने से।

Thursday, 11 August 2011

मजिस्ट्रेट प्रसंज्ञान लेने से मना करने के लिए स्वतंत्र नहीं है

राजस्थान उच्च न्यायालय ने राजू उर्फ राजस्थान सिंह बनाम राजस्थान राज्य (1979 क्रि.ला.रि. (राज) 300) में स्पष्ट किया है कि मेरा यह विचार है कि मजिस्ट्रेट अपने सम्मुख प्रस्तुत पुलिस रिकॉर्ड से अपराध का ज्ञान प्राप्त कर सकता है। यदि पुलिस अधिकारी द्वारा प्रदत सूचना इस प्रभाव में है कि कोई अपराध घटित नहीं हुआ है तथा यह सूचना मजिस्ट्रेट को प्राप्त होने पर वह जान पाता है कि अपराध हुआ है तो उसे प्रसंज्ञान लेने का क्षेत्राधिकार है।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने चितो अधिकारी बनाम विद्याभूषण (एआईआर 1952 इला 455) में कहा है कि द0प्र0सं0 की धारा 190 मजिस्ट्रेटों  के क्षेत्राधिकार का वर्णन करते हुए परिवाद पर प्रसंज्ञान लेने के विषय में कहती है। यह कहती है कि मजिस्ट्रेट प्रसंज्ञान ले सकता है। यद्यपि धारा के शब्दों में अनुमति लगती है किन्तु विधायिका का आशय अपराध के प्रसंज्ञान के विषय में मजिस्ट्रेट को विवेकाधिकार देना है । यदि एक परिवाद से संज्ञेय अपराध प्रकट होता है जिस पर मजिस्ट्रेट को क्षेत्राधिकार है जो कि धारा 195 जैसे प्रावधान से बाधित नहीं है वह प्रसंज्ञान लेने के लिए बाध्य प्रतीत होता है। धारा में ऐसा कुछ भी नहीं है जो यह परामर्श देता हो कि वह प्रसंज्ञान लेने से मना कर सकता है ।संभव है उसके पास पूर्ण आंकड़े न हो जिससे कि वह प्रसंज्ञान  लेने या न लेने का निर्णय कर सके किन्तु यदि उसके पास कुछ आंकड़े हो तो वह प्रसंज्ञान से मना करने के लिए स्वतन्त्र नहीं है।