Thursday, 11 August 2011

मजिस्ट्रेट प्रसंज्ञान लेने से मना करने के लिए स्वतंत्र नहीं है

राजस्थान उच्च न्यायालय ने राजू उर्फ राजस्थान सिंह बनाम राजस्थान राज्य (1979 क्रि.ला.रि. (राज) 300) में स्पष्ट किया है कि मेरा यह विचार है कि मजिस्ट्रेट अपने सम्मुख प्रस्तुत पुलिस रिकॉर्ड से अपराध का ज्ञान प्राप्त कर सकता है। यदि पुलिस अधिकारी द्वारा प्रदत सूचना इस प्रभाव में है कि कोई अपराध घटित नहीं हुआ है तथा यह सूचना मजिस्ट्रेट को प्राप्त होने पर वह जान पाता है कि अपराध हुआ है तो उसे प्रसंज्ञान लेने का क्षेत्राधिकार है।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने चितो अधिकारी बनाम विद्याभूषण (एआईआर 1952 इला 455) में कहा है कि द0प्र0सं0 की धारा 190 मजिस्ट्रेटों  के क्षेत्राधिकार का वर्णन करते हुए परिवाद पर प्रसंज्ञान लेने के विषय में कहती है। यह कहती है कि मजिस्ट्रेट प्रसंज्ञान ले सकता है। यद्यपि धारा के शब्दों में अनुमति लगती है किन्तु विधायिका का आशय अपराध के प्रसंज्ञान के विषय में मजिस्ट्रेट को विवेकाधिकार देना है । यदि एक परिवाद से संज्ञेय अपराध प्रकट होता है जिस पर मजिस्ट्रेट को क्षेत्राधिकार है जो कि धारा 195 जैसे प्रावधान से बाधित नहीं है वह प्रसंज्ञान लेने के लिए बाध्य प्रतीत होता है। धारा में ऐसा कुछ भी नहीं है जो यह परामर्श देता हो कि वह प्रसंज्ञान लेने से मना कर सकता है ।संभव है उसके पास पूर्ण आंकड़े न हो जिससे कि वह प्रसंज्ञान  लेने या न लेने का निर्णय कर सके किन्तु यदि उसके पास कुछ आंकड़े हो तो वह प्रसंज्ञान से मना करने के लिए स्वतन्त्र नहीं है।

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