Tuesday 9 August 2011

अनुसन्धान प्रकरण दर्ज के बाद प्रारम्भ होता है

सुप्रीम कोर्ट ने मध्य प्रदेश राज्य बनाम अहमदुल्ला (1961 एआईआर 998) में धारित किया है कि वह क्षण जब अपराध किया गया था अपराधी यह समझने में समर्थ था कि वह गलत या कानून के विपरीत कर रहा है और इस कारण वह भा..सं. की धारा 84 के अन्तर्गत दोषमुक्त होने का पात्र नहीं है। इस प्रमुख प्रकरण में अभियुक्त ने मिर्गी के दौरे के प्रभाव में होने के कारण विमुक्ति मांगी थी तथा निचले न्यायालयों ने उसे दोषमुक्त कर दिया था किन्तु सुप्रीम कोर्ट ने इस आपवादिक मामले में दोषी ठहराया।
न्यायालय ने अपने दिलावर सिंह बनाम दिल्ली के निर्णय दिनांक 05.09.07 में कहा है कि विलम्ब से ,न्यायालय के समक्ष हूबहू मामला यथाशीघ्र प्रस्तुत करने के अवसर विफल हो जाता है। इस प्रकार का अनुसंधान इस आशय के लिए पुलिस थाने में निर्धारित पुस्तक में प्रविष्टि के बाद प्रारम्भ होता है जब संज्ञेय अपराध से सम्बन्धित सूचना का सार इसमें दर्ज हो जाता है| ऐसा कोई कारण नहीं है कि जब संज्ञेय अपराधों के विषय में अनुसंधान करना प्राथमिकतः पुलिस का कार्य है तो मजिस्ट्रेट का समय क्यों बर्बाद किया जावे।

सुप्रीम कोर्ट ने गोपालदास सिंघी बनाम असम राज्य (1961 एआईआर एस सी 986) में स्पष्ट  किया है कि यदि परिवाद में संज्ञेय अपराध प्रकट होता हो तो भी वह उसका संज्ञान लेने के लिए बाध्य नहीं है वह इसे अनुसंधानार्थ पुलिस को भेज सकता है। एक परिवाद में यदि संज्ञेय अपराध प्रकट होता है तो मजिस्ट्रेट धारा 156 (3) के तहत पुलिस को भेज सकता है।

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