Monday 1 August 2011

आपराधिक कार्यवाही

सुप्रीम कोर्ट ने मध्यप्रदेश  राज्य बनाम अवध किशोर गुप्ता के निर्णय दिनांक 18.11.03 में कहा है कि यदि उस चरण पर भी आरोप बनाये जाते है तो न्यायालय को अभियुक्त के विरूद्ध कार्यवाही के लिए पर्याप्त आधारों के अस्तित्व के विषय में प्रथम दृष्टया संतुष्ट होना है। केवल उस सीमित उद्देश्य के लिए न्यायालय सामग्री तथा प्रलेखों का मूल्यांकन कर सकता है लेकिन साक्ष्य का मूल्यांकन नहीं। उच्च  न्यायालय को धारा 482 (अन्तर्निहित) के साथ संलग्न अनुलग्नकों पर कार्य नहीं करना चाहिए जो कि जांची तथा साबित, साक्ष्य नहीं कही जा सकती।
जब सूचना पुलिस थाने में दे दी जाती है और अपराध दर्ज हो जाता है तब सूचितकर्ता की दुर्भावना गौण महत्व की हो जाती है ।यह अनुसंधान में संग्रहित विषय वस्तु तथा न्यायालय में दिया गया साक्ष्य है जो कि अभियुक्त की नियति निर्धारित करता है।
सुप्रीम कोर्ट ने पंजाब बनाम राजसिंह (1998 एआईआर एसी 768) में कहा है कि द0प्र0सं0 की धारा 195 के पठन से ये स्पष्ट है कि जब न्यायालय धारा 190 (1) के अन्तर्गत प्रसंज्ञान लेने का आशय रखता हो तभी लागू होती है और पुलिस द्वारा संज्ञेय अपराध के अनुसंधान के कानूनी अधिकार से इसका कोई लेना-देना नहीं है। यहां तक कि यदि अपराध न्यायालय में कार्यवाही में या उसके सम्बन्ध में किया गया हो। दूसरे शब्दों में पुलिस के संहिता के अन्तर्गत अनुसंधान के कानूनी अधिकार संहिता की धारा 195 द्वारा न तो किसी प्रकार नियंत्रित है और न किसी प्रकार बाधित है। वास्तव में सही यह है कि यदि ऐसे अपराध में न्यायालय में आरोप पत्र दाखिल किया जाता है तो धारा 195 (1) बी द्वारा लगाये गये प्रतिबन्ध के कारण प्रसंज्ञान लेने में न्यायालय सक्षम नहीं होगा। किन्तु इसकी कोई भी बात एफआईआर के आधार पर न्यायालय को शिकायत दर्ज करवाने से नहीं रोकती है और न्यायालय अनुसंधान के दौरान संग्रहित विषय वस्तु तथा संहिता की धारा 340 में विहित प्रक्रिया का अनुसरण करे।

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